https://en.bharatdiscovery.org/w/api.php?action=feedcontributions&user=%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80&feedformat=atomBharatkosh - User contributions [en]2024-03-29T07:22:09ZUser contributionsMediaWiki 1.35.6https://en.bharatdiscovery.org/w/index.php?title=User:%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80/%E0%A4%85%E0%A4%AD%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B81&diff=211860User:हिमानी/अभ्यास12011-08-29T17:30:09Z<p>हिमानी: </p>
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<hr />
<div>{{पुनरीक्षण}}<br />
चकबन्दी वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा स्वामित्त्वधारी कृषकों को उनके इधर-उधर बिखरे हुए खेतों के बदले में उसी किस्म के कुल उतने ही आकार के एक या दो खेत लेने के लिए राजी किया जाता है।<br />
<br />
इस प्रकार चकबन्दी एक परिवार के बिखरे हुए खेतों को एक स्थान पर करने की प्रक्रिया है। लेकिन चकबन्दी करने में उसी प्रकार की भूमि मिले, जिस प्रकार की कृषक की भूमि भिन्न-भिन्न स्थानों पर है, ऐसा होना सम्भव नहीं है। उसको पहले से अच्छी या घटिया भूमि मिल सकती है। ऐसी स्थिति में भूमि का मूल्य लगाया जाता है। यदि उसको पहले से अच्छी भूमि मिलती है तो उसकी मात्रा कम होती है। इसके विपरीत, यदि भूमि पहले से घटिया मिलती है तो उसकी मात्रा अधिक होती है, लेकिन जब भूमि की कुल मात्रा को बढ़ाया नहीं जा सकता है तो फिर इसकी क्षतिपूर्ति रुपयों में आंकी जाती है, जिसको लेकर या देकर हिसाब बराबर किया जाता है। <br />
==प्रकार==<br />
चकबन्दी दो प्रकार की होती है-<br />
#ऐच्छिक चकबन्दी<br />
#अनिवार्य चकबन्दी।<br />
====ऐच्छिक चकबन्दी====<br />
ऐच्छिक चकबन्दी से अर्थ उस चकबन्दी से है, जिसमें चकबन्दी कराना कृषक की इच्छा पर निर्भर करता है। उस पर चकबन्दी कराने के लिए दबाव नहीं डाला जाता है। अत: इस प्रकार की चकबन्दी से अच्छे परिणाम निकलते हैं और बाद में विवाद भी खड़ा नहीं होता है। इस प्रकार की चकबन्दी की शुरुआत [[भारत]] में सबसे पहले [[पंजाब]] राज्य में 1921 में हुई थी, जहाँ पर सहकारी समितियों द्वारा यह कार्य किया गया था। पंजाब के समान ही अन्य राज्यों में भी इसी प्रकार के नियम बनाए गए, जिनमें यह व्यवस्था थी कि यदि गाँव के 90 प्रतिशत किसान चकबन्दी के लिए सहमत हों तो उस गाँव में ऐच्छिक चकबन्दी की अनुमति दी जा सकती है। ऐसी स्थिति में शेष 10 प्रतिशत को यह व्यवस्था मानने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। अभी [[गुजरात]], [[मध्य प्रदेश]] व [[पश्चिम बंगाल]] में ऐच्छिक चकबन्दी क़ानून है।<br />
====अनिवार्य चकबन्दी====<br />
अनिवार्य चकबन्दी से अर्थ उस चकबन्दी से है, जिसके अन्तर्गत कृषक को चकबन्दी अनिवार्य रूप से करानी पड़ती है। ऐसी चकबन्दी क़ानूनी चकबन्दी भी कहलाती है। ऐच्छिक चकबन्दी वाले राज्य गुजरात, मध्य प्रदेश व पश्चिम बंगाल हैं, जिन्हें छोड़कर [[आन्ध्र प्रदेश]], [[अरुणाचल प्रदेश]], [[मिजोरम]], [[मणिपुर]], [[मेघालय]], [[नागालैण्ड]], [[त्रिपुरा]], [[तमिलनाडु]] और [[केरल]] में चकबन्दी सम्बन्धी कोई क़ानून नहीं है। शेष सभी राज्यों में अनिवार्य चकबन्दी क़ानून लागू है।<br />
==चकबन्दी की प्रगति==<br />
भारत में 9 राज्यों को छोड़कर शेष सभी राज्यों में चकबन्दी सम्बन्धी क़ानून हैं, जिनके अन्तर्गत चकबन्दी की जा रही है। पंजाब व [[हरियाणा]] में चकबन्दी का कार्य पूरा किया जा चुका है। [[उत्तर प्रदेश]] में भी 90 प्रतिशत कार्य पूरा हो चुका है। शेष राज्यों में अभी आवश्यक गति आना बाकी है। अब तक देशभर में 1,633,47 लाख एकड़ भूमि की चकबन्दी कर दी गई है।<br />
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}<br />
{{संदर्भ ग्रंथ}}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
<br />
==बाहरी कड़ियाँ==<br />
<br />
==संबंधित लेख==<br />
[[Category:कृषि]]<br />
[[Category:नया पन्ना अगस्त-2011]]<br />
<br />
__INDEX__<br />
__NOTOC__</div>हिमानीhttps://en.bharatdiscovery.org/w/index.php?title=%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A4%BF&diff=210738भारत की कृषि2011-08-26T13:03:25Z<p>हिमानी: </p>
<hr />
<div>{{पुनरीक्षण}}<br />
{{कृषि सूची1}}<br />
'''कृषि''' खेती और वानिकी के माध्यम से खाद्य और अन्य सामान के उत्पादन से सम्बंधित व्यवसाय है। [[कृषि]] [[भारत]] की अर्थव्यवस्था की रीढ़ मानी जाती है। विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा चलाए जा रहे विभिन्न कार्यक्रमों एवं प्रयासों से कृषि को राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में गरिमापूर्ण दर्जा मिला है। कृषि क्षेत्रों में लगभग 64% श्रमिकों को रोजगार मिला हुआ है। 1950-51 में कुल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा 59.2% था जो घटकर 1982-83 में 36.4% और 1990-91 में 34.9% तथा 2001-2002 में 25% रह गया। यह 2006-07 की अवधि के दौरान औसत आधार पर घटकर 18.5% रह गया। दसवीं योजना (2002-2007) के दौरान समग्र सकल घरेलू उत्पाद की औसत वार्षिक वृद्धि पद 7.6% थी जबकि इस दौरान कृषि तथा सम्बद्ध क्षेत्र की वार्षिक वृद्धि दर 2.3% रही। 2001-02 से प्रारंभ हुई नव सहस्त्राब्दी के प्रथम 6 वर्षों में 3.0% की वार्षिक सामान्य औसत वृद्धि दर 2003-04 में 10% और 2005-06 में 6% की रही। <br />
====<u>भारतीय कृषि की विशेषताएँ</u>====<br />
भारतीय कृषि की प्रमुख विशेषतायें इस प्रकार हैं-<br />
# भारतीय कृषि का अधिकांश भाग सिचाई के लिए मानसून पर निर्भर करता है। <br />
# भारतीय कृषि की महत्त्वपूर्ण विशेषता जोत इकाइयों की अधिकता एवं उनके आकार का कम होना है। <br />
# भारतीय कृषि में जोत के अन्तर्गत कुल क्षेत्रफल खण्डों में विभक्त है तथा सभी खण्ड दूरी पर स्थित हैं। <br />
# भूमि पर प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से जनसंख्या का अधिक भार है।<br />
# कृषि उत्पादन मुख्यतया प्रकृति पर निर्भर रहता है। <br />
# भारतीय कृषक ग़रीबी के कारण खेती में पूँजी निवेश कम करता है। <br />
# खाद्यान्न उत्पादन को प्राथमिकता दी जाती है। <br />
# कृषि जीविकोपार्जन की साधन मानी जाती हें <br />
# भारतीय कृषि में अधिकांश कृषि कार्य पशुओं पर निर्भर करता है।<br />
==भारत के राज्यों का भूगोल==<br />
{| class="bharattable-green" style="margin:5px; float:right; text-align:center" <br />
|+ भारतीय कृषि की एक झलक<br />
|-<br />
|<br />
[[चित्र:Indian-Agriculture.jpg|200px]]<br />
|-<br />
| धान की खेती<br />
|-<br />
|<br />
[[चित्र:Farmer-Cuts-The-Wheat-Crop.jpg|200px]]<br />
|-<br />
| गेहूँ की कटाई<br />
|-<br />
|<br />
[[चित्र:Rice-Harvest.jpg|200px]]<br />
|-<br />
| चावल की फ़सल<br />
|-<br />
|<br />
[[चित्र:Sugarcane.jpg|200px]]<br />
|-<br />
| गन्ने की फ़सल<br />
|-<br />
|<br />
[[चित्र:Tea-Worker.jpg|200px]]<br />
|-<br />
| चाय का बाग़ान<br />
|-<br />
|<br />
[[चित्र:Indian-Agriculture-2.jpg|200px]]<br />
|-<br />
| अनाज बरसाती महिला<br />
|}<br />
;अरुणाचल प्रदेश <br />
{{main|अरुणाचल प्रदेश की कृषि}}<br />
*[[अरुणाचल प्रदेश]] के नागरिकों के जीवनयापन का मुख्य आधार [[कृषि]] है। <br />
*[[अरुणाचल प्रदेश की अर्थव्यवस्था]] 'झूम' खेती पर ही मुख्यत: आधरित है। <br />
*आजकल नकदी फ़सलों, जैसे-[[आलू]] और बागबानी की फ़सलें, जैसे [[सेब]], [[संतरा|संतरे]] और अनन्नास आदि को प्रोत्साहन जा रहा है।<br />
;असम <br />
{{main|असम की कृषि}}<br />
*[[असम]] राज्य एक [[कृषि]] प्रधान राज्य है। <br />
*कृषि यहाँ की अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार है। <br />
*[[चावल]] इस राज्य की मुख्य खाद्य फ़सल है और [[जूट]], [[चाय]], [[कपास]], तिलहन, [[गन्ना]] और [[आलू]] आदि यहाँ की नकदी फ़सलें हैं। <br />
;आंध्र प्रदेश<br />
{{main|आंध्र प्रदेश की कृषि}}<br />
*[[आंध्र प्रदेश]] में नागरिकों का मुख्य व्यवसाय खेती है, इसके लगभग 62 प्रतिशत हिस्से में खेती होती है। <br />
*आंध्र प्रदेश की मुख्य फ़सल [[चावल]] है और यहाँ के लोगों का मुख्य आहार भी [[चावल]] ही है। <br />
*राज्य के कुल अनाज के उत्पादन का 77 प्रतिशत भाग चावल ही है। <br />
;उत्तर प्रदेश<br />
{{main|उत्तर प्रदेश की कृषि}}<br />
*[[उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था|उत्तर प्रदेश राज्य की अर्थव्यवस्था]] का मुख्य आधार [[कृषि]] है। <br />
*[[चावल]], [[गेहूँ]], ज्वार, बाजरा, जौ और [[गन्ना]] राज्य की मुख्य फ़सलें हैं। <br />
;उत्तराखण्ड <br />
{{main|उत्तराखण्ड की कृषि}}<br />
उत्तराखंड की लगभग 90 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर ही निर्भर है। राज्य में कुल खेती योग्य क्षेत्र 7,84,117 हेक्टेयर हैं। राज्य की कुल आबादी का 75 प्रतिशत हिस्सा ग्रामीण है, जो अपनी आजीविका के लिये परम्परागत रूप से कृषि पर निर्भर है।<br />
आज़ादी के बाद जब [[उत्तर प्रदेश]] जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार क़ानून में ग्राम पंचायतों को उनकी सीमा की बंजर, परती, चरागाह, नदी, पोखर, तालाब आदि श्रेणी की ज़मीनों के प्रबन्ध व वितरण का अधिकार दिया गया तो पहाड़ की ग्राम पंचायतों को इस अधिकार से वंचित करने के लिये सन 1960 में ‘कुमाऊँ उत्तराखण्ड जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार क़ानून ’ (कूजा एक्ट) ले आया गया। यही कारण है कि जहाँ पूरे [[भारत]] में ग्राम पंचायतों के अन्दर भूमि प्रबन्ध कमेटी का प्रावधान है, पहाड़ की ग्राम पंचायतों को इससे वंचित रखा गया है। इसके बाद सन 1976 में लाये गये वृक्ष संरक्षण क़ानून ने पहाड़ के किसानों को अपने खेत में उगाये गये वृक्ष के दोहन से रोक दिया, जबकि पहाड़ का किसान वृक्षों का व्यावसायिक उपयोग कर अपनी आजीविका चला सकता था। <ref>{{cite web |url=http://www.nainitalsamachar.in/agriculture-area-must-be-increased-in-uttarakhand/|title=कृषि क्षेत्र का विस्तार जरूरी है |accessmonthday=2जून|accessyear=2011|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref> <br />
;ओडिशा <br />
{{main|ओडिशा की कृषि}}<br />
[[ओडिशा]] राज्य की अर्थव्यवस्था में [[कृषि]] की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इससे राज्य के कुल उत्पाद का 28 प्रतिशत प्राप्त होता है और जनसंख्या का 65 प्रतिशत भाग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि कार्य में लगा हुआ है। चावल उड़ीसा की मुख्य फ़सल है। 2004 - 2005 में 65.37 लाख मी. टन चावल का उत्पादन हुआ। गन्ने की खेती भी किसान करते हैं।<br />
;कर्नाटक <br />
{{main|कर्नाटक की कृषि}}<br />
[[कर्नाटक]] राज्य में लगभग 66 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण है और 55.60 प्रतिशत जनता [[कृषि]] और इससे जुडे रोज़गारों में लगी है। राज्य की 60 प्रतिशत, लगभग 114 लाख हेक्टेयर भूमि कृषि योग्य है। कुल कृषि योग्य भूमि के 72 प्रतिशत भाग में अच्छी वर्षा होती है, बाक़ी लगभग 28 प्रतिशत भूमि में सिंचाई की व्यवस्था है।<br />
;केरल <br />
{{main|केरल की कृषि}}<br />
[[केरल]] राज्य में [[कृषि]] की विशेषता है कि यहाँ व्यापारिक फ़सलें अधिक उगाई जाती हैं। राज्य के लगभग 50 प्रतिशत नागरिक कृषि पर निर्भर है। नारियल, रबड, काली मिर्च, अदरक, [[चाय]], [[इलायची]], काजू तथा कॉफी आदि का उत्पादन केरल में प्रमुख रूप से होता है। दूसरी फ़सलों में सुपारी, [[केला]], अदरक तथा हल्दी आदि हैं। केरल राज्य में जायफल, दालचीनी, लौंग आदि मसालों के वृक्ष भी उगाए जाते हैं। चावल तथा टैपियोका केरल की मुख्य खाद्य फ़सलें हैं।<br />
;गुजरात <br />
{{main|गुजरात की कृषि}}<br />
*[[गुजरात]] कपास, तंबाकू और मूंगफली का उत्पादन करने वाला देश का प्रमुख राज्य है। <br />
*यह कपड़ा, तेल और साबुन जैसे महत्त्वपूर्ण उद्योगों के लिए कच्चा माल उपलब्ध करता है। <br />
;गोवा <br />
{{main|गोवा की कृषि}}<br />
[[गोवा]] के [[कृषि]] उत्पादों में मुख्य खाद्य फ़सल चावल है। इसके अतिरिक्त दालें, रागी और अन्य खाद्य फ़सलें भी उगाई जाती हैं। नारियल, काजू, सुपारी तथा गन्ने जैसी नकदी फ़सलों के साथ-साथ यहाँ अनन्नास, [[आम]] और केला भी होता है। राज्य में 1,424 वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्र में घने वन हैं।<br />
;छत्तीसगढ़ <br />
{{main|छत्तीसगढ़ की कृषि}}<br />
*[[छत्तीसगढ़]] राज्य में 80 प्रतिशत आबादी कृषि और उससे जुडी गतिविधियों में लगी है। <br />
*137.9 लाख हेक्टेयर भौगोलिक क्षेत्र में से कुल कृषि क्षेत्र कुल क्षेत्र का लगभग 35 प्रतिशत है। <br />
;जम्मू और कश्मीर <br />
{{main|जम्मू और कश्मीर की कृषि}}<br />
[[जम्मू और कश्मीर]] राज्य की लगभग 80 प्रतिशत जनसंख्या [[कृषि]] पर निर्भर है। धान, [[गेहूँ]] और मक्का यहाँ की प्रमुख फ़सलें हैं। कुछ भागों में जौ, बाजरा और ज्वार उगाई जाती है। [[लद्दाख]] में चने की खेती होती है। फलोद्यानों का क्षेत्रफल 242 लाख हेक्टेयर है। राज्य में 2000 करोड़ रुपये के फलों का उत्पादन प्रतिवर्ष होता है जिसमें अखरोट निर्यात के 120 करोड़ रुपये भी शामिल हैं। <br />
;झारखण्ड <br />
[[चित्र:Indian-Farmer-Andhra-Pradesh.jpg|thumb|250px|[[कपास]] के खेत की जुताई करता किसान, [[वारंगल]], [[आंध्र प्रदेश]]]]<br />
{{main|झारखण्ड की कृषि}}<br />
*[[कृषि]] और कृषि सम्बंधित गतिविधियाँ [[झारखण्ड की अर्थव्यवस्था]] का मुख्य आधार हैं। <br />
;तमिलनाडु <br />
{{main|तमिलनाडु की कृषि}}<br />
*[[तमिलनाडु]] में मुख्य व्यवसाय कृषि है। <br />
*राज्य में 2007-08 में कुल खेती योग्य क्षेत्र 56.10 मिलियन हेक्टेयर था। <br />
*प्रमुख खाद्यान्न फ़सलें चावल, ज्वार और दालें हैं। <br />
;त्रिपुरा<br />
{{main|त्रिपुरा की कृषि}}<br />
*[[त्रिपुरा की अर्थव्यवस्था]] प्राथमिक रूप से [[कृषि]] पर आधारित है। <br />
*मुख्य फ़सल [[चावल]] है<ref>कृषि उत्पादन का 46.16 प्रतिशत</ref> और पूरे राज्य में इसकी खेती होती है। <br />
*नक़दी फ़सलों मे [[जूट]]<ref>जिसका इस्तेमाल बोरी, टाट और सुतली बनाने में होता है</ref>, [[कपास]] [[चाय]], [[गन्ना]], मेस्ता और फल शामिल हैं। <br />
;नागालैंड <br />
{{main|नागालैंड की कृषि}}<br />
*[[नागालैंड]] मूलत: [[कृषि]] प्रधान राज्य है। लगभग 70 प्रतिशत जनता कृषि पर निर्भर है। <br />
*राज्य में कृषि क्षेत्र का महत्वपूर्ण योगदान है। <br />
*[[चावल]] यहाँ का मुख्य भोजन है। <br />
;पंजाब <br />
{{main|पंजाब की कृषि}}<br />
[[पंजाब]] कृषि प्रधान राज्य है। पंजाब की भूमि बहुत ही उपजाऊ है। यहाँ गेंहू और चावल की फ़सल मुख्य रूप से होती है्। पंजाब राज्य में दिश के भौगोलिक क्षेत्र के सिर्फ़ 1.5 प्रतिशत भाग में देश के [[गेहूँ]] के उत्पादन का 22 प्रतिशत, चावल का 12 प्रतिशत और कपास की भी 12 प्रतिशत पैदावार का उत्पादन करता है। आजकल पंजाब में फ़सल गहनता 186 प्रतिशत से भी अधिक है। <br />
;पश्चिम बंगाल <br />
{{main|पश्चिम बंगाल की कृषि}}<br />
[[पश्चिम बंगाल]] राज्य की आर्थिक व्यवस्था में [[कृषि]] की महत्वपूर्ण भूमिका है। राज्य के चार में से तीन व्यक्ति प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि कार्यों में लगे हैं। वर्ष [[2006]]-07 में राज्य में कुल खाद्य उत्पादन 15820 हज़ार टन था जिसमें से [[चावल]] का उत्पादन 14745.9 हज़ार टन, [[गेहूँ]] और दलहनों का उत्पादन क्रमश: 799.9 हज़ार टन और 154.4 हज़ार टन रहा। इसी अवधि में तिलहनों का उत्पादन 645.4 हज़ार टन और आलू का 5052 हज़ार टन हुआ। 2006-07 में पटसन का उत्पादन 8411.5 हज़ार गांठें रहा। पटसन, कपास और [[काग़ज़]] की मिलों का प्रमुख केंद [[भाटपारा]] है।<br />
;बिहार <br />
{{main|बिहार की कृषि}}<br />
बिहार की अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित है। बिहार का कुल भौगोलिक क्षेत्र लगभग 93.60 लाख हेक्टेयर है जिसमें से केवल 56.03 लाख हेक्टेयर पर ही खेती होती है। राज्य में लगभग 79.46 लाख हेक्टेयर भूमि कृषि योग्य है। विभिन्न साधनों द्वारा कुल 43.86 लाख हेक्टेयर भूमि पर ही सिंचाई सुविधाएं उपलब्ध हैं जबकि लगभग 33.51 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई होती है।<br />
;मणिपुर <br />
{{main|मणिपुर की कृषि}}<br />
कृषि [[मणिपुर]] राज्य की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार है। 70 प्रतिशत लोग कृषि पर ही निर्भर हैं। राज्य में कृषि कुल क्षेत्र 10.48 प्रतिशत ही है। कुल कृषि क्षेत्र का 13.24 प्रतिशत क्षेत्र, लगभग 30,980 हेक्टेयर सिंचित क्षेत्र है। राज्य में अन्न उत्पादन मामूली सा कम है लेकिन तिलहन और दलहन का उत्पादन बहुत ही कम होता है। <br />
;मध्य प्रदेश <br />
{{main|मध्य प्रदेश की कृषि}}<br />
[[मध्य प्रदेश]] राज्य [[राजस्थान]] और [[उत्तर प्रदेश]] के साथ मिलकर 'चंबल' राज्य की उत्तरी सीमा बनाता है। इसकी घाटी की भूमि ऊबड़ - खाबड़ है। मध्य प्रदेश की मिट्टी को दो भागों में बाँटा जा सकता है-<br />
#काली मिट्टी- यह मालवा के पठार के दक्षिणी भाग, नर्मदा घाटी और सतपुड़ा के कुछ भागों में मिलती है। इसमें चिकनी मिट्टी का कुछ अंश रहता है, भारी वर्षा या बाढ़ के पानी से सिंचाई से काली मिट्टी जलावरुद्ध हो जाती है। <br />
#लाल-पीली मिट्टी- इसमें कुछ मात्रा बालू की रहती है। यह शेष मध्य प्रदेश में पाई जाती है।<br />
;महाराष्ट्र <br />
[[चित्र:Women-Cuts-The-Rice-Crop.jpg|thumb|250px|[[चावल]] की कटाई करती महिलाएँ, [[उत्तर प्रदेश]]]]<br />
{{main|महाराष्ट्र की कृषि}}<br />
[[महाराष्ट्र]] के लगभग 65 प्रतिशत श्रमिक कृषि तथा संबंधित गतिविधियों पर निर्भर है। यहाँ की प्रमुख फ़सलें हैं- धान, ज्वार, बाजरा, [[गेहूँ]], तूर (अरहर), उडद, चना और दलहन। यह राज्य तिलहनों का प्रमुख उत्पादक है और [[मूँगफली]], [[सूरजमुखी]], सोयाबीन प्रमुख तिलहनी फ़सलें है। महत्वपूर्ण नकदी फ़सलें है [[कपास]], [[गन्ना]], [[हल्दी]] और सब्जियाँ। <br />
;मिज़ोरम <br />
{{main|मिज़ोरम की कृषि}}<br />
*[[मिज़ोरम]] प्रदेश के लगभग 80 प्रतिशत लोग कृषि कार्यों में लगे हुए हैं। कृषि की मुख्य प्रणाली झूम या स्थानांतरित कृषि है। अनुमानत: 21 लाख हेक्टेयर भूमि में से 6.30 लाख हेक्टेयर भूमि बागवानी के लिए उपलब्ध है। <br />
*वर्तमान में 4127.6 हेक्टेरयर भूमि पर ही विभिन्न फ़सलों की बागवानी की जा रही है, जो कि अनुमानित संभावित क्षेत्र का 6.55 प्रतिशत मात्र है। <br />
;मेघालय <br />
{{main|मेघालय की कृषि}}<br />
*[[मेघालय]] प्रधानत: कृषि प्रधान राज्य है। <br />
*यहाँ की लगभग 80 प्रतिशत जनसंख्या मुख्य रूप से खेती पर ही निर्भर है। <br />
*यहाँ की मिट्टी और जलवायु बाग़वानी के अनुकूल है। <br />
*शीतोष्ण, उष्णोष्ण और उष्ण कटिबंधिय फलों और सब्जियों के उत्पादन की भी यहाँ पर अपार संभावनाएं हैं।<br />
;राजस्थान <br />
{{main|राजस्थान की कृषि}}<br />
*[[राजस्थान]] राज्य में वर्ष 2006-07 में कुल [[कृषि]] योग्य क्षेत्र 217 लाख हेक्टेयर था और वर्ष (2007-08) में अनुमानित खाद्यान उत्पादन 155.10 लाख टन रहा। <br />
*राज्य की मुख्य फ़सलें हैं- [[चावल]], जौ, ज्वार, बाजरा, मक्का, चना, [[गेहूँ]], तिलहन, दालें [[कपास]] और [[तंबाकू]]। <br />
;सिक्किम <br />
{{main|सिक्किम की कृषि}}<br />
*तीस्ता नदी को सिक्किम की जीवन रेखा कहा जाता है।<br />
*[[सिक्किम]] मूलत: कृषि प्रधान है। राज्य की 64 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या जीवनयापन के लिए कृषि पर ही निर्भर है। <br />
;हरियाणा <br />
{{main|हरियाणा की कृषि}}<br />
[[कृषि]] की दृष्टि से [[हरियाणा]] एक समृद्ध राज्य है और यह केंद्रीय भंडार (अतिरिक्त खाद्यान्न की राष्ट्रीय संग्रहण प्रणाली) में बड़ी मात्रा में गेहूं और चावल देता है। हरियाणा में 65 प्रतिशत से भी अधिक लोगों की जीविका का आधार कृषि है। राज्य के घरेलू उत्पादन में 26.4 प्रतिशत योगदान कृषि का है। खाद्यान्न की उत्पादन क्षमता, जो के राज्य निर्माण के समय 25.92 लाख टन थी। आज का सकल कृषि उत्पादन इससे कहीं अधिक है। मुख्य फ़सलों का उत्पादन पहले से बहुत बढ़ गया है।<br />
;हिमाचल प्रदेश <br />
{{main|हिमाचल प्रदेश की कृषि}}<br />
[[हिमाचल प्रदेश]] का प्रमुख व्यवसाय [[कृषि]] है। कृषि राज्य की अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। कृषि से 69 प्रतिशत कामकाजी नागरिकों को सीधा काम मिलता है। कृषि और उसके सहायक क्षेत्र से प्राप्त आय प्रदेश के कुल घरेलू उत्पादन का 22.1 प्रतिशत है। कुल भूमि क्षेत्र 55.673 लाख हेक्टेयर में से 9.79 लाख हेक्टेयर भूमि के स्वामी 9.14 लाख किसान हैं।<br />
==चकबन्दी==<br />
{{मुख्य|चकबन्दी}}<br />
चकबन्दी वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा स्वामित्त्वधारी कृषकों को उनके इधर-उधर बिखरे हुए खेतों के बदले में उसी किस्म के कुल उतने ही आकार के एक या दो खेत लेने के लिए राजी किया जाता है।<br />
{{प्रचार}}<br />
{{लेख प्रगति|आधार= |प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}<br />
{{संदर्भ ग्रंथ}}<br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==बाहरी कड़ियाँ==<br />
<br />
==संबंधित लेख==<br />
{{कृषि}}<br />
{{भारत की कृषि}}<br />
[[Category:कृषि]]<br />
[[Category:कृषि कोश]]<br />
__INDEX__<br />
__NOTOC__</div>हिमानीhttps://en.bharatdiscovery.org/w/index.php?title=Template:%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8_%E0%A4%A8%E0%A5%80%E0%A4%B0%E0%A4%9C_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%B0%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%8F%E0%A4%81&diff=210189Template:गोपालदास नीरज की रचनाएँ2011-08-24T17:57:12Z<p>हिमानी: '{{सूचना बक्सा कविता सूची |कवि का नाम=गोपालदास नीरज |रच...' के साथ नया पन्ना बनाया</p>
<hr />
<div>{{सूचना बक्सा कविता सूची<br />
|कवि का नाम=गोपालदास नीरज<br />
|रचना प्रकार=कविता<br />
|रचना 1=आसावरी<br />
|रचना 2=कुछ दोहे नीरज के<br />
|रचना 3=गीत-अगीत<br />
|रचना 4=गीत जो गाए नहीं <br />
|रचना 5=दर्द दिया है<br />
|रचना 6=गीत-अगीत<br />
|रचना 7=नीरज की पाती<br />
|रचना 8=नीरज दोहावली<br />
|रचना 9=बादलों से सलाम लेता हूँ<br />
|रचना 10=अंतिम बूँद<br />
|रचना 11=अंधियार ढल कर ही रहेगा<br />
|रचना 12=अब तुम रूठो <br />
|रचना 13=अब तुम रूठो <br />
|रचना 14=अब तो मज़हब <br />
|रचना 15=अब बुलाऊँ भी तुम्हें <br />
|रचना 16=अभी न जाओ प्राण!<br />
|रचना 17=आज मदहोश हुआ जाए रे<br />
|रचना 18=आदमी को प्यार दो<br />
|रचना 19=एक तेरे बिना प्राण ओ प्राण के<br />
|रचना 20=ओ हर सुबह जगाने वाले<br />
|रचना 21=कारवां गुज़र गया<br />
|रचना 22=कितनी अतृप्ति है<br />
|रचना 23=कितने दिन चलेगा? <br />
|रचना 24=किसलिए आऊं तुम्हारे द्वार?<br />
|रचना 25=खग ! उडते रेहना जीवन भर !<br />
}}<br />
<br />
<noinclude>[[Category:रामधारी सिंह दिनकर]]</noinclude></div>हिमानीhttps://en.bharatdiscovery.org/w/index.php?title=%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%97:%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A5%80&diff=210188प्रयोग:शिल्पी2011-08-24T17:34:09Z<p>हिमानी: </p>
<hr />
<div>{{सूचना बक्सा कविता<br />
|चित्र=Gopaldas-Neeraj.jpg<br />
|चित्र का नाम=गोपालदास नीरज<br />
|कवि=[[गोपालदास नीरज]]<br />
|जन्म=[[4 जनवरी]], [[1925]]<br />
|जन्म स्थान=पुरावली, [[इटावा]], [[उत्तरप्रदेश]]<br />
|मृत्यु=<br />
|मृत्यु स्थान=<br />
|मुख्य रचनाएँ=<br />
|यू-ट्यूब लिंक=<br />
|शीर्षक 1=<br />
|पाठ 1=<br />
|शीर्षक 2=<br />
|पाठ 2=<br />
|बाहरी कड़ियाँ=<br />
}}</div>हिमानीhttps://en.bharatdiscovery.org/w/index.php?title=%E0%A4%AA%E0%A4%82%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%AF_%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A4%BE_-%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8_%E0%A4%A6%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6%E0%A4%A8&diff=209655पंचास्तिकाय मीमांसा -जैन दर्शन2011-08-22T12:44:42Z<p>हिमानी: </p>
<hr />
<div>[[जैन दर्शन और उसका उद्देश्य|जैन दर्शन]] में उक्त द्रव्य, [[तत्त्व]] और पदार्थ के अलावा अस्तिकायों का निरूपण किया गया है। कालद्रव्य को छोड़कर शेष पांचों द्रव्य (पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और जीव) अस्तिकाय हैं<ref>द्रव्य सं. गा. 23, 24, 25</ref> क्योंकि ये 'हैं' इससे इन्हें 'अस्ति' ऐसी [[संज्ञा]] दी गई है और काय (शरीर) की तरह बहुत प्रदेशों वाले हैं, इसलिए ये 'काय' हैं। इस तरह ये पांचों द्रव्य 'अस्ति' और 'काय' दोनों होने से 'अस्तिकाय' कहे जाते हैं। पर कालद्रव्य 'अस्ति' सत्तावान होते हुए भी 'काय' (बहुत प्रदेशों वाला) नहीं है। उसके मात्र एक ही प्रदेश हैं। इसका कारण यह है कि उसे एक-एक अणुरूप माना गया है और वे अणुरूप काल द्रव्य असंख्यात हैं, क्योंकि वे लोकाकाश के, जो असंख्यात प्रदेशों वाला है, एक-एक प्रदेश पर एक-एक जुदे-जुदे रत्नों की राशि की तरह अवस्थित हैं। जब कालद्रव्य अणुरूप है तो उसका एक ही प्रदेश है इससे अधिक नहीं। अन्य पाँचों द्रव्यों में प्रदेश बाहुल्य है, इसी से उन्हें 'अस्तिकाय' कहा गया है और कालद्रव्य को अनस्तिकाय।<br />
<br />
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}<br />
{{संदर्भ ग्रंथ}}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
<br />
==बाहरी कड़ियाँ==<br />
<br />
==संबंधित लेख==<br />
{{जैन दर्शन के अंग}}{{जैन धर्म2}}{{संस्कृत साहित्य}}{{दर्शन शास्त्र}}{{जैन धर्म}}<br />
[[Category:दर्शन कोश]]<br />
[[Category:जैन दर्शन]] <br />
__INDEX__<br />
__NOTOC__</div>हिमानीhttps://en.bharatdiscovery.org/w/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6_%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6_-%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8_%E0%A4%A6%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6%E0%A4%A8&diff=209652स्याद्वाद विमर्श -जैन दर्शन2011-08-22T12:44:14Z<p>हिमानी: </p>
<hr />
<div>[[जैन दर्शन और उसका उद्देश्य|जैन दर्शन]] में स्याद्वाद उसी प्रकार अनेकान्त का वाचक अथवा व्यवस्थापक है जिस प्रकार ज्ञान उस अनेकान्त का व्यापक अथवा व्यवस्थापक है। जब ज्ञान के द्वारा वह जाना जाता है तो दोनों में ज्ञान-ज्ञेय का संबंध होता है और जब वह स्याद्वाद के द्वारा कहा जाता है तो उनमें वाच्य-वाचक संबंध होता है। ज्ञान का महत्त्व यह है कि वह ज्ञेय को जानकर उन ज्ञेयों की व्यवस्था बनाता है- उन्हें मिश्रित नहीं होने देता है। यह अमुक है, यह अमुक नहीं है इस प्रकार वह ज्ञाता को उस उस ज्ञेय की परिच्छित्ति कराता है। स्याद्वाद का भी वही महत्त्व है। वह वचनरूप होने से वाच्य को कहकर उसके अन्य धर्मों की मौन व्यवस्था करता है। ज्ञान और वचन में अंतर यही है कि ज्ञान एक साथ अनेक ज्ञेयों को जान सकता है पर वचन एक बार में एक ही वाच्य धर्म को कह सकता है, क्योंकि 'सकृदुच्चरित शब्द: एकमेवार्थ गमयति' इस नियम के अनुसार एक बार बोला गया वचन एक ही अर्थ का बोध कराता है। <br />
*समन्तभद्र की 'आप्त-मीमांसा', जिसे 'स्याद्वाद-मीमांसा' कहा जा सकता है, ऐसी कृति है, जिसमें एक साथ स्याद्वाद, अनेकान्त और सप्तभंगी तीनों का विशद और विस्तृत विवेचन किया गया है। अकलंकदेव ने उस पर 'अष्टशती' (आप्त मीमांसा- विवृति) और [[विद्यानन्द]] ने उसी पर 'अष्टसहस्त्री' (आप्तमीमांसालंकृति) व्याख्या लिखकर जहाँ आप्तमीमांसा की कारिकाओं एवं उनके पद-वाक्यादिकों का विशद व्याख्यान किया है वहाँ इन तीनों का भी अद्वितीय विवेचन किया है।<br />
==न्याय विद्या==<br />
*'नीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन स न्याय:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार न्याय वह विद्या है जिसके द्वारा वस्तु का स्वरूप निर्णीत किया जाए। इस व्युत्पत्ति के आधार पर कोई प्रमाण को, कोई लक्षण और प्रमाण को, कोई लक्षण, प्रमाण, नय और निक्षेप को तथा कोई पंचावयव-वाक्य के प्रयोग को न्याय कहते हैं क्योंकि इनके द्वारा वस्तु-प्रतिपत्ति होती है। <br />
*न्यायदीपिकाकार अभिनव धर्मभूषण का मत है कि न्याय प्रमाण और नयरूप है। अपने इस मत का समर्थन वे आचार्य गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्रगत उस सूत्र से करते हैं<ref>'प्रमाणनयैरधिगम:'- त.सू. 1-16</ref>, जिसमें कहा गया है कि वस्तु (जीवादि पदार्थों) का अधिगम प्रमाणों तथा नयों से होता है। प्रमाण और नय इन दो को ही अधिगम का उपाय सूत्रकार ने कहा है। उनका आशय है कि चूँकि प्रत्येक वस्तु अखंड (धर्मी) और सखंड (धर्म) दोनों रूप है। उसे अखंडरूप में ग्रहण करने वाला प्रमाण है और खंडरूप में जानने वाला नय है। अत: इन दो के सिवाय किसी तीसरे ज्ञापकोपाय की आवश्यकता नहीं है। <br />
*न्यायविद्या को 'अमृत' भी कहा गया है।<ref>'न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने।' –अनन्तवीर्य, प्रमेयरत्नमाला पृ. 2,2 श्लो. 2</ref> इसका कारण यह कि जिस प्रकार 'अमृत' अमरत्व को प्रदान करता है उसी प्रकार न्यायविद्या भी तत्त्वज्ञान प्राप्त कराकर आत्मा को अमर (मिथ्याज्ञानादि से मुक्त और सम्यग्ज्ञान से युक्त) बना देती है।<br />
<br />
====आगमों में न्याय-विद्या====<br />
*षट्खंडागम<ref>षट्ख. 5।5।51, शोलापुर संस्करण, 1965</ref> में श्रुत के पर्याय-नामों को गिनाते हुए एक नाम 'हेतुवाद' भी दिया गया है, जिसका अर्थ हेतुविद्या, न्यायविद्या, तर्क-शास्त्र और युक्ति-शास्त्र किया है। <br />
*स्थानांगसूत्र<ref>'अथवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते तं जहा- पच्चक्खे अनुमाने उवमे आगमे। अथवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते। तं जहा-अत्थि तं अत्थि सो हेऊ, अत्थि तं णत्थि सो हेऊ, णत्थि तं अत्थि सो हेऊ णत्थि तं णत्थि सो हेऊ।' –स्थानांग स्.-पृ. 309-310, 338</ref> में 'हेतु' शब्द प्रयुक्त है, जिसके दो अर्थ किये गये हैं- <br />
*प्रमाण-सामान्य; इसके [[प्रत्यक्ष]], अनुमान, उपमान और आगम-ये चार भेद हैं। अक्षपाद गौतम के न्यायसूत्र में भी इन चार का प्रतिपादन है। पर उन्होंने इन्हें प्रमाण के भेद कहे हैं। यद्यपि स्थानांगसूत्रकार को भी हेतुशब्द प्रमाण के अर्थ में ही यहाँ विवक्षित है। <br />
*हेतु शब्द का दूसरा अर्थ उन्होंने अनुमान का प्रमुख अंग हेतु (साधन) किया है। उसके निम्न चार भेद किये हैं-<br />
#विधि-विधि (साध्य और साधन दोनों सद्भव रूप)<br />
#विधि-निषेध (साध्य विधिरूप और साधन निषेधरूप)<br />
#निषेध-विधि (साध्य निषेधरूप और हेतु विधिरूप)<br />
#निषेध-निषेध (साध्य और साधन दोनों निषेधरूप)<br />
इन्हें हम क्रमश: निम्न नामों से व्यवहृत कर सकते हैं-<br />
#विधिसाधक विधिरूप<ref>धर्मभूषण, न्यायदीपिका, पृ. 95-99 दिल्ली संस्करण</ref> अविरुद्धोपलब्धि<ref> माणिक्यनन्दि, परीक्षामुख 3/57-58</ref> <br />
#विधिसाधक निषेधरूप विरुद्धानुपलब्धि<br />
#निषेधसाधक विधिरूप विरुद्धोपलब्धि<br />
#निषेधसाधक निषेधरूप अविरुद्धानुपलब्धि<ref>डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ. 24 का टिप्पणी नं. 3</ref> <br />
इनके उदाहरण निम्न प्रकार दिये जा सकते हैं-<br />
#अग्नि है, क्योंकि धूम है। यहाँ साध्य और साधन दोनों विधि (सद्भाव) रूप हैं।<br />
#इस प्राणी में व्याधि विशेष है, क्योंकि स्वस्थचेष्टा नहीं है। साध्य विधिरूप है और साधन निषेधरूप है।<br />
#यहाँ शीतस्पर्श नहीं है, क्योंकि उष्णता है। यहाँ साध्य निषेधरूप व साधन विधिरूप है।<br />
#यहाँ धूम नहीं है, क्योंकि अग्नि का अभाव है। यहाँ साध्य व साधन दोनों निषेधरूप है। <br />
अनुयोगसूत्र में<ref>)डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार पृ. 25 व उसके टिप्पणी</ref> अनुमान और उसके भेदों की विस्तृत चर्चा उपलब्ध है, जिससे ज्ञात होता है कि आगमों में न्यायविद्या एक महत्त्वपूर्ण विद्या के रूप में वर्णित है। आगमोत्तरवर्ती दार्शनिक साहित्य में तो वह उत्तरोत्तर विकसित होती गई है।<br />
==प्रमाण और नय==<br />
*तत्त्वमीमांसा में हेय और उपादेय के रूप में विभक्त जीव आदि सात तत्त्वों का विवेचन हैं। तत्त्व का दूसरा अर्थ वस्तु है।<ref>डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ. 58, 59</ref> यह वस्तुरूप तत्त्व दो प्रकार का है- 1. उपेय और 2. उपाय। उपेय के दो भेद हैं- एक ज्ञाप्य (ज्ञेय) और दूसरा कार्य। जो ज्ञान का विषय होता है वह ज्ञाप्य अथवा ज्ञेय कहा जाता है और जो कारणों द्वारा निष्पाद्य या निष्पन्न होता है वह कार्य है।<br />
*उपाय तत्त्व दो तरह का है- <br />
#कारक, <br />
#ज्ञापक। <br />
*कारक वह है जो कार्य की उत्पत्ति करता है अर्थात कार्य के उत्पादक कारणों का नाम कारक है। कार्य की उत्पत्ति दो कारणों से होती है- <br />
#उपादान और <br />
#निमित्त (सहकारी)। <br />
*उपादान वह है जो स्वयं कार्यरूप परिणत होता है और निमित्त वह है जो उसमें सहायक होता है। उदाहरणार्थ घड़े की उत्पत्ति में मृत्पिण्ड उपादान और दण्ड चक्र, चीवर, कुंभकार प्रभृति निमित्त हैं। <br />
*न्यायदर्शन में इन दो कारणो के अतिरिक्त एक तीसरा कारण भी स्वीकृत है वह है असमवायि पर वह समवायि कारणगत रूपादि और संयोगरूप होने से उसे अन्य दर्शनों में उस से भिन्न नहीं माना। <br />
*ज्ञापकतत्त्व भी दो प्रकार का है-<br />
#प्रमाण<ref>डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार पृ. 58 का मूल व टिप्पणी 1; 'प्रमाणनयैरधिगम:'-त.सू. 1-6 'प्रमाणनयाभ्यां हि विवेचिता जीवादय: पदार्थ: सम्यगधिगम्यन्ते।'- न्या.दी. पृ. 2, वीर सेवामंदिर, दिल्ली संस्करण</ref> और <br />
#नय<ref>'प्रमाणादर्थ संसिद्धिस्तदाभासासाद्विपर्यय:। 'परीक्षामु. श्लो. 1</ref> <br />
<br />
==प्रमाण-भेद==<br />
*[[वैशेषिक दर्शन]] के प्रणेता [[कणाद]] ने<ref> वैशेषिक सूत्र 10/1/3</ref> प्रमाण के प्रत्यक्ष और लैंगिक- ये दो भेद स्वीकार किये हैं। उन्होंने इन दो के सिवाय न अन्य प्रमाणों की संभावना की है और न न्यायसूत्रकार अक्षपाद की तरह स्वीकृत प्रमाणों में अन्तर्भाव आदि की चर्चा ही की है। इससे प्रतीत होता है कि प्रमाण के उक्त दो भेदों की मान्यता प्राचीन है। इसके अतिरिक्त चार्वाक ने प्रत्यक्ष को माना और मात्र अनुमान की समीक्षा की है<ref>सर्वदर्शन सं., चार्वाकदर्शन, पृ. 3</ref>,अन्य उपमान, आगम आदि की नहीं। जबकि न्याय सूत्रकार ने<ref>न्यायसूत्र 2/2/1, 2</ref> *प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम (शब्द)- इन चार प्रमाणों को स्वीकार किया है तथा ऐतिह्य, अर्थापत्ति, संभव और अभाव-इन चार का स्पष्ट रूप से उल्लेख करके उनकी अतिरिक्त प्रमाणता की आलोचना की हें साथ ही शब्द में ऐतिह्य का और अनुमान में शेष तीनों का अन्तर्भाव प्रदर्शित किया है। <br />
*कणाद के व्याख्याकार प्रशस्तपाद ने<ref>प्रश. भा., पृ. 106-111</ref> अवश्य उनके मान्य प्रत्यक्ष और लैंगिक इन दो प्रमाणों का समर्थन करते हुए उल्लिखित शब्द आदि प्रमाणों का इन्हीं दो में समावेश किया है तथा चेष्टा, निर्णय, आर्ष (प्रातिभ) और सिद्ध दर्शन को भी इन्हीं दो के अन्तर्गत सिद्ध किया है। यदि वैशेषिक दर्शन से पूर्व न्यायदर्शन या अन्य दर्शन की प्रमाण भेद परम्परा होती, तो चार्वाक उसके प्रमाणों की अवश्य आलोचना करता। इससे विदित होता है कि वैशेषिक दर्शन की प्रमाण-द्वय की मान्यता सब से प्राचीन है। <br />
*वैशेषिकों की<ref>वैशे. सू. 10/1/3</ref>तरह बौद्धों ने<ref>दिग्नाग, प्रमाण समु.प्र.परि.का. 2, पृ. 4</ref> भी प्रत्यक्ष और अनुमान- इन दो प्रमाणों की स्वीकार किया है। <br />
*शब्द सहित तीनों को सांख्यों ने<ref>सांख्य का. 4</ref>, उपमान सहित चारों को नैयायिकों ने<ref>न्याय सू. 1/1/3</ref>और अर्थापत्ति तथा अभाव सहित छह प्रमाणों को जैमिनीयों (मीमांसकों) ने<ref>शावरभा. 1/1/5</ref> मान्य किया है। कुछ काल बाद जैमिनीय दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गये- <br />
#भाट्ट (कुमारिल भट्ट के अनुगामी) और <br />
#प्राभाकर (प्रभाकर के अनुयायी)। <br />
भाट्टों ने छहों प्रमाणों को माना। पर प्राभाकरों ने अभाव प्रमाण को छोड़ दिया तथा शेष पाँच प्रमाणों को अंगीकार किया। इस तरह विभिन्न दर्शनों में प्रमाण-भेद की मान्यताएँ<ref>जैमिने: षट् प्रमाणानि चत्वारि न्यायवादिन:। सांख्यस्य त्रीणि वाच्यानि द्वे वैशेषिकबौद्धयो:॥ - प्रमेयर. 2/2 का टि.</ref> दार्शनिक क्षेत्र में चर्चित हैं।<br /><br />
====जैन न्याय में प्रमाण-भेद====<br />
*जैन न्याय में प्रमाण के श्वेताम्बर परम्परा में मान्य भगवती सूत्र<ref>भगवती सूत्र 5/3/191-192</ref> और स्थानांग सूत्र में<ref>स्थानांग सूत्र 338</ref> चार प्रमाणों का उल्लेख है- <br />
#प्रत्यक्ष, <br />
#अनुमान, <br />
#उपमान और <br />
#आगम। <br />
*स्थानांग सूत्र में<ref>स्थानांग सूत्र 185</ref> व्यवसाय के तीन भेदों द्वारा प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणों का भी निर्देश है। <br />
*संभव है [[सिद्धसेन]]<ref>न्यायाव. का 8</ref> और [[हरिभद्र]] के<ref>अनेका.ज.प.टी. पृ. 142, 215</ref> तीन प्रमाणों की मान्यता का आधार यही स्थानांग सूत्र हो। <br />
*श्री पं. दलसुख मालवणिया का विचार है<ref>आगम युग का जैन दर्शन पृ. 136 से 138</ref> कि उपर्युक्त चार प्रमाणों की मान्यता नैयायिकादि सम्मत और तीन प्रमाणों का कन सांख्यादि स्वीकृत परम्परा मूलक हों तो आश्चर्य नहीं। यदि ऐसा हो तो भगवती सूत्र और स्थानांग सूत्र के क्रमश: चार और तीन प्रमाणों की मान्यता लोकानुसरण की सूचक होने से अर्वाचीन होना चाहिए। <br />
*दिगम्बर परम्परा के षड्खंडागम में<ref>भूतबली. पुष्पदन्त, षट्खण्डा. 1/1/15 तथा जैन तर्क शा.अनु.वि. पृ. 71 व इसका नं. 5 टिप्पणी</ref> मात्र तीन ज्ञानमीमांसा उपलब्ध होती है। वहाँ तीन प्रकार के मिथ्या ज्ञान और पाँच प्रकार के सम्यग्ज्ञान को गिनाकर आठ ज्ञानों का निरूपण किया गया है। वहाँ प्रमाणाभास के रूप में ज्ञानों का विभाजन नहीं है और न प्रमाण तथा प्रमाणाभास शब्द ही वहाँ उपलब्ध होते हैं। <br />
*कुन्दकुन्द<ref>नियमसार गा. 10, 11, 12, प्रवचनसार प्रथम ज्ञानाधिकार</ref> के ग्रन्थों में भी ज्ञानमीमांसा की ही चर्चा है, प्रमाण मीमांसा की नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि उस प्राचीनकाल में सम्यक और मिथ्या मानकर तो ज्ञान का कथन किया जाता था, किन्तु प्रमाण और प्रमाणाभास मानकर नहीं, पर एक वर्ग के ज्ञानों को सम्यक और दूसरे वर्ग के ज्ञानों को मिथ्या प्रतिपादन करने से अवगत होता है कि जो ज्ञान सम्यक कहे गये हैं वे सम्यक परिच्छित्ति कराने से प्रमाण तथा जिन्हें मिथ्या बताया गया है वे मिथ्या प्रतिपत्ति कराने से अप्रमाण (प्रमाणाभास) इष्ट है।<ref>यह उस समय की प्रतिपादन शैली थी। वैशेषिक दर्शन के प्रवर्त्तक कणाद ने भी इसी शैली से बुद्धि के अविद्या और विद्या ये दो भेद बतलाकर अविद्या के संशय आदि चार तथा विद्या के प्रत्यक्षादि चार भेद कहे हैं तथा दूषित ज्ञान (मिथ्या ज्ञान) को अविद्या और निर्दोष ज्ञान को-सम्यग्ज्ञान का विद्या का लक्षण कहा है। - वैशे.सू. 9/2/7, 8, 10 से 13 तथा 10/1/3</ref> इसकी संपुष्टि तत्त्वार्थसूत्रकार<ref>त.सू. 1/9, 10</ref> के निम्न प्रतिपादन से भी होती है-<br />
<poem>मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानिज्ञानम्। <br />
तत्प्रमाणे'। 'मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च। -तत्त्वार्थसूत्र 1-9, 10, 31 ।</poem><br />
इस प्रकार सम्यग्ज्ञान या प्रमाण के मति, श्रुत, अवधि आदि पाँच भेदों की परम्परा आगम में उपलब्ध होती है, जो अत्यन्त प्राचीन है और जिस पर लोकानुसरण का कोई प्रभाव नहीं है। <br />
<br />
==तर्कशास्त्र में परोक्ष के भेद==<br />
<br />
तर्कशास्त्र में परोक्ष के पाँच भेद माने गये हैं<ref>माणिक्यनन्दि, प. मु. 3-1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10</ref>- <br />
#स्मृति<br />
#प्रत्यभिज्ञान <br />
#तर्क<br />
#अनुमान <br />
#आगम<br />
यद्यपि आगम में आरम्भ के चार ज्ञानों को मतिज्ञान और आगम को श्रुतज्ञान कहकर दोनों को परोक्ष कहा है और इस तरह तर्कशास्त्र तथा आगम के निरूपणों में अन्तर नहीं है।<br />
<br />
====स्मृति====<br />
<br />
पूर्वानुभूत वस्तु के स्मरण को स्मृति कहते हैं। यथा 'वह' इस प्रकार से उल्लिखित होने वाला ज्ञान। यह ज्ञान अविसंवादि होता है, इसलिए प्रमाण है। यदि कदाचित् उसमें विसंवाद हो तो वह स्मृत्याभास है। इसे अप्रमाण नहीं माना जा सकता, अन्यथा व्याप्ति स्मरणपूर्वक होने वाला अनुमान प्रमाण नहीं हो सकता और बिना व्याप्ति स्मरण के अनुमान संभव नहीं है। अत: स्मृति को प्रमाण मानना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है।<ref>विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. 36 व पृ. 42, वीर सेवा. ट्र., वाराणसी</ref><br />
<br />
====प्रत्यभिज्ञान====<br />
<br />
अनुभव तथा स्मरणपूर्वक होने वाला जोड़ रूप ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है इसे प्रत्यभिज्ञा, प्रत्यवमर्श और संज्ञा भी कहते हैं। जैसे- 'यह वही देवदत्त हे, अथवा यह (गवय) गौ के समान है, यह (महिष) गौ से भिन्न है, आदि। पहला एकत्व प्रत्यभिज्ञान का उदाहरण है, दूसरा सादृश्य प्रत्यभिज्ञान और तीसरा वैसा दृश्य प्रत्यभिज्ञान का है। संकलनात्मक जितने ज्ञान हैं वे इसी प्रत्यभिज्ञान में समाहित होते हैं। उपमान प्रमाण इसी के सादृश्य प्रत्यभिज्ञान में अन्तर्भूत होता है, अन्यथा वैसा दृश्य आदि प्रत्यभिज्ञान भी पृथक् प्रमाण मानना पड़ेंगे। यह भी प्रत्यक्षादि की तरह अविसंवादी होने से प्रमाण है, अप्रमाण नहीं। यदि कोई प्रत्यभिज्ञान विसंवाद (भ्रमादि) पैदा करता है तो उसे प्रत्यभिज्ञानाभास जानना चाहिए। <br />
<br />
====तर्क====<br />
जो ज्ञान अन्वय और व्यतिरेकपूर्वक व्याप्ति का निश्चय कराता है वह तर्क है। इसे ऊह, ऊहा और चिन्ता भी कहा जाता है। 'इसके होने पर ही यह होता है', यह अन्वय है और 'इसके न होने पर यह नहीं होता', यह व्यतिरेक है, इन दोनों पूर्वक यह ज्ञान साध्य के साथ साधन में व्याप्ति का निर्माण कराता है। इसका उदाहरण है- 'अग्नि के होने पर ही धूम होता है, अग्नि के अभाव में धूम नहीं होता' इस प्रकार अग्नि के साथ धूम की व्याप्ति का निश्चय कराना तर्क है। इससे सम्यक अनुमान का मार्ग प्रशस्त होता है। <br />
<br />
====अनुमान====<br />
<br />
निश्चित साध्याविनाभावी साधन से होने वाला साध्य का ज्ञान अनुमान कहलाता है।<ref>विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. 45, 46, 47, 48, 49; वीर सेवा. ट्र., वाराणसी</ref> जैसे धूम से अग्नि का ज्ञान करना।<br />
<br />
=====अनुमान के अंग:- साध्य और साधन=====<br />
<br />
इस अनुमान के मुख्य घटक (अंग) दो हैं- <br />
#साध्य और <br />
#साधन। <br />
*साध्य तो वह है, जिसे सिद्ध किया जाता है और वह वही होता है जो शक्य (अबाधित), अभिप्रत (वादी द्वारा इष्ट) और असिद्ध (प्रतिवादी के लिए अमान्य) होता है तथा इससे जो विपरीत (बाधित, अनिष्ट और सिद्ध) होता है वह साध्याभास है, क्योंकि वह साधन द्वारा विषय (निश्चय) नहीं किया जाता। [[अकलंकदेव]] ने साध्य और साध्याभास का लक्षण करते हुए यही लिखा है-<br />
<poem>साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धं ततोऽपरम्।<br />
साध्याभासं विरुद्धादि, साधनाविषयत्वत:॥ न्यायविनिश्चय 2-172</poem><br />
*साधन वह है जिसका साध्य के साथ अविनाभाव निश्चित है- साध्य के होने पर ही होता है, उसके अभाव में नहीं होता। ऐसा साधन ही साध्य का गमक (अनुमापक) होता है। साधन को हेतु और लिङ्ग भी कहा जाता है। माणिक्यनन्दि साधन का लक्षण करते हुए कहते हैं-<br />
साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतु:।<ref>परीक्षामुखसूत्र 3-15</ref>' साध्य के साथ जिसका अविनाभाव निश्चित है वह हेतु है। <br />
<br />
==अविनाभाव-भेद==<br />
<br />
अविनाभाव दो प्रकार का है<ref>माणिक्यनन्दि, प.मु. 3-16, 17, 18</ref>-<br />
#सहभाव नियम और <br />
#क्रमभाव नियम। <br />
*जो सहचारी और व्याप्य-व्यापक होते हैं उनमें सहभाव नियम अविनाभाव रहता है। जैसे रूप और रस दोनों सहचारी हैं- रूप के साथ रस और रस के साथ रूप नियम से रहता है। अत: दोनों सहचारी हैं और इसलिए उनमें सहभाव नियम अविनाभाव है तथा शिंशपात्व और वृक्षत्व इन दोनों में व्याप्य-व्यापक भाव है। शिंशपात्व व्याप्य है और वृक्षत्व व्यापक है। शिंशपात्व होने पर वृक्षत्व अवश्य होता है। किन्तु वृक्षत्व के होने पर शिंशपात्व के होने का नियम नहीं है। अतएव सहचारियों और व्याप्य-व्यापक में सहभाव नियम अविनाभाव होता है, जिससे रूप से रस का और शिंशपात्व से वृक्षत्व का अनुमान किया जाता है। <br />
<br />
==हेतु-भेद==<br />
<br />
इन दोनों प्रकार के अविनाभाव से विशिष्ट हेतु के भेदों का कथन जैन न्यायशास्त्र में विस्तार से किया गया है, जिसे हमने 'जैन तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार' ग्रन्थ में विशदतया दिया है। अत: उस सबकी पुनरावृत्ति न करके मात्र माणिक्यनन्दि के 'परीक्षामुख' के अनुसार उनका दिग्दर्शन किया जाता है।<ref>माणिक्यनन्दि, प. मु. 3-57 58, 59, 65 से 79 तक</ref><br />
*माणिक्यनन्दि ने अकलंकदेव की तरह आरम्भ में हेतु के मूल दो भेद बतलाये हैं-<br />
#उपलब्धि और <br />
#अनुपलब्धि। <br />
*तथा इन दोनों को विधि और प्रतिषेध उभय का साधक कहा है और इस तरह दोनों के उन्होंने दो-दो भेद कहे हैं। उपलब्धि के- <br />
#अविरुद्धोपलब्धि और <br />
#विरुद्धोपलब्धि <br />
*अनुपलब्धि के- <br />
#अविरुद्धानुपलब्धि और <br />
#विरुद्धानुपलब्धि <br />
*इनके प्रत्येक के भेद इस प्रकार प्रतिपादित किये हैं- <br />
*अविरुद्धोपलब्धि छह- <br />
#व्याप्त, <br />
#कार्य,<br />
#कारण, <br />
#पूर्वचर, <br />
#उत्तरचर और <br />
#सहचर।<br />
*विरुद्धोपलब्धि के भी अविरुद्धोपलब्धि की तरह छह भेद हैं- <br />
#विरुद्ध व्याप्य, <br />
#विरुद्ध कार्य, <br />
#विरुद्ध कारण, <br />
#विरुद्ध पूर्वचर, <br />
#विरुद्ध उत्तरचर और <br />
#विरुद्ध-सहचर। <br />
*अविरुद्धानुपलब्धि प्रतिषेध रूप साध्य को सिद्ध करने की अपेक्षा 7. प्रकार की कही है- <br />
#अविरुद्धस्वभावानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धव्यापकानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धकार्यानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धकारणानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धपूर्वचरानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धउत्तरचरानुपलब्धि और <br />
#अविरुद्धसहचरानुपलब्धि। <br />
*विरुद्धानुपलब्धि विधि रूप साध्य को सिद्ध करने में तीन प्रकार की कही गयी है- <br />
#विरुद्धकार्यानुपलब्धि, <br />
#विरुद्धकारणानुपलब्धि और <br />
#विरुद्धस्वभावानुपलब्धि। <br />
*इस तरह माणिक्यनन्दि ने 6+6+7= 22 हेतुभेदों का सोदाहरण निरूपण किया है, परम्परा हेतुओं की भी उन्होंने संभावना करके उन्हें यथायोग्य उक्त हेतुओं में ही अन्तर्भाव करने का इंगित किया है। साथ ही उन्होंने अपने पूर्वज अकलंक की भांति कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर-इन नये हेतुओं को पृथक् मानने की आवश्यकता को भी सयुक्तिक बतलाया है।<br />
<br />
<br />
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}<br />
{{संदर्भ ग्रंथ}}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
<br />
==बाहरी कड़ियाँ==<br />
<br />
==संबंधित लेख==<br />
{{जैन दर्शन के अंग}}{{जैन धर्म}}{{संस्कृत साहित्य}}{{जैन धर्म2}}{{दर्शन शास्त्र}}<br />
<br />
[[Category:जैन दर्शन]]<br />
[[Category:दर्शन कोश]]<br />
<br />
__INDEX__<br />
__NOTOC__</div>हिमानीhttps://en.bharatdiscovery.org/w/index.php?title=%E0%A4%85%E0%A4%A8%E0%A5%87%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4_%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6_-%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8_%E0%A4%A6%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6%E0%A4%A8&diff=209651अनेकान्त विमर्श -जैन दर्शन2011-08-22T12:44:04Z<p>हिमानी: </p>
<hr />
<div>[[जैन दर्शन और उसका उद्देश्य|जैन दर्शन]] में 'अनेकान्त' जैनदर्शन का उल्लेखनीय सिद्धान्त है। वह इतना व्यापक है कि वह लोक (लोगों) के सभी व्यवहारों में व्याप्त है। उसके बिना किसी का व्यवहार चल नहीं सकता। आचार्य [[सिद्धसेन]] ने कहा है<ref>जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वडइ।<br /> तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमोऽणेयंत वायस्स॥ - सिद्धसेन। </ref> कि लोगों के उस आद्वितीय गुरु अनेकान्तवाद को हम [[नमस्कार]] करते हैं, जिसके बिना उनका व्यवहार किसी तरह भी नहीं चलता। अमृतचन्द्र उसके विषय में कहते है<ref>परमागमस्य जीवं निषिद्धजात्यन्ध- सिन्धुरविधानम्।<br /> सकल-नय-विलसितानां विरोधमथानं नमाम्यनेकान्तम्॥ -अमृतचन्द्र, पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, श्लो. 1।</ref> कि अनेकान्त परमागम जैनागम का प्राण हे और वह वस्तु के विषय में उत्पन्न एकान्तवादियों के विवादों को उसी प्रकार दूर करता है जिस प्रकार हाथी को लेकर उत्पन्न जन्मान्धों के विवादों को उसी प्रकार दूर करता है जिस प्रकार हाथी को लेकर उत्पन्न जन्मान्धों के विवादों को सचक्षु: (नेत्रवाला) व्यक्ति दूर कर देता है। समन्तभद्र का कहना है<ref>एकान्त धर्माभिनिवेशमूला रागादयोऽहं कृतिजा जनानाम्।<br />एकान्तहानाच्च स यत्तदेव स्वाभाविकत्वाच्च समं मनस्ते॥ - समन्तभद्र, युक्तयनुशासन कारिका 51</ref> कि वस्तु को अनेकान्त मानना क्यों आवश्यक है? वे कहते हैं कि एकान्त के आग्रह से एकान्त समझता है कि वस्तु उतनी ही है, अन्य रूप नहीं है, इससे उसे अहंकर आ जाता है और अहंकार से उसे राग, द्वेष आदि उत्पन्न होते हैं, जिससे उसे वस्तु का सही दर्शन नहीं होता। पर अनेकान्ती को एकानत का आग्रह न होने से उसे न अहंकार पैदा होता है और न राग, द्वेष आदि उत्पन्न होते हैं। फलत: उसे उस अनन्तधर्मात्मक अनेकान्त रूप वस्तु का सम्यक्दर्शन होता है, क्योंकि एकान्त का आग्रह न करना दूसरे धर्मों को भी उसमें स्वीकार करना सम्यग्दृष्टि का स्वभाव है। और इस स्वभाव के कारण ही अनेकान्ती के मन में पक्ष या क्षोभ पैदा नहीं होता, वह साम्य भाव को लिए रहता है। <br />
==अनेकान्त के भेद==<br />
<br />
अनेकान्त दो प्रकार का है- <br />
#सम्यगनेकान्त<br />
#मिथ्या अनेकान्त<br />
परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशन करने वाला सम्यगनेकान्त है अथवा सापेक्ष एकान्तों का समुच्चय सम्यगनेकान्त है<ref>समन्तभद्र, आप्तमी., का. 107</ref> निरपेक्ष नाना धर्मों का समूह मिथ्या अनेकान्त है। एकान्त भी दो प्रकार का है- <br />
#सम्यक एकान्त<br />
#मिथ्या एकान्त<br />
सापेक्ष एकान्त सम्यक एकान्त है। वह इतर धर्मों का संग्रहक है। अत: वह नय का विषय है और निरपेक्ष एकान्त मिथ्या एकान्त है, जो इतर धर्मों का तिरस्कारक है वह दुनर्य या नयाभास का विषय है। अनेकान्त के अन्य प्रकार से भी दो भेद कहे गये हैं।<ref>विद्यानन्द तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, 5-38-2</ref> <br />
#सहानेकान्त <br />
#क्रमानेकान्त<br />
एक साथ रहने वाले गुणों के समुदाय का नाम सहानेकान्त है और क्रम में होने वाले धर्मों-पर्यायों के समुच्चय का नाम क्रमानेकान्त है। इन दो प्रकार के अनेकान्तों के उद्भावक जैन दार्शनिक आचार्य विद्यानंद हैं। उनके समर्थक [[वादीभसिंह]] हैं। उन्होंने अपनी स्याद्वादसिद्धि में इन दोनों प्रकार के अनेकान्तों का दो परिच्छेदों में विस्तृत प्रतिपादन किया है। उन के नाम हैं- सहानेकान्तसिद्धि और क्रमानेकान्त सिद्धि। अनेकान्त को मानने में कोई विवाद होना ही नहीं चाहिए। जो हेतु<ref>एकस्य हेतो: साधक दूषकत्वाऽविसंवादवद्धा'- त.वा. 1-6-13</ref> स्वपक्ष का साधक होता है वही साथ में परपक्ष का दूषक भी होता है। इस प्रकार उसमें साधकत्व एवं दूषकत्व दोनों विरुद्ध धर्म एक साथ रूपरसादि की तरह विद्यमान हैं। <br />
सांख्यदर्शन, प्रकृति को सत्त्व, रज और तमोगुण रूप त्रयात्मक स्वीकार करता है और तीनों परस्पर विरुद्ध है तथा उनके प्रसाद-लाघव, शोषण-ताप, आवरण-सादन आदि भिन्न-भिन्न स्वभाव हैं और सब प्रधान रूप हैं, उनमें कोई विरोध नहीं है।<ref>'केचित्तावदाहु:- सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रधानमिति, तेषां<br /> प्रसादलाघवशोषतापावरणासादनादिभिन्नस्वभावानां प्रधानात्मनां मिथश्च न विरोध:।'</ref> वैशेषिक द्रव्यगुण आदि को अनुवृत्ति-व्यावृत्ति प्रत्यय कराने के कारण सामान्य-विशेष रूप मानते हैं। पृथ्वी आदि में 'द्रव्यम्' इस प्रकार का अनुवृत्ति प्रत्यय होने से द्रव्य को सामान्य और 'द्रव्यम् न गुण:, न कर्म, आदि व्यावृत्ति प्रत्यय का कारण होने से उसे विशेष भी कहते हैं और इस प्रकार द्रव्य एक साथ परस्पर विरुद्ध सामान्य-विशेष रूप माना गया है।<ref>अपरे मन्यन्ते- अनुवृत्तिविनिवृत्तिबुद्धयभिधानलक्षण: सामान्यविशेष इति। तेषां च सामान्यमेव विशेष: सामान्यविशेष इति। एकस्यात्मन उभयात्मकत्वं न विरुध्यते। त.वा. 1-6-14 । 2. समन्तभद्र, आप्तमी. का 104</ref> चित्ररूप भी उन्होंने स्वीकार किया है, जो परस्पर विरुद्ध रूपों का समुदाय है। बौद्ध दर्शन में भी एक चित्रज्ञान स्वीकृत है, जो परस्परविरुद्ध नीलादि ज्ञानों का समूह है।<br />
<br />
<br />
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}<br />
{{संदर्भ ग्रंथ}}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
<br />
==बाहरी कड़ियाँ==<br />
<br />
==संबंधित लेख==<br />
{{जैन दर्शन के अंग}}{{जैन धर्म2}}{{संस्कृत साहित्य}}{{दर्शन शास्त्र}}{{जैन धर्म}}<br />
[[Category:दर्शन कोश]]<br />
[[Category:जैन दर्शन]] <br />
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<hr />
<div>[[जैन दर्शन और उसका उद्देश्य|जैन दर्शन]] में समन्तभद्र की 'आप्त-मीमांसा', जिसे 'स्याद्वाद-मीमांसा' कहा जा सकता है, ऐसी कृति है, जिसमें एक साथ स्याद्वाद, अनेकान्त और सप्तभंगी तीनों का विशद और विस्तृत विवेचन किया गया है। [[अकलंकदेव]] ने उस पर 'अष्टशती' (आप्त मीमांसा- विवृति) और [[विद्यानन्द]] ने उसी पर 'अष्टसहस्त्री' (आप्तमीमांसालंकृति) व्याख्या लिखकर जहाँ आप्तमीमांसा की कारिकाओं एवं उनके पद-वाक्यादिकों का विशद व्याख्यान किया है वहाँ इन तीनों का भी अद्वितीय विवेचन किया है।<br />
{{point}}अधिक जानकारी के लिए देखें:-[[स्याद्वाद विमर्श -जैन दर्शन|स्याद्वाद विमर्श]]<br />
<br />
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}<br />
{{संदर्भ ग्रंथ}}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
<br />
==बाहरी कड़ियाँ==<br />
<br />
==संबंधित लेख==<br />
{{जैन दर्शन के अंग}}{{जैन धर्म2}}{{संस्कृत साहित्य}}{{दर्शन शास्त्र}}{{जैन धर्म}}<br />
[[Category:दर्शन कोश]]<br />
[[Category:जैन दर्शन]] <br />
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<hr />
<div>[[जैन दर्शन]] में 'अनेकान्त' जैनदर्शन का उल्लेखनीय सिद्धान्त है। वह इतना व्यापक है कि वह लोक (लोगों) के सभी व्यवहारों में व्याप्त है। उसके बिना किसी का व्यवहार चल नहीं सकता। आचार्य [[सिद्धसेन]] ने कहा है<ref>जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वडइ।<br /> तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमोऽणेयंत वायस्स॥ - सिद्धसेन। </ref> कि लोगों के उस आद्वितीय गुरु अनेकान्तवाद को हम [[नमस्कार]] करते हैं, जिसके बिना उनका व्यवहार किसी तरह भी नहीं चलता। अमृतचन्द्र उसके विषय में कहते है<ref>परमागमस्य जीवं निषिद्धजात्यन्ध- सिन्धुरविधानम्।<br /> सकल-नय-विलसितानां विरोधमथानं नमाम्यनेकान्तम्॥ -अमृतचन्द्र, पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, श्लो. 1।</ref> कि अनेकान्त परमागम जैनागम का प्राण हे और वह वस्तु के विषय में उत्पन्न एकान्तवादियों के विवादों को उसी प्रकार दूर करता है जिस प्रकार हाथी को लेकर उत्पन्न जन्मान्धों के विवादों को उसी प्रकार दूर करता है जिस प्रकार हाथी को लेकर उत्पन्न जन्मान्धों के विवादों को सचक्षु: (नेत्रवाला) व्यक्ति दूर कर देता है। समन्तभद्र का कहना है<ref>एकान्त धर्माभिनिवेशमूला रागादयोऽहं कृतिजा जनानाम्।<br />एकान्तहानाच्च स यत्तदेव स्वाभाविकत्वाच्च समं मनस्ते॥ - समन्तभद्र, युक्तयनुशासन कारिका 51</ref> कि वस्तु को अनेकान्त मानना क्यों आवश्यक है? वे कहते हैं कि एकान्त के आग्रह से एकान्त समझता है कि वस्तु उतनी ही है, अन्य रूप नहीं है, इससे उसे अहंकर आ जाता है और अहंकार से उसे राग, द्वेष आदि उत्पन्न होते हैं, जिससे उसे वस्तु का सही दर्शन नहीं होता। पर अनेकान्ती को एकानत का आग्रह न होने से उसे न अहंकार पैदा होता है और न राग, द्वेष आदि उत्पन्न होते हैं। फलत: उसे उस अनन्तधर्मात्मक अनेकान्त रूप वस्तु का सम्यक्दर्शन होता है, क्योंकि एकान्त का आग्रह न करना दूसरे धर्मों को भी उसमें स्वीकार करना सम्यग्दृष्टि का स्वभाव है। और इस स्वभाव के कारण ही अनेकान्ती के मन में पक्ष या क्षोभ पैदा नहीं होता, वह साम्य भाव को लिए रहता है। <br />
==अनेकान्त के भेद==<br />
<br />
अनेकान्त दो प्रकार का है- <br />
#सम्यगनेकान्त<br />
#मिथ्या अनेकान्त<br />
परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशन करने वाला सम्यगनेकान्त है अथवा सापेक्ष एकान्तों का समुच्चय सम्यगनेकान्त है<ref>समन्तभद्र, आप्तमी., का. 107</ref> निरपेक्ष नाना धर्मों का समूह मिथ्या अनेकान्त है। एकान्त भी दो प्रकार का है- <br />
#सम्यक एकान्त<br />
#मिथ्या एकान्त<br />
सापेक्ष एकान्त सम्यक एकान्त है। वह इतर धर्मों का संग्रहक है। अत: वह नय का विषय है और निरपेक्ष एकान्त मिथ्या एकान्त है, जो इतर धर्मों का तिरस्कारक है वह दुनर्य या नयाभास का विषय है। अनेकान्त के अन्य प्रकार से भी दो भेद कहे गये हैं।<ref>विद्यानन्द तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, 5-38-2</ref> <br />
#सहानेकान्त <br />
#क्रमानेकान्त<br />
एक साथ रहने वाले गुणों के समुदाय का नाम सहानेकान्त है और क्रम में होने वाले धर्मों-पर्यायों के समुच्चय का नाम क्रमानेकान्त है। इन दो प्रकार के अनेकान्तों के उद्भावक जैन दार्शनिक आचार्य विद्यानंद हैं। उनके समर्थक [[वादीभसिंह]] हैं। उन्होंने अपनी स्याद्वादसिद्धि में इन दोनों प्रकार के अनेकान्तों का दो परिच्छेदों में विस्तृत प्रतिपादन किया है। उन के नाम हैं- सहानेकान्तसिद्धि और क्रमानेकान्त सिद्धि। अनेकान्त को मानने में कोई विवाद होना ही नहीं चाहिए। जो हेतु<ref>एकस्य हेतो: साधक दूषकत्वाऽविसंवादवद्धा'- त.वा. 1-6-13</ref> स्वपक्ष का साधक होता है वही साथ में परपक्ष का दूषक भी होता है। इस प्रकार उसमें साधकत्व एवं दूषकत्व दोनों विरुद्ध धर्म एक साथ रूपरसादि की तरह विद्यमान हैं। <br />
सांख्यदर्शन, प्रकृति को सत्त्व, रज और तमोगुण रूप त्रयात्मक स्वीकार करता है और तीनों परस्पर विरुद्ध है तथा उनके प्रसाद-लाघव, शोषण-ताप, आवरण-सादन आदि भिन्न-भिन्न स्वभाव हैं और सब प्रधान रूप हैं, उनमें कोई विरोध नहीं है।<ref>'केचित्तावदाहु:- सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रधानमिति, तेषां<br /> प्रसादलाघवशोषतापावरणासादनादिभिन्नस्वभावानां प्रधानात्मनां मिथश्च न विरोध:।'</ref> वैशेषिक द्रव्यगुण आदि को अनुवृत्ति-व्यावृत्ति प्रत्यय कराने के कारण सामान्य-विशेष रूप मानते हैं। पृथ्वी आदि में 'द्रव्यम्' इस प्रकार का अनुवृत्ति प्रत्यय होने से द्रव्य को सामान्य और 'द्रव्यम् न गुण:, न कर्म, आदि व्यावृत्ति प्रत्यय का कारण होने से उसे विशेष भी कहते हैं और इस प्रकार द्रव्य एक साथ परस्पर विरुद्ध सामान्य-विशेष रूप माना गया है।<ref>अपरे मन्यन्ते- अनुवृत्तिविनिवृत्तिबुद्धयभिधानलक्षण: सामान्यविशेष इति। तेषां च सामान्यमेव विशेष: सामान्यविशेष इति। एकस्यात्मन उभयात्मकत्वं न विरुध्यते। त.वा. 1-6-14 । 2. समन्तभद्र, आप्तमी. का 104</ref> चित्ररूप भी उन्होंने स्वीकार किया है, जो परस्पर विरुद्ध रूपों का समुदाय है। बौद्ध दर्शन में भी एक चित्रज्ञान स्वीकृत है, जो परस्परविरुद्ध नीलादि ज्ञानों का समूह है।<br />
<br />
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
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==बाहरी कड़ियाँ==<br />
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<hr />
<div>[[जैन दर्शन]] में उक्त द्रव्य, [[तत्त्व]] और पदार्थ के अलावा अस्तिकायों का निरूपण किया गया है। कालद्रव्य को छोड़कर शेष पांचों द्रव्य (पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और जीव) अस्तिकाय हैं<ref>द्रव्य सं. गा. 23, 24, 25</ref> क्योंकि ये 'हैं' इससे इन्हें 'अस्ति' ऐसी [[संज्ञा]] दी गई है और काय (शरीर) की तरह बहुत प्रदेशों वाले हैं, इसलिए ये 'काय' हैं। इस तरह ये पांचों द्रव्य 'अस्ति' और 'काय' दोनों होने से 'अस्तिकाय' कहे जाते हैं। पर कालद्रव्य 'अस्ति' सत्तावान होते हुए भी 'काय' (बहुत प्रदेशों वाला) नहीं है। उसके मात्र एक ही प्रदेश हैं। इसका कारण यह है कि उसे एक-एक अणुरूप माना गया है और वे अणुरूप काल द्रव्य असंख्यात हैं, क्योंकि वे लोकाकाश के, जो असंख्यात प्रदेशों वाला है, एक-एक प्रदेश पर एक-एक जुदे-जुदे रत्नों की राशि की तरह अवस्थित हैं। जब कालद्रव्य अणुरूप है तो उसका एक ही प्रदेश है इससे अधिक नहीं। अन्य पाँचों द्रव्यों में प्रदेश बाहुल्य है, इसी से उन्हें 'अस्तिकाय' कहा गया है और कालद्रव्य को अनस्तिकाय।<br />
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<hr />
<div>[[जैन दर्शन]] में उक्त सात [[तत्त्व|तत्त्वों]] में पुण्य और पाप को सम्मिलित कर देने पर नौ [[पदार्थ]] कहे गए हैं।<ref>जीवा जीवा भावा पुण्णं पावं च आसवं तेसिं। संवर-णिज्जर बंधो मोक्खो य हवंति ते अट्ठ॥–पंचास्ति., गा. 108</ref> इन नौ पदार्थों का प्रतिपादन आचार्य कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय (गाथा 108) में सर्वप्रथम दृष्टिगोचर होता है। उसके बाद नेमिचन्द्र सिद्धांतिदेव ने भी उनका अनुसरण किया है।<ref>द्रव्य सं. गा. 28 । 'इह पुण्यपापग्रहणं कर्त्तव्यम्, नव पदार्था इत्यन्यैरप्युक्तत्वान्॥</ref> तत्त्वार्थ सूत्रकार ने सात तत्त्वों के श्रद्धान को सम्यक्दर्शन कहकर उन सात तत्त्वों की ही प्ररूपणा की है। नौ पदार्थों की उन्होंने चर्चा नहीं की<ref>तत्त्व सूत्र 1-4</ref> यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र के आठवें अध्याय के अन्त में उन्होंने पुण्य और पाप दोनों का कथन किया है। किन्तु वहाँ उनका पदार्थ के रूप में निरूपण नहीं है। बल्कि बंधतत्त्व का वर्णन करने वाले इस अध्याय में समग्र कर्म प्रकृतियों को पुण्य और पाप दो भागों में विभक्तकर साता वेदनीय, शुभायु:, शुभनाम और शुभगोत्र को पुण्य तथा असातावेदनीय, अशुभायु:, अशुभनाम और अशुभगोत्र को पाप कहा है।<ref>तत्त्व सूत्र 8-25, 26</ref> ध्यान रहे यह विभाजन अघातिप्रकृतियों की अपेक्षा है, घातिप्रकृतियों की अपेक्षा नहीं, क्योंकि वे सभी (47) पाप-प्रकृतियां ही हैं।)<br />
<br />
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
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<hr />
<div>[[जैन दर्शन]] में स्याद्वाद उसी प्रकार अनेकान्त का वाचक अथवा व्यवस्थापक है जिस प्रकार ज्ञान उस अनेकान्त का व्यापक अथवा व्यवस्थापक है। जब ज्ञान के द्वारा वह जाना जाता है तो दोनों में ज्ञान-ज्ञेय का संबंध होता है और जब वह स्याद्वाद के द्वारा कहा जाता है तो उनमें वाच्य-वाचक संबंध होता है। ज्ञान का महत्त्व यह है कि वह ज्ञेय को जानकर उन ज्ञेयों की व्यवस्था बनाता है- उन्हें मिश्रित नहीं होने देता है। यह अमुक है, यह अमुक नहीं है इस प्रकार वह ज्ञाता को उस उस ज्ञेय की परिच्छित्ति कराता है। स्याद्वाद का भी वही महत्त्व है। वह वचनरूप होने से वाच्य को कहकर उसके अन्य धर्मों की मौन व्यवस्था करता है। ज्ञान और वचन में अंतर यही है कि ज्ञान एक साथ अनेक ज्ञेयों को जान सकता है पर वचन एक बार में एक ही वाच्य धर्म को कह सकता है, क्योंकि 'सकृदुच्चरित शब्द: एकमेवार्थ गमयति' इस नियम के अनुसार एक बार बोला गया वचन एक ही अर्थ का बोध कराता है। <br />
*समन्तभद्र की 'आप्त-मीमांसा', जिसे 'स्याद्वाद-मीमांसा' कहा जा सकता है, ऐसी कृति है, जिसमें एक साथ स्याद्वाद, अनेकान्त और सप्तभंगी तीनों का विशद और विस्तृत विवेचन किया गया है। अकलंकदेव ने उस पर 'अष्टशती' (आप्त मीमांसा- विवृति) और [[विद्यानन्द]] ने उसी पर 'अष्टसहस्त्री' (आप्तमीमांसालंकृति) व्याख्या लिखकर जहाँ आप्तमीमांसा की कारिकाओं एवं उनके पद-वाक्यादिकों का विशद व्याख्यान किया है वहाँ इन तीनों का भी अद्वितीय विवेचन किया है।<br />
==न्याय विद्या==<br />
*'नीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन स न्याय:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार न्याय वह विद्या है जिसके द्वारा वस्तु का स्वरूप निर्णीत किया जाए। इस व्युत्पत्ति के आधार पर कोई प्रमाण को, कोई लक्षण और प्रमाण को, कोई लक्षण, प्रमाण, नय और निक्षेप को तथा कोई पंचावयव-वाक्य के प्रयोग को न्याय कहते हैं क्योंकि इनके द्वारा वस्तु-प्रतिपत्ति होती है। <br />
*न्यायदीपिकाकार अभिनव धर्मभूषण का मत है कि न्याय प्रमाण और नयरूप है। अपने इस मत का समर्थन वे आचार्य गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्रगत उस सूत्र से करते हैं<ref>'प्रमाणनयैरधिगम:'- त.सू. 1-16</ref>, जिसमें कहा गया है कि वस्तु (जीवादि पदार्थों) का अधिगम प्रमाणों तथा नयों से होता है। प्रमाण और नय इन दो को ही अधिगम का उपाय सूत्रकार ने कहा है। उनका आशय है कि चूँकि प्रत्येक वस्तु अखंड (धर्मी) और सखंड (धर्म) दोनों रूप है। उसे अखंडरूप में ग्रहण करने वाला प्रमाण है और खंडरूप में जानने वाला नय है। अत: इन दो के सिवाय किसी तीसरे ज्ञापकोपाय की आवश्यकता नहीं है। <br />
*न्यायविद्या को 'अमृत' भी कहा गया है।<ref>'न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने।' –अनन्तवीर्य, प्रमेयरत्नमाला पृ. 2,2 श्लो. 2</ref> इसका कारण यह कि जिस प्रकार 'अमृत' अमरत्व को प्रदान करता है उसी प्रकार न्यायविद्या भी तत्त्वज्ञान प्राप्त कराकर आत्मा को अमर (मिथ्याज्ञानादि से मुक्त और सम्यग्ज्ञान से युक्त) बना देती है।<br />
<br />
====आगमों में न्याय-विद्या====<br />
*षट्खंडागम<ref>षट्ख. 5।5।51, शोलापुर संस्करण, 1965</ref> में श्रुत के पर्याय-नामों को गिनाते हुए एक नाम 'हेतुवाद' भी दिया गया है, जिसका अर्थ हेतुविद्या, न्यायविद्या, तर्क-शास्त्र और युक्ति-शास्त्र किया है। <br />
*स्थानांगसूत्र<ref>'अथवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते तं जहा- पच्चक्खे अनुमाने उवमे आगमे। अथवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते। तं जहा-अत्थि तं अत्थि सो हेऊ, अत्थि तं णत्थि सो हेऊ, णत्थि तं अत्थि सो हेऊ णत्थि तं णत्थि सो हेऊ।' –स्थानांग स्.-पृ. 309-310, 338</ref> में 'हेतु' शब्द प्रयुक्त है, जिसके दो अर्थ किये गये हैं- <br />
*प्रमाण-सामान्य; इसके [[प्रत्यक्ष]], अनुमान, उपमान और आगम-ये चार भेद हैं। अक्षपाद गौतम के न्यायसूत्र में भी इन चार का प्रतिपादन है। पर उन्होंने इन्हें प्रमाण के भेद कहे हैं। यद्यपि स्थानांगसूत्रकार को भी हेतुशब्द प्रमाण के अर्थ में ही यहाँ विवक्षित है। <br />
*हेतु शब्द का दूसरा अर्थ उन्होंने अनुमान का प्रमुख अंग हेतु (साधन) किया है। उसके निम्न चार भेद किये हैं-<br />
#विधि-विधि (साध्य और साधन दोनों सद्भव रूप)<br />
#विधि-निषेध (साध्य विधिरूप और साधन निषेधरूप)<br />
#निषेध-विधि (साध्य निषेधरूप और हेतु विधिरूप)<br />
#निषेध-निषेध (साध्य और साधन दोनों निषेधरूप)<br />
इन्हें हम क्रमश: निम्न नामों से व्यवहृत कर सकते हैं-<br />
#विधिसाधक विधिरूप<ref>धर्मभूषण, न्यायदीपिका, पृ. 95-99 दिल्ली संस्करण</ref> अविरुद्धोपलब्धि<ref> माणिक्यनन्दि, परीक्षामुख 3/57-58</ref> <br />
#विधिसाधक निषेधरूप विरुद्धानुपलब्धि<br />
#निषेधसाधक विधिरूप विरुद्धोपलब्धि<br />
#निषेधसाधक निषेधरूप अविरुद्धानुपलब्धि<ref>डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ. 24 का टिप्पणी नं. 3</ref> <br />
इनके उदाहरण निम्न प्रकार दिये जा सकते हैं-<br />
#अग्नि है, क्योंकि धूम है। यहाँ साध्य और साधन दोनों विधि (सद्भाव) रूप हैं।<br />
#इस प्राणी में व्याधि विशेष है, क्योंकि स्वस्थचेष्टा नहीं है। साध्य विधिरूप है और साधन निषेधरूप है।<br />
#यहाँ शीतस्पर्श नहीं है, क्योंकि उष्णता है। यहाँ साध्य निषेधरूप व साधन विधिरूप है।<br />
#यहाँ धूम नहीं है, क्योंकि अग्नि का अभाव है। यहाँ साध्य व साधन दोनों निषेधरूप है। <br />
अनुयोगसूत्र में<ref>)डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार पृ. 25 व उसके टिप्पणी</ref> अनुमान और उसके भेदों की विस्तृत चर्चा उपलब्ध है, जिससे ज्ञात होता है कि आगमों में न्यायविद्या एक महत्त्वपूर्ण विद्या के रूप में वर्णित है। आगमोत्तरवर्ती दार्शनिक साहित्य में तो वह उत्तरोत्तर विकसित होती गई है।<br />
==प्रमाण और नय==<br />
*तत्त्वमीमांसा में हेय और उपादेय के रूप में विभक्त जीव आदि सात तत्त्वों का विवेचन हैं। तत्त्व का दूसरा अर्थ वस्तु है।<ref>डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ. 58, 59</ref> यह वस्तुरूप तत्त्व दो प्रकार का है- 1. उपेय और 2. उपाय। उपेय के दो भेद हैं- एक ज्ञाप्य (ज्ञेय) और दूसरा कार्य। जो ज्ञान का विषय होता है वह ज्ञाप्य अथवा ज्ञेय कहा जाता है और जो कारणों द्वारा निष्पाद्य या निष्पन्न होता है वह कार्य है।<br />
*उपाय तत्त्व दो तरह का है- <br />
#कारक, <br />
#ज्ञापक। <br />
*कारक वह है जो कार्य की उत्पत्ति करता है अर्थात कार्य के उत्पादक कारणों का नाम कारक है। कार्य की उत्पत्ति दो कारणों से होती है- <br />
#उपादान और <br />
#निमित्त (सहकारी)। <br />
*उपादान वह है जो स्वयं कार्यरूप परिणत होता है और निमित्त वह है जो उसमें सहायक होता है। उदाहरणार्थ घड़े की उत्पत्ति में मृत्पिण्ड उपादान और दण्ड चक्र, चीवर, कुंभकार प्रभृति निमित्त हैं। <br />
*न्यायदर्शन में इन दो कारणो के अतिरिक्त एक तीसरा कारण भी स्वीकृत है वह है असमवायि पर वह समवायि कारणगत रूपादि और संयोगरूप होने से उसे अन्य दर्शनों में उस से भिन्न नहीं माना। <br />
*ज्ञापकतत्त्व भी दो प्रकार का है-<br />
#प्रमाण<ref>डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार पृ. 58 का मूल व टिप्पणी 1; 'प्रमाणनयैरधिगम:'-त.सू. 1-6 'प्रमाणनयाभ्यां हि विवेचिता जीवादय: पदार्थ: सम्यगधिगम्यन्ते।'- न्या.दी. पृ. 2, वीर सेवामंदिर, दिल्ली संस्करण</ref> और <br />
#नय<ref>'प्रमाणादर्थ संसिद्धिस्तदाभासासाद्विपर्यय:। 'परीक्षामु. श्लो. 1</ref> <br />
<br />
==प्रमाण-भेद==<br />
*[[वैशेषिक दर्शन]] के प्रणेता [[कणाद]] ने<ref> वैशेषिक सूत्र 10/1/3</ref> प्रमाण के प्रत्यक्ष और लैंगिक- ये दो भेद स्वीकार किये हैं। उन्होंने इन दो के सिवाय न अन्य प्रमाणों की संभावना की है और न न्यायसूत्रकार अक्षपाद की तरह स्वीकृत प्रमाणों में अन्तर्भाव आदि की चर्चा ही की है। इससे प्रतीत होता है कि प्रमाण के उक्त दो भेदों की मान्यता प्राचीन है। इसके अतिरिक्त चार्वाक ने प्रत्यक्ष को माना और मात्र अनुमान की समीक्षा की है<ref>सर्वदर्शन सं., चार्वाकदर्शन, पृ. 3</ref>,अन्य उपमान, आगम आदि की नहीं। जबकि न्याय सूत्रकार ने<ref>न्यायसूत्र 2/2/1, 2</ref> *प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम (शब्द)- इन चार प्रमाणों को स्वीकार किया है तथा ऐतिह्य, अर्थापत्ति, संभव और अभाव-इन चार का स्पष्ट रूप से उल्लेख करके उनकी अतिरिक्त प्रमाणता की आलोचना की हें साथ ही शब्द में ऐतिह्य का और अनुमान में शेष तीनों का अन्तर्भाव प्रदर्शित किया है। <br />
*कणाद के व्याख्याकार प्रशस्तपाद ने<ref>प्रश. भा., पृ. 106-111</ref> अवश्य उनके मान्य प्रत्यक्ष और लैंगिक इन दो प्रमाणों का समर्थन करते हुए उल्लिखित शब्द आदि प्रमाणों का इन्हीं दो में समावेश किया है तथा चेष्टा, निर्णय, आर्ष (प्रातिभ) और सिद्ध दर्शन को भी इन्हीं दो के अन्तर्गत सिद्ध किया है। यदि वैशेषिक दर्शन से पूर्व न्यायदर्शन या अन्य दर्शन की प्रमाण भेद परम्परा होती, तो चार्वाक उसके प्रमाणों की अवश्य आलोचना करता। इससे विदित होता है कि वैशेषिक दर्शन की प्रमाण-द्वय की मान्यता सब से प्राचीन है। <br />
*वैशेषिकों की<ref>वैशे. सू. 10/1/3</ref>तरह बौद्धों ने<ref>दिग्नाग, प्रमाण समु.प्र.परि.का. 2, पृ. 4</ref> भी प्रत्यक्ष और अनुमान- इन दो प्रमाणों की स्वीकार किया है। <br />
*शब्द सहित तीनों को सांख्यों ने<ref>सांख्य का. 4</ref>, उपमान सहित चारों को नैयायिकों ने<ref>न्याय सू. 1/1/3</ref>और अर्थापत्ति तथा अभाव सहित छह प्रमाणों को जैमिनीयों (मीमांसकों) ने<ref>शावरभा. 1/1/5</ref> मान्य किया है। कुछ काल बाद जैमिनीय दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गये- <br />
#भाट्ट (कुमारिल भट्ट के अनुगामी) और <br />
#प्राभाकर (प्रभाकर के अनुयायी)। <br />
भाट्टों ने छहों प्रमाणों को माना। पर प्राभाकरों ने अभाव प्रमाण को छोड़ दिया तथा शेष पाँच प्रमाणों को अंगीकार किया। इस तरह विभिन्न दर्शनों में प्रमाण-भेद की मान्यताएँ<ref>जैमिने: षट् प्रमाणानि चत्वारि न्यायवादिन:। सांख्यस्य त्रीणि वाच्यानि द्वे वैशेषिकबौद्धयो:॥ - प्रमेयर. 2/2 का टि.</ref> दार्शनिक क्षेत्र में चर्चित हैं।<br /><br />
====जैन न्याय में प्रमाण-भेद====<br />
*जैन न्याय में प्रमाण के श्वेताम्बर परम्परा में मान्य भगवती सूत्र<ref>भगवती सूत्र 5/3/191-192</ref> और स्थानांग सूत्र में<ref>स्थानांग सूत्र 338</ref> चार प्रमाणों का उल्लेख है- <br />
#प्रत्यक्ष, <br />
#अनुमान, <br />
#उपमान और <br />
#आगम। <br />
*स्थानांग सूत्र में<ref>स्थानांग सूत्र 185</ref> व्यवसाय के तीन भेदों द्वारा प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणों का भी निर्देश है। <br />
*संभव है [[सिद्धसेन]]<ref>न्यायाव. का 8</ref> और [[हरिभद्र]] के<ref>अनेका.ज.प.टी. पृ. 142, 215</ref> तीन प्रमाणों की मान्यता का आधार यही स्थानांग सूत्र हो। <br />
*श्री पं. दलसुख मालवणिया का विचार है<ref>आगम युग का जैन दर्शन पृ. 136 से 138</ref> कि उपर्युक्त चार प्रमाणों की मान्यता नैयायिकादि सम्मत और तीन प्रमाणों का कन सांख्यादि स्वीकृत परम्परा मूलक हों तो आश्चर्य नहीं। यदि ऐसा हो तो भगवती सूत्र और स्थानांग सूत्र के क्रमश: चार और तीन प्रमाणों की मान्यता लोकानुसरण की सूचक होने से अर्वाचीन होना चाहिए। <br />
*दिगम्बर परम्परा के षड्खंडागम में<ref>भूतबली. पुष्पदन्त, षट्खण्डा. 1/1/15 तथा जैन तर्क शा.अनु.वि. पृ. 71 व इसका नं. 5 टिप्पणी</ref> मात्र तीन ज्ञानमीमांसा उपलब्ध होती है। वहाँ तीन प्रकार के मिथ्या ज्ञान और पाँच प्रकार के सम्यग्ज्ञान को गिनाकर आठ ज्ञानों का निरूपण किया गया है। वहाँ प्रमाणाभास के रूप में ज्ञानों का विभाजन नहीं है और न प्रमाण तथा प्रमाणाभास शब्द ही वहाँ उपलब्ध होते हैं। <br />
*कुन्दकुन्द<ref>नियमसार गा. 10, 11, 12, प्रवचनसार प्रथम ज्ञानाधिकार</ref> के ग्रन्थों में भी ज्ञानमीमांसा की ही चर्चा है, प्रमाण मीमांसा की नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि उस प्राचीनकाल में सम्यक और मिथ्या मानकर तो ज्ञान का कथन किया जाता था, किन्तु प्रमाण और प्रमाणाभास मानकर नहीं, पर एक वर्ग के ज्ञानों को सम्यक और दूसरे वर्ग के ज्ञानों को मिथ्या प्रतिपादन करने से अवगत होता है कि जो ज्ञान सम्यक कहे गये हैं वे सम्यक परिच्छित्ति कराने से प्रमाण तथा जिन्हें मिथ्या बताया गया है वे मिथ्या प्रतिपत्ति कराने से अप्रमाण (प्रमाणाभास) इष्ट है।<ref>यह उस समय की प्रतिपादन शैली थी। वैशेषिक दर्शन के प्रवर्त्तक कणाद ने भी इसी शैली से बुद्धि के अविद्या और विद्या ये दो भेद बतलाकर अविद्या के संशय आदि चार तथा विद्या के प्रत्यक्षादि चार भेद कहे हैं तथा दूषित ज्ञान (मिथ्या ज्ञान) को अविद्या और निर्दोष ज्ञान को-सम्यग्ज्ञान का विद्या का लक्षण कहा है। - वैशे.सू. 9/2/7, 8, 10 से 13 तथा 10/1/3</ref> इसकी संपुष्टि तत्त्वार्थसूत्रकार<ref>त.सू. 1/9, 10</ref> के निम्न प्रतिपादन से भी होती है-<br />
<poem>मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानिज्ञानम्। <br />
तत्प्रमाणे'। 'मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च। -तत्त्वार्थसूत्र 1-9, 10, 31 ।</poem><br />
इस प्रकार सम्यग्ज्ञान या प्रमाण के मति, श्रुत, अवधि आदि पाँच भेदों की परम्परा आगम में उपलब्ध होती है, जो अत्यन्त प्राचीन है और जिस पर लोकानुसरण का कोई प्रभाव नहीं है। <br />
<br />
==तर्कशास्त्र में परोक्ष के भेद==<br />
<br />
तर्कशास्त्र में परोक्ष के पाँच भेद माने गये हैं<ref>माणिक्यनन्दि, प. मु. 3-1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10</ref>- <br />
#स्मृति<br />
#प्रत्यभिज्ञान <br />
#तर्क<br />
#अनुमान <br />
#आगम<br />
यद्यपि आगम में आरम्भ के चार ज्ञानों को मतिज्ञान और आगम को श्रुतज्ञान कहकर दोनों को परोक्ष कहा है और इस तरह तर्कशास्त्र तथा आगम के निरूपणों में अन्तर नहीं है।<br />
<br />
====स्मृति====<br />
<br />
पूर्वानुभूत वस्तु के स्मरण को स्मृति कहते हैं। यथा 'वह' इस प्रकार से उल्लिखित होने वाला ज्ञान। यह ज्ञान अविसंवादि होता है, इसलिए प्रमाण है। यदि कदाचित् उसमें विसंवाद हो तो वह स्मृत्याभास है। इसे अप्रमाण नहीं माना जा सकता, अन्यथा व्याप्ति स्मरणपूर्वक होने वाला अनुमान प्रमाण नहीं हो सकता और बिना व्याप्ति स्मरण के अनुमान संभव नहीं है। अत: स्मृति को प्रमाण मानना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है।<ref>विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. 36 व पृ. 42, वीर सेवा. ट्र., वाराणसी</ref><br />
<br />
====प्रत्यभिज्ञान====<br />
<br />
अनुभव तथा स्मरणपूर्वक होने वाला जोड़ रूप ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है इसे प्रत्यभिज्ञा, प्रत्यवमर्श और संज्ञा भी कहते हैं। जैसे- 'यह वही देवदत्त हे, अथवा यह (गवय) गौ के समान है, यह (महिष) गौ से भिन्न है, आदि। पहला एकत्व प्रत्यभिज्ञान का उदाहरण है, दूसरा सादृश्य प्रत्यभिज्ञान और तीसरा वैसा दृश्य प्रत्यभिज्ञान का है। संकलनात्मक जितने ज्ञान हैं वे इसी प्रत्यभिज्ञान में समाहित होते हैं। उपमान प्रमाण इसी के सादृश्य प्रत्यभिज्ञान में अन्तर्भूत होता है, अन्यथा वैसा दृश्य आदि प्रत्यभिज्ञान भी पृथक् प्रमाण मानना पड़ेंगे। यह भी प्रत्यक्षादि की तरह अविसंवादी होने से प्रमाण है, अप्रमाण नहीं। यदि कोई प्रत्यभिज्ञान विसंवाद (भ्रमादि) पैदा करता है तो उसे प्रत्यभिज्ञानाभास जानना चाहिए। <br />
<br />
====तर्क====<br />
जो ज्ञान अन्वय और व्यतिरेकपूर्वक व्याप्ति का निश्चय कराता है वह तर्क है। इसे ऊह, ऊहा और चिन्ता भी कहा जाता है। 'इसके होने पर ही यह होता है', यह अन्वय है और 'इसके न होने पर यह नहीं होता', यह व्यतिरेक है, इन दोनों पूर्वक यह ज्ञान साध्य के साथ साधन में व्याप्ति का निर्माण कराता है। इसका उदाहरण है- 'अग्नि के होने पर ही धूम होता है, अग्नि के अभाव में धूम नहीं होता' इस प्रकार अग्नि के साथ धूम की व्याप्ति का निश्चय कराना तर्क है। इससे सम्यक अनुमान का मार्ग प्रशस्त होता है। <br />
<br />
====अनुमान====<br />
<br />
निश्चित साध्याविनाभावी साधन से होने वाला साध्य का ज्ञान अनुमान कहलाता है।<ref>विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. 45, 46, 47, 48, 49; वीर सेवा. ट्र., वाराणसी</ref> जैसे धूम से अग्नि का ज्ञान करना।<br />
<br />
=====अनुमान के अंग:- साध्य और साधन=====<br />
<br />
इस अनुमान के मुख्य घटक (अंग) दो हैं- <br />
#साध्य और <br />
#साधन। <br />
*साध्य तो वह है, जिसे सिद्ध किया जाता है और वह वही होता है जो शक्य (अबाधित), अभिप्रत (वादी द्वारा इष्ट) और असिद्ध (प्रतिवादी के लिए अमान्य) होता है तथा इससे जो विपरीत (बाधित, अनिष्ट और सिद्ध) होता है वह साध्याभास है, क्योंकि वह साधन द्वारा विषय (निश्चय) नहीं किया जाता। [[अकलंकदेव]] ने साध्य और साध्याभास का लक्षण करते हुए यही लिखा है-<br />
<poem>साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धं ततोऽपरम्।<br />
साध्याभासं विरुद्धादि, साधनाविषयत्वत:॥ न्यायविनिश्चय 2-172</poem><br />
*साधन वह है जिसका साध्य के साथ अविनाभाव निश्चित है- साध्य के होने पर ही होता है, उसके अभाव में नहीं होता। ऐसा साधन ही साध्य का गमक (अनुमापक) होता है। साधन को हेतु और लिङ्ग भी कहा जाता है। माणिक्यनन्दि साधन का लक्षण करते हुए कहते हैं-<br />
साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतु:।<ref>परीक्षामुखसूत्र 3-15</ref>' साध्य के साथ जिसका अविनाभाव निश्चित है वह हेतु है। <br />
<br />
==अविनाभाव-भेद==<br />
<br />
अविनाभाव दो प्रकार का है<ref>माणिक्यनन्दि, प.मु. 3-16, 17, 18</ref>-<br />
#सहभाव नियम और <br />
#क्रमभाव नियम। <br />
*जो सहचारी और व्याप्य-व्यापक होते हैं उनमें सहभाव नियम अविनाभाव रहता है। जैसे रूप और रस दोनों सहचारी हैं- रूप के साथ रस और रस के साथ रूप नियम से रहता है। अत: दोनों सहचारी हैं और इसलिए उनमें सहभाव नियम अविनाभाव है तथा शिंशपात्व और वृक्षत्व इन दोनों में व्याप्य-व्यापक भाव है। शिंशपात्व व्याप्य है और वृक्षत्व व्यापक है। शिंशपात्व होने पर वृक्षत्व अवश्य होता है। किन्तु वृक्षत्व के होने पर शिंशपात्व के होने का नियम नहीं है। अतएव सहचारियों और व्याप्य-व्यापक में सहभाव नियम अविनाभाव होता है, जिससे रूप से रस का और शिंशपात्व से वृक्षत्व का अनुमान किया जाता है। <br />
<br />
==हेतु-भेद==<br />
<br />
इन दोनों प्रकार के अविनाभाव से विशिष्ट हेतु के भेदों का कथन जैन न्यायशास्त्र में विस्तार से किया गया है, जिसे हमने 'जैन तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार' ग्रन्थ में विशदतया दिया है। अत: उस सबकी पुनरावृत्ति न करके मात्र माणिक्यनन्दि के 'परीक्षामुख' के अनुसार उनका दिग्दर्शन किया जाता है।<ref>माणिक्यनन्दि, प. मु. 3-57 58, 59, 65 से 79 तक</ref><br />
*माणिक्यनन्दि ने अकलंकदेव की तरह आरम्भ में हेतु के मूल दो भेद बतलाये हैं-<br />
#उपलब्धि और <br />
#अनुपलब्धि। <br />
*तथा इन दोनों को विधि और प्रतिषेध उभय का साधक कहा है और इस तरह दोनों के उन्होंने दो-दो भेद कहे हैं। उपलब्धि के- <br />
#अविरुद्धोपलब्धि और <br />
#विरुद्धोपलब्धि <br />
*अनुपलब्धि के- <br />
#अविरुद्धानुपलब्धि और <br />
#विरुद्धानुपलब्धि <br />
*इनके प्रत्येक के भेद इस प्रकार प्रतिपादित किये हैं- <br />
*अविरुद्धोपलब्धि छह- <br />
#व्याप्त, <br />
#कार्य,<br />
#कारण, <br />
#पूर्वचर, <br />
#उत्तरचर और <br />
#सहचर।<br />
*विरुद्धोपलब्धि के भी अविरुद्धोपलब्धि की तरह छह भेद हैं- <br />
#विरुद्ध व्याप्य, <br />
#विरुद्ध कार्य, <br />
#विरुद्ध कारण, <br />
#विरुद्ध पूर्वचर, <br />
#विरुद्ध उत्तरचर और <br />
#विरुद्ध-सहचर। <br />
*अविरुद्धानुपलब्धि प्रतिषेध रूप साध्य को सिद्ध करने की अपेक्षा 7. प्रकार की कही है- <br />
#अविरुद्धस्वभावानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धव्यापकानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धकार्यानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धकारणानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धपूर्वचरानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धउत्तरचरानुपलब्धि और <br />
#अविरुद्धसहचरानुपलब्धि। <br />
*विरुद्धानुपलब्धि विधि रूप साध्य को सिद्ध करने में तीन प्रकार की कही गयी है- <br />
#विरुद्धकार्यानुपलब्धि, <br />
#विरुद्धकारणानुपलब्धि और <br />
#विरुद्धस्वभावानुपलब्धि। <br />
*इस तरह माणिक्यनन्दि ने 6+6+7= 22 हेतुभेदों का सोदाहरण निरूपण किया है, परम्परा हेतुओं की भी उन्होंने संभावना करके उन्हें यथायोग्य उक्त हेतुओं में ही अन्तर्भाव करने का इंगित किया है। साथ ही उन्होंने अपने पूर्वज अकलंक की भांति कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर-इन नये हेतुओं को पृथक् मानने की आवश्यकता को भी सयुक्तिक बतलाया है।<br />
<br />
<br />
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}<br />
{{संदर्भ ग्रंथ}}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
<br />
==बाहरी कड़ियाँ==<br />
<br />
==संबंधित लेख==<br />
{{जैन दर्शन के अंग}}{{जैन धर्म}}{{संस्कृत साहित्य}}{{जैन धर्म2}}{{दर्शन शास्त्र}}<br />
<br />
[[Category:जैन दर्शन]]<br />
[[Category:दर्शन कोश]]<br />
<br />
__INDEX__<br />
__NOTOC__</div>हिमानीhttps://en.bharatdiscovery.org/w/index.php?title=%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A4%BE_-%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8_%E0%A4%A6%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6%E0%A4%A8&diff=209636द्रव्य मीमांसा -जैन दर्शन2011-08-22T12:34:41Z<p>हिमानी: </p>
<hr />
<div>[[वैशेषिक दर्शन|वैशेषिक]], भाट्ट और प्रभाकर दर्शनों में [[द्रव्य]] और [[पदार्थ]] दोनों को स्वीकार कर उनका विवेचन किया गया है। तथा [[सांख्य दर्शन]] और [[बौद्ध दर्शन|बौद्ध दर्शनों]] में क्रमश: तत्त्व और आर्य सत्यों का कथन किया गया है, वेदान्त दर्शन में केवल ब्रह्म (आत्मतत्व) और [[चार्वाक दर्शन]] में भूत तत्त्वों को माना गया है, वहाँ [[जैन दर्शन]] में द्रव्य, पदार्थ, तत्त्व, और अस्तिकाय को स्वीकार कर उन सबका पृथक-पृथक विस्तृत निरूपण किया गया है।<ref>त्रैकाल्यं द्रव्यषट्कं नवपदसहितं जीवषट्काय - लेश्या:,<br />
पंचान्ये चास्तिकाया व्रत समिति-गति-ज्ञान- चारित्रभेदा:।<br />
इत्येतन्मोक्षमूलं त्रिभुवनमहितै: प्रोक्तमर्हदिभरीशै:<br />
प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान् य: स वै शुद्धदृष्टि:॥ - स्तवनसंकलन।</ref> <br />
*जो ज्ञेय के रूप में वर्णित है और जिनमें हेय-उपादेय का विभाजन नहीं है पर तत्त्वज्ञान की दृष्टि से जिनका जानना ज़रूरी है तथा गुण और पर्यायों वाले हैं एवं उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त हैं, वे द्रव्य हैं। <br />
*तत्त्व का अर्थ मतलब या प्रयोजन है। जो अपने हित का साधक है वह उपादेय है और जो आत्महित में बाधक है वह हेय है। उपादेय एवं हेय की दृष्टि से जिनका प्रतिपादन के उन्हें तत्त्व कहा गया है। <br />
*भाषा के पदों द्वारा जो अभिधेय है वे पदार्थ हैं। उन्हें पदार्थ कहने का एक अभिप्राय यह भी है कि 'अर्थ्यतेऽभिलष्यते मुमुक्षुभिरित्यर्थ:' मुमुक्षुओं के द्वारा उनकी अभिलाषा की जाती है, अत: उन्हें अर्थ या पदार्थ कहा गया है। <br />
*अस्तिकाय की परिभाषा करते हुए कहा है कि जो 'अस्ति' और 'काय' दोनों है। 'अस्ति' का अर्थ 'है' है और 'काय' का अर्थ 'बहुप्रदेशी' है अर्थात जो द्रव्य है' होकर कायवाले- बहुप्रदेशी हैं, वे 'अस्तिकाय' हैं।<ref>पंचास्तिकाय, गा. 4-5 द्रव्य सं. गा. 24</ref> ऐसे पाँच द्रव्य हैं- <br />
#पुद्गल, <br />
#धर्म,<br />
#अधर्म, <br />
#आकाश और <br />
#जीव, <br />
#कालद्रव्य एक प्रदेशी होने से अस्तिकाय नहीं है।<br />
<br />
==द्रव्य का स्वरूप==<br />
<br />
आचार्य कुन्दकुन्द<ref>पंचास्तिकाय, गा. 10</ref> और [[गृद्धपिच्छ]]<ref>तत्त्व सूत्र 5-29, 30</ref> ने द्रव्य का स्वरूप दो तरह से बतलाया है। एक है, जो सत है वह द्रव्य है और सत वह है जिसमें उत्पाद (उत्पत्ति), व्यय (विनाश) और ध्रौव्य (स्थिति) ये तीनों पाये जाते हैं। विश्व की सारी वस्तुएँ इन तीन रूप हैं। उदाहरणार्थ एक स्वर्ण घट को लीजिए। जब उसे मिटाकर स्वर्णकार मुकुट बनाता है तो हमें घट का विनाश, मुकुट का उत्पाद और स्वर्ण के रूप में उसकी स्थिति तीनों दिखायी देते हैं। इसका सबसे बड़ा साक्ष्य (प्रमाण) यह है<ref> घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम्। <br />
शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम्॥– समन्तभद्र, आप्तमी. का 59</ref> कि घट चाहने वाले को उसके मिटने पर शोक, मुकुट चाहने वाले को मुकुट बनने पर हर्ष और स्वर्ण चाहने वाले को उसके मिटने पर न शोक होता है और मुकुट बनने पर न हर्ष होता है किन्तु वह मध्यस्थ (शोक-हर्ष विहीन) रहता है, क्योंकि वह जानता है कि स्वर्ण दोनों अवस्थाओं में विद्यमान रहता है।<br />
<br />
==द्रव्य के भेद==<br />
<br />
मूलत: द्रव्य के दो भेद हैं<ref>द्रव्यसं. गा. 1, त.सू. 5-1, 2, 3</ref>- <br />
#जीव और <br />
#अजीव। <br />
*चेतन को जीव और अचेतना को अजीव द्रव्य कहा गया है। तात्पर्य यह कि जिसमें चेतना पायी जाती है वह जीव द्रव्य है और जिसमें चेतना नहीं है वह अजीव द्रव्य है। चेतना का अर्थ है जिसके द्वारा जाना और देखा जाए और इसलिए उसके दो भेद कहे हैं- <br />
#ज्ञान चेतना और <br />
#दर्शन चेतना। ज्ञान चेतना को ज्ञानोपयोग और दर्शनचेतना को दर्शनोपयोग भी कहते हैं। व्यवसायात्मक रूप से जो वस्तु का विशेष ग्रहण होता है वह ज्ञानचेतना अथवा ज्ञानोपयोग है और अव्यवसाय (विकल्परहित) रूप से जो पदार्थ का सामान्य ग्रहण होता है वह दर्शनचेतना अथवा दर्शनोपयोग है। पूज्यपाद-देवनंदि ने कहा है<ref>सर्वार्थसिद्धि 2-9</ref> 'साकारं ज्ञानं निराकारं दर्शनम्' आकार विकल्प सहित ग्रहण का नाम ज्ञान है और आकार रहित ग्रहण का नाम दर्शन है। <br />
<br />
==जीवद्रव्य और उसके भेद==<br />
<br />
जीवद्रव्य दो वर्गों में विभक्त है<ref>तत्त्व सूत्र 2-10, पंचास्तिकाय, गा. 109</ref>- <br />
#संसारी और <br />
#मुक्त। <br />
*संसारी जीव वे हैं, जो संसार में जन्म-मरण–व्याधि आदि के चक्र में फँसे हुए हैं। ये नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव-इन चारों गतियों में बार-बार पैदा होते और मरते हैं तथा जैसा उनका कर्मविपाक होता है तदनुसार वे वहाँ अच्छा-बुरा फल भोगते हैं। ये दो तरह के हैं<ref>तत्त्व सूत्र 2-12</ref>- <br />
#त्रस और <br />
#स्थावर।<br />
*दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पाँच इन्द्रिय के भेद से जीव चार प्रकार के हैं।<ref>तत्त्व सूत्र 2-14</ref> दो इन्द्रिय आदि जीवों की भी अनेक जातियाँ हैं। उदाहरण के लिए पंचेन्द्रिय जीवों को लें। इनके दो भेद हैं<ref>तत्त्व सूत्र 2-11, 24</ref> <br />
#संज्ञी, <br />
#असंज्ञी। <br />
*जिनके मन पाया जाए वे संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव कहे जाते हैं। मनुष्य, देव, और नारकी संज्ञी पंचेन्द्रिय ही होते हैं। असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव वे हैं जिनके मन न हो और जो सोच-विचार न कर सकते हों तथा न शिक्षा ग्रहण कर सकते हों। तिर्यंचगति में एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी, संज्ञी पंचेद्रिय सभी प्रकार के जीव होते हैं। <br />
*संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के भी तीन भेद हैं- <br />
#जलचर- जल में रहने वाले मगर, मत्स्य आदि। <br />
#थलचर- ज़मीन पर चलने वाले गाय, भैंस, गदहा, शेर, हाथी आदि और <br />
#नभचर- आकाश में उड़ने वाले कौआ, कोयल, कबूतर, चिड़िया आदि पक्षी। <br />
*जिनके मात्र एक स्पर्शन इन्द्रिय, स्पर्श बोध कराने वाली इन्द्रिय पायी जाती है, वे स्थावर जीव हैं।<ref>तत्त्वार्थसूत्र 2-13, 22। द्रव्यसं. गा. 11</ref> ये पांच प्रकार के होते हैं।– <br />
#पृथ्वी-कायिक, <br />
#जलकायिक, <br />
#अग्निकायिक, <br />
#वायुकायिक और <br />
#वनस्पतिकायिक।<br />
*मुक्तजीव वे कहे गए हैं<ref> द्रव्यसं., गा. त.सू. 10-1, 2, 3</ref> जो संसार के बंधनों और दु:खों से छूट मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। जैन दर्शन में ऐसे जीवों को 'परम-आत्मा' परमात्मा कहा गया है। ये दो प्रकार के होते हैं- <br />
#सकल परमात्मा (आप्त), और <br />
#निकल परमात्मा (सिद्ध)।<br />
*जिनका कुछ कल अवशेष है वे सकल परमात्मा, जीवन मुक्त ईश्वर हैं। जिनका वह कल, अघाति कर्ममल दूर हो जाता है वे नि: निर्गत:- निष्क्रान्त: कलोऽघातिचतुष्टयरूपो येषाम् ते, निकल परमात्मा, सिद्ध परमेष्ठी है। <br />
<br />
==अजीवद्रव्य और उसके भेद==<br />
<br />
चेतना-रहित द्रव्य अजीव द्रव्य है। इसे निर्जीव जड़, अचेतन आदि नामों से भी कहा जाता है। जैसे- काष्ठ, लोष्ठ आदि। इसके पांच भेद हैं<ref>तत्त्व सूत्र 5-1, 2, 4, द्रव्यसं. गा. 15</ref>-<br />
#पुद्गल<br />
#धर्म <br />
#अधर्म<br />
#आकाश<br />
#काल। इनमें पुद्गल तो सभी के नेत्र आदि पांचों इन्द्रियों द्वारा अनुभव में अहर्निश आता है। शेष चार द्रव्य अतीन्द्रिय हैं। जीव और पुद्गल की गति, स्थिति, आधार और परिणमन में अनिवार्य निमित्त (सहायक) होने से उनकी उपयोगिता एवं आवश्यकता सिद्ध है। तथा युक्ति और आगम से भी वे सिद्ध हैं।<br />
*पुद्गल<ref>तत्त्व सूत्र 5-5, द्रव्यसं. गर. 15, 16</ref>- जो पूरण-गलन (बनने-मिटने) के स्वभाव को लिए हुए है, उसे पुद्गल कहा गया है। जैसे घड़ा, कपड़ा, चटाई मकान, वाहन आदि। यह सूक्ष्म और स्थूल अथवा अणु और स्कन्ध के रूप में समस्त लोक में पाया जाता है। यह इन्द्रिय ग्राह्य और इन्द्रिय-अग्राह्य दोनों प्रकार का है। इसमें रूप, रस, गन्ध, और स्पर्श पाये जाते हैं, जो उस के गुण हैं। <br />
#रूप पांच प्रकार का है- काला, पीला, नील, लाल और सफ़ेद। इन्हें यथा योग्य मिलाकर और रूप भी बनाये जा सकते हैं। इनका ज्ञान चक्षु:इन्द्रिय से होता है। <br />
#रस भी पांच तरह का है- खट्टा, मीठा, कडुवा, कषायला और चर्परा। इनका ग्रहण रसना (जिह्वा) इन्द्रिय से होता है। <br />
#गन्ध दो प्रकार का है- सुगन्ध और दुर्गन्ध। इन दोनों गन्धों का ज्ञान घ्राण (नासिका) इन्द्रिय से होता है। <br />
#स्पर्श के आठ भेद हैं- कड़ा, नरम, हलका, भारी, ठंडा, गर्म, चिकना और रूखा। इन आठों स्पर्शों का ज्ञान स्पर्शन इन्द्रिय से होता है। ये रूपादि बीस गुण पुद्गल में ही पाये जाते हैं<ref>द्रव्यसं. गा. 15, त.सू. 5-23</ref>, अन्य द्रव्यों से नहीं। अत: पुद्गल को ही रूपी (मूर्तिक) और शेष द्रव्यों को अरूपी (अमूर्तिक) कहा गया है। <br />
*धर्म-द्रव्य- यह द्रव्य<ref>द्रव्य. सं. गा. 17, त.सू. 5-17, पंचास्ति. 85</ref> गमन करते हुए जीवों और पुद्गलों की गति में उदासीन (सामान्य) सहायक उसी प्रकार होता है जिस प्रकार मछली की गति में जल, रेल के चलने में रेल की पटरी अथवा वृद्ध के गमन में लाठी। यह द्रव्य 'तिलेषु तैलम्' की तरह लोक में सर्वत्र व्याप्त है। इसके बिना कोई भी जीव या पुद्गल गति नहीं कर सकता। इसके कुम्हार के चाक की कीली आदि और उदाहरण दिये जा सकते हैं। <br />
*अधर्म द्रव्य- यह<ref>द्रव्यसंग्रह गा. 18, त.सू. 5-17 पंचास्ति गा. 86</ref> धर्म द्रव्यसे विपरीत है। यह जीवों और पुद्गलों की स्थिति (ठहरने) मं सामान्य निमित्त है। जैसे वृक्ष की छाया पथिकको ठहरने में सहायक होती है अथवा यात्री को धर्मशाला या स्टेशन। ध्यातव्य है कि यह अधर्म द्रव्य और उपर्युक्त धर्मद्रव्य दोनों अप्रेरक निमित्त हैं<ref>पंचास्ति, गा. 88, 89, द्रव्यसं. गा. 17, 18</ref> और अतीन्द्रिय हैं तथा दोनों पुण्य एवं पापरूप धर्म-अधर्म नहीं है- उनसे ये दोनों पृथक् हैं। <br />
*आकाश-द्रव्य<ref>द्रव्यं सं. गा. 19, त.सू. 5-18, पंचास्ति. गा. 90</ref>- यह जीव आदि सभी (पांचों) द्रव्यों को अवकाश देता है। सभी द्रव्य इसी में अवस्थित हैं। अत: सबके अवस्थान में यह सामान्य निमित्त हैं यह दो भागों में विभक्त है<ref>पंचास्ति गा. 91, द्रव्यसं. गा. 20</ref> <br />
#लोकाकाश<br />
#आलोकाकाश <br />
जितने आकाश में, जो उसका असंख्यात वां भाग है, जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल ये पांच द्रव्य पाये जाते हैं वह लोकाकाश है और उसके चारों ओर केवल एक आकाश द्रव्य है और जो चारों ओर अनन्त-अनन्त है वह अलोकाकाश हे। यह इसकी अवगाहन शक्ति की विशेषता है कि असंख्यात प्रदेशी लोकाकाश में अनन्तानन्त जीव, अनन्तानन्त पुद्गल, असंख्यात कालाणू, एक असंख्यात प्रदेशी धर्मद्रव्य और एक असंख्यात प्रदेशी अधर्म द्रव्य ये सब परस्पर के अविरोधपूर्वक अवस्थित हैं। अलोकाकाश में आकाश के सिवाय अन्य कोई द्रव्य नहीं है। <br />
*कालद्रव्य- यह<ref>पंचास्ति गा. 100, द्रव्य सं. गा. 21, 22</ref>द्रव्यों की वर्तना, परिणमन, क्रिया, परत्व (ज्येष्ठत्व) और अपरत्व (कनिष्ठत्व) के व्यवहार में सहायक (उदासीन-अप्रेरक निमित्त) होता है। यह द्रव्य न हो, तो जीवों में बाल्य, युवा, वार्धक्य और पुद्गलों में नवीनता, जीर्णता जैसा परिवर्तन, ऋतु-पलटन, दिन-रात पक्ष-मास-वर्ष आदि का विभाग, आयु की अपेक्षा ज्येष्ठ-कनिष्ठ आदि का व्यवहार सम्भव नहीं है। यह दो प्रकार का है- <br />
#निश्चय काल<br />
#व्यवहारकाल <br />
<br />
जो द्रव्यों की वर्त्तना (सत्ता) में निमित्त है वह निश्चय काल अथवा परमार्थ काल है तथा जो द्रव्यों के परिवर्तन आदि से जाना जाता है वह व्यवहार काल है।<br />
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}<br />
{{संदर्भ ग्रंथ}}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
<br />
==बाहरी कड़ियाँ==<br />
<br />
==संबंधित लेख==<br />
{{जैन दर्शन के अंग}}{{जैन धर्म2}}{{संस्कृत साहित्य}}{{दर्शन शास्त्र}}{{जैन धर्म}}<br />
[[Category:दर्शन कोश]]<br />
[[Category:जैन दर्शन]] <br />
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<hr />
<div>जैन दर्शन में स्याद्वाद उसी प्रकार अनेकान्त का वाचक अथवा व्यवस्थापक है जिस प्रकार ज्ञान उस अनेकान्त का व्यापक अथवा व्यवस्थापक है। जब ज्ञान के द्वारा वह जाना जाता है तो दोनों में ज्ञान-ज्ञेय का संबंध होता है और जब वह स्याद्वाद के द्वारा कहा जाता है तो उनमें वाच्य-वाचक संबंध होता है। ज्ञान का महत्त्व यह है कि वह ज्ञेय को जानकर उन ज्ञेयों की व्यवस्था बनाता है- उन्हें मिश्रित नहीं होने देता है। यह अमुक है, यह अमुक नहीं है इस प्रकार वह ज्ञाता को उस उस ज्ञेय की परिच्छित्ति कराता है। स्याद्वाद का भी वही महत्त्व है। वह वचनरूप होने से वाच्य को कहकर उसके अन्य धर्मों की मौन व्यवस्था करता है। ज्ञान और वचन में अंतर यही है कि ज्ञान एक साथ अनेक ज्ञेयों को जान सकता है पर वचन एक बार में एक ही वाच्य धर्म को कह सकता है, क्योंकि 'सकृदुच्चरित शब्द: एकमेवार्थ गमयति' इस नियम के अनुसार एक बार बोला गया वचन एक ही अर्थ का बोध कराता है। <br />
*समन्तभद्र की 'आप्त-मीमांसा', जिसे 'स्याद्वाद-मीमांसा' कहा जा सकता है, ऐसी कृति है, जिसमें एक साथ स्याद्वाद, अनेकान्त और सप्तभंगी तीनों का विशद और विस्तृत विवेचन किया गया है। अकलंकदेव ने उस पर 'अष्टशती' (आप्त मीमांसा- विवृति) और [[विद्यानन्द]] ने उसी पर 'अष्टसहस्त्री' (आप्तमीमांसालंकृति) व्याख्या लिखकर जहाँ आप्तमीमांसा की कारिकाओं एवं उनके पद-वाक्यादिकों का विशद व्याख्यान किया है वहाँ इन तीनों का भी अद्वितीय विवेचन किया है।<br />
==न्याय विद्या==<br />
*'नीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन स न्याय:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार न्याय वह विद्या है जिसके द्वारा वस्तु का स्वरूप निर्णीत किया जाए। इस व्युत्पत्ति के आधार पर कोई प्रमाण को, कोई लक्षण और प्रमाण को, कोई लक्षण, प्रमाण, नय और निक्षेप को तथा कोई पंचावयव-वाक्य के प्रयोग को न्याय कहते हैं क्योंकि इनके द्वारा वस्तु-प्रतिपत्ति होती है। <br />
*न्यायदीपिकाकार अभिनव धर्मभूषण का मत है कि न्याय प्रमाण और नयरूप है। अपने इस मत का समर्थन वे आचार्य गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्रगत उस सूत्र से करते हैं<ref>'प्रमाणनयैरधिगम:'- त.सू. 1-16</ref>, जिसमें कहा गया है कि वस्तु (जीवादि पदार्थों) का अधिगम प्रमाणों तथा नयों से होता है। प्रमाण और नय इन दो को ही अधिगम का उपाय सूत्रकार ने कहा है। उनका आशय है कि चूँकि प्रत्येक वस्तु अखंड (धर्मी) और सखंड (धर्म) दोनों रूप है। उसे अखंडरूप में ग्रहण करने वाला प्रमाण है और खंडरूप में जानने वाला नय है। अत: इन दो के सिवाय किसी तीसरे ज्ञापकोपाय की आवश्यकता नहीं है। <br />
*न्यायविद्या को 'अमृत' भी कहा गया है।<ref>'न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने।' –अनन्तवीर्य, प्रमेयरत्नमाला पृ. 2,2 श्लो. 2</ref> इसका कारण यह कि जिस प्रकार 'अमृत' अमरत्व को प्रदान करता है उसी प्रकार न्यायविद्या भी तत्त्वज्ञान प्राप्त कराकर आत्मा को अमर (मिथ्याज्ञानादि से मुक्त और सम्यग्ज्ञान से युक्त) बना देती है।<br />
<br />
====आगमों में न्याय-विद्या====<br />
*षट्खंडागम<ref>षट्ख. 5।5।51, शोलापुर संस्करण, 1965</ref> में श्रुत के पर्याय-नामों को गिनाते हुए एक नाम 'हेतुवाद' भी दिया गया है, जिसका अर्थ हेतुविद्या, न्यायविद्या, तर्क-शास्त्र और युक्ति-शास्त्र किया है। <br />
*स्थानांगसूत्र<ref>'अथवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते तं जहा- पच्चक्खे अनुमाने उवमे आगमे। अथवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते। तं जहा-अत्थि तं अत्थि सो हेऊ, अत्थि तं णत्थि सो हेऊ, णत्थि तं अत्थि सो हेऊ णत्थि तं णत्थि सो हेऊ।' –स्थानांग स्.-पृ. 309-310, 338</ref> में 'हेतु' शब्द प्रयुक्त है, जिसके दो अर्थ किये गये हैं- <br />
*प्रमाण-सामान्य; इसके [[प्रत्यक्ष]], अनुमान, उपमान और आगम-ये चार भेद हैं। अक्षपाद गौतम के न्यायसूत्र में भी इन चार का प्रतिपादन है। पर उन्होंने इन्हें प्रमाण के भेद कहे हैं। यद्यपि स्थानांगसूत्रकार को भी हेतुशब्द प्रमाण के अर्थ में ही यहाँ विवक्षित है। <br />
*हेतु शब्द का दूसरा अर्थ उन्होंने अनुमान का प्रमुख अंग हेतु (साधन) किया है। उसके निम्न चार भेद किये हैं-<br />
#विधि-विधि (साध्य और साधन दोनों सद्भव रूप)<br />
#विधि-निषेध (साध्य विधिरूप और साधन निषेधरूप)<br />
#निषेध-विधि (साध्य निषेधरूप और हेतु विधिरूप)<br />
#निषेध-निषेध (साध्य और साधन दोनों निषेधरूप)<br />
इन्हें हम क्रमश: निम्न नामों से व्यवहृत कर सकते हैं-<br />
#विधिसाधक विधिरूप<ref>धर्मभूषण, न्यायदीपिका, पृ. 95-99 दिल्ली संस्करण</ref> अविरुद्धोपलब्धि<ref> माणिक्यनन्दि, परीक्षामुख 3/57-58</ref> <br />
#विधिसाधक निषेधरूप विरुद्धानुपलब्धि<br />
#निषेधसाधक विधिरूप विरुद्धोपलब्धि<br />
#निषेधसाधक निषेधरूप अविरुद्धानुपलब्धि<ref>डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ. 24 का टिप्पणी नं. 3</ref> <br />
इनके उदाहरण निम्न प्रकार दिये जा सकते हैं-<br />
#अग्नि है, क्योंकि धूम है। यहाँ साध्य और साधन दोनों विधि (सद्भाव) रूप हैं।<br />
#इस प्राणी में व्याधि विशेष है, क्योंकि स्वस्थचेष्टा नहीं है। साध्य विधिरूप है और साधन निषेधरूप है।<br />
#यहाँ शीतस्पर्श नहीं है, क्योंकि उष्णता है। यहाँ साध्य निषेधरूप व साधन विधिरूप है।<br />
#यहाँ धूम नहीं है, क्योंकि अग्नि का अभाव है। यहाँ साध्य व साधन दोनों निषेधरूप है। <br />
अनुयोगसूत्र में<ref>)डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार पृ. 25 व उसके टिप्पणी</ref> अनुमान और उसके भेदों की विस्तृत चर्चा उपलब्ध है, जिससे ज्ञात होता है कि आगमों में न्यायविद्या एक महत्त्वपूर्ण विद्या के रूप में वर्णित है। आगमोत्तरवर्ती दार्शनिक साहित्य में तो वह उत्तरोत्तर विकसित होती गई है।<br />
==प्रमाण और नय==<br />
*तत्त्वमीमांसा में हेय और उपादेय के रूप में विभक्त जीव आदि सात तत्त्वों का विवेचन हैं। तत्त्व का दूसरा अर्थ वस्तु है।<ref>डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ. 58, 59</ref> यह वस्तुरूप तत्त्व दो प्रकार का है- 1. उपेय और 2. उपाय। उपेय के दो भेद हैं- एक ज्ञाप्य (ज्ञेय) और दूसरा कार्य। जो ज्ञान का विषय होता है वह ज्ञाप्य अथवा ज्ञेय कहा जाता है और जो कारणों द्वारा निष्पाद्य या निष्पन्न होता है वह कार्य है।<br />
*उपाय तत्त्व दो तरह का है- <br />
#कारक, <br />
#ज्ञापक। <br />
*कारक वह है जो कार्य की उत्पत्ति करता है अर्थात कार्य के उत्पादक कारणों का नाम कारक है। कार्य की उत्पत्ति दो कारणों से होती है- <br />
#उपादान और <br />
#निमित्त (सहकारी)। <br />
*उपादान वह है जो स्वयं कार्यरूप परिणत होता है और निमित्त वह है जो उसमें सहायक होता है। उदाहरणार्थ घड़े की उत्पत्ति में मृत्पिण्ड उपादान और दण्ड चक्र, चीवर, कुंभकार प्रभृति निमित्त हैं। <br />
*न्यायदर्शन में इन दो कारणो के अतिरिक्त एक तीसरा कारण भी स्वीकृत है वह है असमवायि पर वह समवायि कारणगत रूपादि और संयोगरूप होने से उसे अन्य दर्शनों में उस से भिन्न नहीं माना। <br />
*ज्ञापकतत्त्व भी दो प्रकार का है-<br />
#प्रमाण<ref>डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार पृ. 58 का मूल व टिप्पणी 1; 'प्रमाणनयैरधिगम:'-त.सू. 1-6 'प्रमाणनयाभ्यां हि विवेचिता जीवादय: पदार्थ: सम्यगधिगम्यन्ते।'- न्या.दी. पृ. 2, वीर सेवामंदिर, दिल्ली संस्करण</ref> और <br />
#नय<ref>'प्रमाणादर्थ संसिद्धिस्तदाभासासाद्विपर्यय:। 'परीक्षामु. श्लो. 1</ref> <br />
<br />
==प्रमाण-भेद==<br />
*[[वैशेषिक दर्शन]] के प्रणेता [[कणाद]] ने<ref> वैशेषिक सूत्र 10/1/3</ref> प्रमाण के प्रत्यक्ष और लैंगिक- ये दो भेद स्वीकार किये हैं। उन्होंने इन दो के सिवाय न अन्य प्रमाणों की संभावना की है और न न्यायसूत्रकार अक्षपाद की तरह स्वीकृत प्रमाणों में अन्तर्भाव आदि की चर्चा ही की है। इससे प्रतीत होता है कि प्रमाण के उक्त दो भेदों की मान्यता प्राचीन है। इसके अतिरिक्त चार्वाक ने प्रत्यक्ष को माना और मात्र अनुमान की समीक्षा की है<ref>सर्वदर्शन सं., चार्वाकदर्शन, पृ. 3</ref>,अन्य उपमान, आगम आदि की नहीं। जबकि न्याय सूत्रकार ने<ref>न्यायसूत्र 2/2/1, 2</ref> *प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम (शब्द)- इन चार प्रमाणों को स्वीकार किया है तथा ऐतिह्य, अर्थापत्ति, संभव और अभाव-इन चार का स्पष्ट रूप से उल्लेख करके उनकी अतिरिक्त प्रमाणता की आलोचना की हें साथ ही शब्द में ऐतिह्य का और अनुमान में शेष तीनों का अन्तर्भाव प्रदर्शित किया है। <br />
*कणाद के व्याख्याकार प्रशस्तपाद ने<ref>प्रश. भा., पृ. 106-111</ref> अवश्य उनके मान्य प्रत्यक्ष और लैंगिक इन दो प्रमाणों का समर्थन करते हुए उल्लिखित शब्द आदि प्रमाणों का इन्हीं दो में समावेश किया है तथा चेष्टा, निर्णय, आर्ष (प्रातिभ) और सिद्ध दर्शन को भी इन्हीं दो के अन्तर्गत सिद्ध किया है। यदि वैशेषिक दर्शन से पूर्व न्यायदर्शन या अन्य दर्शन की प्रमाण भेद परम्परा होती, तो चार्वाक उसके प्रमाणों की अवश्य आलोचना करता। इससे विदित होता है कि वैशेषिक दर्शन की प्रमाण-द्वय की मान्यता सब से प्राचीन है। <br />
*वैशेषिकों की<ref>वैशे. सू. 10/1/3</ref>तरह बौद्धों ने<ref>दिग्नाग, प्रमाण समु.प्र.परि.का. 2, पृ. 4</ref> भी प्रत्यक्ष और अनुमान- इन दो प्रमाणों की स्वीकार किया है। <br />
*शब्द सहित तीनों को सांख्यों ने<ref>सांख्य का. 4</ref>, उपमान सहित चारों को नैयायिकों ने<ref>न्याय सू. 1/1/3</ref>और अर्थापत्ति तथा अभाव सहित छह प्रमाणों को जैमिनीयों (मीमांसकों) ने<ref>शावरभा. 1/1/5</ref> मान्य किया है। कुछ काल बाद जैमिनीय दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गये- <br />
#भाट्ट (कुमारिल भट्ट के अनुगामी) और <br />
#प्राभाकर (प्रभाकर के अनुयायी)। <br />
भाट्टों ने छहों प्रमाणों को माना। पर प्राभाकरों ने अभाव प्रमाण को छोड़ दिया तथा शेष पाँच प्रमाणों को अंगीकार किया। इस तरह विभिन्न दर्शनों में प्रमाण-भेद की मान्यताएँ<ref>जैमिने: षट् प्रमाणानि चत्वारि न्यायवादिन:। सांख्यस्य त्रीणि वाच्यानि द्वे वैशेषिकबौद्धयो:॥ - प्रमेयर. 2/2 का टि.</ref> दार्शनिक क्षेत्र में चर्चित हैं।<br /><br />
====जैन न्याय में प्रमाण-भेद====<br />
*जैन न्याय में प्रमाण के श्वेताम्बर परम्परा में मान्य भगवती सूत्र<ref>भगवती सूत्र 5/3/191-192</ref> और स्थानांग सूत्र में<ref>स्थानांग सूत्र 338</ref> चार प्रमाणों का उल्लेख है- <br />
#प्रत्यक्ष, <br />
#अनुमान, <br />
#उपमान और <br />
#आगम। <br />
*स्थानांग सूत्र में<ref>स्थानांग सूत्र 185</ref> व्यवसाय के तीन भेदों द्वारा प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणों का भी निर्देश है। <br />
*संभव है [[सिद्धसेन]]<ref>न्यायाव. का 8</ref> और [[हरिभद्र]] के<ref>अनेका.ज.प.टी. पृ. 142, 215</ref> तीन प्रमाणों की मान्यता का आधार यही स्थानांग सूत्र हो। <br />
*श्री पं. दलसुख मालवणिया का विचार है<ref>आगम युग का जैन दर्शन पृ. 136 से 138</ref> कि उपर्युक्त चार प्रमाणों की मान्यता नैयायिकादि सम्मत और तीन प्रमाणों का कन सांख्यादि स्वीकृत परम्परा मूलक हों तो आश्चर्य नहीं। यदि ऐसा हो तो भगवती सूत्र और स्थानांग सूत्र के क्रमश: चार और तीन प्रमाणों की मान्यता लोकानुसरण की सूचक होने से अर्वाचीन होना चाहिए। <br />
*दिगम्बर परम्परा के षड्खंडागम में<ref>भूतबली. पुष्पदन्त, षट्खण्डा. 1/1/15 तथा जैन तर्क शा.अनु.वि. पृ. 71 व इसका नं. 5 टिप्पणी</ref> मात्र तीन ज्ञानमीमांसा उपलब्ध होती है। वहाँ तीन प्रकार के मिथ्या ज्ञान और पाँच प्रकार के सम्यग्ज्ञान को गिनाकर आठ ज्ञानों का निरूपण किया गया है। वहाँ प्रमाणाभास के रूप में ज्ञानों का विभाजन नहीं है और न प्रमाण तथा प्रमाणाभास शब्द ही वहाँ उपलब्ध होते हैं। <br />
*कुन्दकुन्द<ref>नियमसार गा. 10, 11, 12, प्रवचनसार प्रथम ज्ञानाधिकार</ref> के ग्रन्थों में भी ज्ञानमीमांसा की ही चर्चा है, प्रमाण मीमांसा की नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि उस प्राचीनकाल में सम्यक और मिथ्या मानकर तो ज्ञान का कथन किया जाता था, किन्तु प्रमाण और प्रमाणाभास मानकर नहीं, पर एक वर्ग के ज्ञानों को सम्यक और दूसरे वर्ग के ज्ञानों को मिथ्या प्रतिपादन करने से अवगत होता है कि जो ज्ञान सम्यक कहे गये हैं वे सम्यक परिच्छित्ति कराने से प्रमाण तथा जिन्हें मिथ्या बताया गया है वे मिथ्या प्रतिपत्ति कराने से अप्रमाण (प्रमाणाभास) इष्ट है।<ref>यह उस समय की प्रतिपादन शैली थी। वैशेषिक दर्शन के प्रवर्त्तक कणाद ने भी इसी शैली से बुद्धि के अविद्या और विद्या ये दो भेद बतलाकर अविद्या के संशय आदि चार तथा विद्या के प्रत्यक्षादि चार भेद कहे हैं तथा दूषित ज्ञान (मिथ्या ज्ञान) को अविद्या और निर्दोष ज्ञान को-सम्यग्ज्ञान का विद्या का लक्षण कहा है। - वैशे.सू. 9/2/7, 8, 10 से 13 तथा 10/1/3</ref> इसकी संपुष्टि तत्त्वार्थसूत्रकार<ref>त.सू. 1/9, 10</ref> के निम्न प्रतिपादन से भी होती है-<br />
<poem>मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानिज्ञानम्। <br />
तत्प्रमाणे'। 'मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च। -तत्त्वार्थसूत्र 1-9, 10, 31 ।</poem><br />
इस प्रकार सम्यग्ज्ञान या प्रमाण के मति, श्रुत, अवधि आदि पाँच भेदों की परम्परा आगम में उपलब्ध होती है, जो अत्यन्त प्राचीन है और जिस पर लोकानुसरण का कोई प्रभाव नहीं है। <br />
<br />
==तर्कशास्त्र में परोक्ष के भेद==<br />
<br />
तर्कशास्त्र में परोक्ष के पाँच भेद माने गये हैं<ref>माणिक्यनन्दि, प. मु. 3-1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10</ref>- <br />
#स्मृति<br />
#प्रत्यभिज्ञान <br />
#तर्क<br />
#अनुमान <br />
#आगम<br />
यद्यपि आगम में आरम्भ के चार ज्ञानों को मतिज्ञान और आगम को श्रुतज्ञान कहकर दोनों को परोक्ष कहा है और इस तरह तर्कशास्त्र तथा आगम के निरूपणों में अन्तर नहीं है।<br />
<br />
====स्मृति====<br />
<br />
पूर्वानुभूत वस्तु के स्मरण को स्मृति कहते हैं। यथा 'वह' इस प्रकार से उल्लिखित होने वाला ज्ञान। यह ज्ञान अविसंवादि होता है, इसलिए प्रमाण है। यदि कदाचित् उसमें विसंवाद हो तो वह स्मृत्याभास है। इसे अप्रमाण नहीं माना जा सकता, अन्यथा व्याप्ति स्मरणपूर्वक होने वाला अनुमान प्रमाण नहीं हो सकता और बिना व्याप्ति स्मरण के अनुमान संभव नहीं है। अत: स्मृति को प्रमाण मानना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है।<ref>विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. 36 व पृ. 42, वीर सेवा. ट्र., वाराणसी</ref><br />
<br />
====प्रत्यभिज्ञान====<br />
<br />
अनुभव तथा स्मरणपूर्वक होने वाला जोड़ रूप ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है इसे प्रत्यभिज्ञा, प्रत्यवमर्श और संज्ञा भी कहते हैं। जैसे- 'यह वही देवदत्त हे, अथवा यह (गवय) गौ के समान है, यह (महिष) गौ से भिन्न है, आदि। पहला एकत्व प्रत्यभिज्ञान का उदाहरण है, दूसरा सादृश्य प्रत्यभिज्ञान और तीसरा वैसा दृश्य प्रत्यभिज्ञान का है। संकलनात्मक जितने ज्ञान हैं वे इसी प्रत्यभिज्ञान में समाहित होते हैं। उपमान प्रमाण इसी के सादृश्य प्रत्यभिज्ञान में अन्तर्भूत होता है, अन्यथा वैसा दृश्य आदि प्रत्यभिज्ञान भी पृथक् प्रमाण मानना पड़ेंगे। यह भी प्रत्यक्षादि की तरह अविसंवादी होने से प्रमाण है, अप्रमाण नहीं। यदि कोई प्रत्यभिज्ञान विसंवाद (भ्रमादि) पैदा करता है तो उसे प्रत्यभिज्ञानाभास जानना चाहिए। <br />
<br />
====तर्क====<br />
जो ज्ञान अन्वय और व्यतिरेकपूर्वक व्याप्ति का निश्चय कराता है वह तर्क है। इसे ऊह, ऊहा और चिन्ता भी कहा जाता है। 'इसके होने पर ही यह होता है', यह अन्वय है और 'इसके न होने पर यह नहीं होता', यह व्यतिरेक है, इन दोनों पूर्वक यह ज्ञान साध्य के साथ साधन में व्याप्ति का निर्माण कराता है। इसका उदाहरण है- 'अग्नि के होने पर ही धूम होता है, अग्नि के अभाव में धूम नहीं होता' इस प्रकार अग्नि के साथ धूम की व्याप्ति का निश्चय कराना तर्क है। इससे सम्यक अनुमान का मार्ग प्रशस्त होता है। <br />
<br />
====अनुमान====<br />
<br />
निश्चित साध्याविनाभावी साधन से होने वाला साध्य का ज्ञान अनुमान कहलाता है।<ref>विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. 45, 46, 47, 48, 49; वीर सेवा. ट्र., वाराणसी</ref> जैसे धूम से अग्नि का ज्ञान करना।<br />
<br />
=====अनुमान के अंग:- साध्य और साधन=====<br />
<br />
इस अनुमान के मुख्य घटक (अंग) दो हैं- <br />
#साध्य और <br />
#साधन। <br />
*साध्य तो वह है, जिसे सिद्ध किया जाता है और वह वही होता है जो शक्य (अबाधित), अभिप्रत (वादी द्वारा इष्ट) और असिद्ध (प्रतिवादी के लिए अमान्य) होता है तथा इससे जो विपरीत (बाधित, अनिष्ट और सिद्ध) होता है वह साध्याभास है, क्योंकि वह साधन द्वारा विषय (निश्चय) नहीं किया जाता। [[अकलंकदेव]] ने साध्य और साध्याभास का लक्षण करते हुए यही लिखा है-<br />
<poem>साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धं ततोऽपरम्।<br />
साध्याभासं विरुद्धादि, साधनाविषयत्वत:॥ न्यायविनिश्चय 2-172</poem><br />
*साधन वह है जिसका साध्य के साथ अविनाभाव निश्चित है- साध्य के होने पर ही होता है, उसके अभाव में नहीं होता। ऐसा साधन ही साध्य का गमक (अनुमापक) होता है। साधन को हेतु और लिङ्ग भी कहा जाता है। माणिक्यनन्दि साधन का लक्षण करते हुए कहते हैं-<br />
साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतु:।<ref>परीक्षामुखसूत्र 3-15</ref>' साध्य के साथ जिसका अविनाभाव निश्चित है वह हेतु है। <br />
<br />
==अविनाभाव-भेद==<br />
<br />
अविनाभाव दो प्रकार का है<ref>माणिक्यनन्दि, प.मु. 3-16, 17, 18</ref>-<br />
#सहभाव नियम और <br />
#क्रमभाव नियम। <br />
*जो सहचारी और व्याप्य-व्यापक होते हैं उनमें सहभाव नियम अविनाभाव रहता है। जैसे रूप और रस दोनों सहचारी हैं- रूप के साथ रस और रस के साथ रूप नियम से रहता है। अत: दोनों सहचारी हैं और इसलिए उनमें सहभाव नियम अविनाभाव है तथा शिंशपात्व और वृक्षत्व इन दोनों में व्याप्य-व्यापक भाव है। शिंशपात्व व्याप्य है और वृक्षत्व व्यापक है। शिंशपात्व होने पर वृक्षत्व अवश्य होता है। किन्तु वृक्षत्व के होने पर शिंशपात्व के होने का नियम नहीं है। अतएव सहचारियों और व्याप्य-व्यापक में सहभाव नियम अविनाभाव होता है, जिससे रूप से रस का और शिंशपात्व से वृक्षत्व का अनुमान किया जाता है। <br />
<br />
==हेतु-भेद==<br />
<br />
इन दोनों प्रकार के अविनाभाव से विशिष्ट हेतु के भेदों का कथन जैन न्यायशास्त्र में विस्तार से किया गया है, जिसे हमने 'जैन तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार' ग्रन्थ में विशदतया दिया है। अत: उस सबकी पुनरावृत्ति न करके मात्र माणिक्यनन्दि के 'परीक्षामुख' के अनुसार उनका दिग्दर्शन किया जाता है।<ref>माणिक्यनन्दि, प. मु. 3-57 58, 59, 65 से 79 तक</ref><br />
*माणिक्यनन्दि ने अकलंकदेव की तरह आरम्भ में हेतु के मूल दो भेद बतलाये हैं-<br />
#उपलब्धि और <br />
#अनुपलब्धि। <br />
*तथा इन दोनों को विधि और प्रतिषेध उभय का साधक कहा है और इस तरह दोनों के उन्होंने दो-दो भेद कहे हैं। उपलब्धि के- <br />
#अविरुद्धोपलब्धि और <br />
#विरुद्धोपलब्धि <br />
*अनुपलब्धि के- <br />
#अविरुद्धानुपलब्धि और <br />
#विरुद्धानुपलब्धि <br />
*इनके प्रत्येक के भेद इस प्रकार प्रतिपादित किये हैं- <br />
*अविरुद्धोपलब्धि छह- <br />
#व्याप्त, <br />
#कार्य,<br />
#कारण, <br />
#पूर्वचर, <br />
#उत्तरचर और <br />
#सहचर।<br />
*विरुद्धोपलब्धि के भी अविरुद्धोपलब्धि की तरह छह भेद हैं- <br />
#विरुद्ध व्याप्य, <br />
#विरुद्ध कार्य, <br />
#विरुद्ध कारण, <br />
#विरुद्ध पूर्वचर, <br />
#विरुद्ध उत्तरचर और <br />
#विरुद्ध-सहचर। <br />
*अविरुद्धानुपलब्धि प्रतिषेध रूप साध्य को सिद्ध करने की अपेक्षा 7. प्रकार की कही है- <br />
#अविरुद्धस्वभावानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धव्यापकानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धकार्यानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धकारणानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धपूर्वचरानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धउत्तरचरानुपलब्धि और <br />
#अविरुद्धसहचरानुपलब्धि। <br />
*विरुद्धानुपलब्धि विधि रूप साध्य को सिद्ध करने में तीन प्रकार की कही गयी है- <br />
#विरुद्धकार्यानुपलब्धि, <br />
#विरुद्धकारणानुपलब्धि और <br />
#विरुद्धस्वभावानुपलब्धि। <br />
*इस तरह माणिक्यनन्दि ने 6+6+7= 22 हेतुभेदों का सोदाहरण निरूपण किया है, परम्परा हेतुओं की भी उन्होंने संभावना करके उन्हें यथायोग्य उक्त हेतुओं में ही अन्तर्भाव करने का इंगित किया है। साथ ही उन्होंने अपने पूर्वज अकलंक की भांति कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर-इन नये हेतुओं को पृथक् मानने की आवश्यकता को भी सयुक्तिक बतलाया है।<br />
<br />
<br />
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}<br />
{{संदर्भ ग्रंथ}}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
<br />
==बाहरी कड़ियाँ==<br />
<br />
==संबंधित लेख==<br />
{{जैन दर्शन के अंग}}{{जैन धर्म}}{{संस्कृत साहित्य}}{{जैन धर्म2}}{{दर्शन शास्त्र}}<br />
<br />
[[Category:जैन दर्शन]]<br />
[[Category:दर्शन कोश]]<br />
<br />
__INDEX__<br />
__NOTOC__</div>हिमानीhttps://en.bharatdiscovery.org/w/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6_%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6_-%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8_%E0%A4%A6%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6%E0%A4%A8&diff=209631स्याद्वाद विमर्श -जैन दर्शन2011-08-22T12:31:13Z<p>हिमानी: </p>
<hr />
<div>जैन दर्शन में स्याद्वाद उसी प्रकार अनेकान्त का वाचक अथवा व्यवस्थापक है जिस प्रकार ज्ञान उस अनेकान्त का व्यापक अथवा व्यवस्थापक है। जब ज्ञान के द्वारा वह जाना जाता है तो दोनों में ज्ञान-ज्ञेय का संबंध होता है और जब वह स्याद्वाद के द्वारा कहा जाता है तो उनमें वाच्य-वाचक संबंध होता है। ज्ञान का महत्त्व यह है कि वह ज्ञेय को जानकर उन ज्ञेयों की व्यवस्था बनाता है- उन्हें मिश्रित नहीं होने देता है। यह अमुक है, यह अमुक नहीं है इस प्रकार वह ज्ञाता को उस उस ज्ञेय की परिच्छित्ति कराता है। स्याद्वाद का भी वही महत्त्व है। वह वचनरूप होने से वाच्य को कहकर उसके अन्य धर्मों की मौन व्यवस्था करता है। ज्ञान और वचन में अंतर यही है कि ज्ञान एक साथ अनेक ज्ञेयों को जान सकता है पर वचन एक बार में एक ही वाच्य धर्म को कह सकता है, क्योंकि 'सकृदुच्चरित शब्द: एकमेवार्थ गमयति' इस नियम के अनुसार एक बार बोला गया वचन एक ही अर्थ का बोध कराता है। <br />
*समन्तभद्र की 'आप्त-मीमांसा', जिसे 'स्याद्वाद-मीमांसा' कहा जा सकता है, ऐसी कृति है, जिसमें एक साथ स्याद्वाद, अनेकान्त और सप्तभंगी तीनों का विशद और विस्तृत विवेचन किया गया है। अकलंकदेव ने उस पर 'अष्टशती' (आप्त मीमांसा- विवृति) और [[विद्यानन्द]] ने उसी पर 'अष्टसहस्त्री' (आप्तमीमांसालंकृति) व्याख्या लिखकर जहाँ आप्तमीमांसा की कारिकाओं एवं उनके पद-वाक्यादिकों का विशद व्याख्यान किया है वहाँ इन तीनों का भी अद्वितीय विवेचन किया है।<br />
==न्याय विद्या==<br />
*'नीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन स न्याय:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार न्याय वह विद्या है जिसके द्वारा वस्तु का स्वरूप निर्णीत किया जाए। इस व्युत्पत्ति के आधार पर कोई प्रमाण को, कोई लक्षण और प्रमाण को, कोई लक्षण, प्रमाण, नय और निक्षेप को तथा कोई पंचावयव-वाक्य के प्रयोग को न्याय कहते हैं क्योंकि इनके द्वारा वस्तु-प्रतिपत्ति होती है। <br />
*न्यायदीपिकाकार अभिनव धर्मभूषण का मत है कि न्याय प्रमाण और नयरूप है। अपने इस मत का समर्थन वे आचार्य गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्रगत उस सूत्र से करते हैं<ref>'प्रमाणनयैरधिगम:'- त.सू. 1-16</ref>, जिसमें कहा गया है कि वस्तु (जीवादि पदार्थों) का अधिगम प्रमाणों तथा नयों से होता है। प्रमाण और नय इन दो को ही अधिगम का उपाय सूत्रकार ने कहा है। उनका आशय है कि चूँकि प्रत्येक वस्तु अखंड (धर्मी) और सखंड (धर्म) दोनों रूप है। उसे अखंडरूप में ग्रहण करने वाला प्रमाण है और खंडरूप में जानने वाला नय है। अत: इन दो के सिवाय किसी तीसरे ज्ञापकोपाय की आवश्यकता नहीं है। <br />
*न्यायविद्या को 'अमृत' भी कहा गया है।<ref>'न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने।' –अनन्तवीर्य, प्रमेयरत्नमाला पृ. 2,2 श्लो. 2</ref> इसका कारण यह कि जिस प्रकार 'अमृत' अमरत्व को प्रदान करता है उसी प्रकार न्यायविद्या भी तत्त्वज्ञान प्राप्त कराकर आत्मा को अमर (मिथ्याज्ञानादि से मुक्त और सम्यग्ज्ञान से युक्त) बना देती है।<br />
<br />
====आगमों में न्याय-विद्या====<br />
*षट्खंडागम<ref>षट्ख. 5।5।51, शोलापुर संस्करण, 1965</ref> में श्रुत के पर्याय-नामों को गिनाते हुए एक नाम 'हेतुवाद' भी दिया गया है, जिसका अर्थ हेतुविद्या, न्यायविद्या, तर्क-शास्त्र और युक्ति-शास्त्र किया है। <br />
*स्थानांगसूत्र<ref>'अथवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते तं जहा- पच्चक्खे अनुमाने उवमे आगमे। अथवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते। तं जहा-अत्थि तं अत्थि सो हेऊ, अत्थि तं णत्थि सो हेऊ, णत्थि तं अत्थि सो हेऊ णत्थि तं णत्थि सो हेऊ।' –स्थानांग स्.-पृ. 309-310, 338</ref> में 'हेतु' शब्द प्रयुक्त है, जिसके दो अर्थ किये गये हैं- <br />
*प्रमाण-सामान्य; इसके [[प्रत्यक्ष]], अनुमान, उपमान और आगम-ये चार भेद हैं। अक्षपाद गौतम के न्यायसूत्र में भी इन चार का प्रतिपादन है। पर उन्होंने इन्हें प्रमाण के भेद कहे हैं। यद्यपि स्थानांगसूत्रकार को भी हेतुशब्द प्रमाण के अर्थ में ही यहाँ विवक्षित है। <br />
*हेतु शब्द का दूसरा अर्थ उन्होंने अनुमान का प्रमुख अंग हेतु (साधन) किया है। उसके निम्न चार भेद किये हैं-<br />
#विधि-विधि (साध्य और साधन दोनों सद्भव रूप)<br />
#विधि-निषेध (साध्य विधिरूप और साधन निषेधरूप)<br />
#निषेध-विधि (साध्य निषेधरूप और हेतु विधिरूप)<br />
#निषेध-निषेध (साध्य और साधन दोनों निषेधरूप)<br />
इन्हें हम क्रमश: निम्न नामों से व्यवहृत कर सकते हैं-<br />
#विधिसाधक विधिरूप<ref>धर्मभूषण, न्यायदीपिका, पृ. 95-99 दिल्ली संस्करण</ref> अविरुद्धोपलब्धि<ref> माणिक्यनन्दि, परीक्षामुख 3/57-58</ref> <br />
#विधिसाधक निषेधरूप विरुद्धानुपलब्धि<br />
#निषेधसाधक विधिरूप विरुद्धोपलब्धि<br />
#निषेधसाधक निषेधरूप अविरुद्धानुपलब्धि<ref>डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ. 24 का टिप्पणी नं. 3</ref> <br />
इनके उदाहरण निम्न प्रकार दिये जा सकते हैं-<br />
#अग्नि है, क्योंकि धूम है। यहाँ साध्य और साधन दोनों विधि (सद्भाव) रूप हैं।<br />
#इस प्राणी में व्याधि विशेष है, क्योंकि स्वस्थचेष्टा नहीं है। साध्य विधिरूप है और साधन निषेधरूप है।<br />
#यहाँ शीतस्पर्श नहीं है, क्योंकि उष्णता है। यहाँ साध्य निषेधरूप व साधन विधिरूप है।<br />
#यहाँ धूम नहीं है, क्योंकि अग्नि का अभाव है। यहाँ साध्य व साधन दोनों निषेधरूप है। <br />
अनुयोगसूत्र में<ref>)डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार पृ. 25 व उसके टिप्पणी</ref> अनुमान और उसके भेदों की विस्तृत चर्चा उपलब्ध है, जिससे ज्ञात होता है कि आगमों में न्यायविद्या एक महत्त्वपूर्ण विद्या के रूप में वर्णित है। आगमोत्तरवर्ती दार्शनिक साहित्य में तो वह उत्तरोत्तर विकसित होती गई है।<br />
==प्रमाण और नय==<br />
*तत्त्वमीमांसा में हेय और उपादेय के रूप में विभक्त जीव आदि सात तत्त्वों का विवेचन हैं। तत्त्व का दूसरा अर्थ वस्तु है।<ref>डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ. 58, 59</ref> यह वस्तुरूप तत्त्व दो प्रकार का है- 1. उपेय और 2. उपाय। उपेय के दो भेद हैं- एक ज्ञाप्य (ज्ञेय) और दूसरा कार्य। जो ज्ञान का विषय होता है वह ज्ञाप्य अथवा ज्ञेय कहा जाता है और जो कारणों द्वारा निष्पाद्य या निष्पन्न होता है वह कार्य है।<br />
*उपाय तत्त्व दो तरह का है- <br />
#कारक, <br />
#ज्ञापक। <br />
*कारक वह है जो कार्य की उत्पत्ति करता है अर्थात कार्य के उत्पादक कारणों का नाम कारक है। कार्य की उत्पत्ति दो कारणों से होती है- <br />
#उपादान और <br />
#निमित्त (सहकारी)। <br />
*उपादान वह है जो स्वयं कार्यरूप परिणत होता है और निमित्त वह है जो उसमें सहायक होता है। उदाहरणार्थ घड़े की उत्पत्ति में मृत्पिण्ड उपादान और दण्ड चक्र, चीवर, कुंभकार प्रभृति निमित्त हैं। <br />
*न्यायदर्शन में इन दो कारणो के अतिरिक्त एक तीसरा कारण भी स्वीकृत है वह है असमवायि पर वह समवायि कारणगत रूपादि और संयोगरूप होने से उसे अन्य दर्शनों में उस से भिन्न नहीं माना। <br />
*ज्ञापकतत्त्व भी दो प्रकार का है-<br />
#प्रमाण<ref>डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार पृ. 58 का मूल व टिप्पणी 1; 'प्रमाणनयैरधिगम:'-त.सू. 1-6 'प्रमाणनयाभ्यां हि विवेचिता जीवादय: पदार्थ: सम्यगधिगम्यन्ते।'- न्या.दी. पृ. 2, वीर सेवामंदिर, दिल्ली संस्करण</ref> और <br />
#नय<ref>'प्रमाणादर्थ संसिद्धिस्तदाभासासाद्विपर्यय:। 'परीक्षामु. श्लो. 1</ref> <br />
<br />
==प्रमाण-भेद==<br />
*[[वैशेषिक दर्शन]] के प्रणेता [[कणाद]] ने<ref> वैशेषिक सूत्र 10/1/3</ref> प्रमाण के प्रत्यक्ष और लैंगिक- ये दो भेद स्वीकार किये हैं। उन्होंने इन दो के सिवाय न अन्य प्रमाणों की संभावना की है और न न्यायसूत्रकार अक्षपाद की तरह स्वीकृत प्रमाणों में अन्तर्भाव आदि की चर्चा ही की है। इससे प्रतीत होता है कि प्रमाण के उक्त दो भेदों की मान्यता प्राचीन है। इसके अतिरिक्त चार्वाक ने प्रत्यक्ष को माना और मात्र अनुमान की समीक्षा की है<ref>सर्वदर्शन सं., चार्वाकदर्शन, पृ. 3</ref>,अन्य उपमान, आगम आदि की नहीं। जबकि न्याय सूत्रकार ने<ref>न्यायसूत्र 2/2/1, 2</ref> *प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम (शब्द)- इन चार प्रमाणों को स्वीकार किया है तथा ऐतिह्य, अर्थापत्ति, संभव और अभाव-इन चार का स्पष्ट रूप से उल्लेख करके उनकी अतिरिक्त प्रमाणता की आलोचना की हें साथ ही शब्द में ऐतिह्य का और अनुमान में शेष तीनों का अन्तर्भाव प्रदर्शित किया है। <br />
*कणाद के व्याख्याकार प्रशस्तपाद ने<ref>प्रश. भा., पृ. 106-111</ref> अवश्य उनके मान्य प्रत्यक्ष और लैंगिक इन दो प्रमाणों का समर्थन करते हुए उल्लिखित शब्द आदि प्रमाणों का इन्हीं दो में समावेश किया है तथा चेष्टा, निर्णय, आर्ष (प्रातिभ) और सिद्ध दर्शन को भी इन्हीं दो के अन्तर्गत सिद्ध किया है। यदि वैशेषिक दर्शन से पूर्व न्यायदर्शन या अन्य दर्शन की प्रमाण भेद परम्परा होती, तो चार्वाक उसके प्रमाणों की अवश्य आलोचना करता। इससे विदित होता है कि वैशेषिक दर्शन की प्रमाण-द्वय की मान्यता सब से प्राचीन है। <br />
*वैशेषिकों की<ref>वैशे. सू. 10/1/3</ref>तरह बौद्धों ने<ref>दिग्नाग, प्रमाण समु.प्र.परि.का. 2, पृ. 4</ref> भी प्रत्यक्ष और अनुमान- इन दो प्रमाणों की स्वीकार किया है। <br />
*शब्द सहित तीनों को सांख्यों ने<ref>सांख्य का. 4</ref>, उपमान सहित चारों को नैयायिकों ने<ref>न्याय सू. 1/1/3</ref>और अर्थापत्ति तथा अभाव सहित छह प्रमाणों को जैमिनीयों (मीमांसकों) ने<ref>शावरभा. 1/1/5</ref> मान्य किया है। कुछ काल बाद जैमिनीय दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गये- <br />
#भाट्ट (कुमारिल भट्ट के अनुगामी) और <br />
#प्राभाकर (प्रभाकर के अनुयायी)। <br />
भाट्टों ने छहों प्रमाणों को माना। पर प्राभाकरों ने अभाव प्रमाण को छोड़ दिया तथा शेष पाँच प्रमाणों को अंगीकार किया। इस तरह विभिन्न दर्शनों में प्रमाण-भेद की मान्यताएँ<ref>जैमिने: षट् प्रमाणानि चत्वारि न्यायवादिन:। सांख्यस्य त्रीणि वाच्यानि द्वे वैशेषिकबौद्धयो:॥ - प्रमेयर. 2/2 का टि.</ref> दार्शनिक क्षेत्र में चर्चित हैं।<br /><br />
====जैन न्याय में प्रमाण-भेद====<br />
*जैन न्याय में प्रमाण के श्वेताम्बर परम्परा में मान्य भगवती सूत्र<ref>भगवती सूत्र 5/3/191-192</ref> और स्थानांग सूत्र में<ref>स्थानांग सूत्र 338</ref> चार प्रमाणों का उल्लेख है- <br />
#प्रत्यक्ष, <br />
#अनुमान, <br />
#उपमान और <br />
#आगम। <br />
*स्थानांग सूत्र में<ref>स्थानांग सूत्र 185</ref> व्यवसाय के तीन भेदों द्वारा प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणों का भी निर्देश है। <br />
*संभव है [[सिद्धसेन]]<ref>न्यायाव. का 8</ref> और [[हरिभद्र]] के<ref>अनेका.ज.प.टी. पृ. 142, 215</ref> तीन प्रमाणों की मान्यता का आधार यही स्थानांग सूत्र हो। <br />
*श्री पं. दलसुख मालवणिया का विचार है<ref>आगम युग का जैन दर्शन पृ. 136 से 138</ref> कि उपर्युक्त चार प्रमाणों की मान्यता नैयायिकादि सम्मत और तीन प्रमाणों का कन सांख्यादि स्वीकृत परम्परा मूलक हों तो आश्चर्य नहीं। यदि ऐसा हो तो भगवती सूत्र और स्थानांग सूत्र के क्रमश: चार और तीन प्रमाणों की मान्यता लोकानुसरण की सूचक होने से अर्वाचीन होना चाहिए। <br />
*दिगम्बर परम्परा के षड्खंडागम में<ref>भूतबली. पुष्पदन्त, षट्खण्डा. 1/1/15 तथा जैन तर्क शा.अनु.वि. पृ. 71 व इसका नं. 5 टिप्पणी</ref> मात्र तीन ज्ञानमीमांसा उपलब्ध होती है। वहाँ तीन प्रकार के मिथ्या ज्ञान और पाँच प्रकार के सम्यग्ज्ञान को गिनाकर आठ ज्ञानों का निरूपण किया गया है। वहाँ प्रमाणाभास के रूप में ज्ञानों का विभाजन नहीं है और न प्रमाण तथा प्रमाणाभास शब्द ही वहाँ उपलब्ध होते हैं। <br />
*कुन्दकुन्द<ref>नियमसार गा. 10, 11, 12, प्रवचनसार प्रथम ज्ञानाधिकार</ref> के ग्रन्थों में भी ज्ञानमीमांसा की ही चर्चा है, प्रमाण मीमांसा की नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि उस प्राचीनकाल में सम्यक और मिथ्या मानकर तो ज्ञान का कथन किया जाता था, किन्तु प्रमाण और प्रमाणाभास मानकर नहीं, पर एक वर्ग के ज्ञानों को सम्यक और दूसरे वर्ग के ज्ञानों को मिथ्या प्रतिपादन करने से अवगत होता है कि जो ज्ञान सम्यक कहे गये हैं वे सम्यक परिच्छित्ति कराने से प्रमाण तथा जिन्हें मिथ्या बताया गया है वे मिथ्या प्रतिपत्ति कराने से अप्रमाण (प्रमाणाभास) इष्ट है।<ref>यह उस समय की प्रतिपादन शैली थी। वैशेषिक दर्शन के प्रवर्त्तक कणाद ने भी इसी शैली से बुद्धि के अविद्या और विद्या ये दो भेद बतलाकर अविद्या के संशय आदि चार तथा विद्या के प्रत्यक्षादि चार भेद कहे हैं तथा दूषित ज्ञान (मिथ्या ज्ञान) को अविद्या और निर्दोष ज्ञान को-सम्यग्ज्ञान का विद्या का लक्षण कहा है। - वैशे.सू. 9/2/7, 8, 10 से 13 तथा 10/1/3</ref> इसकी संपुष्टि तत्त्वार्थसूत्रकार<ref>त.सू. 1/9, 10</ref> के निम्न प्रतिपादन से भी होती है-<br />
<poem>मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानिज्ञानम्। <br />
तत्प्रमाणे'। 'मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च। -तत्त्वार्थसूत्र 1-9, 10, 31 ।</poem><br />
इस प्रकार सम्यग्ज्ञान या प्रमाण के मति, श्रुत, अवधि आदि पाँच भेदों की परम्परा आगम में उपलब्ध होती है, जो अत्यन्त प्राचीन है और जिस पर लोकानुसरण का कोई प्रभाव नहीं है। <br />
<br />
==तर्कशास्त्र में परोक्ष के भेद==<br />
<br />
तर्कशास्त्र में परोक्ष के पाँच भेद माने गये हैं<ref>माणिक्यनन्दि, प. मु. 3-1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10</ref>- <br />
#स्मृति<br />
#प्रत्यभिज्ञान <br />
#तर्क<br />
#अनुमान <br />
#आगम<br />
यद्यपि आगम में आरम्भ के चार ज्ञानों को मतिज्ञान और आगम को श्रुतज्ञान कहकर दोनों को परोक्ष कहा है और इस तरह तर्कशास्त्र तथा आगम के निरूपणों में अन्तर नहीं है।<br />
<br />
====स्मृति====<br />
<br />
पूर्वानुभूत वस्तु के स्मरण को स्मृति कहते हैं। यथा 'वह' इस प्रकार से उल्लिखित होने वाला ज्ञान। यह ज्ञान अविसंवादि होता है, इसलिए प्रमाण है। यदि कदाचित् उसमें विसंवाद हो तो वह स्मृत्याभास है। इसे अप्रमाण नहीं माना जा सकता, अन्यथा व्याप्ति स्मरणपूर्वक होने वाला अनुमान प्रमाण नहीं हो सकता और बिना व्याप्ति स्मरण के अनुमान संभव नहीं है। अत: स्मृति को प्रमाण मानना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है।<ref>विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. 36 व पृ. 42, वीर सेवा. ट्र., वाराणसी</ref><br />
<br />
====प्रत्यभिज्ञान====<br />
<br />
अनुभव तथा स्मरणपूर्वक होने वाला जोड़ रूप ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है इसे प्रत्यभिज्ञा, प्रत्यवमर्श और संज्ञा भी कहते हैं। जैसे- 'यह वही देवदत्त हे, अथवा यह (गवय) गौ के समान है, यह (महिष) गौ से भिन्न है, आदि। पहला एकत्व प्रत्यभिज्ञान का उदाहरण है, दूसरा सादृश्य प्रत्यभिज्ञान और तीसरा वैसा दृश्य प्रत्यभिज्ञान का है। संकलनात्मक जितने ज्ञान हैं वे इसी प्रत्यभिज्ञान में समाहित होते हैं। उपमान प्रमाण इसी के सादृश्य प्रत्यभिज्ञान में अन्तर्भूत होता है, अन्यथा वैसा दृश्य आदि प्रत्यभिज्ञान भी पृथक् प्रमाण मानना पड़ेंगे। यह भी प्रत्यक्षादि की तरह अविसंवादी होने से प्रमाण है, अप्रमाण नहीं। यदि कोई प्रत्यभिज्ञान विसंवाद (भ्रमादि) पैदा करता है तो उसे प्रत्यभिज्ञानाभास जानना चाहिए। <br />
<br />
====तर्क====<br />
जो ज्ञान अन्वय और व्यतिरेकपूर्वक व्याप्ति का निश्चय कराता है वह तर्क है। इसे ऊह, ऊहा और चिन्ता भी कहा जाता है। 'इसके होने पर ही यह होता है', यह अन्वय है और 'इसके न होने पर यह नहीं होता', यह व्यतिरेक है, इन दोनों पूर्वक यह ज्ञान साध्य के साथ साधन में व्याप्ति का निर्माण कराता है। इसका उदाहरण है- 'अग्नि के होने पर ही धूम होता है, अग्नि के अभाव में धूम नहीं होता' इस प्रकार अग्नि के साथ धूम की व्याप्ति का निश्चय कराना तर्क है। इससे सम्यक अनुमान का मार्ग प्रशस्त होता है। <br />
<br />
====अनुमान====<br />
<br />
निश्चित साध्याविनाभावी साधन से होने वाला साध्य का ज्ञान अनुमान कहलाता है।<ref>विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. 45, 46, 47, 48, 49; वीर सेवा. ट्र., वाराणसी</ref> जैसे धूम से अग्नि का ज्ञान करना।<br />
<br />
=====अनुमान के अंग:- साध्य और साधन=====<br />
<br />
इस अनुमान के मुख्य घटक (अंग) दो हैं- <br />
#साध्य और <br />
#साधन। <br />
*साध्य तो वह है, जिसे सिद्ध किया जाता है और वह वही होता है जो शक्य (अबाधित), अभिप्रत (वादी द्वारा इष्ट) और असिद्ध (प्रतिवादी के लिए अमान्य) होता है तथा इससे जो विपरीत (बाधित, अनिष्ट और सिद्ध) होता है वह साध्याभास है, क्योंकि वह साधन द्वारा विषय (निश्चय) नहीं किया जाता। [[अकलंकदेव]] ने साध्य और साध्याभास का लक्षण करते हुए यही लिखा है-<br />
<poem>साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धं ततोऽपरम्।<br />
साध्याभासं विरुद्धादि, साधनाविषयत्वत:॥ न्यायविनिश्चय 2-172</poem><br />
*साधन वह है जिसका साध्य के साथ अविनाभाव निश्चित है- साध्य के होने पर ही होता है, उसके अभाव में नहीं होता। ऐसा साधन ही साध्य का गमक (अनुमापक) होता है। साधन को हेतु और लिङ्ग भी कहा जाता है। माणिक्यनन्दि साधन का लक्षण करते हुए कहते हैं-<br />
साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतु:।<ref>परीक्षामुखसूत्र 3-15</ref>' साध्य के साथ जिसका अविनाभाव निश्चित है वह हेतु है। <br />
<br />
==अविनाभाव-भेद==<br />
<br />
अविनाभाव दो प्रकार का है<ref>माणिक्यनन्दि, प.मु. 3-16, 17, 18</ref>-<br />
#सहभाव नियम और <br />
#क्रमभाव नियम। <br />
*जो सहचारी और व्याप्य-व्यापक होते हैं उनमें सहभाव नियम अविनाभाव रहता है। जैसे रूप और रस दोनों सहचारी हैं- रूप के साथ रस और रस के साथ रूप नियम से रहता है। अत: दोनों सहचारी हैं और इसलिए उनमें सहभाव नियम अविनाभाव है तथा शिंशपात्व और वृक्षत्व इन दोनों में व्याप्य-व्यापक भाव है। शिंशपात्व व्याप्य है और वृक्षत्व व्यापक है। शिंशपात्व होने पर वृक्षत्व अवश्य होता है। किन्तु वृक्षत्व के होने पर शिंशपात्व के होने का नियम नहीं है। अतएव सहचारियों और व्याप्य-व्यापक में सहभाव नियम अविनाभाव होता है, जिससे रूप से रस का और शिंशपात्व से वृक्षत्व का अनुमान किया जाता है। <br />
<br />
==हेतु-भेद==<br />
<br />
इन दोनों प्रकार के अविनाभाव से विशिष्ट हेतु के भेदों का कथन जैन न्यायशास्त्र में विस्तार से किया गया है, जिसे हमने 'जैन तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार' ग्रन्थ में विशदतया दिया है। अत: उस सबकी पुनरावृत्ति न करके मात्र माणिक्यनन्दि के 'परीक्षामुख' के अनुसार उनका दिग्दर्शन किया जाता है।<ref>माणिक्यनन्दि, प. मु. 3-57 58, 59, 65 से 79 तक</ref><br />
*माणिक्यनन्दि ने अकलंकदेव की तरह आरम्भ में हेतु के मूल दो भेद बतलाये हैं-<br />
#उपलब्धि और <br />
#अनुपलब्धि। <br />
*तथा इन दोनों को विधि और प्रतिषेध उभय का साधक कहा है और इस तरह दोनों के उन्होंने दो-दो भेद कहे हैं। उपलब्धि के- <br />
#अविरुद्धोपलब्धि और <br />
#विरुद्धोपलब्धि <br />
*अनुपलब्धि के- <br />
#अविरुद्धानुपलब्धि और <br />
#विरुद्धानुपलब्धि <br />
*इनके प्रत्येक के भेद इस प्रकार प्रतिपादित किये हैं- <br />
*अविरुद्धोपलब्धि छह- <br />
#व्याप्त, <br />
#कार्य,<br />
#कारण, <br />
#पूर्वचर, <br />
#उत्तरचर और <br />
#सहचर।<br />
*विरुद्धोपलब्धि के भी अविरुद्धोपलब्धि की तरह छह भेद हैं- <br />
#विरुद्ध व्याप्य, <br />
#विरुद्ध कार्य, <br />
#विरुद्ध कारण, <br />
#विरुद्ध पूर्वचर, <br />
#विरुद्ध उत्तरचर और <br />
#विरुद्ध-सहचर। <br />
*अविरुद्धानुपलब्धि प्रतिषेध रूप साध्य को सिद्ध करने की अपेक्षा 7. प्रकार की कही है- <br />
#अविरुद्धस्वभावानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धव्यापकानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धकार्यानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धकारणानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धपूर्वचरानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धउत्तरचरानुपलब्धि और <br />
#अविरुद्धसहचरानुपलब्धि। <br />
*विरुद्धानुपलब्धि विधि रूप साध्य को सिद्ध करने में तीन प्रकार की कही गयी है- <br />
#विरुद्धकार्यानुपलब्धि, <br />
#विरुद्धकारणानुपलब्धि और <br />
#विरुद्धस्वभावानुपलब्धि। <br />
*इस तरह माणिक्यनन्दि ने 6+6+7= 22 हेतुभेदों का सोदाहरण निरूपण किया है, परम्परा हेतुओं की भी उन्होंने संभावना करके उन्हें यथायोग्य उक्त हेतुओं में ही अन्तर्भाव करने का इंगित किया है। साथ ही उन्होंने अपने पूर्वज अकलंक की भांति कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर-इन नये हेतुओं को पृथक् मानने की आवश्यकता को भी सयुक्तिक बतलाया है।<br />
<br />
<br />
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}<br />
{{संदर्भ ग्रंथ}}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
<br />
==बाहरी कड़ियाँ==<br />
<br />
==संबंधित लेख==<br />
{{जैन दर्शन के अंग}}{{जैन धर्म}}{{संस्कृत साहित्य}}{{जैन धर्म2}}{{दर्शन शास्त्र}}<br />
<br />
[[Category:जैन दर्शन]]<br />
[[Category:दर्शन कोश]]<br />
<br />
__INDEX__</div>हिमानीhttps://en.bharatdiscovery.org/w/index.php?title=%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8_%E0%A4%A6%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6%E0%A4%A8_%E0%A4%94%E0%A4%B0_%E0%A4%89%E0%A4%B8%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%89%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%AF&diff=209624जैन दर्शन और उसका उद्देश्य2011-08-22T12:24:02Z<p>हिमानी: /* स्याद्वाद विमर्श */</p>
<hr />
<div>__TOC__*'कर्मारातीन् जयतीति जिन:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिसने राग द्वेष आदि शत्रुओं को जीत लिया है वह 'जिन' है। <br />
*अर्हत, अरहन्त, जिनेन्द्र, वीतराग, परमेष्ठी, आप्त आदि उसी के पर्यायवाची नाम हैं। उनके द्वारा उपदिष्ट दर्शन जैनदर्शन हैं। <br />
*आचार का नाम धर्म है और विचार का नाम दर्शन है तथा युक्ति-प्रतियुक्ति रूप हेतु आदि से उस विचार को सुदृढ़ करना न्याय है।<br />
* जैन दर्शन का निर्देश है कि आचार का अनुपालन विचारपूर्वक किया जाये। धर्म, दर्शन और न्याय-इन तीनों के सुमेल से ही व्यक्ति के आध्यात्मिक उन्नयन का भव्य प्रासाद खड़ा होता है। *अत: जैन धर्म का जो 'आत्मोदय' के साथ 'सर्वोदय'- सबका कल्याण उद्दिष्ट है।<ref>सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव–समन्तभद्र युक्त्यनु. का. 61</ref> उसका समर्थन करना जैन दर्शन का लक्ष्य हैं जैन धर्म में अपना ही कल्याण नहीं चाहा गया है, अपितु सारे राष्ट्र, राष्ट्र की जनता और विश्व के जनसमूह, यहाँ तक कि प्राणीमात्र के सुख एवं कल्याण की कामना की गई है।<ref>क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपाल:<br />
काले वर्ष प्रदिशतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम्।<br />
दुर्भिक्षं चौरमारी क्षणमपि जगतां मा स्म भूज्जीवलोके,<br />
जैनेन्द्रं धर्मचक्रं प्रभवतु सततं सर्वसौख्यप्रदायि॥</ref><br />
{{tocright}}<br />
==जैन दर्शन के प्रमुख अंग==<br />
#[[द्रव्य मीमांसा -जैन दर्शन|द्रव्य-मीमांसा]]<br />
#[[तत्त्व मीमांसा -जैन दर्शन|तत्त्व-मीमांसा]]<br />
#[[पदार्थ मीमांसा -जैन दर्शन|पदार्थ-मीमांसा]]<br />
#[[पंचास्तिकाय मीमांसा -जैन दर्शन|पंचास्तिकाय-मीमांसा]]<br />
#[[अनेकान्त विमर्श -जैन दर्शन|अनेकान्त-विमर्श]]<br />
#[[स्याद्वाद विमर्श -जैन दर्शन|स्याद्वाद विमर्श]]<br />
#[[सप्तभंगी विमर्श -जैन दर्शन|सप्तभंगी विमर्श]]<br />
<br />
==द्रव्य-मीमांसा==<br />
{{main|द्रव्य मीमांसा -जैन दर्शन}}<br />
वैशेषिक, भाट्ट और प्रभाकर दर्शनों में द्रव्य और पदार्थ दोनों को स्वीकार कर उनका विवेचन किया गया है। तथा [[सांख्य दर्शन]] और [[बौद्ध दर्शन|बौद्ध दर्शनों]] में क्रमश: तत्त्व और आर्य सत्यों का कथन किया गया है, [[वेदान्त दर्शन]] में केवल ब्रह्म (आत्मतत्व) और [[चार्वाक दर्शन]] में भूत तत्त्वों को माना गया है, वहाँ जैन दर्शन में द्रव्य, पदार्थ, तत्त्व, और अस्तिकाय को स्वीकार कर उन सबका पृथक्-पृथक् विस्तृत निरूपण किया गया है।<ref>त्रैकाल्यं द्रव्यषट्कं नवपदसहितं जीवषट्काय - लेश्या:,<br />
पंचान्ये चास्तिकाया व्रत समिति-गति-ज्ञान- चारित्रभेदा:।<br />
इत्येतन्मोक्षमूलं त्रिभुवनमहितै: प्रोक्तमर्हदिभरीशै:<br />
प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान् य: स वै शुद्धदृष्टि:॥ - स्तवनसंकलन।</ref> <br />
*जो ज्ञेय के रूप में वर्णित है और जिनमें हेय-उपादेय का विभाजन नहीं है पर तत्त्वज्ञान की दृष्टि से जिनका जानना ज़रूरी है तथा गुण और पर्यायों वाले हैं एवं उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त हैं, वे द्रव्य हैं। <br />
*तत्त्व का अर्थ मतलब या प्रयोजन है। जो अपने हित का साधक है वह उपादेय है और जो आत्महित में बाधक है वह हेय है। उपादेय एवं हेय की दृष्टि से जिनका प्रतिपादन के उन्हें तत्त्व कहा गया है। <br />
*भाषा के पदों द्वारा जो अभिधेय है वे पदार्थ हैं। उन्हें पदार्थ कहने का एक अभिप्राय यह भी है कि 'अर्थ्यतेऽभिलष्यते मुमुक्षुभिरित्यर्थ:' मुमुक्षुओं के द्वारा उनकी अभिलाषा की जाती है, अत: उन्हें अर्थ या पदार्थ कहा गया है। <br />
*अस्तिकाय की परिभाषा करते हुए कहा है कि जो 'अस्ति' और 'काय' दोनों है। 'अस्ति' का अर्थ 'है' है और 'काय' का अर्थ 'बहुप्रदेशी' है अर्थात जो द्रव्य है' होकर कायवाले- बहुप्रदेशी हैं, वे 'अस्तिकाय' हैं।<ref>पंचास्तिकाय, गा. 4-5 द्रव्य सं. गा. 24</ref> ऐसे पाँच द्रव्य हैं- <br />
#पुद्गल<br />
#धर्म<br />
#अधर्म<br />
#आकाश<br />
#जीव<br />
#कालद्रव्य एक प्रदेशी होने से अस्तिकाय नहीं है।<br />
<br />
==तत्त्व मीमांसा==<br />
{{मुख्य|तत्त्व मीमांसा -जैन दर्शन}}<br />
तत्त्व का अर्थ है प्रयोजन भूत वस्तु। जो अपने मतलब की वस्तु है और जिससे अपना हित अथवा स्वरूप पहचाना जाता है वह तत्त्व है। 'तस्य भाव: तत्त्वम्' अर्थात वस्तु के भाव (स्वरूप) का नाम तत्त्व है। ऋषियों या शास्त्रों का जितना उपदेश है उसका केन्द्र जीव (आत्मा) रहा है। उपनिषदों में आत्मा के दर्शन, श्रवण, मनन और ध्यान पर अधिक बल दिया गया है और इनके माध्यम से आत्मा के साक्षात्कार की बात कही गयी है<ref>श्रोतव्य:श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभि:। मत्वा च स्ततं ध्येय एते दर्शनहेतव:॥</ref>। जैन दर्शन तो पूरी तरह आध्यात्मिक है। अत: इसमें आत्मा को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है।<ref> कुन्दकुन्द, मोक्ष प्राभृत गा. 4, 5, 6, 7</ref> <br />
#बहिरात्मा, <br />
#अन्तरात्मा और <br />
#परमात्मा। <br />
*मूढ आत्मा को बहिरात्मा, जागृत आत्मा को अन्तरात्मा और अशेष गुणों से सम्पन्न आत्मा को परमात्मा कहा गया है। ये एक ही आत्मा के उन्नयन की विकसित तीन श्रेणियाँ हैं। जैसे एक आरम्भिक अबोध बालक शिक्षक, पुस्तक, पाठशाला आदि की सहायता से सर्वोच्च शिक्षा पाकर सुबोध बन जाता है वैसे ही एक मूढात्मा सत्संगति, सदाचार-अनुपालन, ज्ञानाभ्यास आदि को प्राप्त कर अन्तरात्मा (महात्मा) बन जाता है और वही ज्ञान, ध्यान तप आदि के निरन्तर अभ्यास से कर्म-कलङ्क से मुक्त होकर परमात्मा (अरहन्त व सिद्ध रूप ईश्वर) हो जाता है। इस दिशा में जैन चिन्तकों का चिन्तन, आत्म विद्या की ओर लगाव अपूर्व है।<br />
<br />
==पदार्थ मीमांसा==<br />
{{मुख्य|पदार्थ मीमांसा -जैन दर्शन}}<br />
उक्त सात तत्त्वों में पुण्य और पाप को सम्मिलित कर देने पर नौ पदार्थ कहे गए हैं।<ref>जीवा जीवा भावा पुण्णं पावं च आसवं तेसिं। संवर-णिज्जर बंधो मोक्खो य हवंति ते अट्ठ॥–पंचास्ति., गा. 108</ref><br />
<br />
==पंचास्तिकाय मीमांसा==<br />
{{मुख्य|पंचास्तिकाय मीमांसा -जैन दर्शन}}<br />
जैन दर्शन में उक्त द्रव्य, तत्त्व और पदार्थ के अलावा अस्तिकायों का निरूपण किया गया है। कालद्रव्य को छोड़कर शेष पांचों द्रव्य (पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकश और जीव) अस्तिकाय हैं।<ref>द्रव्य सं. गा. 23, 24, 25</ref><br />
<br />
==अनेकान्त विमर्श==<br />
{{मुख्य|अनेकान्त विमर्श -जैन दर्शन}}<br />
'अनेकान्त' जैनदर्शन का उल्लेखनीय सिद्धान्त है। वह इतना व्यापक है कि वह लोक (लोगों) के सभी व्यवहारों में व्याप्त है। उसके बिना किसी का व्यवहार चल नहीं सकता।<br />
<br />
==स्याद्वाद विमर्श==<br />
{{मुख्य|स्याद्वाद विमर्श -जैन दर्शन}}<br />
स्याद्वाद उसी प्रकार अनेकान्त का वाचक अथवा व्यवस्थापक है जिस प्रकार ज्ञान उस अनेकान्त का व्यापक अथवा व्यवस्थापक है। जब ज्ञान के द्वारा वह जाना जाता है तो दोनों में ज्ञान-ज्ञेय का संबंध होता है और जब वह स्याद्वाद के द्वारा कहा जाता है तो उनमें वाच्य-वाचक संबंध होता है। ज्ञान का महत्त्व यह है कि वह ज्ञेय को जानकर उन ज्ञेयों की व्यवस्था बनाता है- उन्हें मिश्रित नहीं होने देता है। यह अमुक है, यह अमुक नहीं है इस प्रकार वह ज्ञाता को उस उस ज्ञेय की परिच्छित्ति कराता है। स्याद्वाद का भी वही महत्त्व है। वह वचनरूप होने से वाच्य को कहकर उसके अन्य धर्मों की मौन व्यवस्था करता है। ज्ञान और वचन में अंतर यही है कि ज्ञान एक साथ अनेक ज्ञेयों को जान सकता है पर वचन एक बार में एक ही वाच्य धर्म को कह सकता है, क्योंकि 'सकृदुच्चरित शब्द: एकमेवार्थ गमयति' इस नियम के अनुसार एक बार बोला गया वचन एक ही अर्थ का बोध कराता है। <br />
*समन्तभद्र की 'आप्त-मीमांसा', जिसे 'स्याद्वाद-मीमांसा' कहा जा सकता है, ऐसी कृति है, जिसमें एक साथ स्याद्वाद, अनेकान्त और सप्तभंगी तीनों का विशद और विस्तृत विवेचन किया गया है। अकलंकदेव ने उस पर 'अष्टशती' (आप्त मीमांसा- विवृति) और [[विद्यानन्द]] ने उसी पर 'अष्टसहस्त्री' (आप्तमीमांसालंकृति) व्याख्या लिखकर जहाँ आप्तमीमांसा की कारिकाओं एवं उनके पद-वाक्यादिकों का विशद व्याख्यान किया है वहाँ इन तीनों का भी अद्वितीय विवेचन किया है।<br />
<br />
==आगम (श्रुत)==<br />
शब्द, संकेत, चेष्टा आदि पूर्वक जो ज्ञान होता है वह आगम है। जैसे- 'मेरु आदिक है' शब्दों को सुनने के बाद सुमेरु पर्वत आदि का बोध होता है।<ref>परी.मु. 3-99, 100, 101</ref> शब्द श्रवणादि मतिज्ञान पूर्वक होने से यह ज्ञान (आगम) भी परोक्ष प्रमाण है। इस तरह से स्मृत्यादि पाँचों ज्ञान ज्ञानान्तरापेक्ष हैं। स्मरण में धारणा रूप अनुभव (मति), प्रत्यभिज्ञान में अनुभव तथा स्मरण, तर्क में अनुभव, स्मृति और प्रत्यभिज्ञान, अनुमान में लिंगदर्शन, व्याप्ति स्मरण और आगम में शब्द, संकेतादि अपेक्षित हैं- उनके बिना उनकी उत्पत्ति संभव नहीं है। अतएव ये और इस जाति के अन्य सापेक्ष ज्ञान परोक्ष प्रमाण माने गये हैं।<br />
==नय-विमर्श==<br />
नय-स्वरूप— अभिनव धर्मभूषण ने<ref>न्यायदीपिका, पृ. 5, संपादन डॉ. दरबारीलाल कोठिया, 1945</ref> न्याय का लक्षण करते हुए कहा है कि 'प्रमाण-नयात्मको न्याय:'- प्रमाण और नय न्याय हैं, क्योंकि इन दोनों के द्वारा पदार्थों का सम्यक् ज्ञान होता है। अपने इस कथन को प्रमाणित करने के लिए उन्होंने आचार्य गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्र के, जिसे 'महाशास्त्र' कहा जाता है, उस सूत्र को प्रस्तुत किया है, जिसमें प्रमाण और मय को जीवादि तत्त्वार्थों को जानने का उपाय बताया गया है और वह है- 'प्रमाणनयैरधिगम:<ref>तत्त्वार्थसूत्र, 1-6</ref>'। वस्तुत: जैन न्याय का भव्य प्रासाद इसी महत्त्वपूर्ण सूत्र के आधार पर निर्मित हुआ है। <br />
<br />
'''नय-भेद'''<br />
<br />
उपर्युक्त प्रकार से मूल नय दो हैं<ref>प्रमयरत्नमाला 6/74, पृ. 206, सं. 1928</ref>- <br />
#द्रव्यार्थिक और <br />
#पर्यायार्थिक। <br />
*इनमें द्रव्यार्थिक तीन प्रकार का हैं<ref> प्रमयरत्नमाला, 6/74</ref>-<br />
#नैगम, <br />
#संग्रह, <br />
#व्यवहार। तथा <br />
*पर्यायार्थिक नय के चार भेद हैं<ref>प्रमयरत्नमाला, पृ. 207</ref>-<br />
#ऋजुसूत्र, <br />
#शब्द, <br />
#समभिरूढ़ और <br />
#एवम्भूत। <br />
<br />
'''नैगम नय'''<br />
जो धर्म और धर्मी में एक को प्रधान और एक को गौण करके प्ररूपण करता है वह नैगम नय है। जैसे जीव का गुण सुख है, ऐसा कहना। इसमें 'सुख' धर्म की प्रधानता और 'जीव' धर्मी की गौणता है अथवा यह सुखी जीव है, ऐसा कहना। इसमें 'जीव' धर्मी की प्रधानता है, क्योंकि वह विशेष्य है और 'सुख' धर्म गौण है, क्योंकि वह विशेषण है। इस नय का अन्य प्रकार से भी लक्षण किया गया है। जो भावी कार्य के संकल्प को बतलाता है वह नैगम नय है।<br />
<br />
'''संग्रह नय'''<br />
जो प्रतिपक्ष की अपेक्षा के साथ 'सन्मात्र' को ग्रहण करता है वह संग्रह नय है। जैसे 'सत्' कहने पर चेतन, अचेतन सभी पदार्थों का संग्रह हो जाता है, किन्तु सर्वथा 'सत्' कहने पर 'चेतन, अचेतन विशेषों का निषेध होने से वह संग्रहाभास है। विधिवाद इस कोटि में समाविष्ट होता है। <br />
<br />
'''व्यवहार नय'''<br />
संग्रहनय से ग्रहण किये 'सत्' में जो नय विधिपूर्वक यथायोग्य भेद करता है वह व्यवहारनय है। जैसे संग्रहनय से गृहीत 'सत्' द्रव्य हे या पर्याप्त है या गुण है। पर मात्र कल्पना से जो भेद करता है वह व्यवहारनयाभास है।<br />
<br />
'''ऋजुसूत्र नय''' <br />
भूत और भविष्यत पर्यायों को गौण कर केवल वर्तमान पर्याय को जो नय ग्रहण करता है वह ऋजुसूत्रनय है। जैसे प्रत्येक वस्तु प्रति समय परिणमनशील है। वस्तु को सर्वथा क्षणिक मानना ऋजुसूत्रनय है, क्योंकि इसमें वस्तु में होने वाली भूत और भविष्यत की पर्यायों तथा उनके आधारभूत अन्वयी द्रव्य का लोप हो जाता है। <br />
<br />
'''शब्द नय''' <br />
<br />
जो काल, कारक और लिङ्ग के भेद से शब्द में कथं चित् अर्थभेद को बतलाता है वह शब्दनय है। जैसे 'नक्तं निशा' दोनों पर्यायावाची हैं, किन्तु दोनों में लिंग भेद होने के कथं चित् अर्थभेद है। 'नक्तं' शब्द नंपुसक लिंग है और 'निशा' शब्द स्त्रीलिंग है। 'शब्दभेदात् ध्रुवोऽर्थभेद:' यह नय कहता है। अर्थभेद को कथं चित् माने बिना शब्दों को सर्वथा नाना बतलाकर अर्थ भेद करना शब्दनयाभास हैं <br />
<br />
'''समभिरूढ़ नय'''<br />
<br />
जो पर्याय भेद पदार्थ का कथंचित् भेद निरूपित करता है वह समभिरूढ़ नय है। जैसे इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि शब्द पर्याय शब्द होने से उनके अर्थ में कथं चित् भेद बताना। पर्याय भेद माने बिना उनका स्वतंत्र रूप से कथन करना समभिरूढ नयाभास है।<ref>'तत्र प्रमाणं द्विविधं स्वार्थं परार्थं च। तत्र स्वार्थं प्रमाणं श्रुतवर्ज्यम् श्रुतं पुन: स्वार्थं भवति परार्थं च। - सर्वार्थसिद्धि 1-6, भा. ज्ञा. संस्करण</ref>'<br />
<br />
'''एवंभूत नय'''<br />
<br />
जो क्रिया भेद से वस्तु के भेद का कथन करता है वह एवंभूत नय हैं जैसे पढ़ाते समय ही पाठक या अध्यापक अथवा पूजा करते समय ही पुजारी कहना। यह नय क्रिया पर निर्भर है। इसका विषय बहुत सूक्ष्म है। क्रिया की अपेक्षा न कर क्रिया वाचक शब्दों का कल्पनिक व्यवहार करना एवंभूतनयाभास है।<br />
==जैन दर्शन का उद्भव और विकास==<br />
'''उद्भव'''<br />
*आचार्य भूतबली और पुष्पदन्त द्वारा निबद्ध 'षट्खंडागम' में, जो दृष्टिवाद अंग का ही अंश है, 'सिया पज्जत्ता', 'सिया अपज्जता', 'मणुस अपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया', 'अखंखेज्जा* 'जैसे 'सिया' (स्यात्) शब्द और प्रश्नोत्तरी शैली को लिए प्रचुर वाक्य पाए जाते हैं।<br />
*'षट्खंडागम' के आधार से रचित आचार्य कुन्दकुन्द के 'पंचास्तिकाय', 'प्रवचनसार' आदि आर्ष ग्रन्थों में भी उनके कुछ और अधिक उद्गमबीज मिलते हैं। 'सिय अत्थिणत्थि उहयं', 'जम्हा' जैसे युक्ति प्रवण वाक्यों एवं शब्द प्रयोगों द्वारा उनमें प्रश्नोत्तर पूर्वक विषयों को दृढ़ किया गया है। <br />
'''विकास'''<br />
<br />
काल की दृष्टि से उनके विकास को तीन कालखंडों में विभक्त किया जा सकता है और उन कालखंडों के नाम निम्न प्रकार रखे जा सकते हैं :-<br />
*आदिकाल अथवा समन्तभद्र-काल (ई. 200 से ई. 650)।<br />
*मध्यकाल अथवा अकलंक-काल (ई. 650 से ई. 1050)।<br />
*उत्तरमध्ययुग (अन्त्यकाल) अथवा प्रभाचन्द्र-काल (ई. 1050 से 1700)। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन दर्शन का उद्भव और विकास]]<br />
<br />
==जैन दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ==<br />
आचार्य जिनसेन और गुणभद्र : एक परिचय<br />
*ये दोनों ही आचार्य उस पंचस्तूप नामक अन्वय में हुए हैं जो आगे चलकर सेनान्वय का सेनसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। जिनसेन स्वामी के गुरु वीरसेन ने भी अपना वंश पत्र्चस्तूपान्वय ही लिखा है। परन्तु गुणभद्राचार्य ने सेनान्वय लिखा है। इन्द्रानन्दी ने अपने श्रुतावतार में लिखा है कि जो मुनि पंचस्तूप निवास से आये उनमें से किन्हीं को सेन और किन्हीं को भद्र नाम दिया गया। तथा कोई आचार्य ऐसा भी कहते हैं कि जो गुहाओं से आये उन्हें नन्दी, जो अशोक वन से आये उन्हें देव और जो पंचस्तूप से आये उन्हें सेन नाम दिया गया। श्रुतावतार के उक्त उल्लेख से प्रतीत होता है कि सेनान्त और भद्रान्त नाम वाले मुनियों का समूह ही आगे चलकर सेनान्वय या सेना संघ से प्रसिद्ध हुआ है। <br />
<br />
जिनसेनाचार्य सिद्धान्तशास्त्रों के महान् ज्ञाता थे। इन्होंने कषायप्राभृत पर 40 हज़ार श्लोक प्रमाण जयधवल टीका लिखी है। आचार्य वीरसेन स्वामी उस पर 20 हज़ार श्लोक प्रमाण टीका लिख पाये थे और वे दिवंगत हो गये थे। तब उनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने 40 हज़ार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर उसे पूर्ण किया। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ]]<br />
==जैन दर्शन में अध्यात्म==<br />
'अध्यात्म' शब्द अधि+आत्म –इन दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है कि आत्मा को आधार बनाकर चिन्तन या कथन हो, वह अध्यात्म है। यह इसका व्युत्पत्ति अर्थ हे। यह जगत जैन दर्शन के अनुसार छह द्रव्यों के समुदायात्मक है। वे छह द्रव्य हैं-<br />
*जीव,<br />
*पुद्गल,<br />
*धर्म,<br />
*अधर्म,<br />
*आकाश और<br />
*काल। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन दर्शन में अध्यात्म]]<br />
==जैन तार्किक और उनके न्यायग्रन्थ==<br />
'''बीसवीं शती के जैन तार्किक'''<br />
<br />
बीसवीं शती में भी कतिपय दार्शनिक एवं नैयायिक हुए हैं, जो उल्लेखनीय हैं। इन्होंने प्राचीन आचार्यों द्वारा लिखित दर्शन और न्याय के ग्रन्थों का न केवल अध्ययन-अध्यापन किया, अपितु उनका राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनुवाद एवं सम्पादन भी किया है। साथ में अनुसंधानपूर्ण विस्तृत प्रस्तावनाएँ भी लिखी हैं, जिनमें ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार के ऐतिहासिक परिचय के साथ ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषयों का भी तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक आकलन किया गया है। कुछ मौलिक ग्रन्थ भी हिन्दी भाषा में लिखे गये हैं। सन्तप्रवर न्यायचार्य पं. गणेशप्रसाद वर्णी न्यायचार्य, पं. माणिकचन्द्र कौन्देय, पं. सुखलाल संघवी, डा. पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, पं. कैलाश चन्द्र शास्त्री, पं. दलसुख भाइर मालवणिया एवं इस लेख के लेखक डा. पं. दरबारी लाला कोठिया न्यायाचार्य आदि के नाम विशेष उल्लेख योग्य हैं। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन तार्किक और उनके न्यायग्रन्थ]]<br />
==त्रिभंगी टीका==<br />
#आस्रवत्रिभंगी, <br />
#बंधत्रिभंगी, <br />
#उदयत्रिभंगी और <br />
#सत्त्वत्रिभंगी-इन 4 त्रिभंगियों को संकलित कर टीकाकार ने इन पर [[संस्कृत]] में टीका की है। <br />
*आस्रवत्रिभंगी 63 गाथा प्रमाण है। <br />
*इसके रचयिता श्रुतमुनि हैं। <br />
*बंधत्रिभंगी 44 गाथा प्रमाण है तथा उसके कर्ता नेमिचन्द शिष्य माधवचन्द्र हैं। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[त्रिभंगी टीका]]<br />
==पंचसंग्रह टीका==<br />
मूल पंचसंग्रह नामक यह मूलग्रन्थ [[प्राकृत]] भाषा में है। इस पर तीन [[संस्कृत]]-टीकाएँ हैं। <br />
#श्रीपालसुत डड्ढा विरचित पंचसंग्रह टीका, <br />
#आचार्य अमितगति रचित संस्कृत-पंचसंग्रह, <br />
#सुमतकीर्तिकृत संस्कृत-पंचसंग्रह। <br />
*पहली टीका दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह का संस्कृत-अनुष्टुपों में परिवर्तित रूप है। इसकी श्लोक संख्या 1243 है। कहीं कहीं कुछ गद्यभाग भी पाया जाता है, जो लगभग 700 श्लोक प्रमाण है। इस तरह यह लगभग 2000 श्लोक प्रमाण है। यह 5 प्रकरणों का संग्रह है। वे 5 प्रकरण निम्न प्रकार हैं- <br />
#जीवसमास, <br />
#प्रकृतिसमुत्कीर्तन, <br />
#कर्मस्तव, <br />
#शतक और <br />
#सप्ततिका। <br />
*इसी तरह अन्य दोनों संस्कृत टीकाओं में भी समान वर्णन है। <br />
*विशेष यह है कि आचार्य अमितगति कृत पंचसंग्रह का परिमाण लगभग 2500 श्लोक प्रमाण है। तथा सुमतकीर्ति कृत पंचसंग्रह अति सरल व स्पष्ट है। <br />
*इस तरह ये तीनों टीकाएँ संस्कृत में लिखी गई हैं और समान होने पर भी उनमें अपनी अपनी विशेषताएँ पाई जाती हैं। <br />
*कर्म साहित्य के विशेषज्ञों को इन टीकाओं का भी अध्ययन करना चाहिए। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[पंचसंग्रह टीका]]<br />
==मन्द्रप्रबोधिनी==<br />
*शौरसेनी [[प्राकृत|प्राकृत भाषा]] में आचार्य नेमिचन्द्र सि0 चक्रवर्ती द्वारा निबद्ध गोम्मटसार मूलग्रन्थ की [[संस्कृत भाषा]] में रची यह एक विशद् और सरल व्याख्या है। इसके रचयिता अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती हैं। यद्यपि यह टीका अपूर्ण है किन्तु कर्मसिद्धान्त को समझने के लिए एक अत्यन्त प्रामाणिक व्याख्या है। केशववर्णी ने इनकी इस टीका का उल्लेख अपनी कन्नडटीका में, जिसका नाम कर्नाटकवृत्ति है, किया है। इससे ज्ञात होता है कि केशववर्णी ने उनकी इस मन्दप्रबोधिनी टीका से लाभ लिया है। <br />
*गोम्मटसार आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा लिखा गया कर्म और जीव विषयक एक प्रसिद्ध एवं महत्त्वपूर्ण प्राकृत-ग्रन्थ है। इसके दो भाग हैं- <br />
#एक जीवकाण्ड और <br />
#दूसरा कर्मकाण्ड। <br />
जीवकाण्ड में 734 और कर्मकाण्ड में 972 शौरसेनी-प्राकृत भाषाबद्ध गाथाएं हैं। कर्मकाण्ड पर संस्कृत में 4 टीकाएं लिखी गई हैं। वे हैं- <br />
#[[गोम्मट पंजिका]], <br />
#मन्दप्रबोधिनी, <br />
#कन्नड़ संस्कृत मिश्रित जीवतत्त्वप्रदीपिका, <br />
#संस्कृत में ही रचित अन्य नेमिचन्द्र की जीवतत्त्वप्रदीपिका। इन टीकाओं में विषयसाम्य है पर विवेचन की शैली इनकी अलग अलग हैं। भाषा का प्रवाह और सरलता इनमें देखी जा सकती है। <br />
आगे विस्तार में पढ़ें:- [[मन्द्रप्रबोधिनी]]<br />
{{संदर्भ ग्रंथ}}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
{{प्रचार}}<br />
==संबंधित लेख==<br />
{{जैन धर्म}}{{संस्कृत साहित्य}}{{जैन धर्म2}}{{दर्शन शास्त्र}}<br />
[[Category:दर्शन कोश]]<br />
<br />
[[Category:जैन दर्शन]] <br />
__INDEX__<br />
{{toc}}</div>हिमानीhttps://en.bharatdiscovery.org/w/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6_%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6_-%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8_%E0%A4%A6%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6%E0%A4%A8&diff=209619स्याद्वाद विमर्श -जैन दर्शन2011-08-22T12:14:14Z<p>हिमानी: 'स्याद्वाद उसी प्रकार अनेकान्त का वाचक अथवा व्यवस्थ...' के साथ नया पन्ना बनाया</p>
<hr />
<div>स्याद्वाद उसी प्रकार अनेकान्त का वाचक अथवा व्यवस्थापक है जिस प्रकार ज्ञान उस अनेकान्त का व्यापक अथवा व्यवस्थापक है। जब ज्ञान के द्वारा वह जाना जाता है तो दोनों में ज्ञान-ज्ञेय का संबंध होता है और जब वह स्याद्वाद के द्वारा कहा जाता है तो उनमें वाच्य-वाचक संबंध होता है। ज्ञान का महत्त्व यह है कि वह ज्ञेय को जानकर उन ज्ञेयों की व्यवस्था बनाता है- उन्हें मिश्रित नहीं होने देता है। यह अमुक है, यह अमुक नहीं है इस प्रकार वह ज्ञाता को उस उस ज्ञेय की परिच्छित्ति कराता है। स्याद्वाद का भी वही महत्त्व है। वह वचनरूप होने से वाच्य को कहकर उसके अन्य धर्मों की मौन व्यवस्था करता है। ज्ञान और वचन में अंतर यही है कि ज्ञान एक साथ अनेक ज्ञेयों को जान सकता है पर वचन एक बार में एक ही वाच्य धर्म को कह सकता है, क्योंकि 'सकृदुच्चरित शब्द: एकमेवार्थ गमयति' इस नियम के अनुसार एक बार बोला गया वचन एक ही अर्थ का बोध कराता है। <br />
*समन्तभद्र की 'आप्त-मीमांसा', जिसे 'स्याद्वाद-मीमांसा' कहा जा सकता है, ऐसी कृति है, जिसमें एक साथ स्याद्वाद, अनेकान्त और सप्तभंगी तीनों का विशद और विस्तृत विवेचन किया गया है। अकलंकदेव ने उस पर 'अष्टशती' (आप्त मीमांसा- विवृति) और [[विद्यानन्द]] ने उसी पर 'अष्टसहस्त्री' (आप्तमीमांसालंकृति) व्याख्या लिखकर जहाँ आप्तमीमांसा की कारिकाओं एवं उनके पद-वाक्यादिकों का विशद व्याख्यान किया है वहाँ इन तीनों का भी अद्वितीय विवेचन किया है।<br />
---- <br />
<br />
'''न्याय विद्या'''<br />
<br />
*'नीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन स न्याय:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार न्याय वह विद्या है जिसके द्वारा वस्तु का स्वरूप निर्णीत किया जाए। इस व्युत्पत्ति के आधार पर कोई प्रमाण को, कोई लक्षण और प्रमाण को, कोई लक्षण, प्रमाण, नय और निक्षेप को तथा कोई पंचावयव-वाक्य के प्रयोग को न्याय कहते हैं क्योंकि इनके द्वारा वस्तु-प्रतिपत्ति होती है। <br />
*न्यायदीपिकाकार अभिनव धर्मभूषण का मत है कि न्याय प्रमाण और नयरूप है। अपने इस मत का समर्थन वे आचार्य गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्रगत उस सूत्र से करते हैं<ref>'प्रमाणनयैरधिगम:'- त.सू. 1-16</ref>, जिसमें कहा गया है कि वस्तु (जीवादि पदार्थों) का अधिगम प्रमाणों तथा नयों से होता है। प्रमाण और नय इन दो को ही अधिगम का उपाय सूत्रकार ने कहा है। उनका आशय है कि चूँकि प्रत्येक वस्तु अखंड (धर्मी) और सखंड (धर्म) दोनों रूप है। उसे अखंडरूप में ग्रहण करने वाला प्रमाण है और खंडरूप में जानने वाला नय है। अत: इन दो के सिवाय किसी तीसरे ज्ञापकोपाय की आवश्यकता नहीं है। <br />
*न्यायविद्या को 'अमृत' भी कहा गया है।<ref>'न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने।' –अनन्तवीर्य, प्रमेयरत्नमाला पृ. 2,2 श्लो. 2</ref> इसका कारण यह कि जिस प्रकार 'अमृत' अमरत्व को प्रदान करता है उसी प्रकार न्यायविद्या भी तत्त्वज्ञान प्राप्त कराकर आत्मा को अमर (मिथ्याज्ञानादि से मुक्त और सम्यग्ज्ञान से युक्त) बना देती है।<br />
<br />
'''आगमों में न्याय-विद्या'''<br />
<br />
*षट्खंडागम<ref>षट्ख. 5।5।51, शोलापुर संस्करण, 1965</ref> में श्रुत के पर्याय-नामों को गिनाते हुए एक नाम 'हेतुवाद' भी दिया गया है, जिसका अर्थ हेतुविद्या, न्यायविद्या, तर्क-शास्त्र और युक्ति-शास्त्र किया है। <br />
*स्थानांगसूत्र<ref>'अथवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते तं जहा- पच्चक्खे अनुमाने उवमे आगमे। अथवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते। तं जहा-अत्थि तं अत्थि सो हेऊ, अत्थि तं णत्थि सो हेऊ, णत्थि तं अत्थि सो हेऊ णत्थि तं णत्थि सो हेऊ।' –स्थानांग स्.-पृ. 309-310, 338</ref> में 'हेतु' शब्द प्रयुक्त है, जिसके दो अर्थ किये गये हैं- <br />
*प्रमाण-सामान्य; इसके [[प्रत्यक्ष]], अनुमान, उपमान और आगम-ये चार भेद हैं। अक्षपाद गौतम के न्यायसूत्र में भी इन चार का प्रतिपादन है। पर उन्होंने इन्हें प्रमाण के भेद कहे हैं। यद्यपि स्थानांगसूत्रकार को भी हेतुशब्द प्रमाण के अर्थ में ही यहाँ विवक्षित है। <br />
*हेतु शब्द का दूसरा अर्थ उन्होंने अनुमान का प्रमुख अंग हेतु (साधन) किया है। उसके निम्न चार भेद किये हैं-<br />
#विधि-विधि (साध्य और साधन दोनों सद्भव रूप)<br />
#विधि-निषेध (साध्य विधिरूप और साधन निषेधरूप)<br />
#निषेध-विधि (साध्य निषेधरूप और हेतु विधिरूप)<br />
#निषेध-निषेध (साध्य और साधन दोनों निषेधरूप)<br />
इन्हें हम क्रमश: निम्न नामों से व्यवहृत कर सकते हैं-<br />
#विधिसाधक विधिरूप<ref>धर्मभूषण, न्यायदीपिका, पृ. 95-99 दिल्ली संस्करण</ref> अविरुद्धोपलब्धि<ref> माणिक्यनन्दि, परीक्षामुख 3/57-58</ref> <br />
#विधिसाधक निषेधरूप विरुद्धानुपलब्धि<br />
#निषेधसाधक विधिरूप विरुद्धोपलब्धि<br />
#निषेधसाधक निषेधरूप अविरुद्धानुपलब्धि<ref>डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ. 24 का टिप्पणी नं. 3</ref> <br />
इनके उदाहरण निम्न प्रकार दिये जा सकते हैं-<br />
#अग्नि है, क्योंकि धूम है। यहाँ साध्य और साधन दोनों विधि (सद्भाव) रूप हैं।<br />
#इस प्राणी में व्याधि विशेष है, क्योंकि स्वस्थचेष्टा नहीं है। साध्य विधिरूप है और साधन निषेधरूप है।<br />
#यहाँ शीतस्पर्श नहीं है, क्योंकि उष्णता है। यहाँ साध्य निषेधरूप व साधन विधिरूप है।<br />
#यहाँ धूम नहीं है, क्योंकि अग्नि का अभाव है। यहाँ साध्य व साधन दोनों निषेधरूप है। <br />
अनुयोगसूत्र में<ref>)डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार पृ. 25 व उसके टिप्पणी</ref> अनुमान और उसके भेदों की विस्तृत चर्चा उपलब्ध है, जिससे ज्ञात होता है कि आगमों में न्यायविद्या एक महत्त्वपूर्ण विद्या के रूप में वर्णित है। आगमोत्तरवर्ती दार्शनिक साहित्य में तो वह उत्तरोत्तर विकसित होती गई है।<br /><br />
'''प्रमाण और नय'''<br /><br />
*तत्त्वमीमांसा में हेय और उपादेय के रूप में विभक्त जीव आदि सात तत्त्वों का विवेचन हैं। तत्त्व का दूसरा अर्थ वस्तु है।<ref>डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ. 58, 59</ref> यह वस्तुरूप तत्त्व दो प्रकार का है- 1. उपेय और 2. उपाय। उपेय के दो भेद हैं- एक ज्ञाप्य (ज्ञेय) और दूसरा कार्य। जो ज्ञान का विषय होता है वह ज्ञाप्य अथवा ज्ञेय कहा जाता है और जो कारणों द्वारा निष्पाद्य या निष्पन्न होता है वह कार्य है।<br />
*उपाय तत्त्व दो तरह का है- <br />
#कारक, <br />
#ज्ञापक। <br />
*कारक वह है जो कार्य की उत्पत्ति करता है अर्थात कार्य के उत्पादक कारणों का नाम कारक है। कार्य की उत्पत्ति दो कारणों से होती है- <br />
#उपादान और <br />
#निमित्त (सहकारी)। <br />
*उपादान वह है जो स्वयं कार्यरूप परिणत होता है और निमित्त वह है जो उसमें सहायक होता है। उदाहरणार्थ घड़े की उत्पत्ति में मृत्पिण्ड उपादान और दण्ड चक्र, चीवर, कुंभकार प्रभृति निमित्त हैं। <br />
*न्यायदर्शन में इन दो कारणो के अतिरिक्त एक तीसरा कारण भी स्वीकृत है वह है असमवायि पर वह समवायि कारणगत रूपादि और संयोगरूप होने से उसे अन्य दर्शनों में उस से भिन्न नहीं माना। <br />
*ज्ञापकतत्त्व भी दो प्रकार का है-<br />
#प्रमाण<ref>डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार पृ. 58 का मूल व टिप्पणी 1; 'प्रमाणनयैरधिगम:'-त.सू. 1-6 'प्रमाणनयाभ्यां हि विवेचिता जीवादय: पदार्थ: सम्यगधिगम्यन्ते।'- न्या.दी. पृ. 2, वीर सेवामंदिर, दिल्ली संस्करण</ref> और <br />
#नय<ref>'प्रमाणादर्थ संसिद्धिस्तदाभासासाद्विपर्यय:। 'परीक्षामु. श्लो. 1</ref> <br />
<br />
'''प्रमाण-भेद'''<br /><br />
*[[वैशेषिक दर्शन]] के प्रणेता [[कणाद]] ने<ref> वैशेषिक सूत्र 10/1/3</ref> प्रमाण के प्रत्यक्ष और लैंगिक- ये दो भेद स्वीकार किये हैं। उन्होंने इन दो के सिवाय न अन्य प्रमाणों की संभावना की है और न न्यायसूत्रकार अक्षपाद की तरह स्वीकृत प्रमाणों में अन्तर्भाव आदि की चर्चा ही की है। इससे प्रतीत होता है कि प्रमाण के उक्त दो भेदों की मान्यता प्राचीन है। इसके अतिरिक्त चार्वाक ने प्रत्यक्ष को माना और मात्र अनुमान की समीक्षा की है<ref>सर्वदर्शन सं., चार्वाकदर्शन, पृ. 3</ref>,अन्य उपमान, आगम आदि की नहीं। जबकि न्याय सूत्रकार ने<ref>न्यायसूत्र 2/2/1, 2</ref> *प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम (शब्द)- इन चार प्रमाणों को स्वीकार किया है तथा ऐतिह्य, अर्थापत्ति, संभव और अभाव-इन चार का स्पष्ट रूप से उल्लेख करके उनकी अतिरिक्त प्रमाणता की आलोचना की हें साथ ही शब्द में ऐतिह्य का और अनुमान में शेष तीनों का अन्तर्भाव प्रदर्शित किया है। <br />
*कणाद के व्याख्याकार प्रशस्तपाद ने<ref>प्रश. भा., पृ. 106-111</ref> अवश्य उनके मान्य प्रत्यक्ष और लैंगिक इन दो प्रमाणों का समर्थन करते हुए उल्लिखित शब्द आदि प्रमाणों का इन्हीं दो में समावेश किया है तथा चेष्टा, निर्णय, आर्ष (प्रातिभ) और सिद्ध दर्शन को भी इन्हीं दो के अन्तर्गत सिद्ध किया है। यदि वैशेषिक दर्शन से पूर्व न्यायदर्शन या अन्य दर्शन की प्रमाण भेद परम्परा होती, तो चार्वाक उसके प्रमाणों की अवश्य आलोचना करता। इससे विदित होता है कि वैशेषिक दर्शन की प्रमाण-द्वय की मान्यता सब से प्राचीन है। <br />
*वैशेषिकों की<ref>वैशे. सू. 10/1/3</ref>तरह बौद्धों ने<ref>दिग्नाग, प्रमाण समु.प्र.परि.का. 2, पृ. 4</ref> भी प्रत्यक्ष और अनुमान- इन दो प्रमाणों की स्वीकार किया है। <br />
*शब्द सहित तीनों को सांख्यों ने<ref>सांख्य का. 4</ref>, उपमान सहित चारों को नैयायिकों ने<ref>न्याय सू. 1/1/3</ref>और अर्थापत्ति तथा अभाव सहित छह प्रमाणों को जैमिनीयों (मीमांसकों) ने<ref>शावरभा. 1/1/5</ref> मान्य किया है। कुछ काल बाद जैमिनीय दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गये- <br />
#भाट्ट (कुमारिल भट्ट के अनुगामी) और <br />
#प्राभाकर (प्रभाकर के अनुयायी)। <br />
भाट्टों ने छहों प्रमाणों को माना। पर प्राभाकरों ने अभाव प्रमाण को छोड़ दिया तथा शेष पाँच प्रमाणों को अंगीकार किया। इस तरह विभिन्न दर्शनों में प्रमाण-भेद की मान्यताएँ<ref>जैमिने: षट् प्रमाणानि चत्वारि न्यायवादिन:। सांख्यस्य त्रीणि वाच्यानि द्वे वैशेषिकबौद्धयो:॥ - प्रमेयर. 2/2 का टि.</ref> दार्शनिक क्षेत्र में चर्चित हैं।<br /><br />
'''जैन न्याय में प्रमाण-भेद'''<br /><br />
*जैन न्याय में प्रमाण के श्वेताम्बर परम्परा में मान्य भगवती सूत्र<ref>भगवती सूत्र 5/3/191-192</ref> और स्थानांग सूत्र में<ref>स्थानांग सूत्र 338</ref> चार प्रमाणों का उल्लेख है- <br />
#प्रत्यक्ष, <br />
#अनुमान, <br />
#उपमान और <br />
#आगम। <br />
*स्थानांग सूत्र में<ref>स्थानांग सूत्र 185</ref> व्यवसाय के तीन भेदों द्वारा प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणों का भी निर्देश है। <br />
*संभव है [[सिद्धसेन]]<ref>न्यायाव. का 8</ref> और [[हरिभद्र]] के<ref>अनेका.ज.प.टी. पृ. 142, 215</ref> तीन प्रमाणों की मान्यता का आधार यही स्थानांग सूत्र हो। <br />
*श्री पं. दलसुख मालवणिया का विचार है<ref>आगम युग का जैन दर्शन पृ. 136 से 138</ref> कि उपर्युक्त चार प्रमाणों की मान्यता नैयायिकादि सम्मत और तीन प्रमाणों का कन सांख्यादि स्वीकृत परम्परा मूलक हों तो आश्चर्य नहीं। यदि ऐसा हो तो भगवती सूत्र और स्थानांग सूत्र के क्रमश: चार और तीन प्रमाणों की मान्यता लोकानुसरण की सूचक होने से अर्वाचीन होना चाहिए। <br />
*दिगम्बर परम्परा के षड्खंडागम में<ref>भूतबली. पुष्पदन्त, षट्खण्डा. 1/1/15 तथा जैन तर्क शा.अनु.वि. पृ. 71 व इसका नं. 5 टिप्पणी</ref> मात्र तीन ज्ञानमीमांसा उपलब्ध होती है। वहाँ तीन प्रकार के मिथ्या ज्ञान और पाँच प्रकार के सम्यग्ज्ञान को गिनाकर आठ ज्ञानों का निरूपण किया गया है। वहाँ प्रमाणाभास के रूप में ज्ञानों का विभाजन नहीं है और न प्रमाण तथा प्रमाणाभास शब्द ही वहाँ उपलब्ध होते हैं। <br />
*कुन्दकुन्द<ref>नियमसार गा. 10, 11, 12, प्रवचनसार प्रथम ज्ञानाधिकार</ref> के ग्रन्थों में भी ज्ञानमीमांसा की ही चर्चा है, प्रमाण मीमांसा की नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि उस प्राचीनकाल में सम्यक और मिथ्या मानकर तो ज्ञान का कथन किया जाता था, किन्तु प्रमाण और प्रमाणाभास मानकर नहीं, पर एक वर्ग के ज्ञानों को सम्यक और दूसरे वर्ग के ज्ञानों को मिथ्या प्रतिपादन करने से अवगत होता है कि जो ज्ञान सम्यक कहे गये हैं वे सम्यक परिच्छित्ति कराने से प्रमाण तथा जिन्हें मिथ्या बताया गया है वे मिथ्या प्रतिपत्ति कराने से अप्रमाण (प्रमाणाभास) इष्ट है।<ref>यह उस समय की प्रतिपादन शैली थी। वैशेषिक दर्शन के प्रवर्त्तक कणाद ने भी इसी शैली से बुद्धि के अविद्या और विद्या ये दो भेद बतलाकर अविद्या के संशय आदि चार तथा विद्या के प्रत्यक्षादि चार भेद कहे हैं तथा दूषित ज्ञान (मिथ्या ज्ञान) को अविद्या और निर्दोष ज्ञान को-सम्यग्ज्ञान का विद्या का लक्षण कहा है। - वैशे.सू. 9/2/7, 8, 10 से 13 तथा 10/1/3</ref> इसकी संपुष्टि तत्त्वार्थसूत्रकार<ref>त.सू. 1/9, 10</ref> के निम्न प्रतिपादन से भी होती है-<br />
<poem>मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानिज्ञानम्। <br />
तत्प्रमाणे'। 'मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च। -तत्त्वार्थसूत्र 1-9, 10, 31 ।</poem><br />
इस प्रकार सम्यग्ज्ञान या प्रमाण के मति, श्रुत, अवधि आदि पाँच भेदों की परम्परा आगम में उपलब्ध होती है, जो अत्यन्त प्राचीन है और जिस पर लोकानुसरण का कोई प्रभाव नहीं है। <br />
<br />
'''तर्कशास्त्र में परोक्ष के भेद'''<br />
<br />
तर्कशास्त्र में परोक्ष के पाँच भेद माने गये हैं<ref>माणिक्यनन्दि, प. मु. 3-1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10</ref>- <br />
#स्मृति, <br />
#प्रत्यभिज्ञान, <br />
#तर्क, <br />
#अनुमान और <br />
#आगम। यद्यपि आगम में आरम्भ के चार ज्ञानों को मतिज्ञान और आगम को श्रुतज्ञान कहकर दोनों को परोक्ष कहा है और इस तरह तर्कशास्त्र तथा आगम के निरूपणों में अन्तर नहीं है।<br />
<br />
'''स्मृति''' <br />
<br />
पूर्वानुभूत वस्तु के स्मरण को स्मृति कहते हैं। यथा 'वह' इस प्रकार से उल्लिखित होने वाला ज्ञान। यह ज्ञान अविसंवादि होता है, इसलिए प्रमाण है। यदि कदाचित् उसमें विसंवाद हो तो वह स्मृत्याभास है। इसे अप्रमाण नहीं माना जा सकता, अन्यथा व्याप्ति स्मरणपूर्वक होने वाला अनुमान प्रमाण नहीं हो सकता और बिना व्याप्ति स्मरण के अनुमान संभव नहीं है। अत: स्मृति को प्रमाण मानना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है।<ref>विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. 36 व पृ. 42, वीर सेवा. ट्र., वाराणसी</ref><br />
<br />
'''प्रत्यभिज्ञान'''<br />
<br />
अनुभव तथा स्मरणपूर्वक होने वाला जोड़ रूप ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है इसे प्रत्यभिज्ञा, प्रत्यवमर्श और संज्ञा भी कहते हैं। जैसे- 'यह वही देवदत्त हे, अथवा यह (गवय) गौ के समान है, यह (महिष) गौ से भिन्न है, आदि। पहला एकत्व प्रत्यभिज्ञान का उदाहरण है, दूसरा सादृश्य प्रत्यभिज्ञान और तीसरा वैसा दृश्य प्रत्यभिज्ञान का है। संकलनात्मक जितने ज्ञान हैं वे इसी प्रत्यभिज्ञान में समाहित होते हैं। उपमान प्रमाण इसी के सादृश्य प्रत्यभिज्ञान में अन्तर्भूत होता है, अन्यथा वैसा दृश्य आदि प्रत्यभिज्ञान भी पृथक् प्रमाण मानना पड़ेंगे। यह भी प्रत्यक्षादि की तरह अविसंवादी होने से प्रमाण है, अप्रमाण नहीं। यदि कोई प्रत्यभिज्ञान विसंवाद (भ्रमादि) पैदा करता है तो उसे प्रत्यभिज्ञानाभास जानना चाहिए। <br />
<br />
'''तर्क'''<br />
जो ज्ञान अन्वय और व्यतिरेकपूर्वक व्याप्ति का निश्चय कराता है वह तर्क है। इसे ऊह, ऊहा और चिन्ता भी कहा जाता है। 'इसके होने पर ही यह होता है', यह अन्वय है और 'इसके न होने पर यह नहीं होता', यह व्यतिरेक है, इन दोनों पूर्वक यह ज्ञान साध्य के साथ साधन में व्याप्ति का निर्माण कराता है। इसका उदाहरण है- 'अग्नि के होने पर ही धूम होता है, अग्नि के अभाव में धूम नहीं होता' इस प्रकार अग्नि के साथ धूम की व्याप्ति का निश्चय कराना तर्क है। इससे सम्यक अनुमान का मार्ग प्रशस्त होता है। <br />
<br />
'''अनुमान'''<br />
<br />
निश्चित साध्याविनाभावी साधन से होने वाला साध्य का ज्ञान अनुमान कहलाता है।<ref>विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. 45, 46, 47, 48, 49; वीर सेवा. ट्र., वाराणसी</ref> जैसे धूम से अग्नि का ज्ञान करना।<br />
<br />
'''अनुमान के अंग:- साध्य और साधन'''<br />
<br />
इस अनुमान के मुख्य घटक (अंग) दो हैं- <br />
#साध्य और <br />
#साधन। <br />
*साध्य तो वह है, जिसे सिद्ध किया जाता है और वह वही होता है जो शक्य (अबाधित), अभिप्रत (वादी द्वारा इष्ट) और असिद्ध (प्रतिवादी के लिए अमान्य) होता है तथा इससे जो विपरीत (बाधित, अनिष्ट और सिद्ध) होता है वह साध्याभास है, क्योंकि वह साधन द्वारा विषय (निश्चय) नहीं किया जाता। [[अकलंकदेव]] ने साध्य और साध्याभास का लक्षण करते हुए यही लिखा है-<br />
<poem>साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धं ततोऽपरम्।<br />
साध्याभासं विरुद्धादि, साधनाविषयत्वत:॥ न्यायविनिश्चय 2-172</poem><br />
*साधन वह है जिसका साध्य के साथ अविनाभाव निश्चित है- साध्य के होने पर ही होता है, उसके अभाव में नहीं होता। ऐसा साधन ही साध्य का गमक (अनुमापक) होता है। साधन को हेतु और लिङ्ग भी कहा जाता है। माणिक्यनन्दि साधन का लक्षण करते हुए कहते हैं-<br />
साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतु:।<ref>परीक्षामुखसूत्र 3-15</ref>' साध्य के साथ जिसका अविनाभाव निश्चित है वह हेतु है। <br />
<br />
'''अविनाभाव-भेद'''<br />
<br />
अविनाभाव दो प्रकार का है<ref>माणिक्यनन्दि, प.मु. 3-16, 17, 18</ref>-<br />
#सहभाव नियम और <br />
#क्रमभाव नियम। <br />
*जो सहचारी और व्याप्य-व्यापक होते हैं उनमें सहभाव नियम अविनाभाव रहता है। जैसे रूप और रस दोनों सहचारी हैं- रूप के साथ रस और रस के साथ रूप नियम से रहता है। अत: दोनों सहचारी हैं और इसलिए उनमें सहभाव नियम अविनाभाव है तथा शिंशपात्व और वृक्षत्व इन दोनों में व्याप्य-व्यापक भाव है। शिंशपात्व व्याप्य है और वृक्षत्व व्यापक है। शिंशपात्व होने पर वृक्षत्व अवश्य होता है। किन्तु वृक्षत्व के होने पर शिंशपात्व के होने का नियम नहीं है। अतएव सहचारियों और व्याप्य-व्यापक में सहभाव नियम अविनाभाव होता है, जिससे रूप से रस का और शिंशपात्व से वृक्षत्व का अनुमान किया जाता है। <br />
<br />
'''हेतु-भेद'''<br />
<br />
इन दोनों प्रकार के अविनाभाव से विशिष्ट हेतु के भेदों का कथन जैन न्यायशास्त्र में विस्तार से किया गया है, जिसे हमने 'जैन तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार' ग्रन्थ में विशदतया दिया है। अत: उस सबकी पुनरावृत्ति न करके मात्र माणिक्यनन्दि के 'परीक्षामुख' के अनुसार उनका दिग्दर्शन किया जाता है।<ref>माणिक्यनन्दि, प. मु. 3-57 58, 59, 65 से 79 तक</ref><br />
*माणिक्यनन्दि ने अकलंकदेव की तरह आरम्भ में हेतु के मूल दो भेद बतलाये हैं-<br />
#उपलब्धि और <br />
#अनुपलब्धि। <br />
*तथा इन दोनों को विधि और प्रतिषेध उभय का साधक कहा है और इस तरह दोनों के उन्होंने दो-दो भेद कहे हैं। उपलब्धि के- <br />
#अविरुद्धोपलब्धि और <br />
#विरुद्धोपलब्धि <br />
*अनुपलब्धि के- <br />
#अविरुद्धानुपलब्धि और <br />
#विरुद्धानुपलब्धि <br />
*इनके प्रत्येक के भेद इस प्रकार प्रतिपादित किये हैं- <br />
*अविरुद्धोपलब्धि छह- <br />
#व्याप्त, <br />
#कार्य,<br />
#कारण, <br />
#पूर्वचर, <br />
#उत्तरचर और <br />
#सहचर।<br />
*विरुद्धोपलब्धि के भी अविरुद्धोपलब्धि की तरह छह भेद हैं- <br />
#विरुद्ध व्याप्य, <br />
#विरुद्ध कार्य, <br />
#विरुद्ध कारण, <br />
#विरुद्ध पूर्वचर, <br />
#विरुद्ध उत्तरचर और <br />
#विरुद्ध-सहचर। <br />
*अविरुद्धानुपलब्धि प्रतिषेध रूप साध्य को सिद्ध करने की अपेक्षा 7. प्रकार की कही है- <br />
#अविरुद्धस्वभावानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धव्यापकानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धकार्यानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धकारणानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धपूर्वचरानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धउत्तरचरानुपलब्धि और <br />
#अविरुद्धसहचरानुपलब्धि। <br />
*विरुद्धानुपलब्धि विधि रूप साध्य को सिद्ध करने में तीन प्रकार की कही गयी है- <br />
#विरुद्धकार्यानुपलब्धि, <br />
#विरुद्धकारणानुपलब्धि और <br />
#विरुद्धस्वभावानुपलब्धि। <br />
*इस तरह माणिक्यनन्दि ने 6+6+7= 22 हेतुभेदों का सोदाहरण निरूपण किया है, परम्परा हेतुओं की भी उन्होंने संभावना करके उन्हें यथायोग्य उक्त हेतुओं में ही अन्तर्भाव करने का इंगित किया है। साथ ही उन्होंने अपने पूर्वज अकलंक की भांति कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर-इन नये हेतुओं को पृथक् मानने की आवश्यकता को भी सयुक्तिक बतलाया है।<br />
<br />
<br />
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}<br />
{{संदर्भ ग्रंथ}}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
<br />
==बाहरी कड़ियाँ==<br />
<br />
==संबंधित लेख==<br />
{{जैन दर्शन के अंग}}{{जैन धर्म}}{{संस्कृत साहित्य}}{{जैन धर्म2}}{{दर्शन शास्त्र}}<br />
<br />
[[Category:जैन दर्शन]]<br />
[[Category:दर्शन कोश]]<br />
<br />
__INDEX__</div>हिमानीhttps://en.bharatdiscovery.org/w/index.php?title=%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8_%E0%A4%A6%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6%E0%A4%A8_%E0%A4%94%E0%A4%B0_%E0%A4%89%E0%A4%B8%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%89%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%AF&diff=209616जैन दर्शन और उसका उद्देश्य2011-08-22T12:00:21Z<p>हिमानी: /* अनेकान्त विमर्श */</p>
<hr />
<div>__TOC__*'कर्मारातीन् जयतीति जिन:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिसने राग द्वेष आदि शत्रुओं को जीत लिया है वह 'जिन' है। <br />
*अर्हत, अरहन्त, जिनेन्द्र, वीतराग, परमेष्ठी, आप्त आदि उसी के पर्यायवाची नाम हैं। उनके द्वारा उपदिष्ट दर्शन जैनदर्शन हैं। <br />
*आचार का नाम धर्म है और विचार का नाम दर्शन है तथा युक्ति-प्रतियुक्ति रूप हेतु आदि से उस विचार को सुदृढ़ करना न्याय है।<br />
* जैन दर्शन का निर्देश है कि आचार का अनुपालन विचारपूर्वक किया जाये। धर्म, दर्शन और न्याय-इन तीनों के सुमेल से ही व्यक्ति के आध्यात्मिक उन्नयन का भव्य प्रासाद खड़ा होता है। *अत: जैन धर्म का जो 'आत्मोदय' के साथ 'सर्वोदय'- सबका कल्याण उद्दिष्ट है।<ref>सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव–समन्तभद्र युक्त्यनु. का. 61</ref> उसका समर्थन करना जैन दर्शन का लक्ष्य हैं जैन धर्म में अपना ही कल्याण नहीं चाहा गया है, अपितु सारे राष्ट्र, राष्ट्र की जनता और विश्व के जनसमूह, यहाँ तक कि प्राणीमात्र के सुख एवं कल्याण की कामना की गई है।<ref>क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपाल:<br />
काले वर्ष प्रदिशतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम्।<br />
दुर्भिक्षं चौरमारी क्षणमपि जगतां मा स्म भूज्जीवलोके,<br />
जैनेन्द्रं धर्मचक्रं प्रभवतु सततं सर्वसौख्यप्रदायि॥</ref><br />
{{tocright}}<br />
==जैन दर्शन के प्रमुख अंग==<br />
#[[द्रव्य मीमांसा -जैन दर्शन|द्रव्य-मीमांसा]]<br />
#[[तत्त्व मीमांसा -जैन दर्शन|तत्त्व-मीमांसा]]<br />
#[[पदार्थ मीमांसा -जैन दर्शन|पदार्थ-मीमांसा]]<br />
#[[पंचास्तिकाय मीमांसा -जैन दर्शन|पंचास्तिकाय-मीमांसा]]<br />
#[[अनेकान्त विमर्श -जैन दर्शन|अनेकान्त-विमर्श]]<br />
#[[स्याद्वाद विमर्श -जैन दर्शन|स्याद्वाद विमर्श]]<br />
#[[सप्तभंगी विमर्श -जैन दर्शन|सप्तभंगी विमर्श]]<br />
<br />
==द्रव्य-मीमांसा==<br />
{{main|द्रव्य मीमांसा -जैन दर्शन}}<br />
वैशेषिक, भाट्ट और प्रभाकर दर्शनों में द्रव्य और पदार्थ दोनों को स्वीकार कर उनका विवेचन किया गया है। तथा [[सांख्य दर्शन]] और [[बौद्ध दर्शन|बौद्ध दर्शनों]] में क्रमश: तत्त्व और आर्य सत्यों का कथन किया गया है, [[वेदान्त दर्शन]] में केवल ब्रह्म (आत्मतत्व) और [[चार्वाक दर्शन]] में भूत तत्त्वों को माना गया है, वहाँ जैन दर्शन में द्रव्य, पदार्थ, तत्त्व, और अस्तिकाय को स्वीकार कर उन सबका पृथक्-पृथक् विस्तृत निरूपण किया गया है।<ref>त्रैकाल्यं द्रव्यषट्कं नवपदसहितं जीवषट्काय - लेश्या:,<br />
पंचान्ये चास्तिकाया व्रत समिति-गति-ज्ञान- चारित्रभेदा:।<br />
इत्येतन्मोक्षमूलं त्रिभुवनमहितै: प्रोक्तमर्हदिभरीशै:<br />
प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान् य: स वै शुद्धदृष्टि:॥ - स्तवनसंकलन।</ref> <br />
*जो ज्ञेय के रूप में वर्णित है और जिनमें हेय-उपादेय का विभाजन नहीं है पर तत्त्वज्ञान की दृष्टि से जिनका जानना ज़रूरी है तथा गुण और पर्यायों वाले हैं एवं उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त हैं, वे द्रव्य हैं। <br />
*तत्त्व का अर्थ मतलब या प्रयोजन है। जो अपने हित का साधक है वह उपादेय है और जो आत्महित में बाधक है वह हेय है। उपादेय एवं हेय की दृष्टि से जिनका प्रतिपादन के उन्हें तत्त्व कहा गया है। <br />
*भाषा के पदों द्वारा जो अभिधेय है वे पदार्थ हैं। उन्हें पदार्थ कहने का एक अभिप्राय यह भी है कि 'अर्थ्यतेऽभिलष्यते मुमुक्षुभिरित्यर्थ:' मुमुक्षुओं के द्वारा उनकी अभिलाषा की जाती है, अत: उन्हें अर्थ या पदार्थ कहा गया है। <br />
*अस्तिकाय की परिभाषा करते हुए कहा है कि जो 'अस्ति' और 'काय' दोनों है। 'अस्ति' का अर्थ 'है' है और 'काय' का अर्थ 'बहुप्रदेशी' है अर्थात जो द्रव्य है' होकर कायवाले- बहुप्रदेशी हैं, वे 'अस्तिकाय' हैं।<ref>पंचास्तिकाय, गा. 4-5 द्रव्य सं. गा. 24</ref> ऐसे पाँच द्रव्य हैं- <br />
#पुद्गल<br />
#धर्म<br />
#अधर्म<br />
#आकाश<br />
#जीव<br />
#कालद्रव्य एक प्रदेशी होने से अस्तिकाय नहीं है।<br />
<br />
==तत्त्व मीमांसा==<br />
{{मुख्य|तत्त्व मीमांसा -जैन दर्शन}}<br />
तत्त्व का अर्थ है प्रयोजन भूत वस्तु। जो अपने मतलब की वस्तु है और जिससे अपना हित अथवा स्वरूप पहचाना जाता है वह तत्त्व है। 'तस्य भाव: तत्त्वम्' अर्थात वस्तु के भाव (स्वरूप) का नाम तत्त्व है। ऋषियों या शास्त्रों का जितना उपदेश है उसका केन्द्र जीव (आत्मा) रहा है। उपनिषदों में आत्मा के दर्शन, श्रवण, मनन और ध्यान पर अधिक बल दिया गया है और इनके माध्यम से आत्मा के साक्षात्कार की बात कही गयी है<ref>श्रोतव्य:श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभि:। मत्वा च स्ततं ध्येय एते दर्शनहेतव:॥</ref>। जैन दर्शन तो पूरी तरह आध्यात्मिक है। अत: इसमें आत्मा को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है।<ref> कुन्दकुन्द, मोक्ष प्राभृत गा. 4, 5, 6, 7</ref> <br />
#बहिरात्मा, <br />
#अन्तरात्मा और <br />
#परमात्मा। <br />
*मूढ आत्मा को बहिरात्मा, जागृत आत्मा को अन्तरात्मा और अशेष गुणों से सम्पन्न आत्मा को परमात्मा कहा गया है। ये एक ही आत्मा के उन्नयन की विकसित तीन श्रेणियाँ हैं। जैसे एक आरम्भिक अबोध बालक शिक्षक, पुस्तक, पाठशाला आदि की सहायता से सर्वोच्च शिक्षा पाकर सुबोध बन जाता है वैसे ही एक मूढात्मा सत्संगति, सदाचार-अनुपालन, ज्ञानाभ्यास आदि को प्राप्त कर अन्तरात्मा (महात्मा) बन जाता है और वही ज्ञान, ध्यान तप आदि के निरन्तर अभ्यास से कर्म-कलङ्क से मुक्त होकर परमात्मा (अरहन्त व सिद्ध रूप ईश्वर) हो जाता है। इस दिशा में जैन चिन्तकों का चिन्तन, आत्म विद्या की ओर लगाव अपूर्व है।<br />
<br />
==पदार्थ मीमांसा==<br />
{{मुख्य|पदार्थ मीमांसा -जैन दर्शन}}<br />
उक्त सात तत्त्वों में पुण्य और पाप को सम्मिलित कर देने पर नौ पदार्थ कहे गए हैं।<ref>जीवा जीवा भावा पुण्णं पावं च आसवं तेसिं। संवर-णिज्जर बंधो मोक्खो य हवंति ते अट्ठ॥–पंचास्ति., गा. 108</ref><br />
<br />
==पंचास्तिकाय मीमांसा==<br />
{{मुख्य|पंचास्तिकाय मीमांसा -जैन दर्शन}}<br />
जैन दर्शन में उक्त द्रव्य, तत्त्व और पदार्थ के अलावा अस्तिकायों का निरूपण किया गया है। कालद्रव्य को छोड़कर शेष पांचों द्रव्य (पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकश और जीव) अस्तिकाय हैं।<ref>द्रव्य सं. गा. 23, 24, 25</ref><br />
<br />
==अनेकान्त विमर्श==<br />
{{मुख्य|अनेकान्त विमर्श -जैन दर्शन}}<br />
'अनेकान्त' जैनदर्शन का उल्लेखनीय सिद्धान्त है। वह इतना व्यापक है कि वह लोक (लोगों) के सभी व्यवहारों में व्याप्त है। उसके बिना किसी का व्यवहार चल नहीं सकता।<br />
<br />
==स्याद्वाद विमर्श==<br />
स्याद्वाद उसी प्रकार अनेकान्त का वाचक अथवा व्यवस्थापक है जिस प्रकार ज्ञान उस अनेकान्त का व्यापक अथवा व्यवस्थापक है। जब ज्ञान के द्वारा वह जाना जाता है तो दोनों में ज्ञान-ज्ञेय का संबंध होता है और जब वह स्याद्वाद के द्वारा कहा जाता है तो उनमें वाच्य-वाचक संबंध होता है। ज्ञान का महत्त्व यह है कि वह ज्ञेय को जानकर उन ज्ञेयों की व्यवस्था बनाता है- उन्हें मिश्रित नहीं होने देता है। यह अमुक है, यह अमुक नहीं है इस प्रकार वह ज्ञाता को उस उस ज्ञेय की परिच्छित्ति कराता है। स्याद्वाद का भी वही महत्त्व है। वह वचनरूप होने से वाच्य को कहकर उसके अन्य धर्मों की मौन व्यवस्था करता है। ज्ञान और वचन में अंतर यही है कि ज्ञान एक साथ अनेक ज्ञेयों को जान सकता है पर वचन एक बार में एक ही वाच्य धर्म को कह सकता है, क्योंकि 'सकृदुच्चरित शब्द: एकमेवार्थ गमयति' इस नियम के अनुसार एक बार बोला गया वचन एक ही अर्थ का बोध कराता है। <br />
*समन्तभद्र की 'आप्त-मीमांसा', जिसे 'स्याद्वाद-मीमांसा' कहा जा सकता है, ऐसी कृति है, जिसमें एक साथ स्याद्वाद, अनेकान्त और सप्तभंगी तीनों का विशद और विस्तृत विवेचन किया गया है। अकलंकदेव ने उस पर 'अष्टशती' (आप्त मीमांसा- विवृति) और [[विद्यानन्द]] ने उसी पर 'अष्टसहस्त्री' (आप्तमीमांसालंकृति) व्याख्या लिखकर जहाँ आप्तमीमांसा की कारिकाओं एवं उनके पद-वाक्यादिकों का विशद व्याख्यान किया है वहाँ इन तीनों का भी अद्वितीय विवेचन किया है।<br />
---- <br />
<br />
'''न्याय विद्या'''<br />
<br />
*'नीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन स न्याय:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार न्याय वह विद्या है जिसके द्वारा वस्तु का स्वरूप निर्णीत किया जाए। इस व्युत्पत्ति के आधार पर कोई प्रमाण को, कोई लक्षण और प्रमाण को, कोई लक्षण, प्रमाण, नय और निक्षेप को तथा कोई पंचावयव-वाक्य के प्रयोग को न्याय कहते हैं क्योंकि इनके द्वारा वस्तु-प्रतिपत्ति होती है। <br />
*न्यायदीपिकाकार अभिनव धर्मभूषण का मत है कि न्याय प्रमाण और नयरूप है। अपने इस मत का समर्थन वे आचार्य गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्रगत उस सूत्र से करते हैं<ref>'प्रमाणनयैरधिगम:'- त.सू. 1-16</ref>, जिसमें कहा गया है कि वस्तु (जीवादि पदार्थों) का अधिगम प्रमाणों तथा नयों से होता है। प्रमाण और नय इन दो को ही अधिगम का उपाय सूत्रकार ने कहा है। उनका आशय है कि चूँकि प्रत्येक वस्तु अखंड (धर्मी) और सखंड (धर्म) दोनों रूप है। उसे अखंडरूप में ग्रहण करने वाला प्रमाण है और खंडरूप में जानने वाला नय है। अत: इन दो के सिवाय किसी तीसरे ज्ञापकोपाय की आवश्यकता नहीं है। <br />
*न्यायविद्या को 'अमृत' भी कहा गया है।<ref>'न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने।' –अनन्तवीर्य, प्रमेयरत्नमाला पृ. 2,2 श्लो. 2</ref> इसका कारण यह कि जिस प्रकार 'अमृत' अमरत्व को प्रदान करता है उसी प्रकार न्यायविद्या भी तत्त्वज्ञान प्राप्त कराकर आत्मा को अमर (मिथ्याज्ञानादि से मुक्त और सम्यग्ज्ञान से युक्त) बना देती है।<br />
<br />
'''आगमों में न्याय-विद्या'''<br />
<br />
*षट्खंडागम<ref>षट्ख. 5।5।51, शोलापुर संस्करण, 1965</ref> में श्रुत के पर्याय-नामों को गिनाते हुए एक नाम 'हेतुवाद' भी दिया गया है, जिसका अर्थ हेतुविद्या, न्यायविद्या, तर्क-शास्त्र और युक्ति-शास्त्र किया है। <br />
*स्थानांगसूत्र<ref>'अथवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते तं जहा- पच्चक्खे अनुमाने उवमे आगमे। अथवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते। तं जहा-अत्थि तं अत्थि सो हेऊ, अत्थि तं णत्थि सो हेऊ, णत्थि तं अत्थि सो हेऊ णत्थि तं णत्थि सो हेऊ।' –स्थानांग स्.-पृ. 309-310, 338</ref> में 'हेतु' शब्द प्रयुक्त है, जिसके दो अर्थ किये गये हैं- <br />
*प्रमाण-सामान्य; इसके [[प्रत्यक्ष]], अनुमान, उपमान और आगम-ये चार भेद हैं। अक्षपाद गौतम के न्यायसूत्र में भी इन चार का प्रतिपादन है। पर उन्होंने इन्हें प्रमाण के भेद कहे हैं। यद्यपि स्थानांगसूत्रकार को भी हेतुशब्द प्रमाण के अर्थ में ही यहाँ विवक्षित है। <br />
*हेतु शब्द का दूसरा अर्थ उन्होंने अनुमान का प्रमुख अंग हेतु (साधन) किया है। उसके निम्न चार भेद किये हैं-<br />
#विधि-विधि (साध्य और साधन दोनों सद्भव रूप)<br />
#विधि-निषेध (साध्य विधिरूप और साधन निषेधरूप)<br />
#निषेध-विधि (साध्य निषेधरूप और हेतु विधिरूप)<br />
#निषेध-निषेध (साध्य और साधन दोनों निषेधरूप)<br />
इन्हें हम क्रमश: निम्न नामों से व्यवहृत कर सकते हैं-<br />
#विधिसाधक विधिरूप<ref>धर्मभूषण, न्यायदीपिका, पृ. 95-99 दिल्ली संस्करण</ref> अविरुद्धोपलब्धि<ref> माणिक्यनन्दि, परीक्षामुख 3/57-58</ref> <br />
#विधिसाधक निषेधरूप विरुद्धानुपलब्धि<br />
#निषेधसाधक विधिरूप विरुद्धोपलब्धि<br />
#निषेधसाधक निषेधरूप अविरुद्धानुपलब्धि<ref>डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ. 24 का टिप्पणी नं. 3</ref> <br />
इनके उदाहरण निम्न प्रकार दिये जा सकते हैं-<br />
#अग्नि है, क्योंकि धूम है। यहाँ साध्य और साधन दोनों विधि (सद्भाव) रूप हैं।<br />
#इस प्राणी में व्याधि विशेष है, क्योंकि स्वस्थचेष्टा नहीं है। साध्य विधिरूप है और साधन निषेधरूप है।<br />
#यहाँ शीतस्पर्श नहीं है, क्योंकि उष्णता है। यहाँ साध्य निषेधरूप व साधन विधिरूप है।<br />
#यहाँ धूम नहीं है, क्योंकि अग्नि का अभाव है। यहाँ साध्य व साधन दोनों निषेधरूप है। <br />
अनुयोगसूत्र में<ref>)डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार पृ. 25 व उसके टिप्पणी</ref> अनुमान और उसके भेदों की विस्तृत चर्चा उपलब्ध है, जिससे ज्ञात होता है कि आगमों में न्यायविद्या एक महत्त्वपूर्ण विद्या के रूप में वर्णित है। आगमोत्तरवर्ती दार्शनिक साहित्य में तो वह उत्तरोत्तर विकसित होती गई है।<br /><br />
'''प्रमाण और नय'''<br /><br />
*तत्त्वमीमांसा में हेय और उपादेय के रूप में विभक्त जीव आदि सात तत्त्वों का विवेचन हैं। तत्त्व का दूसरा अर्थ वस्तु है।<ref>डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ. 58, 59</ref> यह वस्तुरूप तत्त्व दो प्रकार का है- 1. उपेय और 2. उपाय। उपेय के दो भेद हैं- एक ज्ञाप्य (ज्ञेय) और दूसरा कार्य। जो ज्ञान का विषय होता है वह ज्ञाप्य अथवा ज्ञेय कहा जाता है और जो कारणों द्वारा निष्पाद्य या निष्पन्न होता है वह कार्य है।<br />
*उपाय तत्त्व दो तरह का है- <br />
#कारक, <br />
#ज्ञापक। <br />
*कारक वह है जो कार्य की उत्पत्ति करता है अर्थात कार्य के उत्पादक कारणों का नाम कारक है। कार्य की उत्पत्ति दो कारणों से होती है- <br />
#उपादान और <br />
#निमित्त (सहकारी)। <br />
*उपादान वह है जो स्वयं कार्यरूप परिणत होता है और निमित्त वह है जो उसमें सहायक होता है। उदाहरणार्थ घड़े की उत्पत्ति में मृत्पिण्ड उपादान और दण्ड चक्र, चीवर, कुंभकार प्रभृति निमित्त हैं। <br />
*न्यायदर्शन में इन दो कारणो के अतिरिक्त एक तीसरा कारण भी स्वीकृत है वह है असमवायि पर वह समवायि कारणगत रूपादि और संयोगरूप होने से उसे अन्य दर्शनों में उस से भिन्न नहीं माना। <br />
*ज्ञापकतत्त्व भी दो प्रकार का है-<br />
#प्रमाण<ref>डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार पृ. 58 का मूल व टिप्पणी 1; 'प्रमाणनयैरधिगम:'-त.सू. 1-6 'प्रमाणनयाभ्यां हि विवेचिता जीवादय: पदार्थ: सम्यगधिगम्यन्ते।'- न्या.दी. पृ. 2, वीर सेवामंदिर, दिल्ली संस्करण</ref> और <br />
#नय<ref>'प्रमाणादर्थ संसिद्धिस्तदाभासासाद्विपर्यय:। 'परीक्षामु. श्लो. 1</ref> <br />
<br />
'''प्रमाण-भेद'''<br /><br />
*[[वैशेषिक दर्शन]] के प्रणेता [[कणाद]] ने<ref> वैशेषिक सूत्र 10/1/3</ref> प्रमाण के प्रत्यक्ष और लैंगिक- ये दो भेद स्वीकार किये हैं। उन्होंने इन दो के सिवाय न अन्य प्रमाणों की संभावना की है और न न्यायसूत्रकार अक्षपाद की तरह स्वीकृत प्रमाणों में अन्तर्भाव आदि की चर्चा ही की है। इससे प्रतीत होता है कि प्रमाण के उक्त दो भेदों की मान्यता प्राचीन है। इसके अतिरिक्त चार्वाक ने प्रत्यक्ष को माना और मात्र अनुमान की समीक्षा की है<ref>सर्वदर्शन सं., चार्वाकदर्शन, पृ. 3</ref>,अन्य उपमान, आगम आदि की नहीं। जबकि न्याय सूत्रकार ने<ref>न्यायसूत्र 2/2/1, 2</ref> *प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम (शब्द)- इन चार प्रमाणों को स्वीकार किया है तथा ऐतिह्य, अर्थापत्ति, संभव और अभाव-इन चार का स्पष्ट रूप से उल्लेख करके उनकी अतिरिक्त प्रमाणता की आलोचना की हें साथ ही शब्द में ऐतिह्य का और अनुमान में शेष तीनों का अन्तर्भाव प्रदर्शित किया है। <br />
*कणाद के व्याख्याकार प्रशस्तपाद ने<ref>प्रश. भा., पृ. 106-111</ref> अवश्य उनके मान्य प्रत्यक्ष और लैंगिक इन दो प्रमाणों का समर्थन करते हुए उल्लिखित शब्द आदि प्रमाणों का इन्हीं दो में समावेश किया है तथा चेष्टा, निर्णय, आर्ष (प्रातिभ) और सिद्ध दर्शन को भी इन्हीं दो के अन्तर्गत सिद्ध किया है। यदि वैशेषिक दर्शन से पूर्व न्यायदर्शन या अन्य दर्शन की प्रमाण भेद परम्परा होती, तो चार्वाक उसके प्रमाणों की अवश्य आलोचना करता। इससे विदित होता है कि वैशेषिक दर्शन की प्रमाण-द्वय की मान्यता सब से प्राचीन है। <br />
*वैशेषिकों की<ref>वैशे. सू. 10/1/3</ref>तरह बौद्धों ने<ref>दिग्नाग, प्रमाण समु.प्र.परि.का. 2, पृ. 4</ref> भी प्रत्यक्ष और अनुमान- इन दो प्रमाणों की स्वीकार किया है। <br />
*शब्द सहित तीनों को सांख्यों ने<ref>सांख्य का. 4</ref>, उपमान सहित चारों को नैयायिकों ने<ref>न्याय सू. 1/1/3</ref>और अर्थापत्ति तथा अभाव सहित छह प्रमाणों को जैमिनीयों (मीमांसकों) ने<ref>शावरभा. 1/1/5</ref> मान्य किया है। कुछ काल बाद जैमिनीय दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गये- <br />
#भाट्ट (कुमारिल भट्ट के अनुगामी) और <br />
#प्राभाकर (प्रभाकर के अनुयायी)। <br />
भाट्टों ने छहों प्रमाणों को माना। पर प्राभाकरों ने अभाव प्रमाण को छोड़ दिया तथा शेष पाँच प्रमाणों को अंगीकार किया। इस तरह विभिन्न दर्शनों में प्रमाण-भेद की मान्यताएँ<ref>जैमिने: षट् प्रमाणानि चत्वारि न्यायवादिन:। सांख्यस्य त्रीणि वाच्यानि द्वे वैशेषिकबौद्धयो:॥ - प्रमेयर. 2/2 का टि.</ref> दार्शनिक क्षेत्र में चर्चित हैं।<br /><br />
'''जैन न्याय में प्रमाण-भेद'''<br /><br />
*जैन न्याय में प्रमाण के श्वेताम्बर परम्परा में मान्य भगवती सूत्र<ref>भगवती सूत्र 5/3/191-192</ref> और स्थानांग सूत्र में<ref>स्थानांग सूत्र 338</ref> चार प्रमाणों का उल्लेख है- <br />
#प्रत्यक्ष, <br />
#अनुमान, <br />
#उपमान और <br />
#आगम। <br />
*स्थानांग सूत्र में<ref>स्थानांग सूत्र 185</ref> व्यवसाय के तीन भेदों द्वारा प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणों का भी निर्देश है। <br />
*संभव है [[सिद्धसेन]]<ref>न्यायाव. का 8</ref> और [[हरिभद्र]] के<ref>अनेका.ज.प.टी. पृ. 142, 215</ref> तीन प्रमाणों की मान्यता का आधार यही स्थानांग सूत्र हो। <br />
*श्री पं. दलसुख मालवणिया का विचार है<ref>आगम युग का जैन दर्शन पृ. 136 से 138</ref> कि उपर्युक्त चार प्रमाणों की मान्यता नैयायिकादि सम्मत और तीन प्रमाणों का कन सांख्यादि स्वीकृत परम्परा मूलक हों तो आश्चर्य नहीं। यदि ऐसा हो तो भगवती सूत्र और स्थानांग सूत्र के क्रमश: चार और तीन प्रमाणों की मान्यता लोकानुसरण की सूचक होने से अर्वाचीन होना चाहिए। <br />
*दिगम्बर परम्परा के षड्खंडागम में<ref>भूतबली. पुष्पदन्त, षट्खण्डा. 1/1/15 तथा जैन तर्क शा.अनु.वि. पृ. 71 व इसका नं. 5 टिप्पणी</ref> मात्र तीन ज्ञानमीमांसा उपलब्ध होती है। वहाँ तीन प्रकार के मिथ्या ज्ञान और पाँच प्रकार के सम्यग्ज्ञान को गिनाकर आठ ज्ञानों का निरूपण किया गया है। वहाँ प्रमाणाभास के रूप में ज्ञानों का विभाजन नहीं है और न प्रमाण तथा प्रमाणाभास शब्द ही वहाँ उपलब्ध होते हैं। <br />
*कुन्दकुन्द<ref>नियमसार गा. 10, 11, 12, प्रवचनसार प्रथम ज्ञानाधिकार</ref> के ग्रन्थों में भी ज्ञानमीमांसा की ही चर्चा है, प्रमाण मीमांसा की नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि उस प्राचीनकाल में सम्यक और मिथ्या मानकर तो ज्ञान का कथन किया जाता था, किन्तु प्रमाण और प्रमाणाभास मानकर नहीं, पर एक वर्ग के ज्ञानों को सम्यक और दूसरे वर्ग के ज्ञानों को मिथ्या प्रतिपादन करने से अवगत होता है कि जो ज्ञान सम्यक कहे गये हैं वे सम्यक परिच्छित्ति कराने से प्रमाण तथा जिन्हें मिथ्या बताया गया है वे मिथ्या प्रतिपत्ति कराने से अप्रमाण (प्रमाणाभास) इष्ट है।<ref>यह उस समय की प्रतिपादन शैली थी। वैशेषिक दर्शन के प्रवर्त्तक कणाद ने भी इसी शैली से बुद्धि के अविद्या और विद्या ये दो भेद बतलाकर अविद्या के संशय आदि चार तथा विद्या के प्रत्यक्षादि चार भेद कहे हैं तथा दूषित ज्ञान (मिथ्या ज्ञान) को अविद्या और निर्दोष ज्ञान को-सम्यग्ज्ञान का विद्या का लक्षण कहा है। - वैशे.सू. 9/2/7, 8, 10 से 13 तथा 10/1/3</ref> इसकी संपुष्टि तत्त्वार्थसूत्रकार<ref>त.सू. 1/9, 10</ref> के निम्न प्रतिपादन से भी होती है-<br />
<poem>मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानिज्ञानम्। <br />
तत्प्रमाणे'। 'मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च। -तत्त्वार्थसूत्र 1-9, 10, 31 ।</poem><br />
इस प्रकार सम्यग्ज्ञान या प्रमाण के मति, श्रुत, अवधि आदि पाँच भेदों की परम्परा आगम में उपलब्ध होती है, जो अत्यन्त प्राचीन है और जिस पर लोकानुसरण का कोई प्रभाव नहीं है। <br />
<br />
'''तर्कशास्त्र में परोक्ष के भेद'''<br />
<br />
तर्कशास्त्र में परोक्ष के पाँच भेद माने गये हैं<ref>माणिक्यनन्दि, प. मु. 3-1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10</ref>- <br />
#स्मृति, <br />
#प्रत्यभिज्ञान, <br />
#तर्क, <br />
#अनुमान और <br />
#आगम। यद्यपि आगम में आरम्भ के चार ज्ञानों को मतिज्ञान और आगम को श्रुतज्ञान कहकर दोनों को परोक्ष कहा है और इस तरह तर्कशास्त्र तथा आगम के निरूपणों में अन्तर नहीं है।<br />
<br />
'''स्मृति''' <br />
<br />
पूर्वानुभूत वस्तु के स्मरण को स्मृति कहते हैं। यथा 'वह' इस प्रकार से उल्लिखित होने वाला ज्ञान। यह ज्ञान अविसंवादि होता है, इसलिए प्रमाण है। यदि कदाचित् उसमें विसंवाद हो तो वह स्मृत्याभास है। इसे अप्रमाण नहीं माना जा सकता, अन्यथा व्याप्ति स्मरणपूर्वक होने वाला अनुमान प्रमाण नहीं हो सकता और बिना व्याप्ति स्मरण के अनुमान संभव नहीं है। अत: स्मृति को प्रमाण मानना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है।<ref>विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. 36 व पृ. 42, वीर सेवा. ट्र., वाराणसी</ref><br />
<br />
'''प्रत्यभिज्ञान'''<br />
<br />
अनुभव तथा स्मरणपूर्वक होने वाला जोड़ रूप ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है इसे प्रत्यभिज्ञा, प्रत्यवमर्श और संज्ञा भी कहते हैं। जैसे- 'यह वही देवदत्त हे, अथवा यह (गवय) गौ के समान है, यह (महिष) गौ से भिन्न है, आदि। पहला एकत्व प्रत्यभिज्ञान का उदाहरण है, दूसरा सादृश्य प्रत्यभिज्ञान और तीसरा वैसा दृश्य प्रत्यभिज्ञान का है। संकलनात्मक जितने ज्ञान हैं वे इसी प्रत्यभिज्ञान में समाहित होते हैं। उपमान प्रमाण इसी के सादृश्य प्रत्यभिज्ञान में अन्तर्भूत होता है, अन्यथा वैसा दृश्य आदि प्रत्यभिज्ञान भी पृथक् प्रमाण मानना पड़ेंगे। यह भी प्रत्यक्षादि की तरह अविसंवादी होने से प्रमाण है, अप्रमाण नहीं। यदि कोई प्रत्यभिज्ञान विसंवाद (भ्रमादि) पैदा करता है तो उसे प्रत्यभिज्ञानाभास जानना चाहिए। <br />
<br />
'''तर्क'''<br />
जो ज्ञान अन्वय और व्यतिरेकपूर्वक व्याप्ति का निश्चय कराता है वह तर्क है। इसे ऊह, ऊहा और चिन्ता भी कहा जाता है। 'इसके होने पर ही यह होता है', यह अन्वय है और 'इसके न होने पर यह नहीं होता', यह व्यतिरेक है, इन दोनों पूर्वक यह ज्ञान साध्य के साथ साधन में व्याप्ति का निर्माण कराता है। इसका उदाहरण है- 'अग्नि के होने पर ही धूम होता है, अग्नि के अभाव में धूम नहीं होता' इस प्रकार अग्नि के साथ धूम की व्याप्ति का निश्चय कराना तर्क है। इससे सम्यक अनुमान का मार्ग प्रशस्त होता है। <br />
<br />
'''अनुमान'''<br />
<br />
निश्चित साध्याविनाभावी साधन से होने वाला साध्य का ज्ञान अनुमान कहलाता है।<ref>विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. 45, 46, 47, 48, 49; वीर सेवा. ट्र., वाराणसी</ref> जैसे धूम से अग्नि का ज्ञान करना।<br />
<br />
'''अनुमान के अंग:- साध्य और साधन'''<br />
<br />
इस अनुमान के मुख्य घटक (अंग) दो हैं- <br />
#साध्य और <br />
#साधन। <br />
*साध्य तो वह है, जिसे सिद्ध किया जाता है और वह वही होता है जो शक्य (अबाधित), अभिप्रत (वादी द्वारा इष्ट) और असिद्ध (प्रतिवादी के लिए अमान्य) होता है तथा इससे जो विपरीत (बाधित, अनिष्ट और सिद्ध) होता है वह साध्याभास है, क्योंकि वह साधन द्वारा विषय (निश्चय) नहीं किया जाता। [[अकलंकदेव]] ने साध्य और साध्याभास का लक्षण करते हुए यही लिखा है-<br />
<poem>साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धं ततोऽपरम्।<br />
साध्याभासं विरुद्धादि, साधनाविषयत्वत:॥ न्यायविनिश्चय 2-172</poem><br />
*साधन वह है जिसका साध्य के साथ अविनाभाव निश्चित है- साध्य के होने पर ही होता है, उसके अभाव में नहीं होता। ऐसा साधन ही साध्य का गमक (अनुमापक) होता है। साधन को हेतु और लिङ्ग भी कहा जाता है। माणिक्यनन्दि साधन का लक्षण करते हुए कहते हैं-<br />
साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतु:।<ref>परीक्षामुखसूत्र 3-15</ref>' साध्य के साथ जिसका अविनाभाव निश्चित है वह हेतु है। <br />
<br />
'''अविनाभाव-भेद'''<br />
<br />
अविनाभाव दो प्रकार का है<ref>माणिक्यनन्दि, प.मु. 3-16, 17, 18</ref>-<br />
#सहभाव नियम और <br />
#क्रमभाव नियम। <br />
*जो सहचारी और व्याप्य-व्यापक होते हैं उनमें सहभाव नियम अविनाभाव रहता है। जैसे रूप और रस दोनों सहचारी हैं- रूप के साथ रस और रस के साथ रूप नियम से रहता है। अत: दोनों सहचारी हैं और इसलिए उनमें सहभाव नियम अविनाभाव है तथा शिंशपात्व और वृक्षत्व इन दोनों में व्याप्य-व्यापक भाव है। शिंशपात्व व्याप्य है और वृक्षत्व व्यापक है। शिंशपात्व होने पर वृक्षत्व अवश्य होता है। किन्तु वृक्षत्व के होने पर शिंशपात्व के होने का नियम नहीं है। अतएव सहचारियों और व्याप्य-व्यापक में सहभाव नियम अविनाभाव होता है, जिससे रूप से रस का और शिंशपात्व से वृक्षत्व का अनुमान किया जाता है। <br />
<br />
'''हेतु-भेद'''<br />
<br />
इन दोनों प्रकार के अविनाभाव से विशिष्ट हेतु के भेदों का कथन जैन न्यायशास्त्र में विस्तार से किया गया है, जिसे हमने 'जैन तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार' ग्रन्थ में विशदतया दिया है। अत: उस सबकी पुनरावृत्ति न करके मात्र माणिक्यनन्दि के 'परीक्षामुख' के अनुसार उनका दिग्दर्शन किया जाता है।<ref>माणिक्यनन्दि, प. मु. 3-57 58, 59, 65 से 79 तक</ref><br />
*माणिक्यनन्दि ने अकलंकदेव की तरह आरम्भ में हेतु के मूल दो भेद बतलाये हैं-<br />
#उपलब्धि और <br />
#अनुपलब्धि। <br />
*तथा इन दोनों को विधि और प्रतिषेध उभय का साधक कहा है और इस तरह दोनों के उन्होंने दो-दो भेद कहे हैं। उपलब्धि के- <br />
#अविरुद्धोपलब्धि और <br />
#विरुद्धोपलब्धि <br />
*अनुपलब्धि के- <br />
#अविरुद्धानुपलब्धि और <br />
#विरुद्धानुपलब्धि <br />
*इनके प्रत्येक के भेद इस प्रकार प्रतिपादित किये हैं- <br />
*अविरुद्धोपलब्धि छह- <br />
#व्याप्त, <br />
#कार्य,<br />
#कारण, <br />
#पूर्वचर, <br />
#उत्तरचर और <br />
#सहचर।<br />
*विरुद्धोपलब्धि के भी अविरुद्धोपलब्धि की तरह छह भेद हैं- <br />
#विरुद्ध व्याप्य, <br />
#विरुद्ध कार्य, <br />
#विरुद्ध कारण, <br />
#विरुद्ध पूर्वचर, <br />
#विरुद्ध उत्तरचर और <br />
#विरुद्ध-सहचर। <br />
*अविरुद्धानुपलब्धि प्रतिषेध रूप साध्य को सिद्ध करने की अपेक्षा 7. प्रकार की कही है- <br />
#अविरुद्धस्वभावानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धव्यापकानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धकार्यानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धकारणानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धपूर्वचरानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धउत्तरचरानुपलब्धि और <br />
#अविरुद्धसहचरानुपलब्धि। <br />
*विरुद्धानुपलब्धि विधि रूप साध्य को सिद्ध करने में तीन प्रकार की कही गयी है- <br />
#विरुद्धकार्यानुपलब्धि, <br />
#विरुद्धकारणानुपलब्धि और <br />
#विरुद्धस्वभावानुपलब्धि। <br />
*इस तरह माणिक्यनन्दि ने 6+6+7= 22 हेतुभेदों का सोदाहरण निरूपण किया है, परम्परा हेतुओं की भी उन्होंने संभावना करके उन्हें यथायोग्य उक्त हेतुओं में ही अन्तर्भाव करने का इंगित किया है। साथ ही उन्होंने अपने पूर्वज अकलंक की भांति कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर-इन नये हेतुओं को पृथक् मानने की आवश्यकता को भी सयुक्तिक बतलाया है।<br />
<br />
==आगम (श्रुत)==<br />
शब्द, संकेत, चेष्टा आदि पूर्वक जो ज्ञान होता है वह आगम है। जैसे- 'मेरु आदिक है' शब्दों को सुनने के बाद सुमेरु पर्वत आदि का बोध होता है।<ref>परी.मु. 3-99, 100, 101</ref> शब्द श्रवणादि मतिज्ञान पूर्वक होने से यह ज्ञान (आगम) भी परोक्ष प्रमाण है। इस तरह से स्मृत्यादि पाँचों ज्ञान ज्ञानान्तरापेक्ष हैं। स्मरण में धारणा रूप अनुभव (मति), प्रत्यभिज्ञान में अनुभव तथा स्मरण, तर्क में अनुभव, स्मृति और प्रत्यभिज्ञान, अनुमान में लिंगदर्शन, व्याप्ति स्मरण और आगम में शब्द, संकेतादि अपेक्षित हैं- उनके बिना उनकी उत्पत्ति संभव नहीं है। अतएव ये और इस जाति के अन्य सापेक्ष ज्ञान परोक्ष प्रमाण माने गये हैं।<br />
==नय-विमर्श==<br />
नय-स्वरूप— अभिनव धर्मभूषण ने<ref>न्यायदीपिका, पृ. 5, संपादन डॉ. दरबारीलाल कोठिया, 1945</ref> न्याय का लक्षण करते हुए कहा है कि 'प्रमाण-नयात्मको न्याय:'- प्रमाण और नय न्याय हैं, क्योंकि इन दोनों के द्वारा पदार्थों का सम्यक् ज्ञान होता है। अपने इस कथन को प्रमाणित करने के लिए उन्होंने आचार्य गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्र के, जिसे 'महाशास्त्र' कहा जाता है, उस सूत्र को प्रस्तुत किया है, जिसमें प्रमाण और मय को जीवादि तत्त्वार्थों को जानने का उपाय बताया गया है और वह है- 'प्रमाणनयैरधिगम:<ref>तत्त्वार्थसूत्र, 1-6</ref>'। वस्तुत: जैन न्याय का भव्य प्रासाद इसी महत्त्वपूर्ण सूत्र के आधार पर निर्मित हुआ है। <br />
<br />
'''नय-भेद'''<br />
<br />
उपर्युक्त प्रकार से मूल नय दो हैं<ref>प्रमयरत्नमाला 6/74, पृ. 206, सं. 1928</ref>- <br />
#द्रव्यार्थिक और <br />
#पर्यायार्थिक। <br />
*इनमें द्रव्यार्थिक तीन प्रकार का हैं<ref> प्रमयरत्नमाला, 6/74</ref>-<br />
#नैगम, <br />
#संग्रह, <br />
#व्यवहार। तथा <br />
*पर्यायार्थिक नय के चार भेद हैं<ref>प्रमयरत्नमाला, पृ. 207</ref>-<br />
#ऋजुसूत्र, <br />
#शब्द, <br />
#समभिरूढ़ और <br />
#एवम्भूत। <br />
<br />
'''नैगम नय'''<br />
जो धर्म और धर्मी में एक को प्रधान और एक को गौण करके प्ररूपण करता है वह नैगम नय है। जैसे जीव का गुण सुख है, ऐसा कहना। इसमें 'सुख' धर्म की प्रधानता और 'जीव' धर्मी की गौणता है अथवा यह सुखी जीव है, ऐसा कहना। इसमें 'जीव' धर्मी की प्रधानता है, क्योंकि वह विशेष्य है और 'सुख' धर्म गौण है, क्योंकि वह विशेषण है। इस नय का अन्य प्रकार से भी लक्षण किया गया है। जो भावी कार्य के संकल्प को बतलाता है वह नैगम नय है।<br />
<br />
'''संग्रह नय'''<br />
जो प्रतिपक्ष की अपेक्षा के साथ 'सन्मात्र' को ग्रहण करता है वह संग्रह नय है। जैसे 'सत्' कहने पर चेतन, अचेतन सभी पदार्थों का संग्रह हो जाता है, किन्तु सर्वथा 'सत्' कहने पर 'चेतन, अचेतन विशेषों का निषेध होने से वह संग्रहाभास है। विधिवाद इस कोटि में समाविष्ट होता है। <br />
<br />
'''व्यवहार नय'''<br />
संग्रहनय से ग्रहण किये 'सत्' में जो नय विधिपूर्वक यथायोग्य भेद करता है वह व्यवहारनय है। जैसे संग्रहनय से गृहीत 'सत्' द्रव्य हे या पर्याप्त है या गुण है। पर मात्र कल्पना से जो भेद करता है वह व्यवहारनयाभास है।<br />
<br />
'''ऋजुसूत्र नय''' <br />
भूत और भविष्यत पर्यायों को गौण कर केवल वर्तमान पर्याय को जो नय ग्रहण करता है वह ऋजुसूत्रनय है। जैसे प्रत्येक वस्तु प्रति समय परिणमनशील है। वस्तु को सर्वथा क्षणिक मानना ऋजुसूत्रनय है, क्योंकि इसमें वस्तु में होने वाली भूत और भविष्यत की पर्यायों तथा उनके आधारभूत अन्वयी द्रव्य का लोप हो जाता है। <br />
<br />
'''शब्द नय''' <br />
<br />
जो काल, कारक और लिङ्ग के भेद से शब्द में कथं चित् अर्थभेद को बतलाता है वह शब्दनय है। जैसे 'नक्तं निशा' दोनों पर्यायावाची हैं, किन्तु दोनों में लिंग भेद होने के कथं चित् अर्थभेद है। 'नक्तं' शब्द नंपुसक लिंग है और 'निशा' शब्द स्त्रीलिंग है। 'शब्दभेदात् ध्रुवोऽर्थभेद:' यह नय कहता है। अर्थभेद को कथं चित् माने बिना शब्दों को सर्वथा नाना बतलाकर अर्थ भेद करना शब्दनयाभास हैं <br />
<br />
'''समभिरूढ़ नय'''<br />
<br />
जो पर्याय भेद पदार्थ का कथंचित् भेद निरूपित करता है वह समभिरूढ़ नय है। जैसे इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि शब्द पर्याय शब्द होने से उनके अर्थ में कथं चित् भेद बताना। पर्याय भेद माने बिना उनका स्वतंत्र रूप से कथन करना समभिरूढ नयाभास है।<ref>'तत्र प्रमाणं द्विविधं स्वार्थं परार्थं च। तत्र स्वार्थं प्रमाणं श्रुतवर्ज्यम् श्रुतं पुन: स्वार्थं भवति परार्थं च। - सर्वार्थसिद्धि 1-6, भा. ज्ञा. संस्करण</ref>'<br />
<br />
'''एवंभूत नय'''<br />
<br />
जो क्रिया भेद से वस्तु के भेद का कथन करता है वह एवंभूत नय हैं जैसे पढ़ाते समय ही पाठक या अध्यापक अथवा पूजा करते समय ही पुजारी कहना। यह नय क्रिया पर निर्भर है। इसका विषय बहुत सूक्ष्म है। क्रिया की अपेक्षा न कर क्रिया वाचक शब्दों का कल्पनिक व्यवहार करना एवंभूतनयाभास है।<br />
==जैन दर्शन का उद्भव और विकास==<br />
'''उद्भव'''<br />
*आचार्य भूतबली और पुष्पदन्त द्वारा निबद्ध 'षट्खंडागम' में, जो दृष्टिवाद अंग का ही अंश है, 'सिया पज्जत्ता', 'सिया अपज्जता', 'मणुस अपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया', 'अखंखेज्जा* 'जैसे 'सिया' (स्यात्) शब्द और प्रश्नोत्तरी शैली को लिए प्रचुर वाक्य पाए जाते हैं।<br />
*'षट्खंडागम' के आधार से रचित आचार्य कुन्दकुन्द के 'पंचास्तिकाय', 'प्रवचनसार' आदि आर्ष ग्रन्थों में भी उनके कुछ और अधिक उद्गमबीज मिलते हैं। 'सिय अत्थिणत्थि उहयं', 'जम्हा' जैसे युक्ति प्रवण वाक्यों एवं शब्द प्रयोगों द्वारा उनमें प्रश्नोत्तर पूर्वक विषयों को दृढ़ किया गया है। <br />
'''विकास'''<br />
<br />
काल की दृष्टि से उनके विकास को तीन कालखंडों में विभक्त किया जा सकता है और उन कालखंडों के नाम निम्न प्रकार रखे जा सकते हैं :-<br />
*आदिकाल अथवा समन्तभद्र-काल (ई. 200 से ई. 650)।<br />
*मध्यकाल अथवा अकलंक-काल (ई. 650 से ई. 1050)।<br />
*उत्तरमध्ययुग (अन्त्यकाल) अथवा प्रभाचन्द्र-काल (ई. 1050 से 1700)। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन दर्शन का उद्भव और विकास]]<br />
<br />
==जैन दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ==<br />
आचार्य जिनसेन और गुणभद्र : एक परिचय<br />
*ये दोनों ही आचार्य उस पंचस्तूप नामक अन्वय में हुए हैं जो आगे चलकर सेनान्वय का सेनसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। जिनसेन स्वामी के गुरु वीरसेन ने भी अपना वंश पत्र्चस्तूपान्वय ही लिखा है। परन्तु गुणभद्राचार्य ने सेनान्वय लिखा है। इन्द्रानन्दी ने अपने श्रुतावतार में लिखा है कि जो मुनि पंचस्तूप निवास से आये उनमें से किन्हीं को सेन और किन्हीं को भद्र नाम दिया गया। तथा कोई आचार्य ऐसा भी कहते हैं कि जो गुहाओं से आये उन्हें नन्दी, जो अशोक वन से आये उन्हें देव और जो पंचस्तूप से आये उन्हें सेन नाम दिया गया। श्रुतावतार के उक्त उल्लेख से प्रतीत होता है कि सेनान्त और भद्रान्त नाम वाले मुनियों का समूह ही आगे चलकर सेनान्वय या सेना संघ से प्रसिद्ध हुआ है। <br />
<br />
जिनसेनाचार्य सिद्धान्तशास्त्रों के महान् ज्ञाता थे। इन्होंने कषायप्राभृत पर 40 हज़ार श्लोक प्रमाण जयधवल टीका लिखी है। आचार्य वीरसेन स्वामी उस पर 20 हज़ार श्लोक प्रमाण टीका लिख पाये थे और वे दिवंगत हो गये थे। तब उनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने 40 हज़ार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर उसे पूर्ण किया। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ]]<br />
==जैन दर्शन में अध्यात्म==<br />
'अध्यात्म' शब्द अधि+आत्म –इन दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है कि आत्मा को आधार बनाकर चिन्तन या कथन हो, वह अध्यात्म है। यह इसका व्युत्पत्ति अर्थ हे। यह जगत जैन दर्शन के अनुसार छह द्रव्यों के समुदायात्मक है। वे छह द्रव्य हैं-<br />
*जीव,<br />
*पुद्गल,<br />
*धर्म,<br />
*अधर्म,<br />
*आकाश और<br />
*काल। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन दर्शन में अध्यात्म]]<br />
==जैन तार्किक और उनके न्यायग्रन्थ==<br />
'''बीसवीं शती के जैन तार्किक'''<br />
<br />
बीसवीं शती में भी कतिपय दार्शनिक एवं नैयायिक हुए हैं, जो उल्लेखनीय हैं। इन्होंने प्राचीन आचार्यों द्वारा लिखित दर्शन और न्याय के ग्रन्थों का न केवल अध्ययन-अध्यापन किया, अपितु उनका राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनुवाद एवं सम्पादन भी किया है। साथ में अनुसंधानपूर्ण विस्तृत प्रस्तावनाएँ भी लिखी हैं, जिनमें ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार के ऐतिहासिक परिचय के साथ ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषयों का भी तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक आकलन किया गया है। कुछ मौलिक ग्रन्थ भी हिन्दी भाषा में लिखे गये हैं। सन्तप्रवर न्यायचार्य पं. गणेशप्रसाद वर्णी न्यायचार्य, पं. माणिकचन्द्र कौन्देय, पं. सुखलाल संघवी, डा. पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, पं. कैलाश चन्द्र शास्त्री, पं. दलसुख भाइर मालवणिया एवं इस लेख के लेखक डा. पं. दरबारी लाला कोठिया न्यायाचार्य आदि के नाम विशेष उल्लेख योग्य हैं। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन तार्किक और उनके न्यायग्रन्थ]]<br />
==त्रिभंगी टीका==<br />
#आस्रवत्रिभंगी, <br />
#बंधत्रिभंगी, <br />
#उदयत्रिभंगी और <br />
#सत्त्वत्रिभंगी-इन 4 त्रिभंगियों को संकलित कर टीकाकार ने इन पर [[संस्कृत]] में टीका की है। <br />
*आस्रवत्रिभंगी 63 गाथा प्रमाण है। <br />
*इसके रचयिता श्रुतमुनि हैं। <br />
*बंधत्रिभंगी 44 गाथा प्रमाण है तथा उसके कर्ता नेमिचन्द शिष्य माधवचन्द्र हैं। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[त्रिभंगी टीका]]<br />
==पंचसंग्रह टीका==<br />
मूल पंचसंग्रह नामक यह मूलग्रन्थ [[प्राकृत]] भाषा में है। इस पर तीन [[संस्कृत]]-टीकाएँ हैं। <br />
#श्रीपालसुत डड्ढा विरचित पंचसंग्रह टीका, <br />
#आचार्य अमितगति रचित संस्कृत-पंचसंग्रह, <br />
#सुमतकीर्तिकृत संस्कृत-पंचसंग्रह। <br />
*पहली टीका दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह का संस्कृत-अनुष्टुपों में परिवर्तित रूप है। इसकी श्लोक संख्या 1243 है। कहीं कहीं कुछ गद्यभाग भी पाया जाता है, जो लगभग 700 श्लोक प्रमाण है। इस तरह यह लगभग 2000 श्लोक प्रमाण है। यह 5 प्रकरणों का संग्रह है। वे 5 प्रकरण निम्न प्रकार हैं- <br />
#जीवसमास, <br />
#प्रकृतिसमुत्कीर्तन, <br />
#कर्मस्तव, <br />
#शतक और <br />
#सप्ततिका। <br />
*इसी तरह अन्य दोनों संस्कृत टीकाओं में भी समान वर्णन है। <br />
*विशेष यह है कि आचार्य अमितगति कृत पंचसंग्रह का परिमाण लगभग 2500 श्लोक प्रमाण है। तथा सुमतकीर्ति कृत पंचसंग्रह अति सरल व स्पष्ट है। <br />
*इस तरह ये तीनों टीकाएँ संस्कृत में लिखी गई हैं और समान होने पर भी उनमें अपनी अपनी विशेषताएँ पाई जाती हैं। <br />
*कर्म साहित्य के विशेषज्ञों को इन टीकाओं का भी अध्ययन करना चाहिए। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[पंचसंग्रह टीका]]<br />
==मन्द्रप्रबोधिनी==<br />
*शौरसेनी [[प्राकृत|प्राकृत भाषा]] में आचार्य नेमिचन्द्र सि0 चक्रवर्ती द्वारा निबद्ध गोम्मटसार मूलग्रन्थ की [[संस्कृत भाषा]] में रची यह एक विशद् और सरल व्याख्या है। इसके रचयिता अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती हैं। यद्यपि यह टीका अपूर्ण है किन्तु कर्मसिद्धान्त को समझने के लिए एक अत्यन्त प्रामाणिक व्याख्या है। केशववर्णी ने इनकी इस टीका का उल्लेख अपनी कन्नडटीका में, जिसका नाम कर्नाटकवृत्ति है, किया है। इससे ज्ञात होता है कि केशववर्णी ने उनकी इस मन्दप्रबोधिनी टीका से लाभ लिया है। <br />
*गोम्मटसार आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा लिखा गया कर्म और जीव विषयक एक प्रसिद्ध एवं महत्त्वपूर्ण प्राकृत-ग्रन्थ है। इसके दो भाग हैं- <br />
#एक जीवकाण्ड और <br />
#दूसरा कर्मकाण्ड। <br />
जीवकाण्ड में 734 और कर्मकाण्ड में 972 शौरसेनी-प्राकृत भाषाबद्ध गाथाएं हैं। कर्मकाण्ड पर संस्कृत में 4 टीकाएं लिखी गई हैं। वे हैं- <br />
#[[गोम्मट पंजिका]], <br />
#मन्दप्रबोधिनी, <br />
#कन्नड़ संस्कृत मिश्रित जीवतत्त्वप्रदीपिका, <br />
#संस्कृत में ही रचित अन्य नेमिचन्द्र की जीवतत्त्वप्रदीपिका। इन टीकाओं में विषयसाम्य है पर विवेचन की शैली इनकी अलग अलग हैं। भाषा का प्रवाह और सरलता इनमें देखी जा सकती है। <br />
आगे विस्तार में पढ़ें:- [[मन्द्रप्रबोधिनी]]<br />
{{संदर्भ ग्रंथ}}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
{{प्रचार}}<br />
==संबंधित लेख==<br />
{{जैन धर्म}}{{संस्कृत साहित्य}}{{जैन धर्म2}}{{दर्शन शास्त्र}}<br />
[[Category:दर्शन कोश]]<br />
<br />
[[Category:जैन दर्शन]] <br />
__INDEX__<br />
{{toc}}</div>हिमानीhttps://en.bharatdiscovery.org/w/index.php?title=Template:%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8_%E0%A4%A6%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6%E0%A4%A8_%E0%A4%95%E0%A5%87_%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%97&diff=209605Template:जैन दर्शन के अंग2011-08-22T11:39:08Z<p>हिमानी: </p>
<hr />
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}}<noinclude>[[Category:जैन धर्म के साँचे]]</noinclude></div>हिमानीhttps://en.bharatdiscovery.org/w/index.php?title=%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8_%E0%A4%A6%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6%E0%A4%A8_%E0%A4%94%E0%A4%B0_%E0%A4%89%E0%A4%B8%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%89%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%AF&diff=209593जैन दर्शन और उसका उद्देश्य2011-08-22T11:31:35Z<p>हिमानी: /* पंचास्तिकाय मीमांसा */</p>
<hr />
<div>__TOC__*'कर्मारातीन् जयतीति जिन:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिसने राग द्वेष आदि शत्रुओं को जीत लिया है वह 'जिन' है। <br />
*अर्हत, अरहन्त, जिनेन्द्र, वीतराग, परमेष्ठी, आप्त आदि उसी के पर्यायवाची नाम हैं। उनके द्वारा उपदिष्ट दर्शन जैनदर्शन हैं। <br />
*आचार का नाम धर्म है और विचार का नाम दर्शन है तथा युक्ति-प्रतियुक्ति रूप हेतु आदि से उस विचार को सुदृढ़ करना न्याय है।<br />
* जैन दर्शन का निर्देश है कि आचार का अनुपालन विचारपूर्वक किया जाये। धर्म, दर्शन और न्याय-इन तीनों के सुमेल से ही व्यक्ति के आध्यात्मिक उन्नयन का भव्य प्रासाद खड़ा होता है। *अत: जैन धर्म का जो 'आत्मोदय' के साथ 'सर्वोदय'- सबका कल्याण उद्दिष्ट है।<ref>सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव–समन्तभद्र युक्त्यनु. का. 61</ref> उसका समर्थन करना जैन दर्शन का लक्ष्य हैं जैन धर्म में अपना ही कल्याण नहीं चाहा गया है, अपितु सारे राष्ट्र, राष्ट्र की जनता और विश्व के जनसमूह, यहाँ तक कि प्राणीमात्र के सुख एवं कल्याण की कामना की गई है।<ref>क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपाल:<br />
काले वर्ष प्रदिशतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम्।<br />
दुर्भिक्षं चौरमारी क्षणमपि जगतां मा स्म भूज्जीवलोके,<br />
जैनेन्द्रं धर्मचक्रं प्रभवतु सततं सर्वसौख्यप्रदायि॥</ref><br />
{{tocright}}<br />
==जैन दर्शन के प्रमुख अंग==<br />
#[[द्रव्य मीमांसा -जैन दर्शन|द्रव्य-मीमांसा]]<br />
#[[तत्त्व मीमांसा -जैन दर्शन|तत्त्व-मीमांसा]]<br />
#[[पदार्थ मीमांसा -जैन दर्शन|पदार्थ-मीमांसा]]<br />
#[[पंचास्तिकाय मीमांसा -जैन दर्शन|पंचास्तिकाय-मीमांसा]]<br />
#[[अनेकान्त विमर्श -जैन दर्शन|अनेकान्त-विमर्श]]<br />
#[[स्याद्वाद विमर्श -जैन दर्शन|स्याद्वाद विमर्श]]<br />
#[[सप्तभंगी विमर्श -जैन दर्शन|सप्तभंगी विमर्श]]<br />
<br />
==द्रव्य-मीमांसा==<br />
{{main|द्रव्य मीमांसा -जैन दर्शन}}<br />
वैशेषिक, भाट्ट और प्रभाकर दर्शनों में द्रव्य और पदार्थ दोनों को स्वीकार कर उनका विवेचन किया गया है। तथा [[सांख्य दर्शन]] और [[बौद्ध दर्शन|बौद्ध दर्शनों]] में क्रमश: तत्त्व और आर्य सत्यों का कथन किया गया है, [[वेदान्त दर्शन]] में केवल ब्रह्म (आत्मतत्व) और [[चार्वाक दर्शन]] में भूत तत्त्वों को माना गया है, वहाँ जैन दर्शन में द्रव्य, पदार्थ, तत्त्व, और अस्तिकाय को स्वीकार कर उन सबका पृथक्-पृथक् विस्तृत निरूपण किया गया है।<ref>त्रैकाल्यं द्रव्यषट्कं नवपदसहितं जीवषट्काय - लेश्या:,<br />
पंचान्ये चास्तिकाया व्रत समिति-गति-ज्ञान- चारित्रभेदा:।<br />
इत्येतन्मोक्षमूलं त्रिभुवनमहितै: प्रोक्तमर्हदिभरीशै:<br />
प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान् य: स वै शुद्धदृष्टि:॥ - स्तवनसंकलन।</ref> <br />
*जो ज्ञेय के रूप में वर्णित है और जिनमें हेय-उपादेय का विभाजन नहीं है पर तत्त्वज्ञान की दृष्टि से जिनका जानना ज़रूरी है तथा गुण और पर्यायों वाले हैं एवं उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त हैं, वे द्रव्य हैं। <br />
*तत्त्व का अर्थ मतलब या प्रयोजन है। जो अपने हित का साधक है वह उपादेय है और जो आत्महित में बाधक है वह हेय है। उपादेय एवं हेय की दृष्टि से जिनका प्रतिपादन के उन्हें तत्त्व कहा गया है। <br />
*भाषा के पदों द्वारा जो अभिधेय है वे पदार्थ हैं। उन्हें पदार्थ कहने का एक अभिप्राय यह भी है कि 'अर्थ्यतेऽभिलष्यते मुमुक्षुभिरित्यर्थ:' मुमुक्षुओं के द्वारा उनकी अभिलाषा की जाती है, अत: उन्हें अर्थ या पदार्थ कहा गया है। <br />
*अस्तिकाय की परिभाषा करते हुए कहा है कि जो 'अस्ति' और 'काय' दोनों है। 'अस्ति' का अर्थ 'है' है और 'काय' का अर्थ 'बहुप्रदेशी' है अर्थात जो द्रव्य है' होकर कायवाले- बहुप्रदेशी हैं, वे 'अस्तिकाय' हैं।<ref>पंचास्तिकाय, गा. 4-5 द्रव्य सं. गा. 24</ref> ऐसे पाँच द्रव्य हैं- <br />
#पुद्गल<br />
#धर्म<br />
#अधर्म<br />
#आकाश<br />
#जीव<br />
#कालद्रव्य एक प्रदेशी होने से अस्तिकाय नहीं है।<br />
<br />
==तत्त्व मीमांसा==<br />
{{मुख्य|तत्त्व मीमांसा -जैन दर्शन}}<br />
तत्त्व का अर्थ है प्रयोजन भूत वस्तु। जो अपने मतलब की वस्तु है और जिससे अपना हित अथवा स्वरूप पहचाना जाता है वह तत्त्व है। 'तस्य भाव: तत्त्वम्' अर्थात वस्तु के भाव (स्वरूप) का नाम तत्त्व है। ऋषियों या शास्त्रों का जितना उपदेश है उसका केन्द्र जीव (आत्मा) रहा है। उपनिषदों में आत्मा के दर्शन, श्रवण, मनन और ध्यान पर अधिक बल दिया गया है और इनके माध्यम से आत्मा के साक्षात्कार की बात कही गयी है<ref>श्रोतव्य:श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभि:। मत्वा च स्ततं ध्येय एते दर्शनहेतव:॥</ref>। जैन दर्शन तो पूरी तरह आध्यात्मिक है। अत: इसमें आत्मा को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है।<ref> कुन्दकुन्द, मोक्ष प्राभृत गा. 4, 5, 6, 7</ref> <br />
#बहिरात्मा, <br />
#अन्तरात्मा और <br />
#परमात्मा। <br />
*मूढ आत्मा को बहिरात्मा, जागृत आत्मा को अन्तरात्मा और अशेष गुणों से सम्पन्न आत्मा को परमात्मा कहा गया है। ये एक ही आत्मा के उन्नयन की विकसित तीन श्रेणियाँ हैं। जैसे एक आरम्भिक अबोध बालक शिक्षक, पुस्तक, पाठशाला आदि की सहायता से सर्वोच्च शिक्षा पाकर सुबोध बन जाता है वैसे ही एक मूढात्मा सत्संगति, सदाचार-अनुपालन, ज्ञानाभ्यास आदि को प्राप्त कर अन्तरात्मा (महात्मा) बन जाता है और वही ज्ञान, ध्यान तप आदि के निरन्तर अभ्यास से कर्म-कलङ्क से मुक्त होकर परमात्मा (अरहन्त व सिद्ध रूप ईश्वर) हो जाता है। इस दिशा में जैन चिन्तकों का चिन्तन, आत्म विद्या की ओर लगाव अपूर्व है।<br />
<br />
==पदार्थ मीमांसा==<br />
{{मुख्य|पदार्थ मीमांसा -जैन दर्शन}}<br />
उक्त सात तत्त्वों में पुण्य और पाप को सम्मिलित कर देने पर नौ पदार्थ कहे गए हैं।<ref>जीवा जीवा भावा पुण्णं पावं च आसवं तेसिं। संवर-णिज्जर बंधो मोक्खो य हवंति ते अट्ठ॥–पंचास्ति., गा. 108</ref><br />
<br />
==पंचास्तिकाय मीमांसा==<br />
{{मुख्य|पंचास्तिकाय मीमांसा -जैन दर्शन}}<br />
जैन दर्शन में उक्त द्रव्य, तत्त्व और पदार्थ के अलावा अस्तिकायों का निरूपण किया गया है। कालद्रव्य को छोड़कर शेष पांचों द्रव्य (पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकश और जीव) अस्तिकाय हैं।<ref>द्रव्य सं. गा. 23, 24, 25</ref><br />
<br />
==अनेकान्त विमर्श==<br />
'अनेकान्त' जैनदर्शन का उल्लेखनीय सिद्धान्त है। वह इतना व्यापक है कि वह लोक (लोगों) के सभी व्यवहारों में व्याप्त है। उसके बिना किसी का व्यवहार चल नहीं सकता। आचार्य [[सिद्धसेन]] ने कहा है<ref>जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वडइ।<br /> तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमोऽणेयंत वायस्स॥ - सिद्धसेन। </ref> कि लोगों के उस आद्वितीय गुरु अनेकान्तवाद को हम नमस्कार करते हैं, जिसके बिना उनका व्यवहार किसी तरह भी नहीं चलता। अमृतचन्द्र उसके विषय में कहते है<ref>परमागमस्य जीवं निषिद्धजात्यन्ध- सिन्धुरविधानम्।<br /> सकल-नय-विलसितानां विरोधमथानं नमाम्यनेकान्तम्॥ -अमृतचन्द्र, पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, श्लो. 1।</ref> कि अनेकान्त परमागम जैनागम का प्राण हे और वह वस्तु के विषय में उत्पन्न एकान्तवादियों के विवादों को उसी प्रकार दूर करता है जिस प्रकार हाथी को लेकर उत्पन्न जन्मान्धों के विवादों को उसी प्रकार दूर करता है जिस प्रकार हाथी को लेकर उत्पन्न जन्मान्धों के विवादों को सचक्षु: (नेत्रवाला) व्यक्ति दूर कर देता है। समन्तभद्र का कहना है<ref>एकान्त धर्माभिनिवेशमूला रागादयोऽहं कृतिजा जनानाम्।<br />एकान्तहानाच्च स यत्तदेव स्वाभाविकत्वाच्च समं मनस्ते॥ - समन्तभद्र, युक्तयनुशासन कारिका 51</ref> कि वस्तु को अनेकान्त मानना क्यों आवश्यक है? वे कहते हैं कि एकान्त के आग्रह से एकान्त समझता है कि वस्तु उतनी ही है, अन्य रूप नहीं है, इससे उसे अहंकर आ जाता है और अहंकार से उसे राग, द्वेष आदि उत्पन्न होते हैं, जिससे उसे वस्तु का सही दर्शन नहीं होता। पर अनेकान्ती को एकानत का आग्रह न होने से उसे न अहंकार पैदा होता है और न राग, द्वेष आदि उत्पन्न होते हैं। फलत: उसे उस अनन्तधर्मात्मक अनेकान्त रूप वस्तु का सम्यक्दर्शन होता है, क्योंकि एकान्त का आग्रह न करना दूसरे धर्मों को भी उसमें स्वीकार करना सम्यग्दृष्टि का स्वभाव है। और इस स्वभाव के कारण ही अनेकान्ती के मन में पक्ष या क्षोभ पैदा नहीं होता, वह साम्य भाव को लिए रहता है। <br />
*अनेकान्त के भेद- यह अनेकान्त दो प्रकार का है- <br />
#सम्यगनेकान्त और <br />
#मिथ्या अनेकान्त। <br />
परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशन करने वाला सम्यगनेकान्त है अथवा सापेक्ष एकान्तों का समुच्चय सम्यगनेकान्त है<ref>समन्तभद्र, आप्तमी., का. 107</ref> निरपेक्ष नाना धर्मों का समूह मिथ्या अनेकान्त है। एकान्त भी दो प्रकार का है- <br />
#सम्यक एकान्त और <br />
#मिथ्या एकान्त। <br />
सापेक्ष एकान्त सम्यक एकान्त है। वह इतर धर्मों का संग्रहक है। अत: वह नय का विषय है और निरपेक्ष एकान्त मिथ्या एकान्त है, जो इतर धर्मों का तिरस्कारक है वह दुनर्य या नयाभास का विषय है। अनेकान्त के अन्य प्रकार से भी दो भेद कहे गये हैं।<ref>विद्यानन्द तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, 5-38-2</ref> <br />
#सहानेकान्त और <br />
#क्रमानेकान्त। <br />
एक साथ रहने वाले गुणों के समुदाय का नाम सहानेकान्त है और क्रम में होने वाले धर्मों-पर्यायों के समुच्चय का नाम क्रमानेकान्त है। इन दो प्रकार के अनेकान्तों के उद्भावक जैन दार्शनिक आचार्य विद्यानंद हैं। उनके समर्थक [[वादीभसिंह]] हैं। उन्होंने अपनी स्याद्वादसिद्धि में इन दोनों प्रकार के अनेकान्तों का दो परिच्छेदों में विस्तृत प्रतिपादन किया है। उन के नाम हैं- सहानेकान्तसिद्धि और क्रमानेकान्त सिद्धि। अनेकान्त को मानने में कोई विवाद होना ही नहीं चाहिए। जो हेतु<ref>एकस्य हेतो: साधक दूषकत्वाऽविसंवादवद्धा'- त.वा. 1-6-13</ref> स्वपक्ष का साधक होता है वही साथ में परपक्ष का दूषक भी होता है। इस प्रकार उसमें साधकत्व एवं दूषकत्व दोनों विरुद्ध धर्म एक साथ रूपरसादि की तरह विद्यमान हैं। <br />
सांख्यदर्शन, प्रकृति को सत्त्व, रज और तमोगुण रूप त्रयात्मक स्वीकार करता है और तीनों परस्पर विरुद्ध है तथा उनके प्रसाद-लाघव, शोषण-ताप, आवरण-सादन आदि भिन्न-भिन्न स्वभाव हैं और सब प्रधान रूप हैं, उनमें कोई विरोध नहीं है।<ref>'केचित्तावदाहु:- सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रधानमिति, तेषां<br /> प्रसादलाघवशोषतापावरणासादनादिभिन्नस्वभावानां प्रधानात्मनां मिथश्च न विरोध:।'</ref> वैशेषिक द्रव्यगुण आदि को अनुवृत्ति-व्यावृत्ति प्रत्यय कराने के कारण सामान्य-विशेष रूप मानते हैं। पृथ्वी आदि में 'द्रव्यम्' इस प्रकार का अनुवृत्ति प्रत्यय होने से द्रव्य को सामान्य और 'द्रव्यम् न गुण:, न कर्म, आदि व्यावृत्ति प्रत्यय का कारण होने से उसे विशेष भी कहते हैं और इस प्रकार द्रव्य एक साथ परस्पर विरुद्ध सामान्य-विशेष रूप माना गया है।<ref>अपरे मन्यन्ते- अनुवृत्तिविनिवृत्तिबुद्धयभिधानलक्षण: सामान्यविशेष इति। तेषां च सामान्यमेव विशेष: सामान्यविशेष इति। एकस्यात्मन उभयात्मकत्वं न विरुध्यते। त.वा. 1-6-14 । 2. समन्तभद्र, आप्तमी. का 104</ref> चित्ररूप भी उन्होंने स्वीकार किया है, जो परस्पर विरुद्ध रूपों का समुदाय है। बौद्ध दर्शन में भी एक चित्रज्ञान स्वीकृत है, जो परस्परविरुद्ध नीलादि ज्ञानों का समूह है।<br />
<br />
==स्याद्वाद विमर्श==<br />
स्याद्वाद उसी प्रकार अनेकान्त का वाचक अथवा व्यवस्थापक है जिस प्रकार ज्ञान उस अनेकान्त का व्यापक अथवा व्यवस्थापक है। जब ज्ञान के द्वारा वह जाना जाता है तो दोनों में ज्ञान-ज्ञेय का संबंध होता है और जब वह स्याद्वाद के द्वारा कहा जाता है तो उनमें वाच्य-वाचक संबंध होता है। ज्ञान का महत्त्व यह है कि वह ज्ञेय को जानकर उन ज्ञेयों की व्यवस्था बनाता है- उन्हें मिश्रित नहीं होने देता है। यह अमुक है, यह अमुक नहीं है इस प्रकार वह ज्ञाता को उस उस ज्ञेय की परिच्छित्ति कराता है। स्याद्वाद का भी वही महत्त्व है। वह वचनरूप होने से वाच्य को कहकर उसके अन्य धर्मों की मौन व्यवस्था करता है। ज्ञान और वचन में अंतर यही है कि ज्ञान एक साथ अनेक ज्ञेयों को जान सकता है पर वचन एक बार में एक ही वाच्य धर्म को कह सकता है, क्योंकि 'सकृदुच्चरित शब्द: एकमेवार्थ गमयति' इस नियम के अनुसार एक बार बोला गया वचन एक ही अर्थ का बोध कराता है। <br />
*समन्तभद्र की 'आप्त-मीमांसा', जिसे 'स्याद्वाद-मीमांसा' कहा जा सकता है, ऐसी कृति है, जिसमें एक साथ स्याद्वाद, अनेकान्त और सप्तभंगी तीनों का विशद और विस्तृत विवेचन किया गया है। अकलंकदेव ने उस पर 'अष्टशती' (आप्त मीमांसा- विवृति) और [[विद्यानन्द]] ने उसी पर 'अष्टसहस्त्री' (आप्तमीमांसालंकृति) व्याख्या लिखकर जहाँ आप्तमीमांसा की कारिकाओं एवं उनके पद-वाक्यादिकों का विशद व्याख्यान किया है वहाँ इन तीनों का भी अद्वितीय विवेचन किया है।<br />
---- <br />
<br />
'''न्याय विद्या'''<br />
<br />
*'नीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन स न्याय:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार न्याय वह विद्या है जिसके द्वारा वस्तु का स्वरूप निर्णीत किया जाए। इस व्युत्पत्ति के आधार पर कोई प्रमाण को, कोई लक्षण और प्रमाण को, कोई लक्षण, प्रमाण, नय और निक्षेप को तथा कोई पंचावयव-वाक्य के प्रयोग को न्याय कहते हैं क्योंकि इनके द्वारा वस्तु-प्रतिपत्ति होती है। <br />
*न्यायदीपिकाकार अभिनव धर्मभूषण का मत है कि न्याय प्रमाण और नयरूप है। अपने इस मत का समर्थन वे आचार्य गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्रगत उस सूत्र से करते हैं<ref>'प्रमाणनयैरधिगम:'- त.सू. 1-16</ref>, जिसमें कहा गया है कि वस्तु (जीवादि पदार्थों) का अधिगम प्रमाणों तथा नयों से होता है। प्रमाण और नय इन दो को ही अधिगम का उपाय सूत्रकार ने कहा है। उनका आशय है कि चूँकि प्रत्येक वस्तु अखंड (धर्मी) और सखंड (धर्म) दोनों रूप है। उसे अखंडरूप में ग्रहण करने वाला प्रमाण है और खंडरूप में जानने वाला नय है। अत: इन दो के सिवाय किसी तीसरे ज्ञापकोपाय की आवश्यकता नहीं है। <br />
*न्यायविद्या को 'अमृत' भी कहा गया है।<ref>'न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने।' –अनन्तवीर्य, प्रमेयरत्नमाला पृ. 2,2 श्लो. 2</ref> इसका कारण यह कि जिस प्रकार 'अमृत' अमरत्व को प्रदान करता है उसी प्रकार न्यायविद्या भी तत्त्वज्ञान प्राप्त कराकर आत्मा को अमर (मिथ्याज्ञानादि से मुक्त और सम्यग्ज्ञान से युक्त) बना देती है।<br />
<br />
'''आगमों में न्याय-विद्या'''<br />
<br />
*षट्खंडागम<ref>षट्ख. 5।5।51, शोलापुर संस्करण, 1965</ref> में श्रुत के पर्याय-नामों को गिनाते हुए एक नाम 'हेतुवाद' भी दिया गया है, जिसका अर्थ हेतुविद्या, न्यायविद्या, तर्क-शास्त्र और युक्ति-शास्त्र किया है। <br />
*स्थानांगसूत्र<ref>'अथवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते तं जहा- पच्चक्खे अनुमाने उवमे आगमे। अथवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते। तं जहा-अत्थि तं अत्थि सो हेऊ, अत्थि तं णत्थि सो हेऊ, णत्थि तं अत्थि सो हेऊ णत्थि तं णत्थि सो हेऊ।' –स्थानांग स्.-पृ. 309-310, 338</ref> में 'हेतु' शब्द प्रयुक्त है, जिसके दो अर्थ किये गये हैं- <br />
*प्रमाण-सामान्य; इसके [[प्रत्यक्ष]], अनुमान, उपमान और आगम-ये चार भेद हैं। अक्षपाद गौतम के न्यायसूत्र में भी इन चार का प्रतिपादन है। पर उन्होंने इन्हें प्रमाण के भेद कहे हैं। यद्यपि स्थानांगसूत्रकार को भी हेतुशब्द प्रमाण के अर्थ में ही यहाँ विवक्षित है। <br />
*हेतु शब्द का दूसरा अर्थ उन्होंने अनुमान का प्रमुख अंग हेतु (साधन) किया है। उसके निम्न चार भेद किये हैं-<br />
#विधि-विधि (साध्य और साधन दोनों सद्भव रूप)<br />
#विधि-निषेध (साध्य विधिरूप और साधन निषेधरूप)<br />
#निषेध-विधि (साध्य निषेधरूप और हेतु विधिरूप)<br />
#निषेध-निषेध (साध्य और साधन दोनों निषेधरूप)<br />
इन्हें हम क्रमश: निम्न नामों से व्यवहृत कर सकते हैं-<br />
#विधिसाधक विधिरूप<ref>धर्मभूषण, न्यायदीपिका, पृ. 95-99 दिल्ली संस्करण</ref> अविरुद्धोपलब्धि<ref> माणिक्यनन्दि, परीक्षामुख 3/57-58</ref> <br />
#विधिसाधक निषेधरूप विरुद्धानुपलब्धि<br />
#निषेधसाधक विधिरूप विरुद्धोपलब्धि<br />
#निषेधसाधक निषेधरूप अविरुद्धानुपलब्धि<ref>डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ. 24 का टिप्पणी नं. 3</ref> <br />
इनके उदाहरण निम्न प्रकार दिये जा सकते हैं-<br />
#अग्नि है, क्योंकि धूम है। यहाँ साध्य और साधन दोनों विधि (सद्भाव) रूप हैं।<br />
#इस प्राणी में व्याधि विशेष है, क्योंकि स्वस्थचेष्टा नहीं है। साध्य विधिरूप है और साधन निषेधरूप है।<br />
#यहाँ शीतस्पर्श नहीं है, क्योंकि उष्णता है। यहाँ साध्य निषेधरूप व साधन विधिरूप है।<br />
#यहाँ धूम नहीं है, क्योंकि अग्नि का अभाव है। यहाँ साध्य व साधन दोनों निषेधरूप है। <br />
अनुयोगसूत्र में<ref>)डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार पृ. 25 व उसके टिप्पणी</ref> अनुमान और उसके भेदों की विस्तृत चर्चा उपलब्ध है, जिससे ज्ञात होता है कि आगमों में न्यायविद्या एक महत्त्वपूर्ण विद्या के रूप में वर्णित है। आगमोत्तरवर्ती दार्शनिक साहित्य में तो वह उत्तरोत्तर विकसित होती गई है।<br /><br />
'''प्रमाण और नय'''<br /><br />
*तत्त्वमीमांसा में हेय और उपादेय के रूप में विभक्त जीव आदि सात तत्त्वों का विवेचन हैं। तत्त्व का दूसरा अर्थ वस्तु है।<ref>डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ. 58, 59</ref> यह वस्तुरूप तत्त्व दो प्रकार का है- 1. उपेय और 2. उपाय। उपेय के दो भेद हैं- एक ज्ञाप्य (ज्ञेय) और दूसरा कार्य। जो ज्ञान का विषय होता है वह ज्ञाप्य अथवा ज्ञेय कहा जाता है और जो कारणों द्वारा निष्पाद्य या निष्पन्न होता है वह कार्य है।<br />
*उपाय तत्त्व दो तरह का है- <br />
#कारक, <br />
#ज्ञापक। <br />
*कारक वह है जो कार्य की उत्पत्ति करता है अर्थात कार्य के उत्पादक कारणों का नाम कारक है। कार्य की उत्पत्ति दो कारणों से होती है- <br />
#उपादान और <br />
#निमित्त (सहकारी)। <br />
*उपादान वह है जो स्वयं कार्यरूप परिणत होता है और निमित्त वह है जो उसमें सहायक होता है। उदाहरणार्थ घड़े की उत्पत्ति में मृत्पिण्ड उपादान और दण्ड चक्र, चीवर, कुंभकार प्रभृति निमित्त हैं। <br />
*न्यायदर्शन में इन दो कारणो के अतिरिक्त एक तीसरा कारण भी स्वीकृत है वह है असमवायि पर वह समवायि कारणगत रूपादि और संयोगरूप होने से उसे अन्य दर्शनों में उस से भिन्न नहीं माना। <br />
*ज्ञापकतत्त्व भी दो प्रकार का है-<br />
#प्रमाण<ref>डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार पृ. 58 का मूल व टिप्पणी 1; 'प्रमाणनयैरधिगम:'-त.सू. 1-6 'प्रमाणनयाभ्यां हि विवेचिता जीवादय: पदार्थ: सम्यगधिगम्यन्ते।'- न्या.दी. पृ. 2, वीर सेवामंदिर, दिल्ली संस्करण</ref> और <br />
#नय<ref>'प्रमाणादर्थ संसिद्धिस्तदाभासासाद्विपर्यय:। 'परीक्षामु. श्लो. 1</ref> <br />
<br />
'''प्रमाण-भेद'''<br /><br />
*[[वैशेषिक दर्शन]] के प्रणेता [[कणाद]] ने<ref> वैशेषिक सूत्र 10/1/3</ref> प्रमाण के प्रत्यक्ष और लैंगिक- ये दो भेद स्वीकार किये हैं। उन्होंने इन दो के सिवाय न अन्य प्रमाणों की संभावना की है और न न्यायसूत्रकार अक्षपाद की तरह स्वीकृत प्रमाणों में अन्तर्भाव आदि की चर्चा ही की है। इससे प्रतीत होता है कि प्रमाण के उक्त दो भेदों की मान्यता प्राचीन है। इसके अतिरिक्त चार्वाक ने प्रत्यक्ष को माना और मात्र अनुमान की समीक्षा की है<ref>सर्वदर्शन सं., चार्वाकदर्शन, पृ. 3</ref>,अन्य उपमान, आगम आदि की नहीं। जबकि न्याय सूत्रकार ने<ref>न्यायसूत्र 2/2/1, 2</ref> *प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम (शब्द)- इन चार प्रमाणों को स्वीकार किया है तथा ऐतिह्य, अर्थापत्ति, संभव और अभाव-इन चार का स्पष्ट रूप से उल्लेख करके उनकी अतिरिक्त प्रमाणता की आलोचना की हें साथ ही शब्द में ऐतिह्य का और अनुमान में शेष तीनों का अन्तर्भाव प्रदर्शित किया है। <br />
*कणाद के व्याख्याकार प्रशस्तपाद ने<ref>प्रश. भा., पृ. 106-111</ref> अवश्य उनके मान्य प्रत्यक्ष और लैंगिक इन दो प्रमाणों का समर्थन करते हुए उल्लिखित शब्द आदि प्रमाणों का इन्हीं दो में समावेश किया है तथा चेष्टा, निर्णय, आर्ष (प्रातिभ) और सिद्ध दर्शन को भी इन्हीं दो के अन्तर्गत सिद्ध किया है। यदि वैशेषिक दर्शन से पूर्व न्यायदर्शन या अन्य दर्शन की प्रमाण भेद परम्परा होती, तो चार्वाक उसके प्रमाणों की अवश्य आलोचना करता। इससे विदित होता है कि वैशेषिक दर्शन की प्रमाण-द्वय की मान्यता सब से प्राचीन है। <br />
*वैशेषिकों की<ref>वैशे. सू. 10/1/3</ref>तरह बौद्धों ने<ref>दिग्नाग, प्रमाण समु.प्र.परि.का. 2, पृ. 4</ref> भी प्रत्यक्ष और अनुमान- इन दो प्रमाणों की स्वीकार किया है। <br />
*शब्द सहित तीनों को सांख्यों ने<ref>सांख्य का. 4</ref>, उपमान सहित चारों को नैयायिकों ने<ref>न्याय सू. 1/1/3</ref>और अर्थापत्ति तथा अभाव सहित छह प्रमाणों को जैमिनीयों (मीमांसकों) ने<ref>शावरभा. 1/1/5</ref> मान्य किया है। कुछ काल बाद जैमिनीय दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गये- <br />
#भाट्ट (कुमारिल भट्ट के अनुगामी) और <br />
#प्राभाकर (प्रभाकर के अनुयायी)। <br />
भाट्टों ने छहों प्रमाणों को माना। पर प्राभाकरों ने अभाव प्रमाण को छोड़ दिया तथा शेष पाँच प्रमाणों को अंगीकार किया। इस तरह विभिन्न दर्शनों में प्रमाण-भेद की मान्यताएँ<ref>जैमिने: षट् प्रमाणानि चत्वारि न्यायवादिन:। सांख्यस्य त्रीणि वाच्यानि द्वे वैशेषिकबौद्धयो:॥ - प्रमेयर. 2/2 का टि.</ref> दार्शनिक क्षेत्र में चर्चित हैं।<br /><br />
'''जैन न्याय में प्रमाण-भेद'''<br /><br />
*जैन न्याय में प्रमाण के श्वेताम्बर परम्परा में मान्य भगवती सूत्र<ref>भगवती सूत्र 5/3/191-192</ref> और स्थानांग सूत्र में<ref>स्थानांग सूत्र 338</ref> चार प्रमाणों का उल्लेख है- <br />
#प्रत्यक्ष, <br />
#अनुमान, <br />
#उपमान और <br />
#आगम। <br />
*स्थानांग सूत्र में<ref>स्थानांग सूत्र 185</ref> व्यवसाय के तीन भेदों द्वारा प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणों का भी निर्देश है। <br />
*संभव है [[सिद्धसेन]]<ref>न्यायाव. का 8</ref> और [[हरिभद्र]] के<ref>अनेका.ज.प.टी. पृ. 142, 215</ref> तीन प्रमाणों की मान्यता का आधार यही स्थानांग सूत्र हो। <br />
*श्री पं. दलसुख मालवणिया का विचार है<ref>आगम युग का जैन दर्शन पृ. 136 से 138</ref> कि उपर्युक्त चार प्रमाणों की मान्यता नैयायिकादि सम्मत और तीन प्रमाणों का कन सांख्यादि स्वीकृत परम्परा मूलक हों तो आश्चर्य नहीं। यदि ऐसा हो तो भगवती सूत्र और स्थानांग सूत्र के क्रमश: चार और तीन प्रमाणों की मान्यता लोकानुसरण की सूचक होने से अर्वाचीन होना चाहिए। <br />
*दिगम्बर परम्परा के षड्खंडागम में<ref>भूतबली. पुष्पदन्त, षट्खण्डा. 1/1/15 तथा जैन तर्क शा.अनु.वि. पृ. 71 व इसका नं. 5 टिप्पणी</ref> मात्र तीन ज्ञानमीमांसा उपलब्ध होती है। वहाँ तीन प्रकार के मिथ्या ज्ञान और पाँच प्रकार के सम्यग्ज्ञान को गिनाकर आठ ज्ञानों का निरूपण किया गया है। वहाँ प्रमाणाभास के रूप में ज्ञानों का विभाजन नहीं है और न प्रमाण तथा प्रमाणाभास शब्द ही वहाँ उपलब्ध होते हैं। <br />
*कुन्दकुन्द<ref>नियमसार गा. 10, 11, 12, प्रवचनसार प्रथम ज्ञानाधिकार</ref> के ग्रन्थों में भी ज्ञानमीमांसा की ही चर्चा है, प्रमाण मीमांसा की नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि उस प्राचीनकाल में सम्यक और मिथ्या मानकर तो ज्ञान का कथन किया जाता था, किन्तु प्रमाण और प्रमाणाभास मानकर नहीं, पर एक वर्ग के ज्ञानों को सम्यक और दूसरे वर्ग के ज्ञानों को मिथ्या प्रतिपादन करने से अवगत होता है कि जो ज्ञान सम्यक कहे गये हैं वे सम्यक परिच्छित्ति कराने से प्रमाण तथा जिन्हें मिथ्या बताया गया है वे मिथ्या प्रतिपत्ति कराने से अप्रमाण (प्रमाणाभास) इष्ट है।<ref>यह उस समय की प्रतिपादन शैली थी। वैशेषिक दर्शन के प्रवर्त्तक कणाद ने भी इसी शैली से बुद्धि के अविद्या और विद्या ये दो भेद बतलाकर अविद्या के संशय आदि चार तथा विद्या के प्रत्यक्षादि चार भेद कहे हैं तथा दूषित ज्ञान (मिथ्या ज्ञान) को अविद्या और निर्दोष ज्ञान को-सम्यग्ज्ञान का विद्या का लक्षण कहा है। - वैशे.सू. 9/2/7, 8, 10 से 13 तथा 10/1/3</ref> इसकी संपुष्टि तत्त्वार्थसूत्रकार<ref>त.सू. 1/9, 10</ref> के निम्न प्रतिपादन से भी होती है-<br />
<poem>मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानिज्ञानम्। <br />
तत्प्रमाणे'। 'मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च। -तत्त्वार्थसूत्र 1-9, 10, 31 ।</poem><br />
इस प्रकार सम्यग्ज्ञान या प्रमाण के मति, श्रुत, अवधि आदि पाँच भेदों की परम्परा आगम में उपलब्ध होती है, जो अत्यन्त प्राचीन है और जिस पर लोकानुसरण का कोई प्रभाव नहीं है। <br />
<br />
'''तर्कशास्त्र में परोक्ष के भेद'''<br />
<br />
तर्कशास्त्र में परोक्ष के पाँच भेद माने गये हैं<ref>माणिक्यनन्दि, प. मु. 3-1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10</ref>- <br />
#स्मृति, <br />
#प्रत्यभिज्ञान, <br />
#तर्क, <br />
#अनुमान और <br />
#आगम। यद्यपि आगम में आरम्भ के चार ज्ञानों को मतिज्ञान और आगम को श्रुतज्ञान कहकर दोनों को परोक्ष कहा है और इस तरह तर्कशास्त्र तथा आगम के निरूपणों में अन्तर नहीं है।<br />
<br />
'''स्मृति''' <br />
<br />
पूर्वानुभूत वस्तु के स्मरण को स्मृति कहते हैं। यथा 'वह' इस प्रकार से उल्लिखित होने वाला ज्ञान। यह ज्ञान अविसंवादि होता है, इसलिए प्रमाण है। यदि कदाचित् उसमें विसंवाद हो तो वह स्मृत्याभास है। इसे अप्रमाण नहीं माना जा सकता, अन्यथा व्याप्ति स्मरणपूर्वक होने वाला अनुमान प्रमाण नहीं हो सकता और बिना व्याप्ति स्मरण के अनुमान संभव नहीं है। अत: स्मृति को प्रमाण मानना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है।<ref>विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. 36 व पृ. 42, वीर सेवा. ट्र., वाराणसी</ref><br />
<br />
'''प्रत्यभिज्ञान'''<br />
<br />
अनुभव तथा स्मरणपूर्वक होने वाला जोड़ रूप ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है इसे प्रत्यभिज्ञा, प्रत्यवमर्श और संज्ञा भी कहते हैं। जैसे- 'यह वही देवदत्त हे, अथवा यह (गवय) गौ के समान है, यह (महिष) गौ से भिन्न है, आदि। पहला एकत्व प्रत्यभिज्ञान का उदाहरण है, दूसरा सादृश्य प्रत्यभिज्ञान और तीसरा वैसा दृश्य प्रत्यभिज्ञान का है। संकलनात्मक जितने ज्ञान हैं वे इसी प्रत्यभिज्ञान में समाहित होते हैं। उपमान प्रमाण इसी के सादृश्य प्रत्यभिज्ञान में अन्तर्भूत होता है, अन्यथा वैसा दृश्य आदि प्रत्यभिज्ञान भी पृथक् प्रमाण मानना पड़ेंगे। यह भी प्रत्यक्षादि की तरह अविसंवादी होने से प्रमाण है, अप्रमाण नहीं। यदि कोई प्रत्यभिज्ञान विसंवाद (भ्रमादि) पैदा करता है तो उसे प्रत्यभिज्ञानाभास जानना चाहिए। <br />
<br />
'''तर्क'''<br />
जो ज्ञान अन्वय और व्यतिरेकपूर्वक व्याप्ति का निश्चय कराता है वह तर्क है। इसे ऊह, ऊहा और चिन्ता भी कहा जाता है। 'इसके होने पर ही यह होता है', यह अन्वय है और 'इसके न होने पर यह नहीं होता', यह व्यतिरेक है, इन दोनों पूर्वक यह ज्ञान साध्य के साथ साधन में व्याप्ति का निर्माण कराता है। इसका उदाहरण है- 'अग्नि के होने पर ही धूम होता है, अग्नि के अभाव में धूम नहीं होता' इस प्रकार अग्नि के साथ धूम की व्याप्ति का निश्चय कराना तर्क है। इससे सम्यक अनुमान का मार्ग प्रशस्त होता है। <br />
<br />
'''अनुमान'''<br />
<br />
निश्चित साध्याविनाभावी साधन से होने वाला साध्य का ज्ञान अनुमान कहलाता है।<ref>विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. 45, 46, 47, 48, 49; वीर सेवा. ट्र., वाराणसी</ref> जैसे धूम से अग्नि का ज्ञान करना।<br />
<br />
'''अनुमान के अंग:- साध्य और साधन'''<br />
<br />
इस अनुमान के मुख्य घटक (अंग) दो हैं- <br />
#साध्य और <br />
#साधन। <br />
*साध्य तो वह है, जिसे सिद्ध किया जाता है और वह वही होता है जो शक्य (अबाधित), अभिप्रत (वादी द्वारा इष्ट) और असिद्ध (प्रतिवादी के लिए अमान्य) होता है तथा इससे जो विपरीत (बाधित, अनिष्ट और सिद्ध) होता है वह साध्याभास है, क्योंकि वह साधन द्वारा विषय (निश्चय) नहीं किया जाता। [[अकलंकदेव]] ने साध्य और साध्याभास का लक्षण करते हुए यही लिखा है-<br />
<poem>साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धं ततोऽपरम्।<br />
साध्याभासं विरुद्धादि, साधनाविषयत्वत:॥ न्यायविनिश्चय 2-172</poem><br />
*साधन वह है जिसका साध्य के साथ अविनाभाव निश्चित है- साध्य के होने पर ही होता है, उसके अभाव में नहीं होता। ऐसा साधन ही साध्य का गमक (अनुमापक) होता है। साधन को हेतु और लिङ्ग भी कहा जाता है। माणिक्यनन्दि साधन का लक्षण करते हुए कहते हैं-<br />
साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतु:।<ref>परीक्षामुखसूत्र 3-15</ref>' साध्य के साथ जिसका अविनाभाव निश्चित है वह हेतु है। <br />
<br />
'''अविनाभाव-भेद'''<br />
<br />
अविनाभाव दो प्रकार का है<ref>माणिक्यनन्दि, प.मु. 3-16, 17, 18</ref>-<br />
#सहभाव नियम और <br />
#क्रमभाव नियम। <br />
*जो सहचारी और व्याप्य-व्यापक होते हैं उनमें सहभाव नियम अविनाभाव रहता है। जैसे रूप और रस दोनों सहचारी हैं- रूप के साथ रस और रस के साथ रूप नियम से रहता है। अत: दोनों सहचारी हैं और इसलिए उनमें सहभाव नियम अविनाभाव है तथा शिंशपात्व और वृक्षत्व इन दोनों में व्याप्य-व्यापक भाव है। शिंशपात्व व्याप्य है और वृक्षत्व व्यापक है। शिंशपात्व होने पर वृक्षत्व अवश्य होता है। किन्तु वृक्षत्व के होने पर शिंशपात्व के होने का नियम नहीं है। अतएव सहचारियों और व्याप्य-व्यापक में सहभाव नियम अविनाभाव होता है, जिससे रूप से रस का और शिंशपात्व से वृक्षत्व का अनुमान किया जाता है। <br />
<br />
'''हेतु-भेद'''<br />
<br />
इन दोनों प्रकार के अविनाभाव से विशिष्ट हेतु के भेदों का कथन जैन न्यायशास्त्र में विस्तार से किया गया है, जिसे हमने 'जैन तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार' ग्रन्थ में विशदतया दिया है। अत: उस सबकी पुनरावृत्ति न करके मात्र माणिक्यनन्दि के 'परीक्षामुख' के अनुसार उनका दिग्दर्शन किया जाता है।<ref>माणिक्यनन्दि, प. मु. 3-57 58, 59, 65 से 79 तक</ref><br />
*माणिक्यनन्दि ने अकलंकदेव की तरह आरम्भ में हेतु के मूल दो भेद बतलाये हैं-<br />
#उपलब्धि और <br />
#अनुपलब्धि। <br />
*तथा इन दोनों को विधि और प्रतिषेध उभय का साधक कहा है और इस तरह दोनों के उन्होंने दो-दो भेद कहे हैं। उपलब्धि के- <br />
#अविरुद्धोपलब्धि और <br />
#विरुद्धोपलब्धि <br />
*अनुपलब्धि के- <br />
#अविरुद्धानुपलब्धि और <br />
#विरुद्धानुपलब्धि <br />
*इनके प्रत्येक के भेद इस प्रकार प्रतिपादित किये हैं- <br />
*अविरुद्धोपलब्धि छह- <br />
#व्याप्त, <br />
#कार्य,<br />
#कारण, <br />
#पूर्वचर, <br />
#उत्तरचर और <br />
#सहचर।<br />
*विरुद्धोपलब्धि के भी अविरुद्धोपलब्धि की तरह छह भेद हैं- <br />
#विरुद्ध व्याप्य, <br />
#विरुद्ध कार्य, <br />
#विरुद्ध कारण, <br />
#विरुद्ध पूर्वचर, <br />
#विरुद्ध उत्तरचर और <br />
#विरुद्ध-सहचर। <br />
*अविरुद्धानुपलब्धि प्रतिषेध रूप साध्य को सिद्ध करने की अपेक्षा 7. प्रकार की कही है- <br />
#अविरुद्धस्वभावानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धव्यापकानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धकार्यानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धकारणानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धपूर्वचरानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धउत्तरचरानुपलब्धि और <br />
#अविरुद्धसहचरानुपलब्धि। <br />
*विरुद्धानुपलब्धि विधि रूप साध्य को सिद्ध करने में तीन प्रकार की कही गयी है- <br />
#विरुद्धकार्यानुपलब्धि, <br />
#विरुद्धकारणानुपलब्धि और <br />
#विरुद्धस्वभावानुपलब्धि। <br />
*इस तरह माणिक्यनन्दि ने 6+6+7= 22 हेतुभेदों का सोदाहरण निरूपण किया है, परम्परा हेतुओं की भी उन्होंने संभावना करके उन्हें यथायोग्य उक्त हेतुओं में ही अन्तर्भाव करने का इंगित किया है। साथ ही उन्होंने अपने पूर्वज अकलंक की भांति कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर-इन नये हेतुओं को पृथक् मानने की आवश्यकता को भी सयुक्तिक बतलाया है।<br />
<br />
==आगम (श्रुत)==<br />
शब्द, संकेत, चेष्टा आदि पूर्वक जो ज्ञान होता है वह आगम है। जैसे- 'मेरु आदिक है' शब्दों को सुनने के बाद सुमेरु पर्वत आदि का बोध होता है।<ref>परी.मु. 3-99, 100, 101</ref> शब्द श्रवणादि मतिज्ञान पूर्वक होने से यह ज्ञान (आगम) भी परोक्ष प्रमाण है। इस तरह से स्मृत्यादि पाँचों ज्ञान ज्ञानान्तरापेक्ष हैं। स्मरण में धारणा रूप अनुभव (मति), प्रत्यभिज्ञान में अनुभव तथा स्मरण, तर्क में अनुभव, स्मृति और प्रत्यभिज्ञान, अनुमान में लिंगदर्शन, व्याप्ति स्मरण और आगम में शब्द, संकेतादि अपेक्षित हैं- उनके बिना उनकी उत्पत्ति संभव नहीं है। अतएव ये और इस जाति के अन्य सापेक्ष ज्ञान परोक्ष प्रमाण माने गये हैं।<br />
==नय-विमर्श==<br />
नय-स्वरूप— अभिनव धर्मभूषण ने<ref>न्यायदीपिका, पृ. 5, संपादन डॉ. दरबारीलाल कोठिया, 1945</ref> न्याय का लक्षण करते हुए कहा है कि 'प्रमाण-नयात्मको न्याय:'- प्रमाण और नय न्याय हैं, क्योंकि इन दोनों के द्वारा पदार्थों का सम्यक् ज्ञान होता है। अपने इस कथन को प्रमाणित करने के लिए उन्होंने आचार्य गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्र के, जिसे 'महाशास्त्र' कहा जाता है, उस सूत्र को प्रस्तुत किया है, जिसमें प्रमाण और मय को जीवादि तत्त्वार्थों को जानने का उपाय बताया गया है और वह है- 'प्रमाणनयैरधिगम:<ref>तत्त्वार्थसूत्र, 1-6</ref>'। वस्तुत: जैन न्याय का भव्य प्रासाद इसी महत्त्वपूर्ण सूत्र के आधार पर निर्मित हुआ है। <br />
<br />
'''नय-भेद'''<br />
<br />
उपर्युक्त प्रकार से मूल नय दो हैं<ref>प्रमयरत्नमाला 6/74, पृ. 206, सं. 1928</ref>- <br />
#द्रव्यार्थिक और <br />
#पर्यायार्थिक। <br />
*इनमें द्रव्यार्थिक तीन प्रकार का हैं<ref> प्रमयरत्नमाला, 6/74</ref>-<br />
#नैगम, <br />
#संग्रह, <br />
#व्यवहार। तथा <br />
*पर्यायार्थिक नय के चार भेद हैं<ref>प्रमयरत्नमाला, पृ. 207</ref>-<br />
#ऋजुसूत्र, <br />
#शब्द, <br />
#समभिरूढ़ और <br />
#एवम्भूत। <br />
<br />
'''नैगम नय'''<br />
जो धर्म और धर्मी में एक को प्रधान और एक को गौण करके प्ररूपण करता है वह नैगम नय है। जैसे जीव का गुण सुख है, ऐसा कहना। इसमें 'सुख' धर्म की प्रधानता और 'जीव' धर्मी की गौणता है अथवा यह सुखी जीव है, ऐसा कहना। इसमें 'जीव' धर्मी की प्रधानता है, क्योंकि वह विशेष्य है और 'सुख' धर्म गौण है, क्योंकि वह विशेषण है। इस नय का अन्य प्रकार से भी लक्षण किया गया है। जो भावी कार्य के संकल्प को बतलाता है वह नैगम नय है।<br />
<br />
'''संग्रह नय'''<br />
जो प्रतिपक्ष की अपेक्षा के साथ 'सन्मात्र' को ग्रहण करता है वह संग्रह नय है। जैसे 'सत्' कहने पर चेतन, अचेतन सभी पदार्थों का संग्रह हो जाता है, किन्तु सर्वथा 'सत्' कहने पर 'चेतन, अचेतन विशेषों का निषेध होने से वह संग्रहाभास है। विधिवाद इस कोटि में समाविष्ट होता है। <br />
<br />
'''व्यवहार नय'''<br />
संग्रहनय से ग्रहण किये 'सत्' में जो नय विधिपूर्वक यथायोग्य भेद करता है वह व्यवहारनय है। जैसे संग्रहनय से गृहीत 'सत्' द्रव्य हे या पर्याप्त है या गुण है। पर मात्र कल्पना से जो भेद करता है वह व्यवहारनयाभास है।<br />
<br />
'''ऋजुसूत्र नय''' <br />
भूत और भविष्यत पर्यायों को गौण कर केवल वर्तमान पर्याय को जो नय ग्रहण करता है वह ऋजुसूत्रनय है। जैसे प्रत्येक वस्तु प्रति समय परिणमनशील है। वस्तु को सर्वथा क्षणिक मानना ऋजुसूत्रनय है, क्योंकि इसमें वस्तु में होने वाली भूत और भविष्यत की पर्यायों तथा उनके आधारभूत अन्वयी द्रव्य का लोप हो जाता है। <br />
<br />
'''शब्द नय''' <br />
<br />
जो काल, कारक और लिङ्ग के भेद से शब्द में कथं चित् अर्थभेद को बतलाता है वह शब्दनय है। जैसे 'नक्तं निशा' दोनों पर्यायावाची हैं, किन्तु दोनों में लिंग भेद होने के कथं चित् अर्थभेद है। 'नक्तं' शब्द नंपुसक लिंग है और 'निशा' शब्द स्त्रीलिंग है। 'शब्दभेदात् ध्रुवोऽर्थभेद:' यह नय कहता है। अर्थभेद को कथं चित् माने बिना शब्दों को सर्वथा नाना बतलाकर अर्थ भेद करना शब्दनयाभास हैं <br />
<br />
'''समभिरूढ़ नय'''<br />
<br />
जो पर्याय भेद पदार्थ का कथंचित् भेद निरूपित करता है वह समभिरूढ़ नय है। जैसे इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि शब्द पर्याय शब्द होने से उनके अर्थ में कथं चित् भेद बताना। पर्याय भेद माने बिना उनका स्वतंत्र रूप से कथन करना समभिरूढ नयाभास है।<ref>'तत्र प्रमाणं द्विविधं स्वार्थं परार्थं च। तत्र स्वार्थं प्रमाणं श्रुतवर्ज्यम् श्रुतं पुन: स्वार्थं भवति परार्थं च। - सर्वार्थसिद्धि 1-6, भा. ज्ञा. संस्करण</ref>'<br />
<br />
'''एवंभूत नय'''<br />
<br />
जो क्रिया भेद से वस्तु के भेद का कथन करता है वह एवंभूत नय हैं जैसे पढ़ाते समय ही पाठक या अध्यापक अथवा पूजा करते समय ही पुजारी कहना। यह नय क्रिया पर निर्भर है। इसका विषय बहुत सूक्ष्म है। क्रिया की अपेक्षा न कर क्रिया वाचक शब्दों का कल्पनिक व्यवहार करना एवंभूतनयाभास है।<br />
==जैन दर्शन का उद्भव और विकास==<br />
'''उद्भव'''<br />
*आचार्य भूतबली और पुष्पदन्त द्वारा निबद्ध 'षट्खंडागम' में, जो दृष्टिवाद अंग का ही अंश है, 'सिया पज्जत्ता', 'सिया अपज्जता', 'मणुस अपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया', 'अखंखेज्जा* 'जैसे 'सिया' (स्यात्) शब्द और प्रश्नोत्तरी शैली को लिए प्रचुर वाक्य पाए जाते हैं।<br />
*'षट्खंडागम' के आधार से रचित आचार्य कुन्दकुन्द के 'पंचास्तिकाय', 'प्रवचनसार' आदि आर्ष ग्रन्थों में भी उनके कुछ और अधिक उद्गमबीज मिलते हैं। 'सिय अत्थिणत्थि उहयं', 'जम्हा' जैसे युक्ति प्रवण वाक्यों एवं शब्द प्रयोगों द्वारा उनमें प्रश्नोत्तर पूर्वक विषयों को दृढ़ किया गया है। <br />
'''विकास'''<br />
<br />
काल की दृष्टि से उनके विकास को तीन कालखंडों में विभक्त किया जा सकता है और उन कालखंडों के नाम निम्न प्रकार रखे जा सकते हैं :-<br />
*आदिकाल अथवा समन्तभद्र-काल (ई. 200 से ई. 650)।<br />
*मध्यकाल अथवा अकलंक-काल (ई. 650 से ई. 1050)।<br />
*उत्तरमध्ययुग (अन्त्यकाल) अथवा प्रभाचन्द्र-काल (ई. 1050 से 1700)। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन दर्शन का उद्भव और विकास]]<br />
<br />
==जैन दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ==<br />
आचार्य जिनसेन और गुणभद्र : एक परिचय<br />
*ये दोनों ही आचार्य उस पंचस्तूप नामक अन्वय में हुए हैं जो आगे चलकर सेनान्वय का सेनसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। जिनसेन स्वामी के गुरु वीरसेन ने भी अपना वंश पत्र्चस्तूपान्वय ही लिखा है। परन्तु गुणभद्राचार्य ने सेनान्वय लिखा है। इन्द्रानन्दी ने अपने श्रुतावतार में लिखा है कि जो मुनि पंचस्तूप निवास से आये उनमें से किन्हीं को सेन और किन्हीं को भद्र नाम दिया गया। तथा कोई आचार्य ऐसा भी कहते हैं कि जो गुहाओं से आये उन्हें नन्दी, जो अशोक वन से आये उन्हें देव और जो पंचस्तूप से आये उन्हें सेन नाम दिया गया। श्रुतावतार के उक्त उल्लेख से प्रतीत होता है कि सेनान्त और भद्रान्त नाम वाले मुनियों का समूह ही आगे चलकर सेनान्वय या सेना संघ से प्रसिद्ध हुआ है। <br />
<br />
जिनसेनाचार्य सिद्धान्तशास्त्रों के महान् ज्ञाता थे। इन्होंने कषायप्राभृत पर 40 हज़ार श्लोक प्रमाण जयधवल टीका लिखी है। आचार्य वीरसेन स्वामी उस पर 20 हज़ार श्लोक प्रमाण टीका लिख पाये थे और वे दिवंगत हो गये थे। तब उनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने 40 हज़ार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर उसे पूर्ण किया। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ]]<br />
==जैन दर्शन में अध्यात्म==<br />
'अध्यात्म' शब्द अधि+आत्म –इन दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है कि आत्मा को आधार बनाकर चिन्तन या कथन हो, वह अध्यात्म है। यह इसका व्युत्पत्ति अर्थ हे। यह जगत जैन दर्शन के अनुसार छह द्रव्यों के समुदायात्मक है। वे छह द्रव्य हैं-<br />
*जीव,<br />
*पुद्गल,<br />
*धर्म,<br />
*अधर्म,<br />
*आकाश और<br />
*काल। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन दर्शन में अध्यात्म]]<br />
==जैन तार्किक और उनके न्यायग्रन्थ==<br />
'''बीसवीं शती के जैन तार्किक'''<br />
<br />
बीसवीं शती में भी कतिपय दार्शनिक एवं नैयायिक हुए हैं, जो उल्लेखनीय हैं। इन्होंने प्राचीन आचार्यों द्वारा लिखित दर्शन और न्याय के ग्रन्थों का न केवल अध्ययन-अध्यापन किया, अपितु उनका राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनुवाद एवं सम्पादन भी किया है। साथ में अनुसंधानपूर्ण विस्तृत प्रस्तावनाएँ भी लिखी हैं, जिनमें ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार के ऐतिहासिक परिचय के साथ ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषयों का भी तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक आकलन किया गया है। कुछ मौलिक ग्रन्थ भी हिन्दी भाषा में लिखे गये हैं। सन्तप्रवर न्यायचार्य पं. गणेशप्रसाद वर्णी न्यायचार्य, पं. माणिकचन्द्र कौन्देय, पं. सुखलाल संघवी, डा. पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, पं. कैलाश चन्द्र शास्त्री, पं. दलसुख भाइर मालवणिया एवं इस लेख के लेखक डा. पं. दरबारी लाला कोठिया न्यायाचार्य आदि के नाम विशेष उल्लेख योग्य हैं। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन तार्किक और उनके न्यायग्रन्थ]]<br />
==त्रिभंगी टीका==<br />
#आस्रवत्रिभंगी, <br />
#बंधत्रिभंगी, <br />
#उदयत्रिभंगी और <br />
#सत्त्वत्रिभंगी-इन 4 त्रिभंगियों को संकलित कर टीकाकार ने इन पर [[संस्कृत]] में टीका की है। <br />
*आस्रवत्रिभंगी 63 गाथा प्रमाण है। <br />
*इसके रचयिता श्रुतमुनि हैं। <br />
*बंधत्रिभंगी 44 गाथा प्रमाण है तथा उसके कर्ता नेमिचन्द शिष्य माधवचन्द्र हैं। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[त्रिभंगी टीका]]<br />
==पंचसंग्रह टीका==<br />
मूल पंचसंग्रह नामक यह मूलग्रन्थ [[प्राकृत]] भाषा में है। इस पर तीन [[संस्कृत]]-टीकाएँ हैं। <br />
#श्रीपालसुत डड्ढा विरचित पंचसंग्रह टीका, <br />
#आचार्य अमितगति रचित संस्कृत-पंचसंग्रह, <br />
#सुमतकीर्तिकृत संस्कृत-पंचसंग्रह। <br />
*पहली टीका दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह का संस्कृत-अनुष्टुपों में परिवर्तित रूप है। इसकी श्लोक संख्या 1243 है। कहीं कहीं कुछ गद्यभाग भी पाया जाता है, जो लगभग 700 श्लोक प्रमाण है। इस तरह यह लगभग 2000 श्लोक प्रमाण है। यह 5 प्रकरणों का संग्रह है। वे 5 प्रकरण निम्न प्रकार हैं- <br />
#जीवसमास, <br />
#प्रकृतिसमुत्कीर्तन, <br />
#कर्मस्तव, <br />
#शतक और <br />
#सप्ततिका। <br />
*इसी तरह अन्य दोनों संस्कृत टीकाओं में भी समान वर्णन है। <br />
*विशेष यह है कि आचार्य अमितगति कृत पंचसंग्रह का परिमाण लगभग 2500 श्लोक प्रमाण है। तथा सुमतकीर्ति कृत पंचसंग्रह अति सरल व स्पष्ट है। <br />
*इस तरह ये तीनों टीकाएँ संस्कृत में लिखी गई हैं और समान होने पर भी उनमें अपनी अपनी विशेषताएँ पाई जाती हैं। <br />
*कर्म साहित्य के विशेषज्ञों को इन टीकाओं का भी अध्ययन करना चाहिए। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[पंचसंग्रह टीका]]<br />
==मन्द्रप्रबोधिनी==<br />
*शौरसेनी [[प्राकृत|प्राकृत भाषा]] में आचार्य नेमिचन्द्र सि0 चक्रवर्ती द्वारा निबद्ध गोम्मटसार मूलग्रन्थ की [[संस्कृत भाषा]] में रची यह एक विशद् और सरल व्याख्या है। इसके रचयिता अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती हैं। यद्यपि यह टीका अपूर्ण है किन्तु कर्मसिद्धान्त को समझने के लिए एक अत्यन्त प्रामाणिक व्याख्या है। केशववर्णी ने इनकी इस टीका का उल्लेख अपनी कन्नडटीका में, जिसका नाम कर्नाटकवृत्ति है, किया है। इससे ज्ञात होता है कि केशववर्णी ने उनकी इस मन्दप्रबोधिनी टीका से लाभ लिया है। <br />
*गोम्मटसार आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा लिखा गया कर्म और जीव विषयक एक प्रसिद्ध एवं महत्त्वपूर्ण प्राकृत-ग्रन्थ है। इसके दो भाग हैं- <br />
#एक जीवकाण्ड और <br />
#दूसरा कर्मकाण्ड। <br />
जीवकाण्ड में 734 और कर्मकाण्ड में 972 शौरसेनी-प्राकृत भाषाबद्ध गाथाएं हैं। कर्मकाण्ड पर संस्कृत में 4 टीकाएं लिखी गई हैं। वे हैं- <br />
#[[गोम्मट पंजिका]], <br />
#मन्दप्रबोधिनी, <br />
#कन्नड़ संस्कृत मिश्रित जीवतत्त्वप्रदीपिका, <br />
#संस्कृत में ही रचित अन्य नेमिचन्द्र की जीवतत्त्वप्रदीपिका। इन टीकाओं में विषयसाम्य है पर विवेचन की शैली इनकी अलग अलग हैं। भाषा का प्रवाह और सरलता इनमें देखी जा सकती है। <br />
आगे विस्तार में पढ़ें:- [[मन्द्रप्रबोधिनी]]<br />
{{संदर्भ ग्रंथ}}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
{{प्रचार}}<br />
==संबंधित लेख==<br />
{{जैन धर्म}}{{संस्कृत साहित्य}}{{जैन धर्म2}}{{दर्शन शास्त्र}}<br />
[[Category:दर्शन कोश]]<br />
<br />
[[Category:जैन दर्शन]] <br />
__INDEX__<br />
{{toc}}</div>हिमानीhttps://en.bharatdiscovery.org/w/index.php?title=Template:%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8_%E0%A4%A6%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6%E0%A4%A8_%E0%A4%95%E0%A5%87_%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%97&diff=209592Template:जैन दर्शन के अंग2011-08-22T11:30:04Z<p>हिमानी: </p>
<hr />
<div>{{Navbox<br />
|name=जैन दर्शन के अंग<br />
|title =[[जैन दर्शन और उसका उद्देश्य|जैन दर्शन के अंग]]<br />
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}}<noinclude>[[Category:जैन धर्म के साँचे]]</noinclude></div>हिमानीhttps://en.bharatdiscovery.org/w/index.php?title=%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8_%E0%A4%A6%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6%E0%A4%A8_%E0%A4%94%E0%A4%B0_%E0%A4%89%E0%A4%B8%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%89%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%AF&diff=209591जैन दर्शन और उसका उद्देश्य2011-08-22T11:26:58Z<p>हिमानी: /* पदार्थ मीमांसा */</p>
<hr />
<div>__TOC__*'कर्मारातीन् जयतीति जिन:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिसने राग द्वेष आदि शत्रुओं को जीत लिया है वह 'जिन' है। <br />
*अर्हत, अरहन्त, जिनेन्द्र, वीतराग, परमेष्ठी, आप्त आदि उसी के पर्यायवाची नाम हैं। उनके द्वारा उपदिष्ट दर्शन जैनदर्शन हैं। <br />
*आचार का नाम धर्म है और विचार का नाम दर्शन है तथा युक्ति-प्रतियुक्ति रूप हेतु आदि से उस विचार को सुदृढ़ करना न्याय है।<br />
* जैन दर्शन का निर्देश है कि आचार का अनुपालन विचारपूर्वक किया जाये। धर्म, दर्शन और न्याय-इन तीनों के सुमेल से ही व्यक्ति के आध्यात्मिक उन्नयन का भव्य प्रासाद खड़ा होता है। *अत: जैन धर्म का जो 'आत्मोदय' के साथ 'सर्वोदय'- सबका कल्याण उद्दिष्ट है।<ref>सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव–समन्तभद्र युक्त्यनु. का. 61</ref> उसका समर्थन करना जैन दर्शन का लक्ष्य हैं जैन धर्म में अपना ही कल्याण नहीं चाहा गया है, अपितु सारे राष्ट्र, राष्ट्र की जनता और विश्व के जनसमूह, यहाँ तक कि प्राणीमात्र के सुख एवं कल्याण की कामना की गई है।<ref>क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपाल:<br />
काले वर्ष प्रदिशतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम्।<br />
दुर्भिक्षं चौरमारी क्षणमपि जगतां मा स्म भूज्जीवलोके,<br />
जैनेन्द्रं धर्मचक्रं प्रभवतु सततं सर्वसौख्यप्रदायि॥</ref><br />
{{tocright}}<br />
==जैन दर्शन के प्रमुख अंग==<br />
#[[द्रव्य मीमांसा -जैन दर्शन|द्रव्य-मीमांसा]]<br />
#[[तत्त्व मीमांसा -जैन दर्शन|तत्त्व-मीमांसा]]<br />
#[[पदार्थ मीमांसा -जैन दर्शन|पदार्थ-मीमांसा]]<br />
#[[पंचास्तिकाय मीमांसा -जैन दर्शन|पंचास्तिकाय-मीमांसा]]<br />
#[[अनेकान्त विमर्श -जैन दर्शन|अनेकान्त-विमर्श]]<br />
#[[स्याद्वाद विमर्श -जैन दर्शन|स्याद्वाद विमर्श]]<br />
#[[सप्तभंगी विमर्श -जैन दर्शन|सप्तभंगी विमर्श]]<br />
<br />
==द्रव्य-मीमांसा==<br />
{{main|द्रव्य मीमांसा -जैन दर्शन}}<br />
वैशेषिक, भाट्ट और प्रभाकर दर्शनों में द्रव्य और पदार्थ दोनों को स्वीकार कर उनका विवेचन किया गया है। तथा [[सांख्य दर्शन]] और [[बौद्ध दर्शन|बौद्ध दर्शनों]] में क्रमश: तत्त्व और आर्य सत्यों का कथन किया गया है, [[वेदान्त दर्शन]] में केवल ब्रह्म (आत्मतत्व) और [[चार्वाक दर्शन]] में भूत तत्त्वों को माना गया है, वहाँ जैन दर्शन में द्रव्य, पदार्थ, तत्त्व, और अस्तिकाय को स्वीकार कर उन सबका पृथक्-पृथक् विस्तृत निरूपण किया गया है।<ref>त्रैकाल्यं द्रव्यषट्कं नवपदसहितं जीवषट्काय - लेश्या:,<br />
पंचान्ये चास्तिकाया व्रत समिति-गति-ज्ञान- चारित्रभेदा:।<br />
इत्येतन्मोक्षमूलं त्रिभुवनमहितै: प्रोक्तमर्हदिभरीशै:<br />
प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान् य: स वै शुद्धदृष्टि:॥ - स्तवनसंकलन।</ref> <br />
*जो ज्ञेय के रूप में वर्णित है और जिनमें हेय-उपादेय का विभाजन नहीं है पर तत्त्वज्ञान की दृष्टि से जिनका जानना ज़रूरी है तथा गुण और पर्यायों वाले हैं एवं उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त हैं, वे द्रव्य हैं। <br />
*तत्त्व का अर्थ मतलब या प्रयोजन है। जो अपने हित का साधक है वह उपादेय है और जो आत्महित में बाधक है वह हेय है। उपादेय एवं हेय की दृष्टि से जिनका प्रतिपादन के उन्हें तत्त्व कहा गया है। <br />
*भाषा के पदों द्वारा जो अभिधेय है वे पदार्थ हैं। उन्हें पदार्थ कहने का एक अभिप्राय यह भी है कि 'अर्थ्यतेऽभिलष्यते मुमुक्षुभिरित्यर्थ:' मुमुक्षुओं के द्वारा उनकी अभिलाषा की जाती है, अत: उन्हें अर्थ या पदार्थ कहा गया है। <br />
*अस्तिकाय की परिभाषा करते हुए कहा है कि जो 'अस्ति' और 'काय' दोनों है। 'अस्ति' का अर्थ 'है' है और 'काय' का अर्थ 'बहुप्रदेशी' है अर्थात जो द्रव्य है' होकर कायवाले- बहुप्रदेशी हैं, वे 'अस्तिकाय' हैं।<ref>पंचास्तिकाय, गा. 4-5 द्रव्य सं. गा. 24</ref> ऐसे पाँच द्रव्य हैं- <br />
#पुद्गल<br />
#धर्म<br />
#अधर्म<br />
#आकाश<br />
#जीव<br />
#कालद्रव्य एक प्रदेशी होने से अस्तिकाय नहीं है।<br />
<br />
==तत्त्व मीमांसा==<br />
{{मुख्य|तत्त्व मीमांसा -जैन दर्शन}}<br />
तत्त्व का अर्थ है प्रयोजन भूत वस्तु। जो अपने मतलब की वस्तु है और जिससे अपना हित अथवा स्वरूप पहचाना जाता है वह तत्त्व है। 'तस्य भाव: तत्त्वम्' अर्थात वस्तु के भाव (स्वरूप) का नाम तत्त्व है। ऋषियों या शास्त्रों का जितना उपदेश है उसका केन्द्र जीव (आत्मा) रहा है। उपनिषदों में आत्मा के दर्शन, श्रवण, मनन और ध्यान पर अधिक बल दिया गया है और इनके माध्यम से आत्मा के साक्षात्कार की बात कही गयी है<ref>श्रोतव्य:श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभि:। मत्वा च स्ततं ध्येय एते दर्शनहेतव:॥</ref>। जैन दर्शन तो पूरी तरह आध्यात्मिक है। अत: इसमें आत्मा को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है।<ref> कुन्दकुन्द, मोक्ष प्राभृत गा. 4, 5, 6, 7</ref> <br />
#बहिरात्मा, <br />
#अन्तरात्मा और <br />
#परमात्मा। <br />
*मूढ आत्मा को बहिरात्मा, जागृत आत्मा को अन्तरात्मा और अशेष गुणों से सम्पन्न आत्मा को परमात्मा कहा गया है। ये एक ही आत्मा के उन्नयन की विकसित तीन श्रेणियाँ हैं। जैसे एक आरम्भिक अबोध बालक शिक्षक, पुस्तक, पाठशाला आदि की सहायता से सर्वोच्च शिक्षा पाकर सुबोध बन जाता है वैसे ही एक मूढात्मा सत्संगति, सदाचार-अनुपालन, ज्ञानाभ्यास आदि को प्राप्त कर अन्तरात्मा (महात्मा) बन जाता है और वही ज्ञान, ध्यान तप आदि के निरन्तर अभ्यास से कर्म-कलङ्क से मुक्त होकर परमात्मा (अरहन्त व सिद्ध रूप ईश्वर) हो जाता है। इस दिशा में जैन चिन्तकों का चिन्तन, आत्म विद्या की ओर लगाव अपूर्व है।<br />
<br />
==पदार्थ मीमांसा==<br />
{{मुख्य|पदार्थ मीमांसा -जैन दर्शन}}<br />
उक्त सात तत्त्वों में पुण्य और पाप को सम्मिलित कर देने पर नौ पदार्थ कहे गए हैं।<ref>जीवा जीवा भावा पुण्णं पावं च आसवं तेसिं। संवर-णिज्जर बंधो मोक्खो य हवंति ते अट्ठ॥–पंचास्ति., गा. 108</ref><br />
<br />
==पंचास्तिकाय मीमांसा==<br />
जैन दर्शन में उक्त द्रव्य, तत्त्व और पदार्थ के अलावा अस्तिकायों का निरूपण किया गया है। कालद्रव्य को छोड़कर शेष पांचों द्रव्य (पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकश और जीव) अस्तिकाय हैं<ref>द्रव्य सं. गा. 23, 24, 25</ref> क्योंकि ये 'हैं' इससे इन्हें 'अस्ति' ऐसी संज्ञा दी गई है और काय (शरीर) की तरह बहुत प्रदेशों वाले हैं, इसलिए ये 'काय' हैं। इस तरह ये पांचों द्रव्य 'अस्ति' और 'काय' दोनों होने से 'अस्तिकाय' कहे जाते हैं। पर कालद्रव्य 'अस्ति' सत्तावान होते हुए भी 'काय' (बहुत प्रदेशों वाला) नहीं है। उसके मात्र एक ही प्रदेश हैं। इसका कारण यह है कि उसे एक-एक अणुरूप माना गया है और वे अणुरूप काल द्रव्य असंख्यात हैं, क्योंकि वे लोकाकाश के, जो असंख्यात प्रदेशों वाला है, एक-एक प्रदेश पर एक-एक जुदे-जुदे रत्नों की राशि की तरह अवस्थित हैं। जब कालद्रव्य अणुरूप है तो उसका एक ही प्रदेश है इससे अधिक नहीं। अन्य पाँचों द्रव्यों में प्रदेश बाहुल्य है, इसी से उन्हें 'अस्तिकाय' कहा गया है और कालद्रव्य को अनस्तिकाय।<br />
==अनेकान्त विमर्श==<br />
'अनेकान्त' जैनदर्शन का उल्लेखनीय सिद्धान्त है। वह इतना व्यापक है कि वह लोक (लोगों) के सभी व्यवहारों में व्याप्त है। उसके बिना किसी का व्यवहार चल नहीं सकता। आचार्य [[सिद्धसेन]] ने कहा है<ref>जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वडइ।<br /> तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमोऽणेयंत वायस्स॥ - सिद्धसेन। </ref> कि लोगों के उस आद्वितीय गुरु अनेकान्तवाद को हम नमस्कार करते हैं, जिसके बिना उनका व्यवहार किसी तरह भी नहीं चलता। अमृतचन्द्र उसके विषय में कहते है<ref>परमागमस्य जीवं निषिद्धजात्यन्ध- सिन्धुरविधानम्।<br /> सकल-नय-विलसितानां विरोधमथानं नमाम्यनेकान्तम्॥ -अमृतचन्द्र, पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, श्लो. 1।</ref> कि अनेकान्त परमागम जैनागम का प्राण हे और वह वस्तु के विषय में उत्पन्न एकान्तवादियों के विवादों को उसी प्रकार दूर करता है जिस प्रकार हाथी को लेकर उत्पन्न जन्मान्धों के विवादों को उसी प्रकार दूर करता है जिस प्रकार हाथी को लेकर उत्पन्न जन्मान्धों के विवादों को सचक्षु: (नेत्रवाला) व्यक्ति दूर कर देता है। समन्तभद्र का कहना है<ref>एकान्त धर्माभिनिवेशमूला रागादयोऽहं कृतिजा जनानाम्।<br />एकान्तहानाच्च स यत्तदेव स्वाभाविकत्वाच्च समं मनस्ते॥ - समन्तभद्र, युक्तयनुशासन कारिका 51</ref> कि वस्तु को अनेकान्त मानना क्यों आवश्यक है? वे कहते हैं कि एकान्त के आग्रह से एकान्त समझता है कि वस्तु उतनी ही है, अन्य रूप नहीं है, इससे उसे अहंकर आ जाता है और अहंकार से उसे राग, द्वेष आदि उत्पन्न होते हैं, जिससे उसे वस्तु का सही दर्शन नहीं होता। पर अनेकान्ती को एकानत का आग्रह न होने से उसे न अहंकार पैदा होता है और न राग, द्वेष आदि उत्पन्न होते हैं। फलत: उसे उस अनन्तधर्मात्मक अनेकान्त रूप वस्तु का सम्यक्दर्शन होता है, क्योंकि एकान्त का आग्रह न करना दूसरे धर्मों को भी उसमें स्वीकार करना सम्यग्दृष्टि का स्वभाव है। और इस स्वभाव के कारण ही अनेकान्ती के मन में पक्ष या क्षोभ पैदा नहीं होता, वह साम्य भाव को लिए रहता है। <br />
*अनेकान्त के भेद- यह अनेकान्त दो प्रकार का है- <br />
#सम्यगनेकान्त और <br />
#मिथ्या अनेकान्त। <br />
परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशन करने वाला सम्यगनेकान्त है अथवा सापेक्ष एकान्तों का समुच्चय सम्यगनेकान्त है<ref>समन्तभद्र, आप्तमी., का. 107</ref> निरपेक्ष नाना धर्मों का समूह मिथ्या अनेकान्त है। एकान्त भी दो प्रकार का है- <br />
#सम्यक एकान्त और <br />
#मिथ्या एकान्त। <br />
सापेक्ष एकान्त सम्यक एकान्त है। वह इतर धर्मों का संग्रहक है। अत: वह नय का विषय है और निरपेक्ष एकान्त मिथ्या एकान्त है, जो इतर धर्मों का तिरस्कारक है वह दुनर्य या नयाभास का विषय है। अनेकान्त के अन्य प्रकार से भी दो भेद कहे गये हैं।<ref>विद्यानन्द तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, 5-38-2</ref> <br />
#सहानेकान्त और <br />
#क्रमानेकान्त। <br />
एक साथ रहने वाले गुणों के समुदाय का नाम सहानेकान्त है और क्रम में होने वाले धर्मों-पर्यायों के समुच्चय का नाम क्रमानेकान्त है। इन दो प्रकार के अनेकान्तों के उद्भावक जैन दार्शनिक आचार्य विद्यानंद हैं। उनके समर्थक [[वादीभसिंह]] हैं। उन्होंने अपनी स्याद्वादसिद्धि में इन दोनों प्रकार के अनेकान्तों का दो परिच्छेदों में विस्तृत प्रतिपादन किया है। उन के नाम हैं- सहानेकान्तसिद्धि और क्रमानेकान्त सिद्धि। अनेकान्त को मानने में कोई विवाद होना ही नहीं चाहिए। जो हेतु<ref>एकस्य हेतो: साधक दूषकत्वाऽविसंवादवद्धा'- त.वा. 1-6-13</ref> स्वपक्ष का साधक होता है वही साथ में परपक्ष का दूषक भी होता है। इस प्रकार उसमें साधकत्व एवं दूषकत्व दोनों विरुद्ध धर्म एक साथ रूपरसादि की तरह विद्यमान हैं। <br />
सांख्यदर्शन, प्रकृति को सत्त्व, रज और तमोगुण रूप त्रयात्मक स्वीकार करता है और तीनों परस्पर विरुद्ध है तथा उनके प्रसाद-लाघव, शोषण-ताप, आवरण-सादन आदि भिन्न-भिन्न स्वभाव हैं और सब प्रधान रूप हैं, उनमें कोई विरोध नहीं है।<ref>'केचित्तावदाहु:- सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रधानमिति, तेषां<br /> प्रसादलाघवशोषतापावरणासादनादिभिन्नस्वभावानां प्रधानात्मनां मिथश्च न विरोध:।'</ref> वैशेषिक द्रव्यगुण आदि को अनुवृत्ति-व्यावृत्ति प्रत्यय कराने के कारण सामान्य-विशेष रूप मानते हैं। पृथ्वी आदि में 'द्रव्यम्' इस प्रकार का अनुवृत्ति प्रत्यय होने से द्रव्य को सामान्य और 'द्रव्यम् न गुण:, न कर्म, आदि व्यावृत्ति प्रत्यय का कारण होने से उसे विशेष भी कहते हैं और इस प्रकार द्रव्य एक साथ परस्पर विरुद्ध सामान्य-विशेष रूप माना गया है।<ref>अपरे मन्यन्ते- अनुवृत्तिविनिवृत्तिबुद्धयभिधानलक्षण: सामान्यविशेष इति। तेषां च सामान्यमेव विशेष: सामान्यविशेष इति। एकस्यात्मन उभयात्मकत्वं न विरुध्यते। त.वा. 1-6-14 । 2. समन्तभद्र, आप्तमी. का 104</ref> चित्ररूप भी उन्होंने स्वीकार किया है, जो परस्पर विरुद्ध रूपों का समुदाय है। बौद्ध दर्शन में भी एक चित्रज्ञान स्वीकृत है, जो परस्परविरुद्ध नीलादि ज्ञानों का समूह है।<br />
<br />
==स्याद्वाद विमर्श==<br />
स्याद्वाद उसी प्रकार अनेकान्त का वाचक अथवा व्यवस्थापक है जिस प्रकार ज्ञान उस अनेकान्त का व्यापक अथवा व्यवस्थापक है। जब ज्ञान के द्वारा वह जाना जाता है तो दोनों में ज्ञान-ज्ञेय का संबंध होता है और जब वह स्याद्वाद के द्वारा कहा जाता है तो उनमें वाच्य-वाचक संबंध होता है। ज्ञान का महत्त्व यह है कि वह ज्ञेय को जानकर उन ज्ञेयों की व्यवस्था बनाता है- उन्हें मिश्रित नहीं होने देता है। यह अमुक है, यह अमुक नहीं है इस प्रकार वह ज्ञाता को उस उस ज्ञेय की परिच्छित्ति कराता है। स्याद्वाद का भी वही महत्त्व है। वह वचनरूप होने से वाच्य को कहकर उसके अन्य धर्मों की मौन व्यवस्था करता है। ज्ञान और वचन में अंतर यही है कि ज्ञान एक साथ अनेक ज्ञेयों को जान सकता है पर वचन एक बार में एक ही वाच्य धर्म को कह सकता है, क्योंकि 'सकृदुच्चरित शब्द: एकमेवार्थ गमयति' इस नियम के अनुसार एक बार बोला गया वचन एक ही अर्थ का बोध कराता है। <br />
*समन्तभद्र की 'आप्त-मीमांसा', जिसे 'स्याद्वाद-मीमांसा' कहा जा सकता है, ऐसी कृति है, जिसमें एक साथ स्याद्वाद, अनेकान्त और सप्तभंगी तीनों का विशद और विस्तृत विवेचन किया गया है। अकलंकदेव ने उस पर 'अष्टशती' (आप्त मीमांसा- विवृति) और [[विद्यानन्द]] ने उसी पर 'अष्टसहस्त्री' (आप्तमीमांसालंकृति) व्याख्या लिखकर जहाँ आप्तमीमांसा की कारिकाओं एवं उनके पद-वाक्यादिकों का विशद व्याख्यान किया है वहाँ इन तीनों का भी अद्वितीय विवेचन किया है।<br />
---- <br />
<br />
'''न्याय विद्या'''<br />
<br />
*'नीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन स न्याय:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार न्याय वह विद्या है जिसके द्वारा वस्तु का स्वरूप निर्णीत किया जाए। इस व्युत्पत्ति के आधार पर कोई प्रमाण को, कोई लक्षण और प्रमाण को, कोई लक्षण, प्रमाण, नय और निक्षेप को तथा कोई पंचावयव-वाक्य के प्रयोग को न्याय कहते हैं क्योंकि इनके द्वारा वस्तु-प्रतिपत्ति होती है। <br />
*न्यायदीपिकाकार अभिनव धर्मभूषण का मत है कि न्याय प्रमाण और नयरूप है। अपने इस मत का समर्थन वे आचार्य गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्रगत उस सूत्र से करते हैं<ref>'प्रमाणनयैरधिगम:'- त.सू. 1-16</ref>, जिसमें कहा गया है कि वस्तु (जीवादि पदार्थों) का अधिगम प्रमाणों तथा नयों से होता है। प्रमाण और नय इन दो को ही अधिगम का उपाय सूत्रकार ने कहा है। उनका आशय है कि चूँकि प्रत्येक वस्तु अखंड (धर्मी) और सखंड (धर्म) दोनों रूप है। उसे अखंडरूप में ग्रहण करने वाला प्रमाण है और खंडरूप में जानने वाला नय है। अत: इन दो के सिवाय किसी तीसरे ज्ञापकोपाय की आवश्यकता नहीं है। <br />
*न्यायविद्या को 'अमृत' भी कहा गया है।<ref>'न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने।' –अनन्तवीर्य, प्रमेयरत्नमाला पृ. 2,2 श्लो. 2</ref> इसका कारण यह कि जिस प्रकार 'अमृत' अमरत्व को प्रदान करता है उसी प्रकार न्यायविद्या भी तत्त्वज्ञान प्राप्त कराकर आत्मा को अमर (मिथ्याज्ञानादि से मुक्त और सम्यग्ज्ञान से युक्त) बना देती है।<br />
<br />
'''आगमों में न्याय-विद्या'''<br />
<br />
*षट्खंडागम<ref>षट्ख. 5।5।51, शोलापुर संस्करण, 1965</ref> में श्रुत के पर्याय-नामों को गिनाते हुए एक नाम 'हेतुवाद' भी दिया गया है, जिसका अर्थ हेतुविद्या, न्यायविद्या, तर्क-शास्त्र और युक्ति-शास्त्र किया है। <br />
*स्थानांगसूत्र<ref>'अथवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते तं जहा- पच्चक्खे अनुमाने उवमे आगमे। अथवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते। तं जहा-अत्थि तं अत्थि सो हेऊ, अत्थि तं णत्थि सो हेऊ, णत्थि तं अत्थि सो हेऊ णत्थि तं णत्थि सो हेऊ।' –स्थानांग स्.-पृ. 309-310, 338</ref> में 'हेतु' शब्द प्रयुक्त है, जिसके दो अर्थ किये गये हैं- <br />
*प्रमाण-सामान्य; इसके [[प्रत्यक्ष]], अनुमान, उपमान और आगम-ये चार भेद हैं। अक्षपाद गौतम के न्यायसूत्र में भी इन चार का प्रतिपादन है। पर उन्होंने इन्हें प्रमाण के भेद कहे हैं। यद्यपि स्थानांगसूत्रकार को भी हेतुशब्द प्रमाण के अर्थ में ही यहाँ विवक्षित है। <br />
*हेतु शब्द का दूसरा अर्थ उन्होंने अनुमान का प्रमुख अंग हेतु (साधन) किया है। उसके निम्न चार भेद किये हैं-<br />
#विधि-विधि (साध्य और साधन दोनों सद्भव रूप)<br />
#विधि-निषेध (साध्य विधिरूप और साधन निषेधरूप)<br />
#निषेध-विधि (साध्य निषेधरूप और हेतु विधिरूप)<br />
#निषेध-निषेध (साध्य और साधन दोनों निषेधरूप)<br />
इन्हें हम क्रमश: निम्न नामों से व्यवहृत कर सकते हैं-<br />
#विधिसाधक विधिरूप<ref>धर्मभूषण, न्यायदीपिका, पृ. 95-99 दिल्ली संस्करण</ref> अविरुद्धोपलब्धि<ref> माणिक्यनन्दि, परीक्षामुख 3/57-58</ref> <br />
#विधिसाधक निषेधरूप विरुद्धानुपलब्धि<br />
#निषेधसाधक विधिरूप विरुद्धोपलब्धि<br />
#निषेधसाधक निषेधरूप अविरुद्धानुपलब्धि<ref>डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ. 24 का टिप्पणी नं. 3</ref> <br />
इनके उदाहरण निम्न प्रकार दिये जा सकते हैं-<br />
#अग्नि है, क्योंकि धूम है। यहाँ साध्य और साधन दोनों विधि (सद्भाव) रूप हैं।<br />
#इस प्राणी में व्याधि विशेष है, क्योंकि स्वस्थचेष्टा नहीं है। साध्य विधिरूप है और साधन निषेधरूप है।<br />
#यहाँ शीतस्पर्श नहीं है, क्योंकि उष्णता है। यहाँ साध्य निषेधरूप व साधन विधिरूप है।<br />
#यहाँ धूम नहीं है, क्योंकि अग्नि का अभाव है। यहाँ साध्य व साधन दोनों निषेधरूप है। <br />
अनुयोगसूत्र में<ref>)डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार पृ. 25 व उसके टिप्पणी</ref> अनुमान और उसके भेदों की विस्तृत चर्चा उपलब्ध है, जिससे ज्ञात होता है कि आगमों में न्यायविद्या एक महत्त्वपूर्ण विद्या के रूप में वर्णित है। आगमोत्तरवर्ती दार्शनिक साहित्य में तो वह उत्तरोत्तर विकसित होती गई है।<br /><br />
'''प्रमाण और नय'''<br /><br />
*तत्त्वमीमांसा में हेय और उपादेय के रूप में विभक्त जीव आदि सात तत्त्वों का विवेचन हैं। तत्त्व का दूसरा अर्थ वस्तु है।<ref>डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ. 58, 59</ref> यह वस्तुरूप तत्त्व दो प्रकार का है- 1. उपेय और 2. उपाय। उपेय के दो भेद हैं- एक ज्ञाप्य (ज्ञेय) और दूसरा कार्य। जो ज्ञान का विषय होता है वह ज्ञाप्य अथवा ज्ञेय कहा जाता है और जो कारणों द्वारा निष्पाद्य या निष्पन्न होता है वह कार्य है।<br />
*उपाय तत्त्व दो तरह का है- <br />
#कारक, <br />
#ज्ञापक। <br />
*कारक वह है जो कार्य की उत्पत्ति करता है अर्थात कार्य के उत्पादक कारणों का नाम कारक है। कार्य की उत्पत्ति दो कारणों से होती है- <br />
#उपादान और <br />
#निमित्त (सहकारी)। <br />
*उपादान वह है जो स्वयं कार्यरूप परिणत होता है और निमित्त वह है जो उसमें सहायक होता है। उदाहरणार्थ घड़े की उत्पत्ति में मृत्पिण्ड उपादान और दण्ड चक्र, चीवर, कुंभकार प्रभृति निमित्त हैं। <br />
*न्यायदर्शन में इन दो कारणो के अतिरिक्त एक तीसरा कारण भी स्वीकृत है वह है असमवायि पर वह समवायि कारणगत रूपादि और संयोगरूप होने से उसे अन्य दर्शनों में उस से भिन्न नहीं माना। <br />
*ज्ञापकतत्त्व भी दो प्रकार का है-<br />
#प्रमाण<ref>डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार पृ. 58 का मूल व टिप्पणी 1; 'प्रमाणनयैरधिगम:'-त.सू. 1-6 'प्रमाणनयाभ्यां हि विवेचिता जीवादय: पदार्थ: सम्यगधिगम्यन्ते।'- न्या.दी. पृ. 2, वीर सेवामंदिर, दिल्ली संस्करण</ref> और <br />
#नय<ref>'प्रमाणादर्थ संसिद्धिस्तदाभासासाद्विपर्यय:। 'परीक्षामु. श्लो. 1</ref> <br />
<br />
'''प्रमाण-भेद'''<br /><br />
*[[वैशेषिक दर्शन]] के प्रणेता [[कणाद]] ने<ref> वैशेषिक सूत्र 10/1/3</ref> प्रमाण के प्रत्यक्ष और लैंगिक- ये दो भेद स्वीकार किये हैं। उन्होंने इन दो के सिवाय न अन्य प्रमाणों की संभावना की है और न न्यायसूत्रकार अक्षपाद की तरह स्वीकृत प्रमाणों में अन्तर्भाव आदि की चर्चा ही की है। इससे प्रतीत होता है कि प्रमाण के उक्त दो भेदों की मान्यता प्राचीन है। इसके अतिरिक्त चार्वाक ने प्रत्यक्ष को माना और मात्र अनुमान की समीक्षा की है<ref>सर्वदर्शन सं., चार्वाकदर्शन, पृ. 3</ref>,अन्य उपमान, आगम आदि की नहीं। जबकि न्याय सूत्रकार ने<ref>न्यायसूत्र 2/2/1, 2</ref> *प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम (शब्द)- इन चार प्रमाणों को स्वीकार किया है तथा ऐतिह्य, अर्थापत्ति, संभव और अभाव-इन चार का स्पष्ट रूप से उल्लेख करके उनकी अतिरिक्त प्रमाणता की आलोचना की हें साथ ही शब्द में ऐतिह्य का और अनुमान में शेष तीनों का अन्तर्भाव प्रदर्शित किया है। <br />
*कणाद के व्याख्याकार प्रशस्तपाद ने<ref>प्रश. भा., पृ. 106-111</ref> अवश्य उनके मान्य प्रत्यक्ष और लैंगिक इन दो प्रमाणों का समर्थन करते हुए उल्लिखित शब्द आदि प्रमाणों का इन्हीं दो में समावेश किया है तथा चेष्टा, निर्णय, आर्ष (प्रातिभ) और सिद्ध दर्शन को भी इन्हीं दो के अन्तर्गत सिद्ध किया है। यदि वैशेषिक दर्शन से पूर्व न्यायदर्शन या अन्य दर्शन की प्रमाण भेद परम्परा होती, तो चार्वाक उसके प्रमाणों की अवश्य आलोचना करता। इससे विदित होता है कि वैशेषिक दर्शन की प्रमाण-द्वय की मान्यता सब से प्राचीन है। <br />
*वैशेषिकों की<ref>वैशे. सू. 10/1/3</ref>तरह बौद्धों ने<ref>दिग्नाग, प्रमाण समु.प्र.परि.का. 2, पृ. 4</ref> भी प्रत्यक्ष और अनुमान- इन दो प्रमाणों की स्वीकार किया है। <br />
*शब्द सहित तीनों को सांख्यों ने<ref>सांख्य का. 4</ref>, उपमान सहित चारों को नैयायिकों ने<ref>न्याय सू. 1/1/3</ref>और अर्थापत्ति तथा अभाव सहित छह प्रमाणों को जैमिनीयों (मीमांसकों) ने<ref>शावरभा. 1/1/5</ref> मान्य किया है। कुछ काल बाद जैमिनीय दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गये- <br />
#भाट्ट (कुमारिल भट्ट के अनुगामी) और <br />
#प्राभाकर (प्रभाकर के अनुयायी)। <br />
भाट्टों ने छहों प्रमाणों को माना। पर प्राभाकरों ने अभाव प्रमाण को छोड़ दिया तथा शेष पाँच प्रमाणों को अंगीकार किया। इस तरह विभिन्न दर्शनों में प्रमाण-भेद की मान्यताएँ<ref>जैमिने: षट् प्रमाणानि चत्वारि न्यायवादिन:। सांख्यस्य त्रीणि वाच्यानि द्वे वैशेषिकबौद्धयो:॥ - प्रमेयर. 2/2 का टि.</ref> दार्शनिक क्षेत्र में चर्चित हैं।<br /><br />
'''जैन न्याय में प्रमाण-भेद'''<br /><br />
*जैन न्याय में प्रमाण के श्वेताम्बर परम्परा में मान्य भगवती सूत्र<ref>भगवती सूत्र 5/3/191-192</ref> और स्थानांग सूत्र में<ref>स्थानांग सूत्र 338</ref> चार प्रमाणों का उल्लेख है- <br />
#प्रत्यक्ष, <br />
#अनुमान, <br />
#उपमान और <br />
#आगम। <br />
*स्थानांग सूत्र में<ref>स्थानांग सूत्र 185</ref> व्यवसाय के तीन भेदों द्वारा प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणों का भी निर्देश है। <br />
*संभव है [[सिद्धसेन]]<ref>न्यायाव. का 8</ref> और [[हरिभद्र]] के<ref>अनेका.ज.प.टी. पृ. 142, 215</ref> तीन प्रमाणों की मान्यता का आधार यही स्थानांग सूत्र हो। <br />
*श्री पं. दलसुख मालवणिया का विचार है<ref>आगम युग का जैन दर्शन पृ. 136 से 138</ref> कि उपर्युक्त चार प्रमाणों की मान्यता नैयायिकादि सम्मत और तीन प्रमाणों का कन सांख्यादि स्वीकृत परम्परा मूलक हों तो आश्चर्य नहीं। यदि ऐसा हो तो भगवती सूत्र और स्थानांग सूत्र के क्रमश: चार और तीन प्रमाणों की मान्यता लोकानुसरण की सूचक होने से अर्वाचीन होना चाहिए। <br />
*दिगम्बर परम्परा के षड्खंडागम में<ref>भूतबली. पुष्पदन्त, षट्खण्डा. 1/1/15 तथा जैन तर्क शा.अनु.वि. पृ. 71 व इसका नं. 5 टिप्पणी</ref> मात्र तीन ज्ञानमीमांसा उपलब्ध होती है। वहाँ तीन प्रकार के मिथ्या ज्ञान और पाँच प्रकार के सम्यग्ज्ञान को गिनाकर आठ ज्ञानों का निरूपण किया गया है। वहाँ प्रमाणाभास के रूप में ज्ञानों का विभाजन नहीं है और न प्रमाण तथा प्रमाणाभास शब्द ही वहाँ उपलब्ध होते हैं। <br />
*कुन्दकुन्द<ref>नियमसार गा. 10, 11, 12, प्रवचनसार प्रथम ज्ञानाधिकार</ref> के ग्रन्थों में भी ज्ञानमीमांसा की ही चर्चा है, प्रमाण मीमांसा की नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि उस प्राचीनकाल में सम्यक और मिथ्या मानकर तो ज्ञान का कथन किया जाता था, किन्तु प्रमाण और प्रमाणाभास मानकर नहीं, पर एक वर्ग के ज्ञानों को सम्यक और दूसरे वर्ग के ज्ञानों को मिथ्या प्रतिपादन करने से अवगत होता है कि जो ज्ञान सम्यक कहे गये हैं वे सम्यक परिच्छित्ति कराने से प्रमाण तथा जिन्हें मिथ्या बताया गया है वे मिथ्या प्रतिपत्ति कराने से अप्रमाण (प्रमाणाभास) इष्ट है।<ref>यह उस समय की प्रतिपादन शैली थी। वैशेषिक दर्शन के प्रवर्त्तक कणाद ने भी इसी शैली से बुद्धि के अविद्या और विद्या ये दो भेद बतलाकर अविद्या के संशय आदि चार तथा विद्या के प्रत्यक्षादि चार भेद कहे हैं तथा दूषित ज्ञान (मिथ्या ज्ञान) को अविद्या और निर्दोष ज्ञान को-सम्यग्ज्ञान का विद्या का लक्षण कहा है। - वैशे.सू. 9/2/7, 8, 10 से 13 तथा 10/1/3</ref> इसकी संपुष्टि तत्त्वार्थसूत्रकार<ref>त.सू. 1/9, 10</ref> के निम्न प्रतिपादन से भी होती है-<br />
<poem>मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानिज्ञानम्। <br />
तत्प्रमाणे'। 'मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च। -तत्त्वार्थसूत्र 1-9, 10, 31 ।</poem><br />
इस प्रकार सम्यग्ज्ञान या प्रमाण के मति, श्रुत, अवधि आदि पाँच भेदों की परम्परा आगम में उपलब्ध होती है, जो अत्यन्त प्राचीन है और जिस पर लोकानुसरण का कोई प्रभाव नहीं है। <br />
<br />
'''तर्कशास्त्र में परोक्ष के भेद'''<br />
<br />
तर्कशास्त्र में परोक्ष के पाँच भेद माने गये हैं<ref>माणिक्यनन्दि, प. मु. 3-1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10</ref>- <br />
#स्मृति, <br />
#प्रत्यभिज्ञान, <br />
#तर्क, <br />
#अनुमान और <br />
#आगम। यद्यपि आगम में आरम्भ के चार ज्ञानों को मतिज्ञान और आगम को श्रुतज्ञान कहकर दोनों को परोक्ष कहा है और इस तरह तर्कशास्त्र तथा आगम के निरूपणों में अन्तर नहीं है।<br />
<br />
'''स्मृति''' <br />
<br />
पूर्वानुभूत वस्तु के स्मरण को स्मृति कहते हैं। यथा 'वह' इस प्रकार से उल्लिखित होने वाला ज्ञान। यह ज्ञान अविसंवादि होता है, इसलिए प्रमाण है। यदि कदाचित् उसमें विसंवाद हो तो वह स्मृत्याभास है। इसे अप्रमाण नहीं माना जा सकता, अन्यथा व्याप्ति स्मरणपूर्वक होने वाला अनुमान प्रमाण नहीं हो सकता और बिना व्याप्ति स्मरण के अनुमान संभव नहीं है। अत: स्मृति को प्रमाण मानना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है।<ref>विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. 36 व पृ. 42, वीर सेवा. ट्र., वाराणसी</ref><br />
<br />
'''प्रत्यभिज्ञान'''<br />
<br />
अनुभव तथा स्मरणपूर्वक होने वाला जोड़ रूप ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है इसे प्रत्यभिज्ञा, प्रत्यवमर्श और संज्ञा भी कहते हैं। जैसे- 'यह वही देवदत्त हे, अथवा यह (गवय) गौ के समान है, यह (महिष) गौ से भिन्न है, आदि। पहला एकत्व प्रत्यभिज्ञान का उदाहरण है, दूसरा सादृश्य प्रत्यभिज्ञान और तीसरा वैसा दृश्य प्रत्यभिज्ञान का है। संकलनात्मक जितने ज्ञान हैं वे इसी प्रत्यभिज्ञान में समाहित होते हैं। उपमान प्रमाण इसी के सादृश्य प्रत्यभिज्ञान में अन्तर्भूत होता है, अन्यथा वैसा दृश्य आदि प्रत्यभिज्ञान भी पृथक् प्रमाण मानना पड़ेंगे। यह भी प्रत्यक्षादि की तरह अविसंवादी होने से प्रमाण है, अप्रमाण नहीं। यदि कोई प्रत्यभिज्ञान विसंवाद (भ्रमादि) पैदा करता है तो उसे प्रत्यभिज्ञानाभास जानना चाहिए। <br />
<br />
'''तर्क'''<br />
जो ज्ञान अन्वय और व्यतिरेकपूर्वक व्याप्ति का निश्चय कराता है वह तर्क है। इसे ऊह, ऊहा और चिन्ता भी कहा जाता है। 'इसके होने पर ही यह होता है', यह अन्वय है और 'इसके न होने पर यह नहीं होता', यह व्यतिरेक है, इन दोनों पूर्वक यह ज्ञान साध्य के साथ साधन में व्याप्ति का निर्माण कराता है। इसका उदाहरण है- 'अग्नि के होने पर ही धूम होता है, अग्नि के अभाव में धूम नहीं होता' इस प्रकार अग्नि के साथ धूम की व्याप्ति का निश्चय कराना तर्क है। इससे सम्यक अनुमान का मार्ग प्रशस्त होता है। <br />
<br />
'''अनुमान'''<br />
<br />
निश्चित साध्याविनाभावी साधन से होने वाला साध्य का ज्ञान अनुमान कहलाता है।<ref>विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. 45, 46, 47, 48, 49; वीर सेवा. ट्र., वाराणसी</ref> जैसे धूम से अग्नि का ज्ञान करना।<br />
<br />
'''अनुमान के अंग:- साध्य और साधन'''<br />
<br />
इस अनुमान के मुख्य घटक (अंग) दो हैं- <br />
#साध्य और <br />
#साधन। <br />
*साध्य तो वह है, जिसे सिद्ध किया जाता है और वह वही होता है जो शक्य (अबाधित), अभिप्रत (वादी द्वारा इष्ट) और असिद्ध (प्रतिवादी के लिए अमान्य) होता है तथा इससे जो विपरीत (बाधित, अनिष्ट और सिद्ध) होता है वह साध्याभास है, क्योंकि वह साधन द्वारा विषय (निश्चय) नहीं किया जाता। [[अकलंकदेव]] ने साध्य और साध्याभास का लक्षण करते हुए यही लिखा है-<br />
<poem>साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धं ततोऽपरम्।<br />
साध्याभासं विरुद्धादि, साधनाविषयत्वत:॥ न्यायविनिश्चय 2-172</poem><br />
*साधन वह है जिसका साध्य के साथ अविनाभाव निश्चित है- साध्य के होने पर ही होता है, उसके अभाव में नहीं होता। ऐसा साधन ही साध्य का गमक (अनुमापक) होता है। साधन को हेतु और लिङ्ग भी कहा जाता है। माणिक्यनन्दि साधन का लक्षण करते हुए कहते हैं-<br />
साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतु:।<ref>परीक्षामुखसूत्र 3-15</ref>' साध्य के साथ जिसका अविनाभाव निश्चित है वह हेतु है। <br />
<br />
'''अविनाभाव-भेद'''<br />
<br />
अविनाभाव दो प्रकार का है<ref>माणिक्यनन्दि, प.मु. 3-16, 17, 18</ref>-<br />
#सहभाव नियम और <br />
#क्रमभाव नियम। <br />
*जो सहचारी और व्याप्य-व्यापक होते हैं उनमें सहभाव नियम अविनाभाव रहता है। जैसे रूप और रस दोनों सहचारी हैं- रूप के साथ रस और रस के साथ रूप नियम से रहता है। अत: दोनों सहचारी हैं और इसलिए उनमें सहभाव नियम अविनाभाव है तथा शिंशपात्व और वृक्षत्व इन दोनों में व्याप्य-व्यापक भाव है। शिंशपात्व व्याप्य है और वृक्षत्व व्यापक है। शिंशपात्व होने पर वृक्षत्व अवश्य होता है। किन्तु वृक्षत्व के होने पर शिंशपात्व के होने का नियम नहीं है। अतएव सहचारियों और व्याप्य-व्यापक में सहभाव नियम अविनाभाव होता है, जिससे रूप से रस का और शिंशपात्व से वृक्षत्व का अनुमान किया जाता है। <br />
<br />
'''हेतु-भेद'''<br />
<br />
इन दोनों प्रकार के अविनाभाव से विशिष्ट हेतु के भेदों का कथन जैन न्यायशास्त्र में विस्तार से किया गया है, जिसे हमने 'जैन तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार' ग्रन्थ में विशदतया दिया है। अत: उस सबकी पुनरावृत्ति न करके मात्र माणिक्यनन्दि के 'परीक्षामुख' के अनुसार उनका दिग्दर्शन किया जाता है।<ref>माणिक्यनन्दि, प. मु. 3-57 58, 59, 65 से 79 तक</ref><br />
*माणिक्यनन्दि ने अकलंकदेव की तरह आरम्भ में हेतु के मूल दो भेद बतलाये हैं-<br />
#उपलब्धि और <br />
#अनुपलब्धि। <br />
*तथा इन दोनों को विधि और प्रतिषेध उभय का साधक कहा है और इस तरह दोनों के उन्होंने दो-दो भेद कहे हैं। उपलब्धि के- <br />
#अविरुद्धोपलब्धि और <br />
#विरुद्धोपलब्धि <br />
*अनुपलब्धि के- <br />
#अविरुद्धानुपलब्धि और <br />
#विरुद्धानुपलब्धि <br />
*इनके प्रत्येक के भेद इस प्रकार प्रतिपादित किये हैं- <br />
*अविरुद्धोपलब्धि छह- <br />
#व्याप्त, <br />
#कार्य,<br />
#कारण, <br />
#पूर्वचर, <br />
#उत्तरचर और <br />
#सहचर।<br />
*विरुद्धोपलब्धि के भी अविरुद्धोपलब्धि की तरह छह भेद हैं- <br />
#विरुद्ध व्याप्य, <br />
#विरुद्ध कार्य, <br />
#विरुद्ध कारण, <br />
#विरुद्ध पूर्वचर, <br />
#विरुद्ध उत्तरचर और <br />
#विरुद्ध-सहचर। <br />
*अविरुद्धानुपलब्धि प्रतिषेध रूप साध्य को सिद्ध करने की अपेक्षा 7. प्रकार की कही है- <br />
#अविरुद्धस्वभावानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धव्यापकानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धकार्यानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धकारणानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धपूर्वचरानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धउत्तरचरानुपलब्धि और <br />
#अविरुद्धसहचरानुपलब्धि। <br />
*विरुद्धानुपलब्धि विधि रूप साध्य को सिद्ध करने में तीन प्रकार की कही गयी है- <br />
#विरुद्धकार्यानुपलब्धि, <br />
#विरुद्धकारणानुपलब्धि और <br />
#विरुद्धस्वभावानुपलब्धि। <br />
*इस तरह माणिक्यनन्दि ने 6+6+7= 22 हेतुभेदों का सोदाहरण निरूपण किया है, परम्परा हेतुओं की भी उन्होंने संभावना करके उन्हें यथायोग्य उक्त हेतुओं में ही अन्तर्भाव करने का इंगित किया है। साथ ही उन्होंने अपने पूर्वज अकलंक की भांति कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर-इन नये हेतुओं को पृथक् मानने की आवश्यकता को भी सयुक्तिक बतलाया है।<br />
<br />
==आगम (श्रुत)==<br />
शब्द, संकेत, चेष्टा आदि पूर्वक जो ज्ञान होता है वह आगम है। जैसे- 'मेरु आदिक है' शब्दों को सुनने के बाद सुमेरु पर्वत आदि का बोध होता है।<ref>परी.मु. 3-99, 100, 101</ref> शब्द श्रवणादि मतिज्ञान पूर्वक होने से यह ज्ञान (आगम) भी परोक्ष प्रमाण है। इस तरह से स्मृत्यादि पाँचों ज्ञान ज्ञानान्तरापेक्ष हैं। स्मरण में धारणा रूप अनुभव (मति), प्रत्यभिज्ञान में अनुभव तथा स्मरण, तर्क में अनुभव, स्मृति और प्रत्यभिज्ञान, अनुमान में लिंगदर्शन, व्याप्ति स्मरण और आगम में शब्द, संकेतादि अपेक्षित हैं- उनके बिना उनकी उत्पत्ति संभव नहीं है। अतएव ये और इस जाति के अन्य सापेक्ष ज्ञान परोक्ष प्रमाण माने गये हैं।<br />
==नय-विमर्श==<br />
नय-स्वरूप— अभिनव धर्मभूषण ने<ref>न्यायदीपिका, पृ. 5, संपादन डॉ. दरबारीलाल कोठिया, 1945</ref> न्याय का लक्षण करते हुए कहा है कि 'प्रमाण-नयात्मको न्याय:'- प्रमाण और नय न्याय हैं, क्योंकि इन दोनों के द्वारा पदार्थों का सम्यक् ज्ञान होता है। अपने इस कथन को प्रमाणित करने के लिए उन्होंने आचार्य गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्र के, जिसे 'महाशास्त्र' कहा जाता है, उस सूत्र को प्रस्तुत किया है, जिसमें प्रमाण और मय को जीवादि तत्त्वार्थों को जानने का उपाय बताया गया है और वह है- 'प्रमाणनयैरधिगम:<ref>तत्त्वार्थसूत्र, 1-6</ref>'। वस्तुत: जैन न्याय का भव्य प्रासाद इसी महत्त्वपूर्ण सूत्र के आधार पर निर्मित हुआ है। <br />
<br />
'''नय-भेद'''<br />
<br />
उपर्युक्त प्रकार से मूल नय दो हैं<ref>प्रमयरत्नमाला 6/74, पृ. 206, सं. 1928</ref>- <br />
#द्रव्यार्थिक और <br />
#पर्यायार्थिक। <br />
*इनमें द्रव्यार्थिक तीन प्रकार का हैं<ref> प्रमयरत्नमाला, 6/74</ref>-<br />
#नैगम, <br />
#संग्रह, <br />
#व्यवहार। तथा <br />
*पर्यायार्थिक नय के चार भेद हैं<ref>प्रमयरत्नमाला, पृ. 207</ref>-<br />
#ऋजुसूत्र, <br />
#शब्द, <br />
#समभिरूढ़ और <br />
#एवम्भूत। <br />
<br />
'''नैगम नय'''<br />
जो धर्म और धर्मी में एक को प्रधान और एक को गौण करके प्ररूपण करता है वह नैगम नय है। जैसे जीव का गुण सुख है, ऐसा कहना। इसमें 'सुख' धर्म की प्रधानता और 'जीव' धर्मी की गौणता है अथवा यह सुखी जीव है, ऐसा कहना। इसमें 'जीव' धर्मी की प्रधानता है, क्योंकि वह विशेष्य है और 'सुख' धर्म गौण है, क्योंकि वह विशेषण है। इस नय का अन्य प्रकार से भी लक्षण किया गया है। जो भावी कार्य के संकल्प को बतलाता है वह नैगम नय है।<br />
<br />
'''संग्रह नय'''<br />
जो प्रतिपक्ष की अपेक्षा के साथ 'सन्मात्र' को ग्रहण करता है वह संग्रह नय है। जैसे 'सत्' कहने पर चेतन, अचेतन सभी पदार्थों का संग्रह हो जाता है, किन्तु सर्वथा 'सत्' कहने पर 'चेतन, अचेतन विशेषों का निषेध होने से वह संग्रहाभास है। विधिवाद इस कोटि में समाविष्ट होता है। <br />
<br />
'''व्यवहार नय'''<br />
संग्रहनय से ग्रहण किये 'सत्' में जो नय विधिपूर्वक यथायोग्य भेद करता है वह व्यवहारनय है। जैसे संग्रहनय से गृहीत 'सत्' द्रव्य हे या पर्याप्त है या गुण है। पर मात्र कल्पना से जो भेद करता है वह व्यवहारनयाभास है।<br />
<br />
'''ऋजुसूत्र नय''' <br />
भूत और भविष्यत पर्यायों को गौण कर केवल वर्तमान पर्याय को जो नय ग्रहण करता है वह ऋजुसूत्रनय है। जैसे प्रत्येक वस्तु प्रति समय परिणमनशील है। वस्तु को सर्वथा क्षणिक मानना ऋजुसूत्रनय है, क्योंकि इसमें वस्तु में होने वाली भूत और भविष्यत की पर्यायों तथा उनके आधारभूत अन्वयी द्रव्य का लोप हो जाता है। <br />
<br />
'''शब्द नय''' <br />
<br />
जो काल, कारक और लिङ्ग के भेद से शब्द में कथं चित् अर्थभेद को बतलाता है वह शब्दनय है। जैसे 'नक्तं निशा' दोनों पर्यायावाची हैं, किन्तु दोनों में लिंग भेद होने के कथं चित् अर्थभेद है। 'नक्तं' शब्द नंपुसक लिंग है और 'निशा' शब्द स्त्रीलिंग है। 'शब्दभेदात् ध्रुवोऽर्थभेद:' यह नय कहता है। अर्थभेद को कथं चित् माने बिना शब्दों को सर्वथा नाना बतलाकर अर्थ भेद करना शब्दनयाभास हैं <br />
<br />
'''समभिरूढ़ नय'''<br />
<br />
जो पर्याय भेद पदार्थ का कथंचित् भेद निरूपित करता है वह समभिरूढ़ नय है। जैसे इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि शब्द पर्याय शब्द होने से उनके अर्थ में कथं चित् भेद बताना। पर्याय भेद माने बिना उनका स्वतंत्र रूप से कथन करना समभिरूढ नयाभास है।<ref>'तत्र प्रमाणं द्विविधं स्वार्थं परार्थं च। तत्र स्वार्थं प्रमाणं श्रुतवर्ज्यम् श्रुतं पुन: स्वार्थं भवति परार्थं च। - सर्वार्थसिद्धि 1-6, भा. ज्ञा. संस्करण</ref>'<br />
<br />
'''एवंभूत नय'''<br />
<br />
जो क्रिया भेद से वस्तु के भेद का कथन करता है वह एवंभूत नय हैं जैसे पढ़ाते समय ही पाठक या अध्यापक अथवा पूजा करते समय ही पुजारी कहना। यह नय क्रिया पर निर्भर है। इसका विषय बहुत सूक्ष्म है। क्रिया की अपेक्षा न कर क्रिया वाचक शब्दों का कल्पनिक व्यवहार करना एवंभूतनयाभास है।<br />
==जैन दर्शन का उद्भव और विकास==<br />
'''उद्भव'''<br />
*आचार्य भूतबली और पुष्पदन्त द्वारा निबद्ध 'षट्खंडागम' में, जो दृष्टिवाद अंग का ही अंश है, 'सिया पज्जत्ता', 'सिया अपज्जता', 'मणुस अपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया', 'अखंखेज्जा* 'जैसे 'सिया' (स्यात्) शब्द और प्रश्नोत्तरी शैली को लिए प्रचुर वाक्य पाए जाते हैं।<br />
*'षट्खंडागम' के आधार से रचित आचार्य कुन्दकुन्द के 'पंचास्तिकाय', 'प्रवचनसार' आदि आर्ष ग्रन्थों में भी उनके कुछ और अधिक उद्गमबीज मिलते हैं। 'सिय अत्थिणत्थि उहयं', 'जम्हा' जैसे युक्ति प्रवण वाक्यों एवं शब्द प्रयोगों द्वारा उनमें प्रश्नोत्तर पूर्वक विषयों को दृढ़ किया गया है। <br />
'''विकास'''<br />
<br />
काल की दृष्टि से उनके विकास को तीन कालखंडों में विभक्त किया जा सकता है और उन कालखंडों के नाम निम्न प्रकार रखे जा सकते हैं :-<br />
*आदिकाल अथवा समन्तभद्र-काल (ई. 200 से ई. 650)।<br />
*मध्यकाल अथवा अकलंक-काल (ई. 650 से ई. 1050)।<br />
*उत्तरमध्ययुग (अन्त्यकाल) अथवा प्रभाचन्द्र-काल (ई. 1050 से 1700)। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन दर्शन का उद्भव और विकास]]<br />
<br />
==जैन दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ==<br />
आचार्य जिनसेन और गुणभद्र : एक परिचय<br />
*ये दोनों ही आचार्य उस पंचस्तूप नामक अन्वय में हुए हैं जो आगे चलकर सेनान्वय का सेनसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। जिनसेन स्वामी के गुरु वीरसेन ने भी अपना वंश पत्र्चस्तूपान्वय ही लिखा है। परन्तु गुणभद्राचार्य ने सेनान्वय लिखा है। इन्द्रानन्दी ने अपने श्रुतावतार में लिखा है कि जो मुनि पंचस्तूप निवास से आये उनमें से किन्हीं को सेन और किन्हीं को भद्र नाम दिया गया। तथा कोई आचार्य ऐसा भी कहते हैं कि जो गुहाओं से आये उन्हें नन्दी, जो अशोक वन से आये उन्हें देव और जो पंचस्तूप से आये उन्हें सेन नाम दिया गया। श्रुतावतार के उक्त उल्लेख से प्रतीत होता है कि सेनान्त और भद्रान्त नाम वाले मुनियों का समूह ही आगे चलकर सेनान्वय या सेना संघ से प्रसिद्ध हुआ है। <br />
<br />
जिनसेनाचार्य सिद्धान्तशास्त्रों के महान् ज्ञाता थे। इन्होंने कषायप्राभृत पर 40 हज़ार श्लोक प्रमाण जयधवल टीका लिखी है। आचार्य वीरसेन स्वामी उस पर 20 हज़ार श्लोक प्रमाण टीका लिख पाये थे और वे दिवंगत हो गये थे। तब उनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने 40 हज़ार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर उसे पूर्ण किया। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ]]<br />
==जैन दर्शन में अध्यात्म==<br />
'अध्यात्म' शब्द अधि+आत्म –इन दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है कि आत्मा को आधार बनाकर चिन्तन या कथन हो, वह अध्यात्म है। यह इसका व्युत्पत्ति अर्थ हे। यह जगत जैन दर्शन के अनुसार छह द्रव्यों के समुदायात्मक है। वे छह द्रव्य हैं-<br />
*जीव,<br />
*पुद्गल,<br />
*धर्म,<br />
*अधर्म,<br />
*आकाश और<br />
*काल। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन दर्शन में अध्यात्म]]<br />
==जैन तार्किक और उनके न्यायग्रन्थ==<br />
'''बीसवीं शती के जैन तार्किक'''<br />
<br />
बीसवीं शती में भी कतिपय दार्शनिक एवं नैयायिक हुए हैं, जो उल्लेखनीय हैं। इन्होंने प्राचीन आचार्यों द्वारा लिखित दर्शन और न्याय के ग्रन्थों का न केवल अध्ययन-अध्यापन किया, अपितु उनका राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनुवाद एवं सम्पादन भी किया है। साथ में अनुसंधानपूर्ण विस्तृत प्रस्तावनाएँ भी लिखी हैं, जिनमें ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार के ऐतिहासिक परिचय के साथ ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषयों का भी तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक आकलन किया गया है। कुछ मौलिक ग्रन्थ भी हिन्दी भाषा में लिखे गये हैं। सन्तप्रवर न्यायचार्य पं. गणेशप्रसाद वर्णी न्यायचार्य, पं. माणिकचन्द्र कौन्देय, पं. सुखलाल संघवी, डा. पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, पं. कैलाश चन्द्र शास्त्री, पं. दलसुख भाइर मालवणिया एवं इस लेख के लेखक डा. पं. दरबारी लाला कोठिया न्यायाचार्य आदि के नाम विशेष उल्लेख योग्य हैं। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन तार्किक और उनके न्यायग्रन्थ]]<br />
==त्रिभंगी टीका==<br />
#आस्रवत्रिभंगी, <br />
#बंधत्रिभंगी, <br />
#उदयत्रिभंगी और <br />
#सत्त्वत्रिभंगी-इन 4 त्रिभंगियों को संकलित कर टीकाकार ने इन पर [[संस्कृत]] में टीका की है। <br />
*आस्रवत्रिभंगी 63 गाथा प्रमाण है। <br />
*इसके रचयिता श्रुतमुनि हैं। <br />
*बंधत्रिभंगी 44 गाथा प्रमाण है तथा उसके कर्ता नेमिचन्द शिष्य माधवचन्द्र हैं। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[त्रिभंगी टीका]]<br />
==पंचसंग्रह टीका==<br />
मूल पंचसंग्रह नामक यह मूलग्रन्थ [[प्राकृत]] भाषा में है। इस पर तीन [[संस्कृत]]-टीकाएँ हैं। <br />
#श्रीपालसुत डड्ढा विरचित पंचसंग्रह टीका, <br />
#आचार्य अमितगति रचित संस्कृत-पंचसंग्रह, <br />
#सुमतकीर्तिकृत संस्कृत-पंचसंग्रह। <br />
*पहली टीका दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह का संस्कृत-अनुष्टुपों में परिवर्तित रूप है। इसकी श्लोक संख्या 1243 है। कहीं कहीं कुछ गद्यभाग भी पाया जाता है, जो लगभग 700 श्लोक प्रमाण है। इस तरह यह लगभग 2000 श्लोक प्रमाण है। यह 5 प्रकरणों का संग्रह है। वे 5 प्रकरण निम्न प्रकार हैं- <br />
#जीवसमास, <br />
#प्रकृतिसमुत्कीर्तन, <br />
#कर्मस्तव, <br />
#शतक और <br />
#सप्ततिका। <br />
*इसी तरह अन्य दोनों संस्कृत टीकाओं में भी समान वर्णन है। <br />
*विशेष यह है कि आचार्य अमितगति कृत पंचसंग्रह का परिमाण लगभग 2500 श्लोक प्रमाण है। तथा सुमतकीर्ति कृत पंचसंग्रह अति सरल व स्पष्ट है। <br />
*इस तरह ये तीनों टीकाएँ संस्कृत में लिखी गई हैं और समान होने पर भी उनमें अपनी अपनी विशेषताएँ पाई जाती हैं। <br />
*कर्म साहित्य के विशेषज्ञों को इन टीकाओं का भी अध्ययन करना चाहिए। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[पंचसंग्रह टीका]]<br />
==मन्द्रप्रबोधिनी==<br />
*शौरसेनी [[प्राकृत|प्राकृत भाषा]] में आचार्य नेमिचन्द्र सि0 चक्रवर्ती द्वारा निबद्ध गोम्मटसार मूलग्रन्थ की [[संस्कृत भाषा]] में रची यह एक विशद् और सरल व्याख्या है। इसके रचयिता अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती हैं। यद्यपि यह टीका अपूर्ण है किन्तु कर्मसिद्धान्त को समझने के लिए एक अत्यन्त प्रामाणिक व्याख्या है। केशववर्णी ने इनकी इस टीका का उल्लेख अपनी कन्नडटीका में, जिसका नाम कर्नाटकवृत्ति है, किया है। इससे ज्ञात होता है कि केशववर्णी ने उनकी इस मन्दप्रबोधिनी टीका से लाभ लिया है। <br />
*गोम्मटसार आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा लिखा गया कर्म और जीव विषयक एक प्रसिद्ध एवं महत्त्वपूर्ण प्राकृत-ग्रन्थ है। इसके दो भाग हैं- <br />
#एक जीवकाण्ड और <br />
#दूसरा कर्मकाण्ड। <br />
जीवकाण्ड में 734 और कर्मकाण्ड में 972 शौरसेनी-प्राकृत भाषाबद्ध गाथाएं हैं। कर्मकाण्ड पर संस्कृत में 4 टीकाएं लिखी गई हैं। वे हैं- <br />
#[[गोम्मट पंजिका]], <br />
#मन्दप्रबोधिनी, <br />
#कन्नड़ संस्कृत मिश्रित जीवतत्त्वप्रदीपिका, <br />
#संस्कृत में ही रचित अन्य नेमिचन्द्र की जीवतत्त्वप्रदीपिका। इन टीकाओं में विषयसाम्य है पर विवेचन की शैली इनकी अलग अलग हैं। भाषा का प्रवाह और सरलता इनमें देखी जा सकती है। <br />
आगे विस्तार में पढ़ें:- [[मन्द्रप्रबोधिनी]]<br />
{{संदर्भ ग्रंथ}}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
{{प्रचार}}<br />
==संबंधित लेख==<br />
{{जैन धर्म}}{{संस्कृत साहित्य}}{{जैन धर्म2}}{{दर्शन शास्त्र}}<br />
[[Category:दर्शन कोश]]<br />
<br />
[[Category:जैन दर्शन]] <br />
__INDEX__<br />
{{toc}}</div>हिमानीhttps://en.bharatdiscovery.org/w/index.php?title=%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8_%E0%A4%A6%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6%E0%A4%A8_%E0%A4%94%E0%A4%B0_%E0%A4%89%E0%A4%B8%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%89%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%AF&diff=209586जैन दर्शन और उसका उद्देश्य2011-08-22T11:23:09Z<p>हिमानी: /* तत्त्व मीमांसा */</p>
<hr />
<div>__TOC__*'कर्मारातीन् जयतीति जिन:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिसने राग द्वेष आदि शत्रुओं को जीत लिया है वह 'जिन' है। <br />
*अर्हत, अरहन्त, जिनेन्द्र, वीतराग, परमेष्ठी, आप्त आदि उसी के पर्यायवाची नाम हैं। उनके द्वारा उपदिष्ट दर्शन जैनदर्शन हैं। <br />
*आचार का नाम धर्म है और विचार का नाम दर्शन है तथा युक्ति-प्रतियुक्ति रूप हेतु आदि से उस विचार को सुदृढ़ करना न्याय है।<br />
* जैन दर्शन का निर्देश है कि आचार का अनुपालन विचारपूर्वक किया जाये। धर्म, दर्शन और न्याय-इन तीनों के सुमेल से ही व्यक्ति के आध्यात्मिक उन्नयन का भव्य प्रासाद खड़ा होता है। *अत: जैन धर्म का जो 'आत्मोदय' के साथ 'सर्वोदय'- सबका कल्याण उद्दिष्ट है।<ref>सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव–समन्तभद्र युक्त्यनु. का. 61</ref> उसका समर्थन करना जैन दर्शन का लक्ष्य हैं जैन धर्म में अपना ही कल्याण नहीं चाहा गया है, अपितु सारे राष्ट्र, राष्ट्र की जनता और विश्व के जनसमूह, यहाँ तक कि प्राणीमात्र के सुख एवं कल्याण की कामना की गई है।<ref>क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपाल:<br />
काले वर्ष प्रदिशतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम्।<br />
दुर्भिक्षं चौरमारी क्षणमपि जगतां मा स्म भूज्जीवलोके,<br />
जैनेन्द्रं धर्मचक्रं प्रभवतु सततं सर्वसौख्यप्रदायि॥</ref><br />
{{tocright}}<br />
==जैन दर्शन के प्रमुख अंग==<br />
#[[द्रव्य मीमांसा -जैन दर्शन|द्रव्य-मीमांसा]]<br />
#[[तत्त्व मीमांसा -जैन दर्शन|तत्त्व-मीमांसा]]<br />
#[[पदार्थ मीमांसा -जैन दर्शन|पदार्थ-मीमांसा]]<br />
#[[पंचास्तिकाय मीमांसा -जैन दर्शन|पंचास्तिकाय-मीमांसा]]<br />
#[[अनेकान्त विमर्श -जैन दर्शन|अनेकान्त-विमर्श]]<br />
#[[स्याद्वाद विमर्श -जैन दर्शन|स्याद्वाद विमर्श]]<br />
#[[सप्तभंगी विमर्श -जैन दर्शन|सप्तभंगी विमर्श]]<br />
<br />
==द्रव्य-मीमांसा==<br />
{{main|द्रव्य मीमांसा -जैन दर्शन}}<br />
वैशेषिक, भाट्ट और प्रभाकर दर्शनों में द्रव्य और पदार्थ दोनों को स्वीकार कर उनका विवेचन किया गया है। तथा [[सांख्य दर्शन]] और [[बौद्ध दर्शन|बौद्ध दर्शनों]] में क्रमश: तत्त्व और आर्य सत्यों का कथन किया गया है, [[वेदान्त दर्शन]] में केवल ब्रह्म (आत्मतत्व) और [[चार्वाक दर्शन]] में भूत तत्त्वों को माना गया है, वहाँ जैन दर्शन में द्रव्य, पदार्थ, तत्त्व, और अस्तिकाय को स्वीकार कर उन सबका पृथक्-पृथक् विस्तृत निरूपण किया गया है।<ref>त्रैकाल्यं द्रव्यषट्कं नवपदसहितं जीवषट्काय - लेश्या:,<br />
पंचान्ये चास्तिकाया व्रत समिति-गति-ज्ञान- चारित्रभेदा:।<br />
इत्येतन्मोक्षमूलं त्रिभुवनमहितै: प्रोक्तमर्हदिभरीशै:<br />
प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान् य: स वै शुद्धदृष्टि:॥ - स्तवनसंकलन।</ref> <br />
*जो ज्ञेय के रूप में वर्णित है और जिनमें हेय-उपादेय का विभाजन नहीं है पर तत्त्वज्ञान की दृष्टि से जिनका जानना ज़रूरी है तथा गुण और पर्यायों वाले हैं एवं उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त हैं, वे द्रव्य हैं। <br />
*तत्त्व का अर्थ मतलब या प्रयोजन है। जो अपने हित का साधक है वह उपादेय है और जो आत्महित में बाधक है वह हेय है। उपादेय एवं हेय की दृष्टि से जिनका प्रतिपादन के उन्हें तत्त्व कहा गया है। <br />
*भाषा के पदों द्वारा जो अभिधेय है वे पदार्थ हैं। उन्हें पदार्थ कहने का एक अभिप्राय यह भी है कि 'अर्थ्यतेऽभिलष्यते मुमुक्षुभिरित्यर्थ:' मुमुक्षुओं के द्वारा उनकी अभिलाषा की जाती है, अत: उन्हें अर्थ या पदार्थ कहा गया है। <br />
*अस्तिकाय की परिभाषा करते हुए कहा है कि जो 'अस्ति' और 'काय' दोनों है। 'अस्ति' का अर्थ 'है' है और 'काय' का अर्थ 'बहुप्रदेशी' है अर्थात जो द्रव्य है' होकर कायवाले- बहुप्रदेशी हैं, वे 'अस्तिकाय' हैं।<ref>पंचास्तिकाय, गा. 4-5 द्रव्य सं. गा. 24</ref> ऐसे पाँच द्रव्य हैं- <br />
#पुद्गल<br />
#धर्म<br />
#अधर्म<br />
#आकाश<br />
#जीव<br />
#कालद्रव्य एक प्रदेशी होने से अस्तिकाय नहीं है।<br />
<br />
==तत्त्व मीमांसा==<br />
{{मुख्य|तत्त्व मीमांसा -जैन दर्शन}}<br />
तत्त्व का अर्थ है प्रयोजन भूत वस्तु। जो अपने मतलब की वस्तु है और जिससे अपना हित अथवा स्वरूप पहचाना जाता है वह तत्त्व है। 'तस्य भाव: तत्त्वम्' अर्थात वस्तु के भाव (स्वरूप) का नाम तत्त्व है। ऋषियों या शास्त्रों का जितना उपदेश है उसका केन्द्र जीव (आत्मा) रहा है। उपनिषदों में आत्मा के दर्शन, श्रवण, मनन और ध्यान पर अधिक बल दिया गया है और इनके माध्यम से आत्मा के साक्षात्कार की बात कही गयी है<ref>श्रोतव्य:श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभि:। मत्वा च स्ततं ध्येय एते दर्शनहेतव:॥</ref>। जैन दर्शन तो पूरी तरह आध्यात्मिक है। अत: इसमें आत्मा को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है।<ref> कुन्दकुन्द, मोक्ष प्राभृत गा. 4, 5, 6, 7</ref> <br />
#बहिरात्मा, <br />
#अन्तरात्मा और <br />
#परमात्मा। <br />
*मूढ आत्मा को बहिरात्मा, जागृत आत्मा को अन्तरात्मा और अशेष गुणों से सम्पन्न आत्मा को परमात्मा कहा गया है। ये एक ही आत्मा के उन्नयन की विकसित तीन श्रेणियाँ हैं। जैसे एक आरम्भिक अबोध बालक शिक्षक, पुस्तक, पाठशाला आदि की सहायता से सर्वोच्च शिक्षा पाकर सुबोध बन जाता है वैसे ही एक मूढात्मा सत्संगति, सदाचार-अनुपालन, ज्ञानाभ्यास आदि को प्राप्त कर अन्तरात्मा (महात्मा) बन जाता है और वही ज्ञान, ध्यान तप आदि के निरन्तर अभ्यास से कर्म-कलङ्क से मुक्त होकर परमात्मा (अरहन्त व सिद्ध रूप ईश्वर) हो जाता है। इस दिशा में जैन चिन्तकों का चिन्तन, आत्म विद्या की ओर लगाव अपूर्व है।<br />
<br />
==पदार्थ मीमांसा==<br />
उक्त सात तत्त्वों में पुण्य और पाप को सम्मिलित कर देने पर नौ पदार्थ कहे गए हैं।<ref>जीवा जीवा भावा पुण्णं पावं च आसवं तेसिं। संवर-णिज्जर बंधो मोक्खो य हवंति ते अट्ठ॥–पंचास्ति., गा. 108</ref> इन नौ पदार्थों का प्रतिपादन आचार्य कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय (गाथा 108) में सर्वप्रथम दृष्टिगोचर होता है। उसके बाद नेमिचन्द्र सिद्धांतिदेव ने भी उनका अनुसरण किया है।<ref>द्रव्य सं. गा. 28 । 'इह पुण्यपापग्रहणं कर्त्तव्यम्, नव पदार्था इत्यन्यैरप्युक्तत्वान्॥</ref> तत्त्वार्थ सूत्रकार ने सात तत्त्वों के श्रद्धान को सम्यक्दर्शन कहकर उन सात तत्त्वों की ही प्ररूपणा की है। नौ पदार्थों की उन्होंने चर्चा नहीं की<ref>तत्त्व सूत्र 1-4</ref> यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र के आठवें अध्याय के अन्त में उन्होंने पुण्य और पाप दोनों का कथन किया है। किन्तु वहाँ उनका पदार्थ के रूप में निरूपण नहीं है। बल्कि बंधतत्त्व का वर्णन करने वाले इस अध्याय में समग्र कर्म प्रकृतियों को पुण्य और पाप दो भागों में विभक्तकर साता वेदनीय, शुभायु:, शुभनाम और शुभगोत्र को पुण्य तथा असातावेदनीय, अशुभायु:, अशुभनाम और अशुभगोत्र को पाप कहा है।<ref> तत्त्व सूत्र 8-25, 26</ref> ध्यान रहे यह विभाजन अघातिप्रकृतियों की अपेक्षा है, घातिप्रकृतियों की अपेक्षा नहीं, क्योंकि वे सभी (47) पाप-प्रकृतियां ही हैं।)<br />
==पंचास्तिकाय मीमांसा==<br />
जैन दर्शन में उक्त द्रव्य, तत्त्व और पदार्थ के अलावा अस्तिकायों का निरूपण किया गया है। कालद्रव्य को छोड़कर शेष पांचों द्रव्य (पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकश और जीव) अस्तिकाय हैं<ref>द्रव्य सं. गा. 23, 24, 25</ref> क्योंकि ये 'हैं' इससे इन्हें 'अस्ति' ऐसी संज्ञा दी गई है और काय (शरीर) की तरह बहुत प्रदेशों वाले हैं, इसलिए ये 'काय' हैं। इस तरह ये पांचों द्रव्य 'अस्ति' और 'काय' दोनों होने से 'अस्तिकाय' कहे जाते हैं। पर कालद्रव्य 'अस्ति' सत्तावान होते हुए भी 'काय' (बहुत प्रदेशों वाला) नहीं है। उसके मात्र एक ही प्रदेश हैं। इसका कारण यह है कि उसे एक-एक अणुरूप माना गया है और वे अणुरूप काल द्रव्य असंख्यात हैं, क्योंकि वे लोकाकाश के, जो असंख्यात प्रदेशों वाला है, एक-एक प्रदेश पर एक-एक जुदे-जुदे रत्नों की राशि की तरह अवस्थित हैं। जब कालद्रव्य अणुरूप है तो उसका एक ही प्रदेश है इससे अधिक नहीं। अन्य पाँचों द्रव्यों में प्रदेश बाहुल्य है, इसी से उन्हें 'अस्तिकाय' कहा गया है और कालद्रव्य को अनस्तिकाय।<br />
==अनेकान्त विमर्श==<br />
'अनेकान्त' जैनदर्शन का उल्लेखनीय सिद्धान्त है। वह इतना व्यापक है कि वह लोक (लोगों) के सभी व्यवहारों में व्याप्त है। उसके बिना किसी का व्यवहार चल नहीं सकता। आचार्य [[सिद्धसेन]] ने कहा है<ref>जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वडइ।<br /> तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमोऽणेयंत वायस्स॥ - सिद्धसेन। </ref> कि लोगों के उस आद्वितीय गुरु अनेकान्तवाद को हम नमस्कार करते हैं, जिसके बिना उनका व्यवहार किसी तरह भी नहीं चलता। अमृतचन्द्र उसके विषय में कहते है<ref>परमागमस्य जीवं निषिद्धजात्यन्ध- सिन्धुरविधानम्।<br /> सकल-नय-विलसितानां विरोधमथानं नमाम्यनेकान्तम्॥ -अमृतचन्द्र, पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, श्लो. 1।</ref> कि अनेकान्त परमागम जैनागम का प्राण हे और वह वस्तु के विषय में उत्पन्न एकान्तवादियों के विवादों को उसी प्रकार दूर करता है जिस प्रकार हाथी को लेकर उत्पन्न जन्मान्धों के विवादों को उसी प्रकार दूर करता है जिस प्रकार हाथी को लेकर उत्पन्न जन्मान्धों के विवादों को सचक्षु: (नेत्रवाला) व्यक्ति दूर कर देता है। समन्तभद्र का कहना है<ref>एकान्त धर्माभिनिवेशमूला रागादयोऽहं कृतिजा जनानाम्।<br />एकान्तहानाच्च स यत्तदेव स्वाभाविकत्वाच्च समं मनस्ते॥ - समन्तभद्र, युक्तयनुशासन कारिका 51</ref> कि वस्तु को अनेकान्त मानना क्यों आवश्यक है? वे कहते हैं कि एकान्त के आग्रह से एकान्त समझता है कि वस्तु उतनी ही है, अन्य रूप नहीं है, इससे उसे अहंकर आ जाता है और अहंकार से उसे राग, द्वेष आदि उत्पन्न होते हैं, जिससे उसे वस्तु का सही दर्शन नहीं होता। पर अनेकान्ती को एकानत का आग्रह न होने से उसे न अहंकार पैदा होता है और न राग, द्वेष आदि उत्पन्न होते हैं। फलत: उसे उस अनन्तधर्मात्मक अनेकान्त रूप वस्तु का सम्यक्दर्शन होता है, क्योंकि एकान्त का आग्रह न करना दूसरे धर्मों को भी उसमें स्वीकार करना सम्यग्दृष्टि का स्वभाव है। और इस स्वभाव के कारण ही अनेकान्ती के मन में पक्ष या क्षोभ पैदा नहीं होता, वह साम्य भाव को लिए रहता है। <br />
*अनेकान्त के भेद- यह अनेकान्त दो प्रकार का है- <br />
#सम्यगनेकान्त और <br />
#मिथ्या अनेकान्त। <br />
परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशन करने वाला सम्यगनेकान्त है अथवा सापेक्ष एकान्तों का समुच्चय सम्यगनेकान्त है<ref>समन्तभद्र, आप्तमी., का. 107</ref> निरपेक्ष नाना धर्मों का समूह मिथ्या अनेकान्त है। एकान्त भी दो प्रकार का है- <br />
#सम्यक एकान्त और <br />
#मिथ्या एकान्त। <br />
सापेक्ष एकान्त सम्यक एकान्त है। वह इतर धर्मों का संग्रहक है। अत: वह नय का विषय है और निरपेक्ष एकान्त मिथ्या एकान्त है, जो इतर धर्मों का तिरस्कारक है वह दुनर्य या नयाभास का विषय है। अनेकान्त के अन्य प्रकार से भी दो भेद कहे गये हैं।<ref>विद्यानन्द तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, 5-38-2</ref> <br />
#सहानेकान्त और <br />
#क्रमानेकान्त। <br />
एक साथ रहने वाले गुणों के समुदाय का नाम सहानेकान्त है और क्रम में होने वाले धर्मों-पर्यायों के समुच्चय का नाम क्रमानेकान्त है। इन दो प्रकार के अनेकान्तों के उद्भावक जैन दार्शनिक आचार्य विद्यानंद हैं। उनके समर्थक [[वादीभसिंह]] हैं। उन्होंने अपनी स्याद्वादसिद्धि में इन दोनों प्रकार के अनेकान्तों का दो परिच्छेदों में विस्तृत प्रतिपादन किया है। उन के नाम हैं- सहानेकान्तसिद्धि और क्रमानेकान्त सिद्धि। अनेकान्त को मानने में कोई विवाद होना ही नहीं चाहिए। जो हेतु<ref>एकस्य हेतो: साधक दूषकत्वाऽविसंवादवद्धा'- त.वा. 1-6-13</ref> स्वपक्ष का साधक होता है वही साथ में परपक्ष का दूषक भी होता है। इस प्रकार उसमें साधकत्व एवं दूषकत्व दोनों विरुद्ध धर्म एक साथ रूपरसादि की तरह विद्यमान हैं। <br />
सांख्यदर्शन, प्रकृति को सत्त्व, रज और तमोगुण रूप त्रयात्मक स्वीकार करता है और तीनों परस्पर विरुद्ध है तथा उनके प्रसाद-लाघव, शोषण-ताप, आवरण-सादन आदि भिन्न-भिन्न स्वभाव हैं और सब प्रधान रूप हैं, उनमें कोई विरोध नहीं है।<ref>'केचित्तावदाहु:- सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रधानमिति, तेषां<br /> प्रसादलाघवशोषतापावरणासादनादिभिन्नस्वभावानां प्रधानात्मनां मिथश्च न विरोध:।'</ref> वैशेषिक द्रव्यगुण आदि को अनुवृत्ति-व्यावृत्ति प्रत्यय कराने के कारण सामान्य-विशेष रूप मानते हैं। पृथ्वी आदि में 'द्रव्यम्' इस प्रकार का अनुवृत्ति प्रत्यय होने से द्रव्य को सामान्य और 'द्रव्यम् न गुण:, न कर्म, आदि व्यावृत्ति प्रत्यय का कारण होने से उसे विशेष भी कहते हैं और इस प्रकार द्रव्य एक साथ परस्पर विरुद्ध सामान्य-विशेष रूप माना गया है।<ref>अपरे मन्यन्ते- अनुवृत्तिविनिवृत्तिबुद्धयभिधानलक्षण: सामान्यविशेष इति। तेषां च सामान्यमेव विशेष: सामान्यविशेष इति। एकस्यात्मन उभयात्मकत्वं न विरुध्यते। त.वा. 1-6-14 । 2. समन्तभद्र, आप्तमी. का 104</ref> चित्ररूप भी उन्होंने स्वीकार किया है, जो परस्पर विरुद्ध रूपों का समुदाय है। बौद्ध दर्शन में भी एक चित्रज्ञान स्वीकृत है, जो परस्परविरुद्ध नीलादि ज्ञानों का समूह है।<br />
<br />
==स्याद्वाद विमर्श==<br />
स्याद्वाद उसी प्रकार अनेकान्त का वाचक अथवा व्यवस्थापक है जिस प्रकार ज्ञान उस अनेकान्त का व्यापक अथवा व्यवस्थापक है। जब ज्ञान के द्वारा वह जाना जाता है तो दोनों में ज्ञान-ज्ञेय का संबंध होता है और जब वह स्याद्वाद के द्वारा कहा जाता है तो उनमें वाच्य-वाचक संबंध होता है। ज्ञान का महत्त्व यह है कि वह ज्ञेय को जानकर उन ज्ञेयों की व्यवस्था बनाता है- उन्हें मिश्रित नहीं होने देता है। यह अमुक है, यह अमुक नहीं है इस प्रकार वह ज्ञाता को उस उस ज्ञेय की परिच्छित्ति कराता है। स्याद्वाद का भी वही महत्त्व है। वह वचनरूप होने से वाच्य को कहकर उसके अन्य धर्मों की मौन व्यवस्था करता है। ज्ञान और वचन में अंतर यही है कि ज्ञान एक साथ अनेक ज्ञेयों को जान सकता है पर वचन एक बार में एक ही वाच्य धर्म को कह सकता है, क्योंकि 'सकृदुच्चरित शब्द: एकमेवार्थ गमयति' इस नियम के अनुसार एक बार बोला गया वचन एक ही अर्थ का बोध कराता है। <br />
*समन्तभद्र की 'आप्त-मीमांसा', जिसे 'स्याद्वाद-मीमांसा' कहा जा सकता है, ऐसी कृति है, जिसमें एक साथ स्याद्वाद, अनेकान्त और सप्तभंगी तीनों का विशद और विस्तृत विवेचन किया गया है। अकलंकदेव ने उस पर 'अष्टशती' (आप्त मीमांसा- विवृति) और [[विद्यानन्द]] ने उसी पर 'अष्टसहस्त्री' (आप्तमीमांसालंकृति) व्याख्या लिखकर जहाँ आप्तमीमांसा की कारिकाओं एवं उनके पद-वाक्यादिकों का विशद व्याख्यान किया है वहाँ इन तीनों का भी अद्वितीय विवेचन किया है।<br />
---- <br />
<br />
'''न्याय विद्या'''<br />
<br />
*'नीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन स न्याय:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार न्याय वह विद्या है जिसके द्वारा वस्तु का स्वरूप निर्णीत किया जाए। इस व्युत्पत्ति के आधार पर कोई प्रमाण को, कोई लक्षण और प्रमाण को, कोई लक्षण, प्रमाण, नय और निक्षेप को तथा कोई पंचावयव-वाक्य के प्रयोग को न्याय कहते हैं क्योंकि इनके द्वारा वस्तु-प्रतिपत्ति होती है। <br />
*न्यायदीपिकाकार अभिनव धर्मभूषण का मत है कि न्याय प्रमाण और नयरूप है। अपने इस मत का समर्थन वे आचार्य गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्रगत उस सूत्र से करते हैं<ref>'प्रमाणनयैरधिगम:'- त.सू. 1-16</ref>, जिसमें कहा गया है कि वस्तु (जीवादि पदार्थों) का अधिगम प्रमाणों तथा नयों से होता है। प्रमाण और नय इन दो को ही अधिगम का उपाय सूत्रकार ने कहा है। उनका आशय है कि चूँकि प्रत्येक वस्तु अखंड (धर्मी) और सखंड (धर्म) दोनों रूप है। उसे अखंडरूप में ग्रहण करने वाला प्रमाण है और खंडरूप में जानने वाला नय है। अत: इन दो के सिवाय किसी तीसरे ज्ञापकोपाय की आवश्यकता नहीं है। <br />
*न्यायविद्या को 'अमृत' भी कहा गया है।<ref>'न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने।' –अनन्तवीर्य, प्रमेयरत्नमाला पृ. 2,2 श्लो. 2</ref> इसका कारण यह कि जिस प्रकार 'अमृत' अमरत्व को प्रदान करता है उसी प्रकार न्यायविद्या भी तत्त्वज्ञान प्राप्त कराकर आत्मा को अमर (मिथ्याज्ञानादि से मुक्त और सम्यग्ज्ञान से युक्त) बना देती है।<br />
<br />
'''आगमों में न्याय-विद्या'''<br />
<br />
*षट्खंडागम<ref>षट्ख. 5।5।51, शोलापुर संस्करण, 1965</ref> में श्रुत के पर्याय-नामों को गिनाते हुए एक नाम 'हेतुवाद' भी दिया गया है, जिसका अर्थ हेतुविद्या, न्यायविद्या, तर्क-शास्त्र और युक्ति-शास्त्र किया है। <br />
*स्थानांगसूत्र<ref>'अथवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते तं जहा- पच्चक्खे अनुमाने उवमे आगमे। अथवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते। तं जहा-अत्थि तं अत्थि सो हेऊ, अत्थि तं णत्थि सो हेऊ, णत्थि तं अत्थि सो हेऊ णत्थि तं णत्थि सो हेऊ।' –स्थानांग स्.-पृ. 309-310, 338</ref> में 'हेतु' शब्द प्रयुक्त है, जिसके दो अर्थ किये गये हैं- <br />
*प्रमाण-सामान्य; इसके [[प्रत्यक्ष]], अनुमान, उपमान और आगम-ये चार भेद हैं। अक्षपाद गौतम के न्यायसूत्र में भी इन चार का प्रतिपादन है। पर उन्होंने इन्हें प्रमाण के भेद कहे हैं। यद्यपि स्थानांगसूत्रकार को भी हेतुशब्द प्रमाण के अर्थ में ही यहाँ विवक्षित है। <br />
*हेतु शब्द का दूसरा अर्थ उन्होंने अनुमान का प्रमुख अंग हेतु (साधन) किया है। उसके निम्न चार भेद किये हैं-<br />
#विधि-विधि (साध्य और साधन दोनों सद्भव रूप)<br />
#विधि-निषेध (साध्य विधिरूप और साधन निषेधरूप)<br />
#निषेध-विधि (साध्य निषेधरूप और हेतु विधिरूप)<br />
#निषेध-निषेध (साध्य और साधन दोनों निषेधरूप)<br />
इन्हें हम क्रमश: निम्न नामों से व्यवहृत कर सकते हैं-<br />
#विधिसाधक विधिरूप<ref>धर्मभूषण, न्यायदीपिका, पृ. 95-99 दिल्ली संस्करण</ref> अविरुद्धोपलब्धि<ref> माणिक्यनन्दि, परीक्षामुख 3/57-58</ref> <br />
#विधिसाधक निषेधरूप विरुद्धानुपलब्धि<br />
#निषेधसाधक विधिरूप विरुद्धोपलब्धि<br />
#निषेधसाधक निषेधरूप अविरुद्धानुपलब्धि<ref>डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ. 24 का टिप्पणी नं. 3</ref> <br />
इनके उदाहरण निम्न प्रकार दिये जा सकते हैं-<br />
#अग्नि है, क्योंकि धूम है। यहाँ साध्य और साधन दोनों विधि (सद्भाव) रूप हैं।<br />
#इस प्राणी में व्याधि विशेष है, क्योंकि स्वस्थचेष्टा नहीं है। साध्य विधिरूप है और साधन निषेधरूप है।<br />
#यहाँ शीतस्पर्श नहीं है, क्योंकि उष्णता है। यहाँ साध्य निषेधरूप व साधन विधिरूप है।<br />
#यहाँ धूम नहीं है, क्योंकि अग्नि का अभाव है। यहाँ साध्य व साधन दोनों निषेधरूप है। <br />
अनुयोगसूत्र में<ref>)डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार पृ. 25 व उसके टिप्पणी</ref> अनुमान और उसके भेदों की विस्तृत चर्चा उपलब्ध है, जिससे ज्ञात होता है कि आगमों में न्यायविद्या एक महत्त्वपूर्ण विद्या के रूप में वर्णित है। आगमोत्तरवर्ती दार्शनिक साहित्य में तो वह उत्तरोत्तर विकसित होती गई है।<br /><br />
'''प्रमाण और नय'''<br /><br />
*तत्त्वमीमांसा में हेय और उपादेय के रूप में विभक्त जीव आदि सात तत्त्वों का विवेचन हैं। तत्त्व का दूसरा अर्थ वस्तु है।<ref>डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ. 58, 59</ref> यह वस्तुरूप तत्त्व दो प्रकार का है- 1. उपेय और 2. उपाय। उपेय के दो भेद हैं- एक ज्ञाप्य (ज्ञेय) और दूसरा कार्य। जो ज्ञान का विषय होता है वह ज्ञाप्य अथवा ज्ञेय कहा जाता है और जो कारणों द्वारा निष्पाद्य या निष्पन्न होता है वह कार्य है।<br />
*उपाय तत्त्व दो तरह का है- <br />
#कारक, <br />
#ज्ञापक। <br />
*कारक वह है जो कार्य की उत्पत्ति करता है अर्थात कार्य के उत्पादक कारणों का नाम कारक है। कार्य की उत्पत्ति दो कारणों से होती है- <br />
#उपादान और <br />
#निमित्त (सहकारी)। <br />
*उपादान वह है जो स्वयं कार्यरूप परिणत होता है और निमित्त वह है जो उसमें सहायक होता है। उदाहरणार्थ घड़े की उत्पत्ति में मृत्पिण्ड उपादान और दण्ड चक्र, चीवर, कुंभकार प्रभृति निमित्त हैं। <br />
*न्यायदर्शन में इन दो कारणो के अतिरिक्त एक तीसरा कारण भी स्वीकृत है वह है असमवायि पर वह समवायि कारणगत रूपादि और संयोगरूप होने से उसे अन्य दर्शनों में उस से भिन्न नहीं माना। <br />
*ज्ञापकतत्त्व भी दो प्रकार का है-<br />
#प्रमाण<ref>डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार पृ. 58 का मूल व टिप्पणी 1; 'प्रमाणनयैरधिगम:'-त.सू. 1-6 'प्रमाणनयाभ्यां हि विवेचिता जीवादय: पदार्थ: सम्यगधिगम्यन्ते।'- न्या.दी. पृ. 2, वीर सेवामंदिर, दिल्ली संस्करण</ref> और <br />
#नय<ref>'प्रमाणादर्थ संसिद्धिस्तदाभासासाद्विपर्यय:। 'परीक्षामु. श्लो. 1</ref> <br />
<br />
'''प्रमाण-भेद'''<br /><br />
*[[वैशेषिक दर्शन]] के प्रणेता [[कणाद]] ने<ref> वैशेषिक सूत्र 10/1/3</ref> प्रमाण के प्रत्यक्ष और लैंगिक- ये दो भेद स्वीकार किये हैं। उन्होंने इन दो के सिवाय न अन्य प्रमाणों की संभावना की है और न न्यायसूत्रकार अक्षपाद की तरह स्वीकृत प्रमाणों में अन्तर्भाव आदि की चर्चा ही की है। इससे प्रतीत होता है कि प्रमाण के उक्त दो भेदों की मान्यता प्राचीन है। इसके अतिरिक्त चार्वाक ने प्रत्यक्ष को माना और मात्र अनुमान की समीक्षा की है<ref>सर्वदर्शन सं., चार्वाकदर्शन, पृ. 3</ref>,अन्य उपमान, आगम आदि की नहीं। जबकि न्याय सूत्रकार ने<ref>न्यायसूत्र 2/2/1, 2</ref> *प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम (शब्द)- इन चार प्रमाणों को स्वीकार किया है तथा ऐतिह्य, अर्थापत्ति, संभव और अभाव-इन चार का स्पष्ट रूप से उल्लेख करके उनकी अतिरिक्त प्रमाणता की आलोचना की हें साथ ही शब्द में ऐतिह्य का और अनुमान में शेष तीनों का अन्तर्भाव प्रदर्शित किया है। <br />
*कणाद के व्याख्याकार प्रशस्तपाद ने<ref>प्रश. भा., पृ. 106-111</ref> अवश्य उनके मान्य प्रत्यक्ष और लैंगिक इन दो प्रमाणों का समर्थन करते हुए उल्लिखित शब्द आदि प्रमाणों का इन्हीं दो में समावेश किया है तथा चेष्टा, निर्णय, आर्ष (प्रातिभ) और सिद्ध दर्शन को भी इन्हीं दो के अन्तर्गत सिद्ध किया है। यदि वैशेषिक दर्शन से पूर्व न्यायदर्शन या अन्य दर्शन की प्रमाण भेद परम्परा होती, तो चार्वाक उसके प्रमाणों की अवश्य आलोचना करता। इससे विदित होता है कि वैशेषिक दर्शन की प्रमाण-द्वय की मान्यता सब से प्राचीन है। <br />
*वैशेषिकों की<ref>वैशे. सू. 10/1/3</ref>तरह बौद्धों ने<ref>दिग्नाग, प्रमाण समु.प्र.परि.का. 2, पृ. 4</ref> भी प्रत्यक्ष और अनुमान- इन दो प्रमाणों की स्वीकार किया है। <br />
*शब्द सहित तीनों को सांख्यों ने<ref>सांख्य का. 4</ref>, उपमान सहित चारों को नैयायिकों ने<ref>न्याय सू. 1/1/3</ref>और अर्थापत्ति तथा अभाव सहित छह प्रमाणों को जैमिनीयों (मीमांसकों) ने<ref>शावरभा. 1/1/5</ref> मान्य किया है। कुछ काल बाद जैमिनीय दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गये- <br />
#भाट्ट (कुमारिल भट्ट के अनुगामी) और <br />
#प्राभाकर (प्रभाकर के अनुयायी)। <br />
भाट्टों ने छहों प्रमाणों को माना। पर प्राभाकरों ने अभाव प्रमाण को छोड़ दिया तथा शेष पाँच प्रमाणों को अंगीकार किया। इस तरह विभिन्न दर्शनों में प्रमाण-भेद की मान्यताएँ<ref>जैमिने: षट् प्रमाणानि चत्वारि न्यायवादिन:। सांख्यस्य त्रीणि वाच्यानि द्वे वैशेषिकबौद्धयो:॥ - प्रमेयर. 2/2 का टि.</ref> दार्शनिक क्षेत्र में चर्चित हैं।<br /><br />
'''जैन न्याय में प्रमाण-भेद'''<br /><br />
*जैन न्याय में प्रमाण के श्वेताम्बर परम्परा में मान्य भगवती सूत्र<ref>भगवती सूत्र 5/3/191-192</ref> और स्थानांग सूत्र में<ref>स्थानांग सूत्र 338</ref> चार प्रमाणों का उल्लेख है- <br />
#प्रत्यक्ष, <br />
#अनुमान, <br />
#उपमान और <br />
#आगम। <br />
*स्थानांग सूत्र में<ref>स्थानांग सूत्र 185</ref> व्यवसाय के तीन भेदों द्वारा प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणों का भी निर्देश है। <br />
*संभव है [[सिद्धसेन]]<ref>न्यायाव. का 8</ref> और [[हरिभद्र]] के<ref>अनेका.ज.प.टी. पृ. 142, 215</ref> तीन प्रमाणों की मान्यता का आधार यही स्थानांग सूत्र हो। <br />
*श्री पं. दलसुख मालवणिया का विचार है<ref>आगम युग का जैन दर्शन पृ. 136 से 138</ref> कि उपर्युक्त चार प्रमाणों की मान्यता नैयायिकादि सम्मत और तीन प्रमाणों का कन सांख्यादि स्वीकृत परम्परा मूलक हों तो आश्चर्य नहीं। यदि ऐसा हो तो भगवती सूत्र और स्थानांग सूत्र के क्रमश: चार और तीन प्रमाणों की मान्यता लोकानुसरण की सूचक होने से अर्वाचीन होना चाहिए। <br />
*दिगम्बर परम्परा के षड्खंडागम में<ref>भूतबली. पुष्पदन्त, षट्खण्डा. 1/1/15 तथा जैन तर्क शा.अनु.वि. पृ. 71 व इसका नं. 5 टिप्पणी</ref> मात्र तीन ज्ञानमीमांसा उपलब्ध होती है। वहाँ तीन प्रकार के मिथ्या ज्ञान और पाँच प्रकार के सम्यग्ज्ञान को गिनाकर आठ ज्ञानों का निरूपण किया गया है। वहाँ प्रमाणाभास के रूप में ज्ञानों का विभाजन नहीं है और न प्रमाण तथा प्रमाणाभास शब्द ही वहाँ उपलब्ध होते हैं। <br />
*कुन्दकुन्द<ref>नियमसार गा. 10, 11, 12, प्रवचनसार प्रथम ज्ञानाधिकार</ref> के ग्रन्थों में भी ज्ञानमीमांसा की ही चर्चा है, प्रमाण मीमांसा की नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि उस प्राचीनकाल में सम्यक और मिथ्या मानकर तो ज्ञान का कथन किया जाता था, किन्तु प्रमाण और प्रमाणाभास मानकर नहीं, पर एक वर्ग के ज्ञानों को सम्यक और दूसरे वर्ग के ज्ञानों को मिथ्या प्रतिपादन करने से अवगत होता है कि जो ज्ञान सम्यक कहे गये हैं वे सम्यक परिच्छित्ति कराने से प्रमाण तथा जिन्हें मिथ्या बताया गया है वे मिथ्या प्रतिपत्ति कराने से अप्रमाण (प्रमाणाभास) इष्ट है।<ref>यह उस समय की प्रतिपादन शैली थी। वैशेषिक दर्शन के प्रवर्त्तक कणाद ने भी इसी शैली से बुद्धि के अविद्या और विद्या ये दो भेद बतलाकर अविद्या के संशय आदि चार तथा विद्या के प्रत्यक्षादि चार भेद कहे हैं तथा दूषित ज्ञान (मिथ्या ज्ञान) को अविद्या और निर्दोष ज्ञान को-सम्यग्ज्ञान का विद्या का लक्षण कहा है। - वैशे.सू. 9/2/7, 8, 10 से 13 तथा 10/1/3</ref> इसकी संपुष्टि तत्त्वार्थसूत्रकार<ref>त.सू. 1/9, 10</ref> के निम्न प्रतिपादन से भी होती है-<br />
<poem>मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानिज्ञानम्। <br />
तत्प्रमाणे'। 'मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च। -तत्त्वार्थसूत्र 1-9, 10, 31 ।</poem><br />
इस प्रकार सम्यग्ज्ञान या प्रमाण के मति, श्रुत, अवधि आदि पाँच भेदों की परम्परा आगम में उपलब्ध होती है, जो अत्यन्त प्राचीन है और जिस पर लोकानुसरण का कोई प्रभाव नहीं है। <br />
<br />
'''तर्कशास्त्र में परोक्ष के भेद'''<br />
<br />
तर्कशास्त्र में परोक्ष के पाँच भेद माने गये हैं<ref>माणिक्यनन्दि, प. मु. 3-1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10</ref>- <br />
#स्मृति, <br />
#प्रत्यभिज्ञान, <br />
#तर्क, <br />
#अनुमान और <br />
#आगम। यद्यपि आगम में आरम्भ के चार ज्ञानों को मतिज्ञान और आगम को श्रुतज्ञान कहकर दोनों को परोक्ष कहा है और इस तरह तर्कशास्त्र तथा आगम के निरूपणों में अन्तर नहीं है।<br />
<br />
'''स्मृति''' <br />
<br />
पूर्वानुभूत वस्तु के स्मरण को स्मृति कहते हैं। यथा 'वह' इस प्रकार से उल्लिखित होने वाला ज्ञान। यह ज्ञान अविसंवादि होता है, इसलिए प्रमाण है। यदि कदाचित् उसमें विसंवाद हो तो वह स्मृत्याभास है। इसे अप्रमाण नहीं माना जा सकता, अन्यथा व्याप्ति स्मरणपूर्वक होने वाला अनुमान प्रमाण नहीं हो सकता और बिना व्याप्ति स्मरण के अनुमान संभव नहीं है। अत: स्मृति को प्रमाण मानना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है।<ref>विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. 36 व पृ. 42, वीर सेवा. ट्र., वाराणसी</ref><br />
<br />
'''प्रत्यभिज्ञान'''<br />
<br />
अनुभव तथा स्मरणपूर्वक होने वाला जोड़ रूप ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है इसे प्रत्यभिज्ञा, प्रत्यवमर्श और संज्ञा भी कहते हैं। जैसे- 'यह वही देवदत्त हे, अथवा यह (गवय) गौ के समान है, यह (महिष) गौ से भिन्न है, आदि। पहला एकत्व प्रत्यभिज्ञान का उदाहरण है, दूसरा सादृश्य प्रत्यभिज्ञान और तीसरा वैसा दृश्य प्रत्यभिज्ञान का है। संकलनात्मक जितने ज्ञान हैं वे इसी प्रत्यभिज्ञान में समाहित होते हैं। उपमान प्रमाण इसी के सादृश्य प्रत्यभिज्ञान में अन्तर्भूत होता है, अन्यथा वैसा दृश्य आदि प्रत्यभिज्ञान भी पृथक् प्रमाण मानना पड़ेंगे। यह भी प्रत्यक्षादि की तरह अविसंवादी होने से प्रमाण है, अप्रमाण नहीं। यदि कोई प्रत्यभिज्ञान विसंवाद (भ्रमादि) पैदा करता है तो उसे प्रत्यभिज्ञानाभास जानना चाहिए। <br />
<br />
'''तर्क'''<br />
जो ज्ञान अन्वय और व्यतिरेकपूर्वक व्याप्ति का निश्चय कराता है वह तर्क है। इसे ऊह, ऊहा और चिन्ता भी कहा जाता है। 'इसके होने पर ही यह होता है', यह अन्वय है और 'इसके न होने पर यह नहीं होता', यह व्यतिरेक है, इन दोनों पूर्वक यह ज्ञान साध्य के साथ साधन में व्याप्ति का निर्माण कराता है। इसका उदाहरण है- 'अग्नि के होने पर ही धूम होता है, अग्नि के अभाव में धूम नहीं होता' इस प्रकार अग्नि के साथ धूम की व्याप्ति का निश्चय कराना तर्क है। इससे सम्यक अनुमान का मार्ग प्रशस्त होता है। <br />
<br />
'''अनुमान'''<br />
<br />
निश्चित साध्याविनाभावी साधन से होने वाला साध्य का ज्ञान अनुमान कहलाता है।<ref>विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. 45, 46, 47, 48, 49; वीर सेवा. ट्र., वाराणसी</ref> जैसे धूम से अग्नि का ज्ञान करना।<br />
<br />
'''अनुमान के अंग:- साध्य और साधन'''<br />
<br />
इस अनुमान के मुख्य घटक (अंग) दो हैं- <br />
#साध्य और <br />
#साधन। <br />
*साध्य तो वह है, जिसे सिद्ध किया जाता है और वह वही होता है जो शक्य (अबाधित), अभिप्रत (वादी द्वारा इष्ट) और असिद्ध (प्रतिवादी के लिए अमान्य) होता है तथा इससे जो विपरीत (बाधित, अनिष्ट और सिद्ध) होता है वह साध्याभास है, क्योंकि वह साधन द्वारा विषय (निश्चय) नहीं किया जाता। [[अकलंकदेव]] ने साध्य और साध्याभास का लक्षण करते हुए यही लिखा है-<br />
<poem>साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धं ततोऽपरम्।<br />
साध्याभासं विरुद्धादि, साधनाविषयत्वत:॥ न्यायविनिश्चय 2-172</poem><br />
*साधन वह है जिसका साध्य के साथ अविनाभाव निश्चित है- साध्य के होने पर ही होता है, उसके अभाव में नहीं होता। ऐसा साधन ही साध्य का गमक (अनुमापक) होता है। साधन को हेतु और लिङ्ग भी कहा जाता है। माणिक्यनन्दि साधन का लक्षण करते हुए कहते हैं-<br />
साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतु:।<ref>परीक्षामुखसूत्र 3-15</ref>' साध्य के साथ जिसका अविनाभाव निश्चित है वह हेतु है। <br />
<br />
'''अविनाभाव-भेद'''<br />
<br />
अविनाभाव दो प्रकार का है<ref>माणिक्यनन्दि, प.मु. 3-16, 17, 18</ref>-<br />
#सहभाव नियम और <br />
#क्रमभाव नियम। <br />
*जो सहचारी और व्याप्य-व्यापक होते हैं उनमें सहभाव नियम अविनाभाव रहता है। जैसे रूप और रस दोनों सहचारी हैं- रूप के साथ रस और रस के साथ रूप नियम से रहता है। अत: दोनों सहचारी हैं और इसलिए उनमें सहभाव नियम अविनाभाव है तथा शिंशपात्व और वृक्षत्व इन दोनों में व्याप्य-व्यापक भाव है। शिंशपात्व व्याप्य है और वृक्षत्व व्यापक है। शिंशपात्व होने पर वृक्षत्व अवश्य होता है। किन्तु वृक्षत्व के होने पर शिंशपात्व के होने का नियम नहीं है। अतएव सहचारियों और व्याप्य-व्यापक में सहभाव नियम अविनाभाव होता है, जिससे रूप से रस का और शिंशपात्व से वृक्षत्व का अनुमान किया जाता है। <br />
<br />
'''हेतु-भेद'''<br />
<br />
इन दोनों प्रकार के अविनाभाव से विशिष्ट हेतु के भेदों का कथन जैन न्यायशास्त्र में विस्तार से किया गया है, जिसे हमने 'जैन तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार' ग्रन्थ में विशदतया दिया है। अत: उस सबकी पुनरावृत्ति न करके मात्र माणिक्यनन्दि के 'परीक्षामुख' के अनुसार उनका दिग्दर्शन किया जाता है।<ref>माणिक्यनन्दि, प. मु. 3-57 58, 59, 65 से 79 तक</ref><br />
*माणिक्यनन्दि ने अकलंकदेव की तरह आरम्भ में हेतु के मूल दो भेद बतलाये हैं-<br />
#उपलब्धि और <br />
#अनुपलब्धि। <br />
*तथा इन दोनों को विधि और प्रतिषेध उभय का साधक कहा है और इस तरह दोनों के उन्होंने दो-दो भेद कहे हैं। उपलब्धि के- <br />
#अविरुद्धोपलब्धि और <br />
#विरुद्धोपलब्धि <br />
*अनुपलब्धि के- <br />
#अविरुद्धानुपलब्धि और <br />
#विरुद्धानुपलब्धि <br />
*इनके प्रत्येक के भेद इस प्रकार प्रतिपादित किये हैं- <br />
*अविरुद्धोपलब्धि छह- <br />
#व्याप्त, <br />
#कार्य,<br />
#कारण, <br />
#पूर्वचर, <br />
#उत्तरचर और <br />
#सहचर।<br />
*विरुद्धोपलब्धि के भी अविरुद्धोपलब्धि की तरह छह भेद हैं- <br />
#विरुद्ध व्याप्य, <br />
#विरुद्ध कार्य, <br />
#विरुद्ध कारण, <br />
#विरुद्ध पूर्वचर, <br />
#विरुद्ध उत्तरचर और <br />
#विरुद्ध-सहचर। <br />
*अविरुद्धानुपलब्धि प्रतिषेध रूप साध्य को सिद्ध करने की अपेक्षा 7. प्रकार की कही है- <br />
#अविरुद्धस्वभावानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धव्यापकानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धकार्यानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धकारणानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धपूर्वचरानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धउत्तरचरानुपलब्धि और <br />
#अविरुद्धसहचरानुपलब्धि। <br />
*विरुद्धानुपलब्धि विधि रूप साध्य को सिद्ध करने में तीन प्रकार की कही गयी है- <br />
#विरुद्धकार्यानुपलब्धि, <br />
#विरुद्धकारणानुपलब्धि और <br />
#विरुद्धस्वभावानुपलब्धि। <br />
*इस तरह माणिक्यनन्दि ने 6+6+7= 22 हेतुभेदों का सोदाहरण निरूपण किया है, परम्परा हेतुओं की भी उन्होंने संभावना करके उन्हें यथायोग्य उक्त हेतुओं में ही अन्तर्भाव करने का इंगित किया है। साथ ही उन्होंने अपने पूर्वज अकलंक की भांति कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर-इन नये हेतुओं को पृथक् मानने की आवश्यकता को भी सयुक्तिक बतलाया है।<br />
<br />
==आगम (श्रुत)==<br />
शब्द, संकेत, चेष्टा आदि पूर्वक जो ज्ञान होता है वह आगम है। जैसे- 'मेरु आदिक है' शब्दों को सुनने के बाद सुमेरु पर्वत आदि का बोध होता है।<ref>परी.मु. 3-99, 100, 101</ref> शब्द श्रवणादि मतिज्ञान पूर्वक होने से यह ज्ञान (आगम) भी परोक्ष प्रमाण है। इस तरह से स्मृत्यादि पाँचों ज्ञान ज्ञानान्तरापेक्ष हैं। स्मरण में धारणा रूप अनुभव (मति), प्रत्यभिज्ञान में अनुभव तथा स्मरण, तर्क में अनुभव, स्मृति और प्रत्यभिज्ञान, अनुमान में लिंगदर्शन, व्याप्ति स्मरण और आगम में शब्द, संकेतादि अपेक्षित हैं- उनके बिना उनकी उत्पत्ति संभव नहीं है। अतएव ये और इस जाति के अन्य सापेक्ष ज्ञान परोक्ष प्रमाण माने गये हैं।<br />
==नय-विमर्श==<br />
नय-स्वरूप— अभिनव धर्मभूषण ने<ref>न्यायदीपिका, पृ. 5, संपादन डॉ. दरबारीलाल कोठिया, 1945</ref> न्याय का लक्षण करते हुए कहा है कि 'प्रमाण-नयात्मको न्याय:'- प्रमाण और नय न्याय हैं, क्योंकि इन दोनों के द्वारा पदार्थों का सम्यक् ज्ञान होता है। अपने इस कथन को प्रमाणित करने के लिए उन्होंने आचार्य गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्र के, जिसे 'महाशास्त्र' कहा जाता है, उस सूत्र को प्रस्तुत किया है, जिसमें प्रमाण और मय को जीवादि तत्त्वार्थों को जानने का उपाय बताया गया है और वह है- 'प्रमाणनयैरधिगम:<ref>तत्त्वार्थसूत्र, 1-6</ref>'। वस्तुत: जैन न्याय का भव्य प्रासाद इसी महत्त्वपूर्ण सूत्र के आधार पर निर्मित हुआ है। <br />
<br />
'''नय-भेद'''<br />
<br />
उपर्युक्त प्रकार से मूल नय दो हैं<ref>प्रमयरत्नमाला 6/74, पृ. 206, सं. 1928</ref>- <br />
#द्रव्यार्थिक और <br />
#पर्यायार्थिक। <br />
*इनमें द्रव्यार्थिक तीन प्रकार का हैं<ref> प्रमयरत्नमाला, 6/74</ref>-<br />
#नैगम, <br />
#संग्रह, <br />
#व्यवहार। तथा <br />
*पर्यायार्थिक नय के चार भेद हैं<ref>प्रमयरत्नमाला, पृ. 207</ref>-<br />
#ऋजुसूत्र, <br />
#शब्द, <br />
#समभिरूढ़ और <br />
#एवम्भूत। <br />
<br />
'''नैगम नय'''<br />
जो धर्म और धर्मी में एक को प्रधान और एक को गौण करके प्ररूपण करता है वह नैगम नय है। जैसे जीव का गुण सुख है, ऐसा कहना। इसमें 'सुख' धर्म की प्रधानता और 'जीव' धर्मी की गौणता है अथवा यह सुखी जीव है, ऐसा कहना। इसमें 'जीव' धर्मी की प्रधानता है, क्योंकि वह विशेष्य है और 'सुख' धर्म गौण है, क्योंकि वह विशेषण है। इस नय का अन्य प्रकार से भी लक्षण किया गया है। जो भावी कार्य के संकल्प को बतलाता है वह नैगम नय है।<br />
<br />
'''संग्रह नय'''<br />
जो प्रतिपक्ष की अपेक्षा के साथ 'सन्मात्र' को ग्रहण करता है वह संग्रह नय है। जैसे 'सत्' कहने पर चेतन, अचेतन सभी पदार्थों का संग्रह हो जाता है, किन्तु सर्वथा 'सत्' कहने पर 'चेतन, अचेतन विशेषों का निषेध होने से वह संग्रहाभास है। विधिवाद इस कोटि में समाविष्ट होता है। <br />
<br />
'''व्यवहार नय'''<br />
संग्रहनय से ग्रहण किये 'सत्' में जो नय विधिपूर्वक यथायोग्य भेद करता है वह व्यवहारनय है। जैसे संग्रहनय से गृहीत 'सत्' द्रव्य हे या पर्याप्त है या गुण है। पर मात्र कल्पना से जो भेद करता है वह व्यवहारनयाभास है।<br />
<br />
'''ऋजुसूत्र नय''' <br />
भूत और भविष्यत पर्यायों को गौण कर केवल वर्तमान पर्याय को जो नय ग्रहण करता है वह ऋजुसूत्रनय है। जैसे प्रत्येक वस्तु प्रति समय परिणमनशील है। वस्तु को सर्वथा क्षणिक मानना ऋजुसूत्रनय है, क्योंकि इसमें वस्तु में होने वाली भूत और भविष्यत की पर्यायों तथा उनके आधारभूत अन्वयी द्रव्य का लोप हो जाता है। <br />
<br />
'''शब्द नय''' <br />
<br />
जो काल, कारक और लिङ्ग के भेद से शब्द में कथं चित् अर्थभेद को बतलाता है वह शब्दनय है। जैसे 'नक्तं निशा' दोनों पर्यायावाची हैं, किन्तु दोनों में लिंग भेद होने के कथं चित् अर्थभेद है। 'नक्तं' शब्द नंपुसक लिंग है और 'निशा' शब्द स्त्रीलिंग है। 'शब्दभेदात् ध्रुवोऽर्थभेद:' यह नय कहता है। अर्थभेद को कथं चित् माने बिना शब्दों को सर्वथा नाना बतलाकर अर्थ भेद करना शब्दनयाभास हैं <br />
<br />
'''समभिरूढ़ नय'''<br />
<br />
जो पर्याय भेद पदार्थ का कथंचित् भेद निरूपित करता है वह समभिरूढ़ नय है। जैसे इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि शब्द पर्याय शब्द होने से उनके अर्थ में कथं चित् भेद बताना। पर्याय भेद माने बिना उनका स्वतंत्र रूप से कथन करना समभिरूढ नयाभास है।<ref>'तत्र प्रमाणं द्विविधं स्वार्थं परार्थं च। तत्र स्वार्थं प्रमाणं श्रुतवर्ज्यम् श्रुतं पुन: स्वार्थं भवति परार्थं च। - सर्वार्थसिद्धि 1-6, भा. ज्ञा. संस्करण</ref>'<br />
<br />
'''एवंभूत नय'''<br />
<br />
जो क्रिया भेद से वस्तु के भेद का कथन करता है वह एवंभूत नय हैं जैसे पढ़ाते समय ही पाठक या अध्यापक अथवा पूजा करते समय ही पुजारी कहना। यह नय क्रिया पर निर्भर है। इसका विषय बहुत सूक्ष्म है। क्रिया की अपेक्षा न कर क्रिया वाचक शब्दों का कल्पनिक व्यवहार करना एवंभूतनयाभास है।<br />
==जैन दर्शन का उद्भव और विकास==<br />
'''उद्भव'''<br />
*आचार्य भूतबली और पुष्पदन्त द्वारा निबद्ध 'षट्खंडागम' में, जो दृष्टिवाद अंग का ही अंश है, 'सिया पज्जत्ता', 'सिया अपज्जता', 'मणुस अपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया', 'अखंखेज्जा* 'जैसे 'सिया' (स्यात्) शब्द और प्रश्नोत्तरी शैली को लिए प्रचुर वाक्य पाए जाते हैं।<br />
*'षट्खंडागम' के आधार से रचित आचार्य कुन्दकुन्द के 'पंचास्तिकाय', 'प्रवचनसार' आदि आर्ष ग्रन्थों में भी उनके कुछ और अधिक उद्गमबीज मिलते हैं। 'सिय अत्थिणत्थि उहयं', 'जम्हा' जैसे युक्ति प्रवण वाक्यों एवं शब्द प्रयोगों द्वारा उनमें प्रश्नोत्तर पूर्वक विषयों को दृढ़ किया गया है। <br />
'''विकास'''<br />
<br />
काल की दृष्टि से उनके विकास को तीन कालखंडों में विभक्त किया जा सकता है और उन कालखंडों के नाम निम्न प्रकार रखे जा सकते हैं :-<br />
*आदिकाल अथवा समन्तभद्र-काल (ई. 200 से ई. 650)।<br />
*मध्यकाल अथवा अकलंक-काल (ई. 650 से ई. 1050)।<br />
*उत्तरमध्ययुग (अन्त्यकाल) अथवा प्रभाचन्द्र-काल (ई. 1050 से 1700)। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन दर्शन का उद्भव और विकास]]<br />
<br />
==जैन दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ==<br />
आचार्य जिनसेन और गुणभद्र : एक परिचय<br />
*ये दोनों ही आचार्य उस पंचस्तूप नामक अन्वय में हुए हैं जो आगे चलकर सेनान्वय का सेनसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। जिनसेन स्वामी के गुरु वीरसेन ने भी अपना वंश पत्र्चस्तूपान्वय ही लिखा है। परन्तु गुणभद्राचार्य ने सेनान्वय लिखा है। इन्द्रानन्दी ने अपने श्रुतावतार में लिखा है कि जो मुनि पंचस्तूप निवास से आये उनमें से किन्हीं को सेन और किन्हीं को भद्र नाम दिया गया। तथा कोई आचार्य ऐसा भी कहते हैं कि जो गुहाओं से आये उन्हें नन्दी, जो अशोक वन से आये उन्हें देव और जो पंचस्तूप से आये उन्हें सेन नाम दिया गया। श्रुतावतार के उक्त उल्लेख से प्रतीत होता है कि सेनान्त और भद्रान्त नाम वाले मुनियों का समूह ही आगे चलकर सेनान्वय या सेना संघ से प्रसिद्ध हुआ है। <br />
<br />
जिनसेनाचार्य सिद्धान्तशास्त्रों के महान् ज्ञाता थे। इन्होंने कषायप्राभृत पर 40 हज़ार श्लोक प्रमाण जयधवल टीका लिखी है। आचार्य वीरसेन स्वामी उस पर 20 हज़ार श्लोक प्रमाण टीका लिख पाये थे और वे दिवंगत हो गये थे। तब उनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने 40 हज़ार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर उसे पूर्ण किया। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ]]<br />
==जैन दर्शन में अध्यात्म==<br />
'अध्यात्म' शब्द अधि+आत्म –इन दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है कि आत्मा को आधार बनाकर चिन्तन या कथन हो, वह अध्यात्म है। यह इसका व्युत्पत्ति अर्थ हे। यह जगत जैन दर्शन के अनुसार छह द्रव्यों के समुदायात्मक है। वे छह द्रव्य हैं-<br />
*जीव,<br />
*पुद्गल,<br />
*धर्म,<br />
*अधर्म,<br />
*आकाश और<br />
*काल। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन दर्शन में अध्यात्म]]<br />
==जैन तार्किक और उनके न्यायग्रन्थ==<br />
'''बीसवीं शती के जैन तार्किक'''<br />
<br />
बीसवीं शती में भी कतिपय दार्शनिक एवं नैयायिक हुए हैं, जो उल्लेखनीय हैं। इन्होंने प्राचीन आचार्यों द्वारा लिखित दर्शन और न्याय के ग्रन्थों का न केवल अध्ययन-अध्यापन किया, अपितु उनका राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनुवाद एवं सम्पादन भी किया है। साथ में अनुसंधानपूर्ण विस्तृत प्रस्तावनाएँ भी लिखी हैं, जिनमें ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार के ऐतिहासिक परिचय के साथ ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषयों का भी तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक आकलन किया गया है। कुछ मौलिक ग्रन्थ भी हिन्दी भाषा में लिखे गये हैं। सन्तप्रवर न्यायचार्य पं. गणेशप्रसाद वर्णी न्यायचार्य, पं. माणिकचन्द्र कौन्देय, पं. सुखलाल संघवी, डा. पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, पं. कैलाश चन्द्र शास्त्री, पं. दलसुख भाइर मालवणिया एवं इस लेख के लेखक डा. पं. दरबारी लाला कोठिया न्यायाचार्य आदि के नाम विशेष उल्लेख योग्य हैं। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन तार्किक और उनके न्यायग्रन्थ]]<br />
==त्रिभंगी टीका==<br />
#आस्रवत्रिभंगी, <br />
#बंधत्रिभंगी, <br />
#उदयत्रिभंगी और <br />
#सत्त्वत्रिभंगी-इन 4 त्रिभंगियों को संकलित कर टीकाकार ने इन पर [[संस्कृत]] में टीका की है। <br />
*आस्रवत्रिभंगी 63 गाथा प्रमाण है। <br />
*इसके रचयिता श्रुतमुनि हैं। <br />
*बंधत्रिभंगी 44 गाथा प्रमाण है तथा उसके कर्ता नेमिचन्द शिष्य माधवचन्द्र हैं। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[त्रिभंगी टीका]]<br />
==पंचसंग्रह टीका==<br />
मूल पंचसंग्रह नामक यह मूलग्रन्थ [[प्राकृत]] भाषा में है। इस पर तीन [[संस्कृत]]-टीकाएँ हैं। <br />
#श्रीपालसुत डड्ढा विरचित पंचसंग्रह टीका, <br />
#आचार्य अमितगति रचित संस्कृत-पंचसंग्रह, <br />
#सुमतकीर्तिकृत संस्कृत-पंचसंग्रह। <br />
*पहली टीका दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह का संस्कृत-अनुष्टुपों में परिवर्तित रूप है। इसकी श्लोक संख्या 1243 है। कहीं कहीं कुछ गद्यभाग भी पाया जाता है, जो लगभग 700 श्लोक प्रमाण है। इस तरह यह लगभग 2000 श्लोक प्रमाण है। यह 5 प्रकरणों का संग्रह है। वे 5 प्रकरण निम्न प्रकार हैं- <br />
#जीवसमास, <br />
#प्रकृतिसमुत्कीर्तन, <br />
#कर्मस्तव, <br />
#शतक और <br />
#सप्ततिका। <br />
*इसी तरह अन्य दोनों संस्कृत टीकाओं में भी समान वर्णन है। <br />
*विशेष यह है कि आचार्य अमितगति कृत पंचसंग्रह का परिमाण लगभग 2500 श्लोक प्रमाण है। तथा सुमतकीर्ति कृत पंचसंग्रह अति सरल व स्पष्ट है। <br />
*इस तरह ये तीनों टीकाएँ संस्कृत में लिखी गई हैं और समान होने पर भी उनमें अपनी अपनी विशेषताएँ पाई जाती हैं। <br />
*कर्म साहित्य के विशेषज्ञों को इन टीकाओं का भी अध्ययन करना चाहिए। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[पंचसंग्रह टीका]]<br />
==मन्द्रप्रबोधिनी==<br />
*शौरसेनी [[प्राकृत|प्राकृत भाषा]] में आचार्य नेमिचन्द्र सि0 चक्रवर्ती द्वारा निबद्ध गोम्मटसार मूलग्रन्थ की [[संस्कृत भाषा]] में रची यह एक विशद् और सरल व्याख्या है। इसके रचयिता अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती हैं। यद्यपि यह टीका अपूर्ण है किन्तु कर्मसिद्धान्त को समझने के लिए एक अत्यन्त प्रामाणिक व्याख्या है। केशववर्णी ने इनकी इस टीका का उल्लेख अपनी कन्नडटीका में, जिसका नाम कर्नाटकवृत्ति है, किया है। इससे ज्ञात होता है कि केशववर्णी ने उनकी इस मन्दप्रबोधिनी टीका से लाभ लिया है। <br />
*गोम्मटसार आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा लिखा गया कर्म और जीव विषयक एक प्रसिद्ध एवं महत्त्वपूर्ण प्राकृत-ग्रन्थ है। इसके दो भाग हैं- <br />
#एक जीवकाण्ड और <br />
#दूसरा कर्मकाण्ड। <br />
जीवकाण्ड में 734 और कर्मकाण्ड में 972 शौरसेनी-प्राकृत भाषाबद्ध गाथाएं हैं। कर्मकाण्ड पर संस्कृत में 4 टीकाएं लिखी गई हैं। वे हैं- <br />
#[[गोम्मट पंजिका]], <br />
#मन्दप्रबोधिनी, <br />
#कन्नड़ संस्कृत मिश्रित जीवतत्त्वप्रदीपिका, <br />
#संस्कृत में ही रचित अन्य नेमिचन्द्र की जीवतत्त्वप्रदीपिका। इन टीकाओं में विषयसाम्य है पर विवेचन की शैली इनकी अलग अलग हैं। भाषा का प्रवाह और सरलता इनमें देखी जा सकती है। <br />
आगे विस्तार में पढ़ें:- [[मन्द्रप्रबोधिनी]]<br />
{{संदर्भ ग्रंथ}}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
{{प्रचार}}<br />
==संबंधित लेख==<br />
{{जैन धर्म}}{{संस्कृत साहित्य}}{{जैन धर्म2}}{{दर्शन शास्त्र}}<br />
[[Category:दर्शन कोश]]<br />
<br />
[[Category:जैन दर्शन]] <br />
__INDEX__<br />
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<hr />
<div>{{Navbox<br />
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|title =[[जैन दर्शन और उसका उद्देश्य|जैन दर्शन का उद्देश्य]]<br />
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}}<noinclude>[[Category:जैन धर्म के साँचे]]</noinclude></div>हिमानीhttps://en.bharatdiscovery.org/w/index.php?title=%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8_%E0%A4%A6%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6%E0%A4%A8_%E0%A4%94%E0%A4%B0_%E0%A4%89%E0%A4%B8%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%89%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%AF&diff=209556जैन दर्शन और उसका उद्देश्य2011-08-22T10:54:19Z<p>हिमानी: /* जैन दर्शन के प्रमुख अंग */</p>
<hr />
<div>__TOC__*'कर्मारातीन् जयतीति जिन:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिसने राग द्वेष आदि शत्रुओं को जीत लिया है वह 'जिन' है। <br />
*अर्हत, अरहन्त, जिनेन्द्र, वीतराग, परमेष्ठी, आप्त आदि उसी के पर्यायवाची नाम हैं। उनके द्वारा उपदिष्ट दर्शन जैनदर्शन हैं। <br />
*आचार का नाम धर्म है और विचार का नाम दर्शन है तथा युक्ति-प्रतियुक्ति रूप हेतु आदि से उस विचार को सुदृढ़ करना न्याय है।<br />
* जैन दर्शन का निर्देश है कि आचार का अनुपालन विचारपूर्वक किया जाये। धर्म, दर्शन और न्याय-इन तीनों के सुमेल से ही व्यक्ति के आध्यात्मिक उन्नयन का भव्य प्रासाद खड़ा होता है। *अत: जैन धर्म का जो 'आत्मोदय' के साथ 'सर्वोदय'- सबका कल्याण उद्दिष्ट है।<ref>सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव–समन्तभद्र युक्त्यनु. का. 61</ref> उसका समर्थन करना जैन दर्शन का लक्ष्य हैं जैन धर्म में अपना ही कल्याण नहीं चाहा गया है, अपितु सारे राष्ट्र, राष्ट्र की जनता और विश्व के जनसमूह, यहाँ तक कि प्राणीमात्र के सुख एवं कल्याण की कामना की गई है।<ref>क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपाल:<br />
काले वर्ष प्रदिशतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम्।<br />
दुर्भिक्षं चौरमारी क्षणमपि जगतां मा स्म भूज्जीवलोके,<br />
जैनेन्द्रं धर्मचक्रं प्रभवतु सततं सर्वसौख्यप्रदायि॥</ref><br />
{{tocright}}<br />
==जैन दर्शन के प्रमुख अंग==<br />
#[[द्रव्य मीमांसा -जैन दर्शन|द्रव्य-मीमांसा]]<br />
#[[तत्त्व मीमांसा -जैन दर्शन|तत्त्व-मीमांसा]]<br />
#[[पदार्थ मीमांसा -जैन दर्शन|पदार्थ-मीमांसा]]<br />
#[[पंचास्तिकाय मीमांसा -जैन दर्शन|पंचास्तिकाय-मीमांसा]]<br />
#[[अनेकान्त विमर्श -जैन दर्शन|अनेकान्त-विमर्श]]<br />
#[[स्याद्वाद विमर्श -जैन दर्शन|स्याद्वाद विमर्श]]<br />
#[[सप्तभंगी विमर्श -जैन दर्शन|सप्तभंगी विमर्श]]<br />
<br />
==द्रव्य-मीमांसा==<br />
{{main|द्रव्य मीमांसा -जैन दर्शन}}<br />
वैशेषिक, भाट्ट और प्रभाकर दर्शनों में द्रव्य और पदार्थ दोनों को स्वीकार कर उनका विवेचन किया गया है। तथा [[सांख्य दर्शन]] और [[बौद्ध दर्शन|बौद्ध दर्शनों]] में क्रमश: तत्त्व और आर्य सत्यों का कथन किया गया है, [[वेदान्त दर्शन]] में केवल ब्रह्म (आत्मतत्व) और [[चार्वाक दर्शन]] में भूत तत्त्वों को माना गया है, वहाँ जैन दर्शन में द्रव्य, पदार्थ, तत्त्व, और अस्तिकाय को स्वीकार कर उन सबका पृथक्-पृथक् विस्तृत निरूपण किया गया है।<ref>त्रैकाल्यं द्रव्यषट्कं नवपदसहितं जीवषट्काय - लेश्या:,<br />
पंचान्ये चास्तिकाया व्रत समिति-गति-ज्ञान- चारित्रभेदा:।<br />
इत्येतन्मोक्षमूलं त्रिभुवनमहितै: प्रोक्तमर्हदिभरीशै:<br />
प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान् य: स वै शुद्धदृष्टि:॥ - स्तवनसंकलन।</ref> <br />
*जो ज्ञेय के रूप में वर्णित है और जिनमें हेय-उपादेय का विभाजन नहीं है पर तत्त्वज्ञान की दृष्टि से जिनका जानना ज़रूरी है तथा गुण और पर्यायों वाले हैं एवं उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त हैं, वे द्रव्य हैं। <br />
*तत्त्व का अर्थ मतलब या प्रयोजन है। जो अपने हित का साधक है वह उपादेय है और जो आत्महित में बाधक है वह हेय है। उपादेय एवं हेय की दृष्टि से जिनका प्रतिपादन के उन्हें तत्त्व कहा गया है। <br />
*भाषा के पदों द्वारा जो अभिधेय है वे पदार्थ हैं। उन्हें पदार्थ कहने का एक अभिप्राय यह भी है कि 'अर्थ्यतेऽभिलष्यते मुमुक्षुभिरित्यर्थ:' मुमुक्षुओं के द्वारा उनकी अभिलाषा की जाती है, अत: उन्हें अर्थ या पदार्थ कहा गया है। <br />
*अस्तिकाय की परिभाषा करते हुए कहा है कि जो 'अस्ति' और 'काय' दोनों है। 'अस्ति' का अर्थ 'है' है और 'काय' का अर्थ 'बहुप्रदेशी' है अर्थात जो द्रव्य है' होकर कायवाले- बहुप्रदेशी हैं, वे 'अस्तिकाय' हैं।<ref>पंचास्तिकाय, गा. 4-5 द्रव्य सं. गा. 24</ref> ऐसे पाँच द्रव्य हैं- <br />
#पुद्गल<br />
#धर्म<br />
#अधर्म<br />
#आकाश<br />
#जीव<br />
#कालद्रव्य एक प्रदेशी होने से अस्तिकाय नहीं है।<br />
<br />
==तत्त्व मीमांसा==<br />
तत्त्व का अर्थ है प्रयोजन भूत वस्तु। जो अपने मतलब की वस्तु है और जिससे अपना हित अथवा स्वरूप पहचाना जाता है वह तत्त्व है। 'तस्य भाव: तत्त्वम्' अर्थात वस्तु के भाव (स्वरूप) का नाम तत्त्व है। ऋषियों या शास्त्रों का जितना उपदेश है उसका केन्द्र जीव (आत्मा) रहा है। उपनिषदों में आत्मा के दर्शन, श्रवण, मनन और ध्यान पर अधिक बल दिया गया है और इनके माध्यम से आत्मा के साक्षात्कार की बात कही गयी है<ref>श्रोतव्य:श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभि:। मत्वा च स्ततं ध्येय एते दर्शनहेतव:॥</ref>। जैन दर्शन तो पूरी तरह आध्यात्मिक है। अत: इसमें आत्मा को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है।<ref> कुन्दकुन्द, मोक्ष प्राभृत गा. 4, 5, 6, 7</ref> <br />
#बहिरात्मा, <br />
#अन्तरात्मा और <br />
#परमात्मा। <br />
*मूढ आत्मा को बहिरात्मा, जागृत आत्मा को अन्तरात्मा और अशेष गुणों से सम्पन्न आत्मा को परमात्मा कहा गया है। ये एक ही आत्मा के उन्नयन की विकसित तीन श्रेणियाँ हैं। जैसे एक आरम्भिक अबोध बालक शिक्षक, पुस्तक, पाठशाला आदि की सहायता से सर्वोच्च शिक्षा पाकर सुबोध बन जाता है वैसे ही एक मूढात्मा सत्संगति, सदाचार-अनुपालन, ज्ञानाभ्यास आदि को प्राप्त कर अन्तरात्मा (महात्मा) बन जाता है और वही ज्ञान, ध्यान तप आदि के निरन्तर अभ्यास से कर्म-कलङ्क से मुक्त होकर परमात्मा (अरहन्त व सिद्ध रूप ईश्वर) हो जाता है। इस दिशा में जैन चिन्तकों का चिन्तन, आत्म विद्या की ओर लगाव अपूर्व है।<br />
*आचार्य गृद्धपिच्छ ने<ref>गृद्धपिच्छ, त.सू. 1-2, 4; द्र.सं. गा. 28</ref> तत्त्वार्थसूत्र<ref>गृद्धपिच्छ, त.सू. 1-2, 4; द्र. सं. गा. 28</ref> में, जो 'अर्हत् प्रवचन' के नाम से प्रसिद्ध है, लिखा है तत्त्वार्थ की श्रद्धा सम्यक् दर्शन है। सही रूप में तभी देखा परखा जा सकता है जब तत्त्वार्थ की श्रद्धा हो। ये तत्त्वार्थ (तत्त्व) सात हैं<ref>द्र. सं. गा. 3, 4, 5; त. सू. 2-8, 9; पंचास्ति, गा. 40, 41, 42</ref>- <br />
#जीव, <br />
#अजीव, <br />
#आस्त्रव, <br />
#बंध, <br />
#संवर, <br />
#निर्जरा और <br />
#मोक्ष। <br />
*जीव तत्त्व— यह सर्वोपरि प्रतिष्ठित और शाश्वत तत्त्व है। यह चेतना लक्षण वाला है, ज्ञाता-दृष्टा है और अनंतगुणों से सम्पन्न है। चेतना वह प्रकाश है जिसमें चेतन-अचेतन सभी पदार्थों को प्रकाशित करने की शक्ति है। वह दो प्रकार की है- <br />
#ज्ञानचेतना (ज्ञानोपयोग) और <br />
#दर्शनचेतना (दर्शनोपयोग) विशेष-ग्रहण का नाम ज्ञान-चेतना है और पदार्थ के सामान्य-ग्रहण का नाम दर्शनचेतना है। <br />
*ज्ञान चेतना के आठ भेद हैं- 1. मति, 2. श्रुत, 3. अवधि-ये तीन ज्ञान सम्यक् दर्शन के साथ होने पर सम्यक् होते हैं। और मिथ्यादर्शन के साथ होने पर मिथ्या भी होते हैं। इस तरह 1. सम्यक् मतिज्ञान, 2. सम्यक् श्रुतवान, 3. सम्यक् अवधिज्ञान, 4. मिथ्यामतिज्ञान, 5. मिथ्याश्रुतज्ञान 6. मिथ्या अवधिज्ञान (विभंगावधि), 7. मन:पर्ययज्ञान और 8 केवलज्ञान ये आठ ज्ञानोपयोग हैं। अंतिम दोनों ज्ञान सम्यक ही होते हैं, वे मिथ्या नहीं होते।<br />
*इन्द्रिय और मन की सहायता से जो ज्ञान होता है वह मतिज्ञान है। और इस मतिज्ञानपूर्वक जो उत्तरकाल में चिन्तनात्मक ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है। इन्द्रिय और मन निरपेक्ष एवं आत्मसापेक्ष जो मूर्तिक (पुद्गल) का सीमायुक्त ज्ञान होता है वह अवधिज्ञान है। इस अवधिज्ञान के द्वारा जाने गए पदार्थ के अनंतवें भाग को जो ज्ञान जानता है वह मन:पर्ययज्ञान है। भूत, भविष्यत और वर्तमान तीनों कालों से संबंधित और तीनों लोकों में विद्यमान समग्र पदार्थों को युगपत् जानने वाला ज्ञान केवलज्ञान कहा गया है। यह ज्ञान जिसे हो जाता है वह वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा कहा जाता है। इन ज्ञानों के अवान्तर भेद भी जैनदर्शन में प्रतिपादित हैं, जो ज्ञातव्य हैं। <br />
*दर्शन चेतना के चार भेद हैं<ref>पंचास्ति गा. 42; स. सि. 2-9; द्रव्यसं. गा. 4</ref>- 1.चक्षुर्दर्शन, 2. अचक्षुर्दर्शन, 3. अवधिदर्शन और 4. केवलदर्शन। नेत्रों से होने वाला पदार्थ का सामान्य दर्शन चक्षुर्दर्शन है और शेष इन्द्रियों एवं मन से होने वाला सामान्य दर्शन अचक्षुर्दर्शन है। अवधिज्ञान से पूर्व जो दर्शन होता है वह अवधिदर्शन है। केवल ज्ञान के साथ ही जो समस्त वस्तुओं का युगपत् दर्शन होता है वह केवलदर्शन है। यह जीवतत्त्व आध्यात्मिक दृष्टि से तीन प्रकार का है<ref>कुन्दकुन्द, अष्टपा., मोक्ष प्रा. गा. 4, 5, 6, 7</ref> अर्थात इनके उत्थान की तीन श्रेणियां हैं। वे है- 1. बहिरात्मा, 2. अन्तरात्मा, और 3. परमात्मा। <br />
*[[गीता]] में सम्भवत: ऐसे ही अन्तरात्मा को 'स्थितप्रज्ञ' कहा गया है। यह अन्तरात्मा भी तीन प्रकार है<ref>दौलतराम छह-ढाला 3-4, 5, 6</ref>2)- 1. जघन्य, 2. मध्यम और 3. उत्तम। मिथ्यात्व का त्याग कर जिसने सम्यक्त्य (स्वयरभेद श्रद्धा) को प्राप्त कर लिया है, पर त्याग के मार्ग में अभी प्रवृत्त नहीं हो सका वह जघन्य अन्तरात्मा है। इसे जैन परिभाषा में 'अविरत-सम्यग्दृष्टि' कहा जाता है। <br />
*आचार्य [[समन्तभद्र (जैन)|समन्तभद्र]] ने लिखा है कि तपस्वी (साधु) वही है ज्ञान, ध्यान और तप में लवलीन रहता है- 'ज्ञान-ध्यान-तपो रक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते।' यही उत्तम अन्तरात्मा तप और ध्यान द्वारा नवीन पुरातन कर्मों को निर्जीर्ण करके जब कर्मकलङ्क से मुक्त हो जाता है तो वह परमात्मा कहा जाता है। फिर उसे संसार परिभ्रमण नहीं करना पड़ता। अनन्त काल तक वह अपने अनन्त गुणों में लीन होकर शाश्वत सुख (नि:श्रेयस) का अनुभव करता है। जैन दर्शन में मुक्त जीवों की अवस्थिति लोक के अग्रभाग (सिद्धशिला) में मानी गयी है।<ref>नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव, द्रव्यसं. गा. 14</ref><br />
*गुणस्थान- उल्लेखनीय है कि इस जीव तत्त्व के आध्यात्मिक विकास या उन्नयन की चौदह श्रेणियां जैन आगमों में निरूपित हैं।<ref>नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव, द्रव्यसं.4, गा. 13</ref> जिन्हें 'गुणस्थान' (आत्मगुणों को विकसित करने के दर्जे) संज्ञा दी गयी है। वे हैं- <br />
#मिथ्यात्व, <br />
#सासादन, <br />
#मिश्र, <br />
#अविरत, <br />
#देशविरत, <br />
#सर्वविरत, <br />
#अप्रमत्तसंयत, <br />
#अपूर्वकरण, <br />
#अनिवृत्तिकरण, <br />
#सूक्ष्मसाम्पराय, <br />
#उपशान्त मोह, <br />
#क्षीण मोह, <br />
#सयोग केवली और <br />
#अयोग केवली। <br />
इन चौदह गुणस्थानों में बारहवें गुणस्थान तक जीव संसारी कहलाता है। किन्तु निश्चय ही वह तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त करेगा और वहां तथा चौदहवें गुणस्थान में वह 'परमात्मा' संज्ञा को प्राप्त कर लेता है तथा कुछ ही क्षणों में गुणस्थानातीत होकर 'सिद्ध' हो जाता है।<br />
*अजीव तत्त्व- यों तो जीव के सिवाय सभी द्रव्य (पुद्गल आदि पांचों) अजीव हैं। उनमें किसी में भी चेतना न होने से अचेतन हैं। उनका विवेचन द्रव्य-मीमांसा में किया जा चुका है। पर यहाँ उस अजीव से मतलब है, जो जीव को अनादि से बन्धनबद्ध किये हुए है और जिससे ही वस्तुत: जीव को छुटकारा पाना है। वह है पुद्गल, और पुद्गलों में भी सभी पुद्गल नहीं क्योंकि वे तो छूटे हुए ही हैं। किन्तु कार्माणवर्गणा के जो कर्मरूप परिणत पुद्गल स्कन्ध है और जो जीव के कषाय एवं योग के निमित्त से उससे बंधे है। तथा प्रतिसमय बंध रहे हैं। उन कर्म रूप पुद्गल स्कन्धों की यहाँ अजीव तत्त्व से विवक्षा है, जिन्हें तत्त्वार्थसूत्रकार गृद्धपिच्छ ने 'भेत्तारं कर्मभूभृताम्' पद के द्वारा 'कर्मभूभृत्' कहा है। इन्हें ही हेय ज्ञात कर आत्मा से दूर करना है। जैन दर्शनों में इन कर्मों को ज्ञानावरण आदि आठ भागों में विभक्त किया गया है। आत्मदर्शन, स्वरूपोपलब्धि सिद्धत्व आदि आत्मगुण उन्हीं के कारण अवरुद्ध रहते हैं। <br />
*आस्त्रव तत्त्व— जिनके द्वारा आत्मा में कर्मस्कन्धों का प्रवेश होता है उन्हें आस्त्रव कहा गया है। यह दो प्रकार का है<ref>नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव, द्रव्यसं., गा. 29, 30</ref><br />
#भावास्त्रव और <br />
#द्रव्यास्त्रव। <br />
आत्मा के जिन कलुषितभावों या मन, वचन और शरीर की क्रिया से कर्म आते हैं उन भावों तथा मन, वचन और शरीर की क्रिया को भावास्त्रव तथा कर्मागमन को द्रव्यास्त्रव प्रतिपादित किया गया है। भावास्त्रव के अनेक भेद हैं- 1. मिथ्यात्व 2. अविरति, 3. प्रमाद, 4. कषाय और 5.योग। इनमें मिथ्यात्व के 5, अविरति के 5, प्रमाद के 15, कषाय के 4 और योग के 3 कुल 32 भेद हैं। ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के योग्य जो कार्माणवर्गणा के पुद्गलस्कन्ध आते हैं उनमें कर्मरूप शक्ति होना द्रव्यास्त्रव है। इनके ज्ञानावरण आदि आठ मूलभेद हैं और उनके उत्तरभेद एक सौ अड़तालीस हैं। <br />
*बन्ध तत्त्व— आत्मा के जिन अशुद्ध भावों से कर्म आत्मा से बंधें वे अशुद्ध भाव (राग, द्वेष, छल-कपट, क्रोध मान आदि) भावबंध हैं ये अशुद्ध भाव कर्म व आत्मा को परस्पर चिपकाने (बांधने) में गोंद का कार्य करते हैं। कर्म पुद्गलों तथा आत्मा के प्रदेशों का जो अन्योन्य प्रवेश है। दूध-पानी की तरह उनका घुल-मिल जाना है वह द्रव्य बन्ध है। एक दूसरी तरह से भी बंध के भेद कहे गए हैं<ref>नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव, द्रव्यसं., गा. 32, 33</ref>। वे हैं- <br />
#प्रकृति, <br />
#स्थिति, <br />
#अनुभाग और <br />
#प्रदेश। <br />
इनमें प्रकृति और प्रदेश योगों (शरीर, वचन और मन की क्रियाओं) से होते हैं। स्थिति एवं अनुभाव कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ) के निमित्त् से होते हैं। <br />
*संवरतत्त्व— आस्त्रव तत्त्व के कथन में जिन आस्त्रवों को (कर्म के आने के द्वारों को) कहा गया है उनको रोक देना संवर है।<ref>गृद्धपिच्छ, स.सू. 9-1; द्रव्यसं. गा. 34, 35</ref> कर्म के द्वार बन्द हो जाते हैं तब कर्म आत्मा में प्रवेश नहीं कर सकते। जैसे- सछिद्र जलयान (नाव आदि) के छोटे-बड़े सब छिद्र बंद कर देने पर जलयान में जल का प्रवेश नहीं होता। संवर नये कर्मों का प्रवेश रोकता है। इसके कई प्रकार हैं। व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र- ये उसके भेद हैं, जो आगत कर्मों को आत्मा में आने नहीं देते।<br />
*निर्जरा तत्त्व— ज्ञात-अज्ञात में आये कर्मों को तप आदि के द्वारा बाहर निकालने का जो प्रयत्न है वही निर्जरा है। यह सविपाक और अविपाक के भेद से दो प्रकार की है।<ref>द्रव्य सं. गा. 36; त.सू. 9-3, 19, 20</ref> जो कर्म अपना फल देकर चला जाता हे वह सविपाक निर्जरा हैं। यह निर्जरा प्रत्येक जीव के प्रति समय होती रहती है, पर इससे बंधन नहीं टूटता है। तप के द्वारा जो बंधन तोड़ा जाता है वह अविपाक निर्जरा है। जीव को अपने उद्धार के लिए यही निर्जरा सार्थक होती है। अर्थात उसी से शिवफल (मोक्ष) प्राप्त होता है। <br />
*मोक्ष तत्त्व— यह वह तत्त्व एवं तथ्य है जिसके लिए मुमुक्ष अनेक भवों से प्रयत्न करते हैं। कर्म दो प्रकार के हैं। एक वे जो अतीतकाल से संबंध रखते हैं और अनादिकाल से बंधे चले आ रहे हैं तथा दूसरे वे हैं जो आगामी हैं। आगामी कर्मों का अभाव बंध हेतुओं (आस्त्रव) के अभाव (संवर) से होता है। अतीत संबंधी (पूर्वोपात्त) कर्मों का अभाव निर्जरा द्वारा होता है। इस प्रकार समस्त कर्मों का छूट जाना मोक्ष है।<ref>तत्त्व सूत्र 10-2, 3, द्रव्य सं. गा. 37</ref> यही शुद्ध अवस्था जीव की वास्तविक अपनी अवस्था है, जो सादि होकर अनंत है। इसी को प्राप्त करने के लिए आत्मा बाह्य और आभ्यंतर तपों, उत्तम क्षमादि धर्मों एवं चारों शुक्लध्यानों को करता है और नाना उपसर्गों एवं परीषहों को सहनकर उन पर विजय पाता है। द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म- इन तीनों प्रकार के कर्मों से रहित हो जाने पर आत्मा 'सिद्ध' हो जाता है।<br />
<br />
==पदार्थ मीमांसा==<br />
उक्त सात तत्त्वों में पुण्य और पाप को सम्मिलित कर देने पर नौ पदार्थ कहे गए हैं।<ref>जीवा जीवा भावा पुण्णं पावं च आसवं तेसिं। संवर-णिज्जर बंधो मोक्खो य हवंति ते अट्ठ॥–पंचास्ति., गा. 108</ref> इन नौ पदार्थों का प्रतिपादन आचार्य कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय (गाथा 108) में सर्वप्रथम दृष्टिगोचर होता है। उसके बाद नेमिचन्द्र सिद्धांतिदेव ने भी उनका अनुसरण किया है।<ref>द्रव्य सं. गा. 28 । 'इह पुण्यपापग्रहणं कर्त्तव्यम्, नव पदार्था इत्यन्यैरप्युक्तत्वान्॥</ref> तत्त्वार्थ सूत्रकार ने सात तत्त्वों के श्रद्धान को सम्यक्दर्शन कहकर उन सात तत्त्वों की ही प्ररूपणा की है। नौ पदार्थों की उन्होंने चर्चा नहीं की<ref>तत्त्व सूत्र 1-4</ref> यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र के आठवें अध्याय के अन्त में उन्होंने पुण्य और पाप दोनों का कथन किया है। किन्तु वहाँ उनका पदार्थ के रूप में निरूपण नहीं है। बल्कि बंधतत्त्व का वर्णन करने वाले इस अध्याय में समग्र कर्म प्रकृतियों को पुण्य और पाप दो भागों में विभक्तकर साता वेदनीय, शुभायु:, शुभनाम और शुभगोत्र को पुण्य तथा असातावेदनीय, अशुभायु:, अशुभनाम और अशुभगोत्र को पाप कहा है।<ref> तत्त्व सूत्र 8-25, 26</ref> ध्यान रहे यह विभाजन अघातिप्रकृतियों की अपेक्षा है, घातिप्रकृतियों की अपेक्षा नहीं, क्योंकि वे सभी (47) पाप-प्रकृतियां ही हैं।)<br />
==पंचास्तिकाय मीमांसा==<br />
जैन दर्शन में उक्त द्रव्य, तत्त्व और पदार्थ के अलावा अस्तिकायों का निरूपण किया गया है। कालद्रव्य को छोड़कर शेष पांचों द्रव्य (पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकश और जीव) अस्तिकाय हैं<ref>द्रव्य सं. गा. 23, 24, 25</ref> क्योंकि ये 'हैं' इससे इन्हें 'अस्ति' ऐसी संज्ञा दी गई है और काय (शरीर) की तरह बहुत प्रदेशों वाले हैं, इसलिए ये 'काय' हैं। इस तरह ये पांचों द्रव्य 'अस्ति' और 'काय' दोनों होने से 'अस्तिकाय' कहे जाते हैं। पर कालद्रव्य 'अस्ति' सत्तावान होते हुए भी 'काय' (बहुत प्रदेशों वाला) नहीं है। उसके मात्र एक ही प्रदेश हैं। इसका कारण यह है कि उसे एक-एक अणुरूप माना गया है और वे अणुरूप काल द्रव्य असंख्यात हैं, क्योंकि वे लोकाकाश के, जो असंख्यात प्रदेशों वाला है, एक-एक प्रदेश पर एक-एक जुदे-जुदे रत्नों की राशि की तरह अवस्थित हैं। जब कालद्रव्य अणुरूप है तो उसका एक ही प्रदेश है इससे अधिक नहीं। अन्य पाँचों द्रव्यों में प्रदेश बाहुल्य है, इसी से उन्हें 'अस्तिकाय' कहा गया है और कालद्रव्य को अनस्तिकाय।<br />
==अनेकान्त विमर्श==<br />
'अनेकान्त' जैनदर्शन का उल्लेखनीय सिद्धान्त है। वह इतना व्यापक है कि वह लोक (लोगों) के सभी व्यवहारों में व्याप्त है। उसके बिना किसी का व्यवहार चल नहीं सकता। आचार्य [[सिद्धसेन]] ने कहा है<ref>जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वडइ।<br /> तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमोऽणेयंत वायस्स॥ - सिद्धसेन। </ref> कि लोगों के उस आद्वितीय गुरु अनेकान्तवाद को हम नमस्कार करते हैं, जिसके बिना उनका व्यवहार किसी तरह भी नहीं चलता। अमृतचन्द्र उसके विषय में कहते है<ref>परमागमस्य जीवं निषिद्धजात्यन्ध- सिन्धुरविधानम्।<br /> सकल-नय-विलसितानां विरोधमथानं नमाम्यनेकान्तम्॥ -अमृतचन्द्र, पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, श्लो. 1।</ref> कि अनेकान्त परमागम जैनागम का प्राण हे और वह वस्तु के विषय में उत्पन्न एकान्तवादियों के विवादों को उसी प्रकार दूर करता है जिस प्रकार हाथी को लेकर उत्पन्न जन्मान्धों के विवादों को उसी प्रकार दूर करता है जिस प्रकार हाथी को लेकर उत्पन्न जन्मान्धों के विवादों को सचक्षु: (नेत्रवाला) व्यक्ति दूर कर देता है। समन्तभद्र का कहना है<ref>एकान्त धर्माभिनिवेशमूला रागादयोऽहं कृतिजा जनानाम्।<br />एकान्तहानाच्च स यत्तदेव स्वाभाविकत्वाच्च समं मनस्ते॥ - समन्तभद्र, युक्तयनुशासन कारिका 51</ref> कि वस्तु को अनेकान्त मानना क्यों आवश्यक है? वे कहते हैं कि एकान्त के आग्रह से एकान्त समझता है कि वस्तु उतनी ही है, अन्य रूप नहीं है, इससे उसे अहंकर आ जाता है और अहंकार से उसे राग, द्वेष आदि उत्पन्न होते हैं, जिससे उसे वस्तु का सही दर्शन नहीं होता। पर अनेकान्ती को एकानत का आग्रह न होने से उसे न अहंकार पैदा होता है और न राग, द्वेष आदि उत्पन्न होते हैं। फलत: उसे उस अनन्तधर्मात्मक अनेकान्त रूप वस्तु का सम्यक्दर्शन होता है, क्योंकि एकान्त का आग्रह न करना दूसरे धर्मों को भी उसमें स्वीकार करना सम्यग्दृष्टि का स्वभाव है। और इस स्वभाव के कारण ही अनेकान्ती के मन में पक्ष या क्षोभ पैदा नहीं होता, वह साम्य भाव को लिए रहता है। <br />
*अनेकान्त के भेद- यह अनेकान्त दो प्रकार का है- <br />
#सम्यगनेकान्त और <br />
#मिथ्या अनेकान्त। <br />
परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशन करने वाला सम्यगनेकान्त है अथवा सापेक्ष एकान्तों का समुच्चय सम्यगनेकान्त है<ref>समन्तभद्र, आप्तमी., का. 107</ref> निरपेक्ष नाना धर्मों का समूह मिथ्या अनेकान्त है। एकान्त भी दो प्रकार का है- <br />
#सम्यक एकान्त और <br />
#मिथ्या एकान्त। <br />
सापेक्ष एकान्त सम्यक एकान्त है। वह इतर धर्मों का संग्रहक है। अत: वह नय का विषय है और निरपेक्ष एकान्त मिथ्या एकान्त है, जो इतर धर्मों का तिरस्कारक है वह दुनर्य या नयाभास का विषय है। अनेकान्त के अन्य प्रकार से भी दो भेद कहे गये हैं।<ref>विद्यानन्द तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, 5-38-2</ref> <br />
#सहानेकान्त और <br />
#क्रमानेकान्त। <br />
एक साथ रहने वाले गुणों के समुदाय का नाम सहानेकान्त है और क्रम में होने वाले धर्मों-पर्यायों के समुच्चय का नाम क्रमानेकान्त है। इन दो प्रकार के अनेकान्तों के उद्भावक जैन दार्शनिक आचार्य विद्यानंद हैं। उनके समर्थक [[वादीभसिंह]] हैं। उन्होंने अपनी स्याद्वादसिद्धि में इन दोनों प्रकार के अनेकान्तों का दो परिच्छेदों में विस्तृत प्रतिपादन किया है। उन के नाम हैं- सहानेकान्तसिद्धि और क्रमानेकान्त सिद्धि। अनेकान्त को मानने में कोई विवाद होना ही नहीं चाहिए। जो हेतु<ref>एकस्य हेतो: साधक दूषकत्वाऽविसंवादवद्धा'- त.वा. 1-6-13</ref> स्वपक्ष का साधक होता है वही साथ में परपक्ष का दूषक भी होता है। इस प्रकार उसमें साधकत्व एवं दूषकत्व दोनों विरुद्ध धर्म एक साथ रूपरसादि की तरह विद्यमान हैं। <br />
सांख्यदर्शन, प्रकृति को सत्त्व, रज और तमोगुण रूप त्रयात्मक स्वीकार करता है और तीनों परस्पर विरुद्ध है तथा उनके प्रसाद-लाघव, शोषण-ताप, आवरण-सादन आदि भिन्न-भिन्न स्वभाव हैं और सब प्रधान रूप हैं, उनमें कोई विरोध नहीं है।<ref>'केचित्तावदाहु:- सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रधानमिति, तेषां<br /> प्रसादलाघवशोषतापावरणासादनादिभिन्नस्वभावानां प्रधानात्मनां मिथश्च न विरोध:।'</ref> वैशेषिक द्रव्यगुण आदि को अनुवृत्ति-व्यावृत्ति प्रत्यय कराने के कारण सामान्य-विशेष रूप मानते हैं। पृथ्वी आदि में 'द्रव्यम्' इस प्रकार का अनुवृत्ति प्रत्यय होने से द्रव्य को सामान्य और 'द्रव्यम् न गुण:, न कर्म, आदि व्यावृत्ति प्रत्यय का कारण होने से उसे विशेष भी कहते हैं और इस प्रकार द्रव्य एक साथ परस्पर विरुद्ध सामान्य-विशेष रूप माना गया है।<ref>अपरे मन्यन्ते- अनुवृत्तिविनिवृत्तिबुद्धयभिधानलक्षण: सामान्यविशेष इति। तेषां च सामान्यमेव विशेष: सामान्यविशेष इति। एकस्यात्मन उभयात्मकत्वं न विरुध्यते। त.वा. 1-6-14 । 2. समन्तभद्र, आप्तमी. का 104</ref> चित्ररूप भी उन्होंने स्वीकार किया है, जो परस्पर विरुद्ध रूपों का समुदाय है। बौद्ध दर्शन में भी एक चित्रज्ञान स्वीकृत है, जो परस्परविरुद्ध नीलादि ज्ञानों का समूह है।<br />
<br />
==स्याद्वाद विमर्श==<br />
स्याद्वाद उसी प्रकार अनेकान्त का वाचक अथवा व्यवस्थापक है जिस प्रकार ज्ञान उस अनेकान्त का व्यापक अथवा व्यवस्थापक है। जब ज्ञान के द्वारा वह जाना जाता है तो दोनों में ज्ञान-ज्ञेय का संबंध होता है और जब वह स्याद्वाद के द्वारा कहा जाता है तो उनमें वाच्य-वाचक संबंध होता है। ज्ञान का महत्त्व यह है कि वह ज्ञेय को जानकर उन ज्ञेयों की व्यवस्था बनाता है- उन्हें मिश्रित नहीं होने देता है। यह अमुक है, यह अमुक नहीं है इस प्रकार वह ज्ञाता को उस उस ज्ञेय की परिच्छित्ति कराता है। स्याद्वाद का भी वही महत्त्व है। वह वचनरूप होने से वाच्य को कहकर उसके अन्य धर्मों की मौन व्यवस्था करता है। ज्ञान और वचन में अंतर यही है कि ज्ञान एक साथ अनेक ज्ञेयों को जान सकता है पर वचन एक बार में एक ही वाच्य धर्म को कह सकता है, क्योंकि 'सकृदुच्चरित शब्द: एकमेवार्थ गमयति' इस नियम के अनुसार एक बार बोला गया वचन एक ही अर्थ का बोध कराता है। <br />
*समन्तभद्र की 'आप्त-मीमांसा', जिसे 'स्याद्वाद-मीमांसा' कहा जा सकता है, ऐसी कृति है, जिसमें एक साथ स्याद्वाद, अनेकान्त और सप्तभंगी तीनों का विशद और विस्तृत विवेचन किया गया है। अकलंकदेव ने उस पर 'अष्टशती' (आप्त मीमांसा- विवृति) और [[विद्यानन्द]] ने उसी पर 'अष्टसहस्त्री' (आप्तमीमांसालंकृति) व्याख्या लिखकर जहाँ आप्तमीमांसा की कारिकाओं एवं उनके पद-वाक्यादिकों का विशद व्याख्यान किया है वहाँ इन तीनों का भी अद्वितीय विवेचन किया है।<br />
---- <br />
<br />
'''न्याय विद्या'''<br />
<br />
*'नीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन स न्याय:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार न्याय वह विद्या है जिसके द्वारा वस्तु का स्वरूप निर्णीत किया जाए। इस व्युत्पत्ति के आधार पर कोई प्रमाण को, कोई लक्षण और प्रमाण को, कोई लक्षण, प्रमाण, नय और निक्षेप को तथा कोई पंचावयव-वाक्य के प्रयोग को न्याय कहते हैं क्योंकि इनके द्वारा वस्तु-प्रतिपत्ति होती है। <br />
*न्यायदीपिकाकार अभिनव धर्मभूषण का मत है कि न्याय प्रमाण और नयरूप है। अपने इस मत का समर्थन वे आचार्य गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्रगत उस सूत्र से करते हैं<ref>'प्रमाणनयैरधिगम:'- त.सू. 1-16</ref>, जिसमें कहा गया है कि वस्तु (जीवादि पदार्थों) का अधिगम प्रमाणों तथा नयों से होता है। प्रमाण और नय इन दो को ही अधिगम का उपाय सूत्रकार ने कहा है। उनका आशय है कि चूँकि प्रत्येक वस्तु अखंड (धर्मी) और सखंड (धर्म) दोनों रूप है। उसे अखंडरूप में ग्रहण करने वाला प्रमाण है और खंडरूप में जानने वाला नय है। अत: इन दो के सिवाय किसी तीसरे ज्ञापकोपाय की आवश्यकता नहीं है। <br />
*न्यायविद्या को 'अमृत' भी कहा गया है।<ref>'न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने।' –अनन्तवीर्य, प्रमेयरत्नमाला पृ. 2,2 श्लो. 2</ref> इसका कारण यह कि जिस प्रकार 'अमृत' अमरत्व को प्रदान करता है उसी प्रकार न्यायविद्या भी तत्त्वज्ञान प्राप्त कराकर आत्मा को अमर (मिथ्याज्ञानादि से मुक्त और सम्यग्ज्ञान से युक्त) बना देती है।<br />
<br />
'''आगमों में न्याय-विद्या'''<br />
<br />
*षट्खंडागम<ref>षट्ख. 5।5।51, शोलापुर संस्करण, 1965</ref> में श्रुत के पर्याय-नामों को गिनाते हुए एक नाम 'हेतुवाद' भी दिया गया है, जिसका अर्थ हेतुविद्या, न्यायविद्या, तर्क-शास्त्र और युक्ति-शास्त्र किया है। <br />
*स्थानांगसूत्र<ref>'अथवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते तं जहा- पच्चक्खे अनुमाने उवमे आगमे। अथवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते। तं जहा-अत्थि तं अत्थि सो हेऊ, अत्थि तं णत्थि सो हेऊ, णत्थि तं अत्थि सो हेऊ णत्थि तं णत्थि सो हेऊ।' –स्थानांग स्.-पृ. 309-310, 338</ref> में 'हेतु' शब्द प्रयुक्त है, जिसके दो अर्थ किये गये हैं- <br />
*प्रमाण-सामान्य; इसके [[प्रत्यक्ष]], अनुमान, उपमान और आगम-ये चार भेद हैं। अक्षपाद गौतम के न्यायसूत्र में भी इन चार का प्रतिपादन है। पर उन्होंने इन्हें प्रमाण के भेद कहे हैं। यद्यपि स्थानांगसूत्रकार को भी हेतुशब्द प्रमाण के अर्थ में ही यहाँ विवक्षित है। <br />
*हेतु शब्द का दूसरा अर्थ उन्होंने अनुमान का प्रमुख अंग हेतु (साधन) किया है। उसके निम्न चार भेद किये हैं-<br />
#विधि-विधि (साध्य और साधन दोनों सद्भव रूप)<br />
#विधि-निषेध (साध्य विधिरूप और साधन निषेधरूप)<br />
#निषेध-विधि (साध्य निषेधरूप और हेतु विधिरूप)<br />
#निषेध-निषेध (साध्य और साधन दोनों निषेधरूप)<br />
इन्हें हम क्रमश: निम्न नामों से व्यवहृत कर सकते हैं-<br />
#विधिसाधक विधिरूप<ref>धर्मभूषण, न्यायदीपिका, पृ. 95-99 दिल्ली संस्करण</ref> अविरुद्धोपलब्धि<ref> माणिक्यनन्दि, परीक्षामुख 3/57-58</ref> <br />
#विधिसाधक निषेधरूप विरुद्धानुपलब्धि<br />
#निषेधसाधक विधिरूप विरुद्धोपलब्धि<br />
#निषेधसाधक निषेधरूप अविरुद्धानुपलब्धि<ref>डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ. 24 का टिप्पणी नं. 3</ref> <br />
इनके उदाहरण निम्न प्रकार दिये जा सकते हैं-<br />
#अग्नि है, क्योंकि धूम है। यहाँ साध्य और साधन दोनों विधि (सद्भाव) रूप हैं।<br />
#इस प्राणी में व्याधि विशेष है, क्योंकि स्वस्थचेष्टा नहीं है। साध्य विधिरूप है और साधन निषेधरूप है।<br />
#यहाँ शीतस्पर्श नहीं है, क्योंकि उष्णता है। यहाँ साध्य निषेधरूप व साधन विधिरूप है।<br />
#यहाँ धूम नहीं है, क्योंकि अग्नि का अभाव है। यहाँ साध्य व साधन दोनों निषेधरूप है। <br />
अनुयोगसूत्र में<ref>)डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार पृ. 25 व उसके टिप्पणी</ref> अनुमान और उसके भेदों की विस्तृत चर्चा उपलब्ध है, जिससे ज्ञात होता है कि आगमों में न्यायविद्या एक महत्त्वपूर्ण विद्या के रूप में वर्णित है। आगमोत्तरवर्ती दार्शनिक साहित्य में तो वह उत्तरोत्तर विकसित होती गई है।<br /><br />
'''प्रमाण और नय'''<br /><br />
*तत्त्वमीमांसा में हेय और उपादेय के रूप में विभक्त जीव आदि सात तत्त्वों का विवेचन हैं। तत्त्व का दूसरा अर्थ वस्तु है।<ref>डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ. 58, 59</ref> यह वस्तुरूप तत्त्व दो प्रकार का है- 1. उपेय और 2. उपाय। उपेय के दो भेद हैं- एक ज्ञाप्य (ज्ञेय) और दूसरा कार्य। जो ज्ञान का विषय होता है वह ज्ञाप्य अथवा ज्ञेय कहा जाता है और जो कारणों द्वारा निष्पाद्य या निष्पन्न होता है वह कार्य है।<br />
*उपाय तत्त्व दो तरह का है- <br />
#कारक, <br />
#ज्ञापक। <br />
*कारक वह है जो कार्य की उत्पत्ति करता है अर्थात कार्य के उत्पादक कारणों का नाम कारक है। कार्य की उत्पत्ति दो कारणों से होती है- <br />
#उपादान और <br />
#निमित्त (सहकारी)। <br />
*उपादान वह है जो स्वयं कार्यरूप परिणत होता है और निमित्त वह है जो उसमें सहायक होता है। उदाहरणार्थ घड़े की उत्पत्ति में मृत्पिण्ड उपादान और दण्ड चक्र, चीवर, कुंभकार प्रभृति निमित्त हैं। <br />
*न्यायदर्शन में इन दो कारणो के अतिरिक्त एक तीसरा कारण भी स्वीकृत है वह है असमवायि पर वह समवायि कारणगत रूपादि और संयोगरूप होने से उसे अन्य दर्शनों में उस से भिन्न नहीं माना। <br />
*ज्ञापकतत्त्व भी दो प्रकार का है-<br />
#प्रमाण<ref>डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार पृ. 58 का मूल व टिप्पणी 1; 'प्रमाणनयैरधिगम:'-त.सू. 1-6 'प्रमाणनयाभ्यां हि विवेचिता जीवादय: पदार्थ: सम्यगधिगम्यन्ते।'- न्या.दी. पृ. 2, वीर सेवामंदिर, दिल्ली संस्करण</ref> और <br />
#नय<ref>'प्रमाणादर्थ संसिद्धिस्तदाभासासाद्विपर्यय:। 'परीक्षामु. श्लो. 1</ref> <br />
<br />
'''प्रमाण-भेद'''<br /><br />
*[[वैशेषिक दर्शन]] के प्रणेता [[कणाद]] ने<ref> वैशेषिक सूत्र 10/1/3</ref> प्रमाण के प्रत्यक्ष और लैंगिक- ये दो भेद स्वीकार किये हैं। उन्होंने इन दो के सिवाय न अन्य प्रमाणों की संभावना की है और न न्यायसूत्रकार अक्षपाद की तरह स्वीकृत प्रमाणों में अन्तर्भाव आदि की चर्चा ही की है। इससे प्रतीत होता है कि प्रमाण के उक्त दो भेदों की मान्यता प्राचीन है। इसके अतिरिक्त चार्वाक ने प्रत्यक्ष को माना और मात्र अनुमान की समीक्षा की है<ref>सर्वदर्शन सं., चार्वाकदर्शन, पृ. 3</ref>,अन्य उपमान, आगम आदि की नहीं। जबकि न्याय सूत्रकार ने<ref>न्यायसूत्र 2/2/1, 2</ref> *प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम (शब्द)- इन चार प्रमाणों को स्वीकार किया है तथा ऐतिह्य, अर्थापत्ति, संभव और अभाव-इन चार का स्पष्ट रूप से उल्लेख करके उनकी अतिरिक्त प्रमाणता की आलोचना की हें साथ ही शब्द में ऐतिह्य का और अनुमान में शेष तीनों का अन्तर्भाव प्रदर्शित किया है। <br />
*कणाद के व्याख्याकार प्रशस्तपाद ने<ref>प्रश. भा., पृ. 106-111</ref> अवश्य उनके मान्य प्रत्यक्ष और लैंगिक इन दो प्रमाणों का समर्थन करते हुए उल्लिखित शब्द आदि प्रमाणों का इन्हीं दो में समावेश किया है तथा चेष्टा, निर्णय, आर्ष (प्रातिभ) और सिद्ध दर्शन को भी इन्हीं दो के अन्तर्गत सिद्ध किया है। यदि वैशेषिक दर्शन से पूर्व न्यायदर्शन या अन्य दर्शन की प्रमाण भेद परम्परा होती, तो चार्वाक उसके प्रमाणों की अवश्य आलोचना करता। इससे विदित होता है कि वैशेषिक दर्शन की प्रमाण-द्वय की मान्यता सब से प्राचीन है। <br />
*वैशेषिकों की<ref>वैशे. सू. 10/1/3</ref>तरह बौद्धों ने<ref>दिग्नाग, प्रमाण समु.प्र.परि.का. 2, पृ. 4</ref> भी प्रत्यक्ष और अनुमान- इन दो प्रमाणों की स्वीकार किया है। <br />
*शब्द सहित तीनों को सांख्यों ने<ref>सांख्य का. 4</ref>, उपमान सहित चारों को नैयायिकों ने<ref>न्याय सू. 1/1/3</ref>और अर्थापत्ति तथा अभाव सहित छह प्रमाणों को जैमिनीयों (मीमांसकों) ने<ref>शावरभा. 1/1/5</ref> मान्य किया है। कुछ काल बाद जैमिनीय दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गये- <br />
#भाट्ट (कुमारिल भट्ट के अनुगामी) और <br />
#प्राभाकर (प्रभाकर के अनुयायी)। <br />
भाट्टों ने छहों प्रमाणों को माना। पर प्राभाकरों ने अभाव प्रमाण को छोड़ दिया तथा शेष पाँच प्रमाणों को अंगीकार किया। इस तरह विभिन्न दर्शनों में प्रमाण-भेद की मान्यताएँ<ref>जैमिने: षट् प्रमाणानि चत्वारि न्यायवादिन:। सांख्यस्य त्रीणि वाच्यानि द्वे वैशेषिकबौद्धयो:॥ - प्रमेयर. 2/2 का टि.</ref> दार्शनिक क्षेत्र में चर्चित हैं।<br /><br />
'''जैन न्याय में प्रमाण-भेद'''<br /><br />
*जैन न्याय में प्रमाण के श्वेताम्बर परम्परा में मान्य भगवती सूत्र<ref>भगवती सूत्र 5/3/191-192</ref> और स्थानांग सूत्र में<ref>स्थानांग सूत्र 338</ref> चार प्रमाणों का उल्लेख है- <br />
#प्रत्यक्ष, <br />
#अनुमान, <br />
#उपमान और <br />
#आगम। <br />
*स्थानांग सूत्र में<ref>स्थानांग सूत्र 185</ref> व्यवसाय के तीन भेदों द्वारा प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणों का भी निर्देश है। <br />
*संभव है [[सिद्धसेन]]<ref>न्यायाव. का 8</ref> और [[हरिभद्र]] के<ref>अनेका.ज.प.टी. पृ. 142, 215</ref> तीन प्रमाणों की मान्यता का आधार यही स्थानांग सूत्र हो। <br />
*श्री पं. दलसुख मालवणिया का विचार है<ref>आगम युग का जैन दर्शन पृ. 136 से 138</ref> कि उपर्युक्त चार प्रमाणों की मान्यता नैयायिकादि सम्मत और तीन प्रमाणों का कन सांख्यादि स्वीकृत परम्परा मूलक हों तो आश्चर्य नहीं। यदि ऐसा हो तो भगवती सूत्र और स्थानांग सूत्र के क्रमश: चार और तीन प्रमाणों की मान्यता लोकानुसरण की सूचक होने से अर्वाचीन होना चाहिए। <br />
*दिगम्बर परम्परा के षड्खंडागम में<ref>भूतबली. पुष्पदन्त, षट्खण्डा. 1/1/15 तथा जैन तर्क शा.अनु.वि. पृ. 71 व इसका नं. 5 टिप्पणी</ref> मात्र तीन ज्ञानमीमांसा उपलब्ध होती है। वहाँ तीन प्रकार के मिथ्या ज्ञान और पाँच प्रकार के सम्यग्ज्ञान को गिनाकर आठ ज्ञानों का निरूपण किया गया है। वहाँ प्रमाणाभास के रूप में ज्ञानों का विभाजन नहीं है और न प्रमाण तथा प्रमाणाभास शब्द ही वहाँ उपलब्ध होते हैं। <br />
*कुन्दकुन्द<ref>नियमसार गा. 10, 11, 12, प्रवचनसार प्रथम ज्ञानाधिकार</ref> के ग्रन्थों में भी ज्ञानमीमांसा की ही चर्चा है, प्रमाण मीमांसा की नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि उस प्राचीनकाल में सम्यक और मिथ्या मानकर तो ज्ञान का कथन किया जाता था, किन्तु प्रमाण और प्रमाणाभास मानकर नहीं, पर एक वर्ग के ज्ञानों को सम्यक और दूसरे वर्ग के ज्ञानों को मिथ्या प्रतिपादन करने से अवगत होता है कि जो ज्ञान सम्यक कहे गये हैं वे सम्यक परिच्छित्ति कराने से प्रमाण तथा जिन्हें मिथ्या बताया गया है वे मिथ्या प्रतिपत्ति कराने से अप्रमाण (प्रमाणाभास) इष्ट है।<ref>यह उस समय की प्रतिपादन शैली थी। वैशेषिक दर्शन के प्रवर्त्तक कणाद ने भी इसी शैली से बुद्धि के अविद्या और विद्या ये दो भेद बतलाकर अविद्या के संशय आदि चार तथा विद्या के प्रत्यक्षादि चार भेद कहे हैं तथा दूषित ज्ञान (मिथ्या ज्ञान) को अविद्या और निर्दोष ज्ञान को-सम्यग्ज्ञान का विद्या का लक्षण कहा है। - वैशे.सू. 9/2/7, 8, 10 से 13 तथा 10/1/3</ref> इसकी संपुष्टि तत्त्वार्थसूत्रकार<ref>त.सू. 1/9, 10</ref> के निम्न प्रतिपादन से भी होती है-<br />
<poem>मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानिज्ञानम्। <br />
तत्प्रमाणे'। 'मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च। -तत्त्वार्थसूत्र 1-9, 10, 31 ।</poem><br />
इस प्रकार सम्यग्ज्ञान या प्रमाण के मति, श्रुत, अवधि आदि पाँच भेदों की परम्परा आगम में उपलब्ध होती है, जो अत्यन्त प्राचीन है और जिस पर लोकानुसरण का कोई प्रभाव नहीं है। <br />
<br />
'''तर्कशास्त्र में परोक्ष के भेद'''<br />
<br />
तर्कशास्त्र में परोक्ष के पाँच भेद माने गये हैं<ref>माणिक्यनन्दि, प. मु. 3-1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10</ref>- <br />
#स्मृति, <br />
#प्रत्यभिज्ञान, <br />
#तर्क, <br />
#अनुमान और <br />
#आगम। यद्यपि आगम में आरम्भ के चार ज्ञानों को मतिज्ञान और आगम को श्रुतज्ञान कहकर दोनों को परोक्ष कहा है और इस तरह तर्कशास्त्र तथा आगम के निरूपणों में अन्तर नहीं है।<br />
<br />
'''स्मृति''' <br />
<br />
पूर्वानुभूत वस्तु के स्मरण को स्मृति कहते हैं। यथा 'वह' इस प्रकार से उल्लिखित होने वाला ज्ञान। यह ज्ञान अविसंवादि होता है, इसलिए प्रमाण है। यदि कदाचित् उसमें विसंवाद हो तो वह स्मृत्याभास है। इसे अप्रमाण नहीं माना जा सकता, अन्यथा व्याप्ति स्मरणपूर्वक होने वाला अनुमान प्रमाण नहीं हो सकता और बिना व्याप्ति स्मरण के अनुमान संभव नहीं है। अत: स्मृति को प्रमाण मानना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है।<ref>विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. 36 व पृ. 42, वीर सेवा. ट्र., वाराणसी</ref><br />
<br />
'''प्रत्यभिज्ञान'''<br />
<br />
अनुभव तथा स्मरणपूर्वक होने वाला जोड़ रूप ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है इसे प्रत्यभिज्ञा, प्रत्यवमर्श और संज्ञा भी कहते हैं। जैसे- 'यह वही देवदत्त हे, अथवा यह (गवय) गौ के समान है, यह (महिष) गौ से भिन्न है, आदि। पहला एकत्व प्रत्यभिज्ञान का उदाहरण है, दूसरा सादृश्य प्रत्यभिज्ञान और तीसरा वैसा दृश्य प्रत्यभिज्ञान का है। संकलनात्मक जितने ज्ञान हैं वे इसी प्रत्यभिज्ञान में समाहित होते हैं। उपमान प्रमाण इसी के सादृश्य प्रत्यभिज्ञान में अन्तर्भूत होता है, अन्यथा वैसा दृश्य आदि प्रत्यभिज्ञान भी पृथक् प्रमाण मानना पड़ेंगे। यह भी प्रत्यक्षादि की तरह अविसंवादी होने से प्रमाण है, अप्रमाण नहीं। यदि कोई प्रत्यभिज्ञान विसंवाद (भ्रमादि) पैदा करता है तो उसे प्रत्यभिज्ञानाभास जानना चाहिए। <br />
<br />
'''तर्क'''<br />
जो ज्ञान अन्वय और व्यतिरेकपूर्वक व्याप्ति का निश्चय कराता है वह तर्क है। इसे ऊह, ऊहा और चिन्ता भी कहा जाता है। 'इसके होने पर ही यह होता है', यह अन्वय है और 'इसके न होने पर यह नहीं होता', यह व्यतिरेक है, इन दोनों पूर्वक यह ज्ञान साध्य के साथ साधन में व्याप्ति का निर्माण कराता है। इसका उदाहरण है- 'अग्नि के होने पर ही धूम होता है, अग्नि के अभाव में धूम नहीं होता' इस प्रकार अग्नि के साथ धूम की व्याप्ति का निश्चय कराना तर्क है। इससे सम्यक अनुमान का मार्ग प्रशस्त होता है। <br />
<br />
'''अनुमान'''<br />
<br />
निश्चित साध्याविनाभावी साधन से होने वाला साध्य का ज्ञान अनुमान कहलाता है।<ref>विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. 45, 46, 47, 48, 49; वीर सेवा. ट्र., वाराणसी</ref> जैसे धूम से अग्नि का ज्ञान करना।<br />
<br />
'''अनुमान के अंग:- साध्य और साधन'''<br />
<br />
इस अनुमान के मुख्य घटक (अंग) दो हैं- <br />
#साध्य और <br />
#साधन। <br />
*साध्य तो वह है, जिसे सिद्ध किया जाता है और वह वही होता है जो शक्य (अबाधित), अभिप्रत (वादी द्वारा इष्ट) और असिद्ध (प्रतिवादी के लिए अमान्य) होता है तथा इससे जो विपरीत (बाधित, अनिष्ट और सिद्ध) होता है वह साध्याभास है, क्योंकि वह साधन द्वारा विषय (निश्चय) नहीं किया जाता। [[अकलंकदेव]] ने साध्य और साध्याभास का लक्षण करते हुए यही लिखा है-<br />
<poem>साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धं ततोऽपरम्।<br />
साध्याभासं विरुद्धादि, साधनाविषयत्वत:॥ न्यायविनिश्चय 2-172</poem><br />
*साधन वह है जिसका साध्य के साथ अविनाभाव निश्चित है- साध्य के होने पर ही होता है, उसके अभाव में नहीं होता। ऐसा साधन ही साध्य का गमक (अनुमापक) होता है। साधन को हेतु और लिङ्ग भी कहा जाता है। माणिक्यनन्दि साधन का लक्षण करते हुए कहते हैं-<br />
साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतु:।<ref>परीक्षामुखसूत्र 3-15</ref>' साध्य के साथ जिसका अविनाभाव निश्चित है वह हेतु है। <br />
<br />
'''अविनाभाव-भेद'''<br />
<br />
अविनाभाव दो प्रकार का है<ref>माणिक्यनन्दि, प.मु. 3-16, 17, 18</ref>-<br />
#सहभाव नियम और <br />
#क्रमभाव नियम। <br />
*जो सहचारी और व्याप्य-व्यापक होते हैं उनमें सहभाव नियम अविनाभाव रहता है। जैसे रूप और रस दोनों सहचारी हैं- रूप के साथ रस और रस के साथ रूप नियम से रहता है। अत: दोनों सहचारी हैं और इसलिए उनमें सहभाव नियम अविनाभाव है तथा शिंशपात्व और वृक्षत्व इन दोनों में व्याप्य-व्यापक भाव है। शिंशपात्व व्याप्य है और वृक्षत्व व्यापक है। शिंशपात्व होने पर वृक्षत्व अवश्य होता है। किन्तु वृक्षत्व के होने पर शिंशपात्व के होने का नियम नहीं है। अतएव सहचारियों और व्याप्य-व्यापक में सहभाव नियम अविनाभाव होता है, जिससे रूप से रस का और शिंशपात्व से वृक्षत्व का अनुमान किया जाता है। <br />
<br />
'''हेतु-भेद'''<br />
<br />
इन दोनों प्रकार के अविनाभाव से विशिष्ट हेतु के भेदों का कथन जैन न्यायशास्त्र में विस्तार से किया गया है, जिसे हमने 'जैन तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार' ग्रन्थ में विशदतया दिया है। अत: उस सबकी पुनरावृत्ति न करके मात्र माणिक्यनन्दि के 'परीक्षामुख' के अनुसार उनका दिग्दर्शन किया जाता है।<ref>माणिक्यनन्दि, प. मु. 3-57 58, 59, 65 से 79 तक</ref><br />
*माणिक्यनन्दि ने अकलंकदेव की तरह आरम्भ में हेतु के मूल दो भेद बतलाये हैं-<br />
#उपलब्धि और <br />
#अनुपलब्धि। <br />
*तथा इन दोनों को विधि और प्रतिषेध उभय का साधक कहा है और इस तरह दोनों के उन्होंने दो-दो भेद कहे हैं। उपलब्धि के- <br />
#अविरुद्धोपलब्धि और <br />
#विरुद्धोपलब्धि <br />
*अनुपलब्धि के- <br />
#अविरुद्धानुपलब्धि और <br />
#विरुद्धानुपलब्धि <br />
*इनके प्रत्येक के भेद इस प्रकार प्रतिपादित किये हैं- <br />
*अविरुद्धोपलब्धि छह- <br />
#व्याप्त, <br />
#कार्य,<br />
#कारण, <br />
#पूर्वचर, <br />
#उत्तरचर और <br />
#सहचर।<br />
*विरुद्धोपलब्धि के भी अविरुद्धोपलब्धि की तरह छह भेद हैं- <br />
#विरुद्ध व्याप्य, <br />
#विरुद्ध कार्य, <br />
#विरुद्ध कारण, <br />
#विरुद्ध पूर्वचर, <br />
#विरुद्ध उत्तरचर और <br />
#विरुद्ध-सहचर। <br />
*अविरुद्धानुपलब्धि प्रतिषेध रूप साध्य को सिद्ध करने की अपेक्षा 7. प्रकार की कही है- <br />
#अविरुद्धस्वभावानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धव्यापकानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धकार्यानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धकारणानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धपूर्वचरानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धउत्तरचरानुपलब्धि और <br />
#अविरुद्धसहचरानुपलब्धि। <br />
*विरुद्धानुपलब्धि विधि रूप साध्य को सिद्ध करने में तीन प्रकार की कही गयी है- <br />
#विरुद्धकार्यानुपलब्धि, <br />
#विरुद्धकारणानुपलब्धि और <br />
#विरुद्धस्वभावानुपलब्धि। <br />
*इस तरह माणिक्यनन्दि ने 6+6+7= 22 हेतुभेदों का सोदाहरण निरूपण किया है, परम्परा हेतुओं की भी उन्होंने संभावना करके उन्हें यथायोग्य उक्त हेतुओं में ही अन्तर्भाव करने का इंगित किया है। साथ ही उन्होंने अपने पूर्वज अकलंक की भांति कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर-इन नये हेतुओं को पृथक् मानने की आवश्यकता को भी सयुक्तिक बतलाया है।<br />
<br />
==आगम (श्रुत)==<br />
शब्द, संकेत, चेष्टा आदि पूर्वक जो ज्ञान होता है वह आगम है। जैसे- 'मेरु आदिक है' शब्दों को सुनने के बाद सुमेरु पर्वत आदि का बोध होता है।<ref>परी.मु. 3-99, 100, 101</ref> शब्द श्रवणादि मतिज्ञान पूर्वक होने से यह ज्ञान (आगम) भी परोक्ष प्रमाण है। इस तरह से स्मृत्यादि पाँचों ज्ञान ज्ञानान्तरापेक्ष हैं। स्मरण में धारणा रूप अनुभव (मति), प्रत्यभिज्ञान में अनुभव तथा स्मरण, तर्क में अनुभव, स्मृति और प्रत्यभिज्ञान, अनुमान में लिंगदर्शन, व्याप्ति स्मरण और आगम में शब्द, संकेतादि अपेक्षित हैं- उनके बिना उनकी उत्पत्ति संभव नहीं है। अतएव ये और इस जाति के अन्य सापेक्ष ज्ञान परोक्ष प्रमाण माने गये हैं।<br />
==नय-विमर्श==<br />
नय-स्वरूप— अभिनव धर्मभूषण ने<ref>न्यायदीपिका, पृ. 5, संपादन डॉ. दरबारीलाल कोठिया, 1945</ref> न्याय का लक्षण करते हुए कहा है कि 'प्रमाण-नयात्मको न्याय:'- प्रमाण और नय न्याय हैं, क्योंकि इन दोनों के द्वारा पदार्थों का सम्यक् ज्ञान होता है। अपने इस कथन को प्रमाणित करने के लिए उन्होंने आचार्य गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्र के, जिसे 'महाशास्त्र' कहा जाता है, उस सूत्र को प्रस्तुत किया है, जिसमें प्रमाण और मय को जीवादि तत्त्वार्थों को जानने का उपाय बताया गया है और वह है- 'प्रमाणनयैरधिगम:<ref>तत्त्वार्थसूत्र, 1-6</ref>'। वस्तुत: जैन न्याय का भव्य प्रासाद इसी महत्त्वपूर्ण सूत्र के आधार पर निर्मित हुआ है। <br />
<br />
'''नय-भेद'''<br />
<br />
उपर्युक्त प्रकार से मूल नय दो हैं<ref>प्रमयरत्नमाला 6/74, पृ. 206, सं. 1928</ref>- <br />
#द्रव्यार्थिक और <br />
#पर्यायार्थिक। <br />
*इनमें द्रव्यार्थिक तीन प्रकार का हैं<ref> प्रमयरत्नमाला, 6/74</ref>-<br />
#नैगम, <br />
#संग्रह, <br />
#व्यवहार। तथा <br />
*पर्यायार्थिक नय के चार भेद हैं<ref>प्रमयरत्नमाला, पृ. 207</ref>-<br />
#ऋजुसूत्र, <br />
#शब्द, <br />
#समभिरूढ़ और <br />
#एवम्भूत। <br />
<br />
'''नैगम नय'''<br />
जो धर्म और धर्मी में एक को प्रधान और एक को गौण करके प्ररूपण करता है वह नैगम नय है। जैसे जीव का गुण सुख है, ऐसा कहना। इसमें 'सुख' धर्म की प्रधानता और 'जीव' धर्मी की गौणता है अथवा यह सुखी जीव है, ऐसा कहना। इसमें 'जीव' धर्मी की प्रधानता है, क्योंकि वह विशेष्य है और 'सुख' धर्म गौण है, क्योंकि वह विशेषण है। इस नय का अन्य प्रकार से भी लक्षण किया गया है। जो भावी कार्य के संकल्प को बतलाता है वह नैगम नय है।<br />
<br />
'''संग्रह नय'''<br />
जो प्रतिपक्ष की अपेक्षा के साथ 'सन्मात्र' को ग्रहण करता है वह संग्रह नय है। जैसे 'सत्' कहने पर चेतन, अचेतन सभी पदार्थों का संग्रह हो जाता है, किन्तु सर्वथा 'सत्' कहने पर 'चेतन, अचेतन विशेषों का निषेध होने से वह संग्रहाभास है। विधिवाद इस कोटि में समाविष्ट होता है। <br />
<br />
'''व्यवहार नय'''<br />
संग्रहनय से ग्रहण किये 'सत्' में जो नय विधिपूर्वक यथायोग्य भेद करता है वह व्यवहारनय है। जैसे संग्रहनय से गृहीत 'सत्' द्रव्य हे या पर्याप्त है या गुण है। पर मात्र कल्पना से जो भेद करता है वह व्यवहारनयाभास है।<br />
<br />
'''ऋजुसूत्र नय''' <br />
भूत और भविष्यत पर्यायों को गौण कर केवल वर्तमान पर्याय को जो नय ग्रहण करता है वह ऋजुसूत्रनय है। जैसे प्रत्येक वस्तु प्रति समय परिणमनशील है। वस्तु को सर्वथा क्षणिक मानना ऋजुसूत्रनय है, क्योंकि इसमें वस्तु में होने वाली भूत और भविष्यत की पर्यायों तथा उनके आधारभूत अन्वयी द्रव्य का लोप हो जाता है। <br />
<br />
'''शब्द नय''' <br />
<br />
जो काल, कारक और लिङ्ग के भेद से शब्द में कथं चित् अर्थभेद को बतलाता है वह शब्दनय है। जैसे 'नक्तं निशा' दोनों पर्यायावाची हैं, किन्तु दोनों में लिंग भेद होने के कथं चित् अर्थभेद है। 'नक्तं' शब्द नंपुसक लिंग है और 'निशा' शब्द स्त्रीलिंग है। 'शब्दभेदात् ध्रुवोऽर्थभेद:' यह नय कहता है। अर्थभेद को कथं चित् माने बिना शब्दों को सर्वथा नाना बतलाकर अर्थ भेद करना शब्दनयाभास हैं <br />
<br />
'''समभिरूढ़ नय'''<br />
<br />
जो पर्याय भेद पदार्थ का कथंचित् भेद निरूपित करता है वह समभिरूढ़ नय है। जैसे इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि शब्द पर्याय शब्द होने से उनके अर्थ में कथं चित् भेद बताना। पर्याय भेद माने बिना उनका स्वतंत्र रूप से कथन करना समभिरूढ नयाभास है।<ref>'तत्र प्रमाणं द्विविधं स्वार्थं परार्थं च। तत्र स्वार्थं प्रमाणं श्रुतवर्ज्यम् श्रुतं पुन: स्वार्थं भवति परार्थं च। - सर्वार्थसिद्धि 1-6, भा. ज्ञा. संस्करण</ref>'<br />
<br />
'''एवंभूत नय'''<br />
<br />
जो क्रिया भेद से वस्तु के भेद का कथन करता है वह एवंभूत नय हैं जैसे पढ़ाते समय ही पाठक या अध्यापक अथवा पूजा करते समय ही पुजारी कहना। यह नय क्रिया पर निर्भर है। इसका विषय बहुत सूक्ष्म है। क्रिया की अपेक्षा न कर क्रिया वाचक शब्दों का कल्पनिक व्यवहार करना एवंभूतनयाभास है।<br />
==जैन दर्शन का उद्भव और विकास==<br />
'''उद्भव'''<br />
*आचार्य भूतबली और पुष्पदन्त द्वारा निबद्ध 'षट्खंडागम' में, जो दृष्टिवाद अंग का ही अंश है, 'सिया पज्जत्ता', 'सिया अपज्जता', 'मणुस अपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया', 'अखंखेज्जा* 'जैसे 'सिया' (स्यात्) शब्द और प्रश्नोत्तरी शैली को लिए प्रचुर वाक्य पाए जाते हैं।<br />
*'षट्खंडागम' के आधार से रचित आचार्य कुन्दकुन्द के 'पंचास्तिकाय', 'प्रवचनसार' आदि आर्ष ग्रन्थों में भी उनके कुछ और अधिक उद्गमबीज मिलते हैं। 'सिय अत्थिणत्थि उहयं', 'जम्हा' जैसे युक्ति प्रवण वाक्यों एवं शब्द प्रयोगों द्वारा उनमें प्रश्नोत्तर पूर्वक विषयों को दृढ़ किया गया है। <br />
'''विकास'''<br />
<br />
काल की दृष्टि से उनके विकास को तीन कालखंडों में विभक्त किया जा सकता है और उन कालखंडों के नाम निम्न प्रकार रखे जा सकते हैं :-<br />
*आदिकाल अथवा समन्तभद्र-काल (ई. 200 से ई. 650)।<br />
*मध्यकाल अथवा अकलंक-काल (ई. 650 से ई. 1050)।<br />
*उत्तरमध्ययुग (अन्त्यकाल) अथवा प्रभाचन्द्र-काल (ई. 1050 से 1700)। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन दर्शन का उद्भव और विकास]]<br />
<br />
==जैन दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ==<br />
आचार्य जिनसेन और गुणभद्र : एक परिचय<br />
*ये दोनों ही आचार्य उस पंचस्तूप नामक अन्वय में हुए हैं जो आगे चलकर सेनान्वय का सेनसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। जिनसेन स्वामी के गुरु वीरसेन ने भी अपना वंश पत्र्चस्तूपान्वय ही लिखा है। परन्तु गुणभद्राचार्य ने सेनान्वय लिखा है। इन्द्रानन्दी ने अपने श्रुतावतार में लिखा है कि जो मुनि पंचस्तूप निवास से आये उनमें से किन्हीं को सेन और किन्हीं को भद्र नाम दिया गया। तथा कोई आचार्य ऐसा भी कहते हैं कि जो गुहाओं से आये उन्हें नन्दी, जो अशोक वन से आये उन्हें देव और जो पंचस्तूप से आये उन्हें सेन नाम दिया गया। श्रुतावतार के उक्त उल्लेख से प्रतीत होता है कि सेनान्त और भद्रान्त नाम वाले मुनियों का समूह ही आगे चलकर सेनान्वय या सेना संघ से प्रसिद्ध हुआ है। <br />
<br />
जिनसेनाचार्य सिद्धान्तशास्त्रों के महान् ज्ञाता थे। इन्होंने कषायप्राभृत पर 40 हज़ार श्लोक प्रमाण जयधवल टीका लिखी है। आचार्य वीरसेन स्वामी उस पर 20 हज़ार श्लोक प्रमाण टीका लिख पाये थे और वे दिवंगत हो गये थे। तब उनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने 40 हज़ार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर उसे पूर्ण किया। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ]]<br />
==जैन दर्शन में अध्यात्म==<br />
'अध्यात्म' शब्द अधि+आत्म –इन दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है कि आत्मा को आधार बनाकर चिन्तन या कथन हो, वह अध्यात्म है। यह इसका व्युत्पत्ति अर्थ हे। यह जगत जैन दर्शन के अनुसार छह द्रव्यों के समुदायात्मक है। वे छह द्रव्य हैं-<br />
*जीव,<br />
*पुद्गल,<br />
*धर्म,<br />
*अधर्म,<br />
*आकाश और<br />
*काल। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन दर्शन में अध्यात्म]]<br />
==जैन तार्किक और उनके न्यायग्रन्थ==<br />
'''बीसवीं शती के जैन तार्किक'''<br />
<br />
बीसवीं शती में भी कतिपय दार्शनिक एवं नैयायिक हुए हैं, जो उल्लेखनीय हैं। इन्होंने प्राचीन आचार्यों द्वारा लिखित दर्शन और न्याय के ग्रन्थों का न केवल अध्ययन-अध्यापन किया, अपितु उनका राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनुवाद एवं सम्पादन भी किया है। साथ में अनुसंधानपूर्ण विस्तृत प्रस्तावनाएँ भी लिखी हैं, जिनमें ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार के ऐतिहासिक परिचय के साथ ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषयों का भी तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक आकलन किया गया है। कुछ मौलिक ग्रन्थ भी हिन्दी भाषा में लिखे गये हैं। सन्तप्रवर न्यायचार्य पं. गणेशप्रसाद वर्णी न्यायचार्य, पं. माणिकचन्द्र कौन्देय, पं. सुखलाल संघवी, डा. पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, पं. कैलाश चन्द्र शास्त्री, पं. दलसुख भाइर मालवणिया एवं इस लेख के लेखक डा. पं. दरबारी लाला कोठिया न्यायाचार्य आदि के नाम विशेष उल्लेख योग्य हैं। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन तार्किक और उनके न्यायग्रन्थ]]<br />
==त्रिभंगी टीका==<br />
#आस्रवत्रिभंगी, <br />
#बंधत्रिभंगी, <br />
#उदयत्रिभंगी और <br />
#सत्त्वत्रिभंगी-इन 4 त्रिभंगियों को संकलित कर टीकाकार ने इन पर [[संस्कृत]] में टीका की है। <br />
*आस्रवत्रिभंगी 63 गाथा प्रमाण है। <br />
*इसके रचयिता श्रुतमुनि हैं। <br />
*बंधत्रिभंगी 44 गाथा प्रमाण है तथा उसके कर्ता नेमिचन्द शिष्य माधवचन्द्र हैं। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[त्रिभंगी टीका]]<br />
==पंचसंग्रह टीका==<br />
मूल पंचसंग्रह नामक यह मूलग्रन्थ [[प्राकृत]] भाषा में है। इस पर तीन [[संस्कृत]]-टीकाएँ हैं। <br />
#श्रीपालसुत डड्ढा विरचित पंचसंग्रह टीका, <br />
#आचार्य अमितगति रचित संस्कृत-पंचसंग्रह, <br />
#सुमतकीर्तिकृत संस्कृत-पंचसंग्रह। <br />
*पहली टीका दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह का संस्कृत-अनुष्टुपों में परिवर्तित रूप है। इसकी श्लोक संख्या 1243 है। कहीं कहीं कुछ गद्यभाग भी पाया जाता है, जो लगभग 700 श्लोक प्रमाण है। इस तरह यह लगभग 2000 श्लोक प्रमाण है। यह 5 प्रकरणों का संग्रह है। वे 5 प्रकरण निम्न प्रकार हैं- <br />
#जीवसमास, <br />
#प्रकृतिसमुत्कीर्तन, <br />
#कर्मस्तव, <br />
#शतक और <br />
#सप्ततिका। <br />
*इसी तरह अन्य दोनों संस्कृत टीकाओं में भी समान वर्णन है। <br />
*विशेष यह है कि आचार्य अमितगति कृत पंचसंग्रह का परिमाण लगभग 2500 श्लोक प्रमाण है। तथा सुमतकीर्ति कृत पंचसंग्रह अति सरल व स्पष्ट है। <br />
*इस तरह ये तीनों टीकाएँ संस्कृत में लिखी गई हैं और समान होने पर भी उनमें अपनी अपनी विशेषताएँ पाई जाती हैं। <br />
*कर्म साहित्य के विशेषज्ञों को इन टीकाओं का भी अध्ययन करना चाहिए। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[पंचसंग्रह टीका]]<br />
==मन्द्रप्रबोधिनी==<br />
*शौरसेनी [[प्राकृत|प्राकृत भाषा]] में आचार्य नेमिचन्द्र सि0 चक्रवर्ती द्वारा निबद्ध गोम्मटसार मूलग्रन्थ की [[संस्कृत भाषा]] में रची यह एक विशद् और सरल व्याख्या है। इसके रचयिता अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती हैं। यद्यपि यह टीका अपूर्ण है किन्तु कर्मसिद्धान्त को समझने के लिए एक अत्यन्त प्रामाणिक व्याख्या है। केशववर्णी ने इनकी इस टीका का उल्लेख अपनी कन्नडटीका में, जिसका नाम कर्नाटकवृत्ति है, किया है। इससे ज्ञात होता है कि केशववर्णी ने उनकी इस मन्दप्रबोधिनी टीका से लाभ लिया है। <br />
*गोम्मटसार आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा लिखा गया कर्म और जीव विषयक एक प्रसिद्ध एवं महत्त्वपूर्ण प्राकृत-ग्रन्थ है। इसके दो भाग हैं- <br />
#एक जीवकाण्ड और <br />
#दूसरा कर्मकाण्ड। <br />
जीवकाण्ड में 734 और कर्मकाण्ड में 972 शौरसेनी-प्राकृत भाषाबद्ध गाथाएं हैं। कर्मकाण्ड पर संस्कृत में 4 टीकाएं लिखी गई हैं। वे हैं- <br />
#[[गोम्मट पंजिका]], <br />
#मन्दप्रबोधिनी, <br />
#कन्नड़ संस्कृत मिश्रित जीवतत्त्वप्रदीपिका, <br />
#संस्कृत में ही रचित अन्य नेमिचन्द्र की जीवतत्त्वप्रदीपिका। इन टीकाओं में विषयसाम्य है पर विवेचन की शैली इनकी अलग अलग हैं। भाषा का प्रवाह और सरलता इनमें देखी जा सकती है। <br />
आगे विस्तार में पढ़ें:- [[मन्द्रप्रबोधिनी]]<br />
{{संदर्भ ग्रंथ}}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
{{प्रचार}}<br />
==संबंधित लेख==<br />
{{जैन धर्म}}{{संस्कृत साहित्य}}{{जैन धर्म2}}{{दर्शन शास्त्र}}<br />
[[Category:दर्शन कोश]]<br />
<br />
[[Category:जैन दर्शन]] <br />
__INDEX__<br />
{{toc}}</div>हिमानीhttps://en.bharatdiscovery.org/w/index.php?title=%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8_%E0%A4%A6%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6%E0%A4%A8_%E0%A4%94%E0%A4%B0_%E0%A4%89%E0%A4%B8%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%89%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%AF&diff=209555जैन दर्शन और उसका उद्देश्य2011-08-22T10:50:04Z<p>हिमानी: /* द्रव्य-मीमांसा */</p>
<hr />
<div>__TOC__*'कर्मारातीन् जयतीति जिन:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिसने राग द्वेष आदि शत्रुओं को जीत लिया है वह 'जिन' है। <br />
*अर्हत, अरहन्त, जिनेन्द्र, वीतराग, परमेष्ठी, आप्त आदि उसी के पर्यायवाची नाम हैं। उनके द्वारा उपदिष्ट दर्शन जैनदर्शन हैं। <br />
*आचार का नाम धर्म है और विचार का नाम दर्शन है तथा युक्ति-प्रतियुक्ति रूप हेतु आदि से उस विचार को सुदृढ़ करना न्याय है।<br />
* जैन दर्शन का निर्देश है कि आचार का अनुपालन विचारपूर्वक किया जाये। धर्म, दर्शन और न्याय-इन तीनों के सुमेल से ही व्यक्ति के आध्यात्मिक उन्नयन का भव्य प्रासाद खड़ा होता है। *अत: जैन धर्म का जो 'आत्मोदय' के साथ 'सर्वोदय'- सबका कल्याण उद्दिष्ट है।<ref>सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव–समन्तभद्र युक्त्यनु. का. 61</ref> उसका समर्थन करना जैन दर्शन का लक्ष्य हैं जैन धर्म में अपना ही कल्याण नहीं चाहा गया है, अपितु सारे राष्ट्र, राष्ट्र की जनता और विश्व के जनसमूह, यहाँ तक कि प्राणीमात्र के सुख एवं कल्याण की कामना की गई है।<ref>क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपाल:<br />
काले वर्ष प्रदिशतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम्।<br />
दुर्भिक्षं चौरमारी क्षणमपि जगतां मा स्म भूज्जीवलोके,<br />
जैनेन्द्रं धर्मचक्रं प्रभवतु सततं सर्वसौख्यप्रदायि॥</ref><br />
{{tocright}}<br />
==जैन दर्शन के प्रमुख अंग==<br />
#द्रव्य-मीमांसा<br />
#तत्त्व-मीमांसा<br />
#पदार्थ-मीमांसा<br />
#पंचास्तिकाय-मीमांसा<br />
#अनेकान्त-विमर्श<br />
#स्याद्वाद विमर्श<br />
#सप्तभंगी विमर्श<br />
==द्रव्य-मीमांसा==<br />
{{main|द्रव्य मीमांसा -जैन दर्शन}}<br />
वैशेषिक, भाट्ट और प्रभाकर दर्शनों में द्रव्य और पदार्थ दोनों को स्वीकार कर उनका विवेचन किया गया है। तथा [[सांख्य दर्शन]] और [[बौद्ध दर्शन|बौद्ध दर्शनों]] में क्रमश: तत्त्व और आर्य सत्यों का कथन किया गया है, [[वेदान्त दर्शन]] में केवल ब्रह्म (आत्मतत्व) और [[चार्वाक दर्शन]] में भूत तत्त्वों को माना गया है, वहाँ जैन दर्शन में द्रव्य, पदार्थ, तत्त्व, और अस्तिकाय को स्वीकार कर उन सबका पृथक्-पृथक् विस्तृत निरूपण किया गया है।<ref>त्रैकाल्यं द्रव्यषट्कं नवपदसहितं जीवषट्काय - लेश्या:,<br />
पंचान्ये चास्तिकाया व्रत समिति-गति-ज्ञान- चारित्रभेदा:।<br />
इत्येतन्मोक्षमूलं त्रिभुवनमहितै: प्रोक्तमर्हदिभरीशै:<br />
प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान् य: स वै शुद्धदृष्टि:॥ - स्तवनसंकलन।</ref> <br />
*जो ज्ञेय के रूप में वर्णित है और जिनमें हेय-उपादेय का विभाजन नहीं है पर तत्त्वज्ञान की दृष्टि से जिनका जानना ज़रूरी है तथा गुण और पर्यायों वाले हैं एवं उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त हैं, वे द्रव्य हैं। <br />
*तत्त्व का अर्थ मतलब या प्रयोजन है। जो अपने हित का साधक है वह उपादेय है और जो आत्महित में बाधक है वह हेय है। उपादेय एवं हेय की दृष्टि से जिनका प्रतिपादन के उन्हें तत्त्व कहा गया है। <br />
*भाषा के पदों द्वारा जो अभिधेय है वे पदार्थ हैं। उन्हें पदार्थ कहने का एक अभिप्राय यह भी है कि 'अर्थ्यतेऽभिलष्यते मुमुक्षुभिरित्यर्थ:' मुमुक्षुओं के द्वारा उनकी अभिलाषा की जाती है, अत: उन्हें अर्थ या पदार्थ कहा गया है। <br />
*अस्तिकाय की परिभाषा करते हुए कहा है कि जो 'अस्ति' और 'काय' दोनों है। 'अस्ति' का अर्थ 'है' है और 'काय' का अर्थ 'बहुप्रदेशी' है अर्थात जो द्रव्य है' होकर कायवाले- बहुप्रदेशी हैं, वे 'अस्तिकाय' हैं।<ref>पंचास्तिकाय, गा. 4-5 द्रव्य सं. गा. 24</ref> ऐसे पाँच द्रव्य हैं- <br />
#पुद्गल<br />
#धर्म<br />
#अधर्म<br />
#आकाश<br />
#जीव<br />
#कालद्रव्य एक प्रदेशी होने से अस्तिकाय नहीं है।<br />
<br />
==तत्त्व मीमांसा==<br />
तत्त्व का अर्थ है प्रयोजन भूत वस्तु। जो अपने मतलब की वस्तु है और जिससे अपना हित अथवा स्वरूप पहचाना जाता है वह तत्त्व है। 'तस्य भाव: तत्त्वम्' अर्थात वस्तु के भाव (स्वरूप) का नाम तत्त्व है। ऋषियों या शास्त्रों का जितना उपदेश है उसका केन्द्र जीव (आत्मा) रहा है। उपनिषदों में आत्मा के दर्शन, श्रवण, मनन और ध्यान पर अधिक बल दिया गया है और इनके माध्यम से आत्मा के साक्षात्कार की बात कही गयी है<ref>श्रोतव्य:श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभि:। मत्वा च स्ततं ध्येय एते दर्शनहेतव:॥</ref>। जैन दर्शन तो पूरी तरह आध्यात्मिक है। अत: इसमें आत्मा को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है।<ref> कुन्दकुन्द, मोक्ष प्राभृत गा. 4, 5, 6, 7</ref> <br />
#बहिरात्मा, <br />
#अन्तरात्मा और <br />
#परमात्मा। <br />
*मूढ आत्मा को बहिरात्मा, जागृत आत्मा को अन्तरात्मा और अशेष गुणों से सम्पन्न आत्मा को परमात्मा कहा गया है। ये एक ही आत्मा के उन्नयन की विकसित तीन श्रेणियाँ हैं। जैसे एक आरम्भिक अबोध बालक शिक्षक, पुस्तक, पाठशाला आदि की सहायता से सर्वोच्च शिक्षा पाकर सुबोध बन जाता है वैसे ही एक मूढात्मा सत्संगति, सदाचार-अनुपालन, ज्ञानाभ्यास आदि को प्राप्त कर अन्तरात्मा (महात्मा) बन जाता है और वही ज्ञान, ध्यान तप आदि के निरन्तर अभ्यास से कर्म-कलङ्क से मुक्त होकर परमात्मा (अरहन्त व सिद्ध रूप ईश्वर) हो जाता है। इस दिशा में जैन चिन्तकों का चिन्तन, आत्म विद्या की ओर लगाव अपूर्व है।<br />
*आचार्य गृद्धपिच्छ ने<ref>गृद्धपिच्छ, त.सू. 1-2, 4; द्र.सं. गा. 28</ref> तत्त्वार्थसूत्र<ref>गृद्धपिच्छ, त.सू. 1-2, 4; द्र. सं. गा. 28</ref> में, जो 'अर्हत् प्रवचन' के नाम से प्रसिद्ध है, लिखा है तत्त्वार्थ की श्रद्धा सम्यक् दर्शन है। सही रूप में तभी देखा परखा जा सकता है जब तत्त्वार्थ की श्रद्धा हो। ये तत्त्वार्थ (तत्त्व) सात हैं<ref>द्र. सं. गा. 3, 4, 5; त. सू. 2-8, 9; पंचास्ति, गा. 40, 41, 42</ref>- <br />
#जीव, <br />
#अजीव, <br />
#आस्त्रव, <br />
#बंध, <br />
#संवर, <br />
#निर्जरा और <br />
#मोक्ष। <br />
*जीव तत्त्व— यह सर्वोपरि प्रतिष्ठित और शाश्वत तत्त्व है। यह चेतना लक्षण वाला है, ज्ञाता-दृष्टा है और अनंतगुणों से सम्पन्न है। चेतना वह प्रकाश है जिसमें चेतन-अचेतन सभी पदार्थों को प्रकाशित करने की शक्ति है। वह दो प्रकार की है- <br />
#ज्ञानचेतना (ज्ञानोपयोग) और <br />
#दर्शनचेतना (दर्शनोपयोग) विशेष-ग्रहण का नाम ज्ञान-चेतना है और पदार्थ के सामान्य-ग्रहण का नाम दर्शनचेतना है। <br />
*ज्ञान चेतना के आठ भेद हैं- 1. मति, 2. श्रुत, 3. अवधि-ये तीन ज्ञान सम्यक् दर्शन के साथ होने पर सम्यक् होते हैं। और मिथ्यादर्शन के साथ होने पर मिथ्या भी होते हैं। इस तरह 1. सम्यक् मतिज्ञान, 2. सम्यक् श्रुतवान, 3. सम्यक् अवधिज्ञान, 4. मिथ्यामतिज्ञान, 5. मिथ्याश्रुतज्ञान 6. मिथ्या अवधिज्ञान (विभंगावधि), 7. मन:पर्ययज्ञान और 8 केवलज्ञान ये आठ ज्ञानोपयोग हैं। अंतिम दोनों ज्ञान सम्यक ही होते हैं, वे मिथ्या नहीं होते।<br />
*इन्द्रिय और मन की सहायता से जो ज्ञान होता है वह मतिज्ञान है। और इस मतिज्ञानपूर्वक जो उत्तरकाल में चिन्तनात्मक ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है। इन्द्रिय और मन निरपेक्ष एवं आत्मसापेक्ष जो मूर्तिक (पुद्गल) का सीमायुक्त ज्ञान होता है वह अवधिज्ञान है। इस अवधिज्ञान के द्वारा जाने गए पदार्थ के अनंतवें भाग को जो ज्ञान जानता है वह मन:पर्ययज्ञान है। भूत, भविष्यत और वर्तमान तीनों कालों से संबंधित और तीनों लोकों में विद्यमान समग्र पदार्थों को युगपत् जानने वाला ज्ञान केवलज्ञान कहा गया है। यह ज्ञान जिसे हो जाता है वह वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा कहा जाता है। इन ज्ञानों के अवान्तर भेद भी जैनदर्शन में प्रतिपादित हैं, जो ज्ञातव्य हैं। <br />
*दर्शन चेतना के चार भेद हैं<ref>पंचास्ति गा. 42; स. सि. 2-9; द्रव्यसं. गा. 4</ref>- 1.चक्षुर्दर्शन, 2. अचक्षुर्दर्शन, 3. अवधिदर्शन और 4. केवलदर्शन। नेत्रों से होने वाला पदार्थ का सामान्य दर्शन चक्षुर्दर्शन है और शेष इन्द्रियों एवं मन से होने वाला सामान्य दर्शन अचक्षुर्दर्शन है। अवधिज्ञान से पूर्व जो दर्शन होता है वह अवधिदर्शन है। केवल ज्ञान के साथ ही जो समस्त वस्तुओं का युगपत् दर्शन होता है वह केवलदर्शन है। यह जीवतत्त्व आध्यात्मिक दृष्टि से तीन प्रकार का है<ref>कुन्दकुन्द, अष्टपा., मोक्ष प्रा. गा. 4, 5, 6, 7</ref> अर्थात इनके उत्थान की तीन श्रेणियां हैं। वे है- 1. बहिरात्मा, 2. अन्तरात्मा, और 3. परमात्मा। <br />
*[[गीता]] में सम्भवत: ऐसे ही अन्तरात्मा को 'स्थितप्रज्ञ' कहा गया है। यह अन्तरात्मा भी तीन प्रकार है<ref>दौलतराम छह-ढाला 3-4, 5, 6</ref>2)- 1. जघन्य, 2. मध्यम और 3. उत्तम। मिथ्यात्व का त्याग कर जिसने सम्यक्त्य (स्वयरभेद श्रद्धा) को प्राप्त कर लिया है, पर त्याग के मार्ग में अभी प्रवृत्त नहीं हो सका वह जघन्य अन्तरात्मा है। इसे जैन परिभाषा में 'अविरत-सम्यग्दृष्टि' कहा जाता है। <br />
*आचार्य [[समन्तभद्र (जैन)|समन्तभद्र]] ने लिखा है कि तपस्वी (साधु) वही है ज्ञान, ध्यान और तप में लवलीन रहता है- 'ज्ञान-ध्यान-तपो रक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते।' यही उत्तम अन्तरात्मा तप और ध्यान द्वारा नवीन पुरातन कर्मों को निर्जीर्ण करके जब कर्मकलङ्क से मुक्त हो जाता है तो वह परमात्मा कहा जाता है। फिर उसे संसार परिभ्रमण नहीं करना पड़ता। अनन्त काल तक वह अपने अनन्त गुणों में लीन होकर शाश्वत सुख (नि:श्रेयस) का अनुभव करता है। जैन दर्शन में मुक्त जीवों की अवस्थिति लोक के अग्रभाग (सिद्धशिला) में मानी गयी है।<ref>नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव, द्रव्यसं. गा. 14</ref><br />
*गुणस्थान- उल्लेखनीय है कि इस जीव तत्त्व के आध्यात्मिक विकास या उन्नयन की चौदह श्रेणियां जैन आगमों में निरूपित हैं।<ref>नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव, द्रव्यसं.4, गा. 13</ref> जिन्हें 'गुणस्थान' (आत्मगुणों को विकसित करने के दर्जे) संज्ञा दी गयी है। वे हैं- <br />
#मिथ्यात्व, <br />
#सासादन, <br />
#मिश्र, <br />
#अविरत, <br />
#देशविरत, <br />
#सर्वविरत, <br />
#अप्रमत्तसंयत, <br />
#अपूर्वकरण, <br />
#अनिवृत्तिकरण, <br />
#सूक्ष्मसाम्पराय, <br />
#उपशान्त मोह, <br />
#क्षीण मोह, <br />
#सयोग केवली और <br />
#अयोग केवली। <br />
इन चौदह गुणस्थानों में बारहवें गुणस्थान तक जीव संसारी कहलाता है। किन्तु निश्चय ही वह तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त करेगा और वहां तथा चौदहवें गुणस्थान में वह 'परमात्मा' संज्ञा को प्राप्त कर लेता है तथा कुछ ही क्षणों में गुणस्थानातीत होकर 'सिद्ध' हो जाता है।<br />
*अजीव तत्त्व- यों तो जीव के सिवाय सभी द्रव्य (पुद्गल आदि पांचों) अजीव हैं। उनमें किसी में भी चेतना न होने से अचेतन हैं। उनका विवेचन द्रव्य-मीमांसा में किया जा चुका है। पर यहाँ उस अजीव से मतलब है, जो जीव को अनादि से बन्धनबद्ध किये हुए है और जिससे ही वस्तुत: जीव को छुटकारा पाना है। वह है पुद्गल, और पुद्गलों में भी सभी पुद्गल नहीं क्योंकि वे तो छूटे हुए ही हैं। किन्तु कार्माणवर्गणा के जो कर्मरूप परिणत पुद्गल स्कन्ध है और जो जीव के कषाय एवं योग के निमित्त से उससे बंधे है। तथा प्रतिसमय बंध रहे हैं। उन कर्म रूप पुद्गल स्कन्धों की यहाँ अजीव तत्त्व से विवक्षा है, जिन्हें तत्त्वार्थसूत्रकार गृद्धपिच्छ ने 'भेत्तारं कर्मभूभृताम्' पद के द्वारा 'कर्मभूभृत्' कहा है। इन्हें ही हेय ज्ञात कर आत्मा से दूर करना है। जैन दर्शनों में इन कर्मों को ज्ञानावरण आदि आठ भागों में विभक्त किया गया है। आत्मदर्शन, स्वरूपोपलब्धि सिद्धत्व आदि आत्मगुण उन्हीं के कारण अवरुद्ध रहते हैं। <br />
*आस्त्रव तत्त्व— जिनके द्वारा आत्मा में कर्मस्कन्धों का प्रवेश होता है उन्हें आस्त्रव कहा गया है। यह दो प्रकार का है<ref>नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव, द्रव्यसं., गा. 29, 30</ref><br />
#भावास्त्रव और <br />
#द्रव्यास्त्रव। <br />
आत्मा के जिन कलुषितभावों या मन, वचन और शरीर की क्रिया से कर्म आते हैं उन भावों तथा मन, वचन और शरीर की क्रिया को भावास्त्रव तथा कर्मागमन को द्रव्यास्त्रव प्रतिपादित किया गया है। भावास्त्रव के अनेक भेद हैं- 1. मिथ्यात्व 2. अविरति, 3. प्रमाद, 4. कषाय और 5.योग। इनमें मिथ्यात्व के 5, अविरति के 5, प्रमाद के 15, कषाय के 4 और योग के 3 कुल 32 भेद हैं। ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के योग्य जो कार्माणवर्गणा के पुद्गलस्कन्ध आते हैं उनमें कर्मरूप शक्ति होना द्रव्यास्त्रव है। इनके ज्ञानावरण आदि आठ मूलभेद हैं और उनके उत्तरभेद एक सौ अड़तालीस हैं। <br />
*बन्ध तत्त्व— आत्मा के जिन अशुद्ध भावों से कर्म आत्मा से बंधें वे अशुद्ध भाव (राग, द्वेष, छल-कपट, क्रोध मान आदि) भावबंध हैं ये अशुद्ध भाव कर्म व आत्मा को परस्पर चिपकाने (बांधने) में गोंद का कार्य करते हैं। कर्म पुद्गलों तथा आत्मा के प्रदेशों का जो अन्योन्य प्रवेश है। दूध-पानी की तरह उनका घुल-मिल जाना है वह द्रव्य बन्ध है। एक दूसरी तरह से भी बंध के भेद कहे गए हैं<ref>नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव, द्रव्यसं., गा. 32, 33</ref>। वे हैं- <br />
#प्रकृति, <br />
#स्थिति, <br />
#अनुभाग और <br />
#प्रदेश। <br />
इनमें प्रकृति और प्रदेश योगों (शरीर, वचन और मन की क्रियाओं) से होते हैं। स्थिति एवं अनुभाव कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ) के निमित्त् से होते हैं। <br />
*संवरतत्त्व— आस्त्रव तत्त्व के कथन में जिन आस्त्रवों को (कर्म के आने के द्वारों को) कहा गया है उनको रोक देना संवर है।<ref>गृद्धपिच्छ, स.सू. 9-1; द्रव्यसं. गा. 34, 35</ref> कर्म के द्वार बन्द हो जाते हैं तब कर्म आत्मा में प्रवेश नहीं कर सकते। जैसे- सछिद्र जलयान (नाव आदि) के छोटे-बड़े सब छिद्र बंद कर देने पर जलयान में जल का प्रवेश नहीं होता। संवर नये कर्मों का प्रवेश रोकता है। इसके कई प्रकार हैं। व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र- ये उसके भेद हैं, जो आगत कर्मों को आत्मा में आने नहीं देते।<br />
*निर्जरा तत्त्व— ज्ञात-अज्ञात में आये कर्मों को तप आदि के द्वारा बाहर निकालने का जो प्रयत्न है वही निर्जरा है। यह सविपाक और अविपाक के भेद से दो प्रकार की है।<ref>द्रव्य सं. गा. 36; त.सू. 9-3, 19, 20</ref> जो कर्म अपना फल देकर चला जाता हे वह सविपाक निर्जरा हैं। यह निर्जरा प्रत्येक जीव के प्रति समय होती रहती है, पर इससे बंधन नहीं टूटता है। तप के द्वारा जो बंधन तोड़ा जाता है वह अविपाक निर्जरा है। जीव को अपने उद्धार के लिए यही निर्जरा सार्थक होती है। अर्थात उसी से शिवफल (मोक्ष) प्राप्त होता है। <br />
*मोक्ष तत्त्व— यह वह तत्त्व एवं तथ्य है जिसके लिए मुमुक्ष अनेक भवों से प्रयत्न करते हैं। कर्म दो प्रकार के हैं। एक वे जो अतीतकाल से संबंध रखते हैं और अनादिकाल से बंधे चले आ रहे हैं तथा दूसरे वे हैं जो आगामी हैं। आगामी कर्मों का अभाव बंध हेतुओं (आस्त्रव) के अभाव (संवर) से होता है। अतीत संबंधी (पूर्वोपात्त) कर्मों का अभाव निर्जरा द्वारा होता है। इस प्रकार समस्त कर्मों का छूट जाना मोक्ष है।<ref>तत्त्व सूत्र 10-2, 3, द्रव्य सं. गा. 37</ref> यही शुद्ध अवस्था जीव की वास्तविक अपनी अवस्था है, जो सादि होकर अनंत है। इसी को प्राप्त करने के लिए आत्मा बाह्य और आभ्यंतर तपों, उत्तम क्षमादि धर्मों एवं चारों शुक्लध्यानों को करता है और नाना उपसर्गों एवं परीषहों को सहनकर उन पर विजय पाता है। द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म- इन तीनों प्रकार के कर्मों से रहित हो जाने पर आत्मा 'सिद्ध' हो जाता है।<br />
<br />
==पदार्थ मीमांसा==<br />
उक्त सात तत्त्वों में पुण्य और पाप को सम्मिलित कर देने पर नौ पदार्थ कहे गए हैं।<ref>जीवा जीवा भावा पुण्णं पावं च आसवं तेसिं। संवर-णिज्जर बंधो मोक्खो य हवंति ते अट्ठ॥–पंचास्ति., गा. 108</ref> इन नौ पदार्थों का प्रतिपादन आचार्य कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय (गाथा 108) में सर्वप्रथम दृष्टिगोचर होता है। उसके बाद नेमिचन्द्र सिद्धांतिदेव ने भी उनका अनुसरण किया है।<ref>द्रव्य सं. गा. 28 । 'इह पुण्यपापग्रहणं कर्त्तव्यम्, नव पदार्था इत्यन्यैरप्युक्तत्वान्॥</ref> तत्त्वार्थ सूत्रकार ने सात तत्त्वों के श्रद्धान को सम्यक्दर्शन कहकर उन सात तत्त्वों की ही प्ररूपणा की है। नौ पदार्थों की उन्होंने चर्चा नहीं की<ref>तत्त्व सूत्र 1-4</ref> यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र के आठवें अध्याय के अन्त में उन्होंने पुण्य और पाप दोनों का कथन किया है। किन्तु वहाँ उनका पदार्थ के रूप में निरूपण नहीं है। बल्कि बंधतत्त्व का वर्णन करने वाले इस अध्याय में समग्र कर्म प्रकृतियों को पुण्य और पाप दो भागों में विभक्तकर साता वेदनीय, शुभायु:, शुभनाम और शुभगोत्र को पुण्य तथा असातावेदनीय, अशुभायु:, अशुभनाम और अशुभगोत्र को पाप कहा है।<ref> तत्त्व सूत्र 8-25, 26</ref> ध्यान रहे यह विभाजन अघातिप्रकृतियों की अपेक्षा है, घातिप्रकृतियों की अपेक्षा नहीं, क्योंकि वे सभी (47) पाप-प्रकृतियां ही हैं।)<br />
==पंचास्तिकाय मीमांसा==<br />
जैन दर्शन में उक्त द्रव्य, तत्त्व और पदार्थ के अलावा अस्तिकायों का निरूपण किया गया है। कालद्रव्य को छोड़कर शेष पांचों द्रव्य (पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकश और जीव) अस्तिकाय हैं<ref>द्रव्य सं. गा. 23, 24, 25</ref> क्योंकि ये 'हैं' इससे इन्हें 'अस्ति' ऐसी संज्ञा दी गई है और काय (शरीर) की तरह बहुत प्रदेशों वाले हैं, इसलिए ये 'काय' हैं। इस तरह ये पांचों द्रव्य 'अस्ति' और 'काय' दोनों होने से 'अस्तिकाय' कहे जाते हैं। पर कालद्रव्य 'अस्ति' सत्तावान होते हुए भी 'काय' (बहुत प्रदेशों वाला) नहीं है। उसके मात्र एक ही प्रदेश हैं। इसका कारण यह है कि उसे एक-एक अणुरूप माना गया है और वे अणुरूप काल द्रव्य असंख्यात हैं, क्योंकि वे लोकाकाश के, जो असंख्यात प्रदेशों वाला है, एक-एक प्रदेश पर एक-एक जुदे-जुदे रत्नों की राशि की तरह अवस्थित हैं। जब कालद्रव्य अणुरूप है तो उसका एक ही प्रदेश है इससे अधिक नहीं। अन्य पाँचों द्रव्यों में प्रदेश बाहुल्य है, इसी से उन्हें 'अस्तिकाय' कहा गया है और कालद्रव्य को अनस्तिकाय।<br />
==अनेकान्त विमर्श==<br />
'अनेकान्त' जैनदर्शन का उल्लेखनीय सिद्धान्त है। वह इतना व्यापक है कि वह लोक (लोगों) के सभी व्यवहारों में व्याप्त है। उसके बिना किसी का व्यवहार चल नहीं सकता। आचार्य [[सिद्धसेन]] ने कहा है<ref>जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वडइ।<br /> तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमोऽणेयंत वायस्स॥ - सिद्धसेन। </ref> कि लोगों के उस आद्वितीय गुरु अनेकान्तवाद को हम नमस्कार करते हैं, जिसके बिना उनका व्यवहार किसी तरह भी नहीं चलता। अमृतचन्द्र उसके विषय में कहते है<ref>परमागमस्य जीवं निषिद्धजात्यन्ध- सिन्धुरविधानम्।<br /> सकल-नय-विलसितानां विरोधमथानं नमाम्यनेकान्तम्॥ -अमृतचन्द्र, पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, श्लो. 1।</ref> कि अनेकान्त परमागम जैनागम का प्राण हे और वह वस्तु के विषय में उत्पन्न एकान्तवादियों के विवादों को उसी प्रकार दूर करता है जिस प्रकार हाथी को लेकर उत्पन्न जन्मान्धों के विवादों को उसी प्रकार दूर करता है जिस प्रकार हाथी को लेकर उत्पन्न जन्मान्धों के विवादों को सचक्षु: (नेत्रवाला) व्यक्ति दूर कर देता है। समन्तभद्र का कहना है<ref>एकान्त धर्माभिनिवेशमूला रागादयोऽहं कृतिजा जनानाम्।<br />एकान्तहानाच्च स यत्तदेव स्वाभाविकत्वाच्च समं मनस्ते॥ - समन्तभद्र, युक्तयनुशासन कारिका 51</ref> कि वस्तु को अनेकान्त मानना क्यों आवश्यक है? वे कहते हैं कि एकान्त के आग्रह से एकान्त समझता है कि वस्तु उतनी ही है, अन्य रूप नहीं है, इससे उसे अहंकर आ जाता है और अहंकार से उसे राग, द्वेष आदि उत्पन्न होते हैं, जिससे उसे वस्तु का सही दर्शन नहीं होता। पर अनेकान्ती को एकानत का आग्रह न होने से उसे न अहंकार पैदा होता है और न राग, द्वेष आदि उत्पन्न होते हैं। फलत: उसे उस अनन्तधर्मात्मक अनेकान्त रूप वस्तु का सम्यक्दर्शन होता है, क्योंकि एकान्त का आग्रह न करना दूसरे धर्मों को भी उसमें स्वीकार करना सम्यग्दृष्टि का स्वभाव है। और इस स्वभाव के कारण ही अनेकान्ती के मन में पक्ष या क्षोभ पैदा नहीं होता, वह साम्य भाव को लिए रहता है। <br />
*अनेकान्त के भेद- यह अनेकान्त दो प्रकार का है- <br />
#सम्यगनेकान्त और <br />
#मिथ्या अनेकान्त। <br />
परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशन करने वाला सम्यगनेकान्त है अथवा सापेक्ष एकान्तों का समुच्चय सम्यगनेकान्त है<ref>समन्तभद्र, आप्तमी., का. 107</ref> निरपेक्ष नाना धर्मों का समूह मिथ्या अनेकान्त है। एकान्त भी दो प्रकार का है- <br />
#सम्यक एकान्त और <br />
#मिथ्या एकान्त। <br />
सापेक्ष एकान्त सम्यक एकान्त है। वह इतर धर्मों का संग्रहक है। अत: वह नय का विषय है और निरपेक्ष एकान्त मिथ्या एकान्त है, जो इतर धर्मों का तिरस्कारक है वह दुनर्य या नयाभास का विषय है। अनेकान्त के अन्य प्रकार से भी दो भेद कहे गये हैं।<ref>विद्यानन्द तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, 5-38-2</ref> <br />
#सहानेकान्त और <br />
#क्रमानेकान्त। <br />
एक साथ रहने वाले गुणों के समुदाय का नाम सहानेकान्त है और क्रम में होने वाले धर्मों-पर्यायों के समुच्चय का नाम क्रमानेकान्त है। इन दो प्रकार के अनेकान्तों के उद्भावक जैन दार्शनिक आचार्य विद्यानंद हैं। उनके समर्थक [[वादीभसिंह]] हैं। उन्होंने अपनी स्याद्वादसिद्धि में इन दोनों प्रकार के अनेकान्तों का दो परिच्छेदों में विस्तृत प्रतिपादन किया है। उन के नाम हैं- सहानेकान्तसिद्धि और क्रमानेकान्त सिद्धि। अनेकान्त को मानने में कोई विवाद होना ही नहीं चाहिए। जो हेतु<ref>एकस्य हेतो: साधक दूषकत्वाऽविसंवादवद्धा'- त.वा. 1-6-13</ref> स्वपक्ष का साधक होता है वही साथ में परपक्ष का दूषक भी होता है। इस प्रकार उसमें साधकत्व एवं दूषकत्व दोनों विरुद्ध धर्म एक साथ रूपरसादि की तरह विद्यमान हैं। <br />
सांख्यदर्शन, प्रकृति को सत्त्व, रज और तमोगुण रूप त्रयात्मक स्वीकार करता है और तीनों परस्पर विरुद्ध है तथा उनके प्रसाद-लाघव, शोषण-ताप, आवरण-सादन आदि भिन्न-भिन्न स्वभाव हैं और सब प्रधान रूप हैं, उनमें कोई विरोध नहीं है।<ref>'केचित्तावदाहु:- सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रधानमिति, तेषां<br /> प्रसादलाघवशोषतापावरणासादनादिभिन्नस्वभावानां प्रधानात्मनां मिथश्च न विरोध:।'</ref> वैशेषिक द्रव्यगुण आदि को अनुवृत्ति-व्यावृत्ति प्रत्यय कराने के कारण सामान्य-विशेष रूप मानते हैं। पृथ्वी आदि में 'द्रव्यम्' इस प्रकार का अनुवृत्ति प्रत्यय होने से द्रव्य को सामान्य और 'द्रव्यम् न गुण:, न कर्म, आदि व्यावृत्ति प्रत्यय का कारण होने से उसे विशेष भी कहते हैं और इस प्रकार द्रव्य एक साथ परस्पर विरुद्ध सामान्य-विशेष रूप माना गया है।<ref>अपरे मन्यन्ते- अनुवृत्तिविनिवृत्तिबुद्धयभिधानलक्षण: सामान्यविशेष इति। तेषां च सामान्यमेव विशेष: सामान्यविशेष इति। एकस्यात्मन उभयात्मकत्वं न विरुध्यते। त.वा. 1-6-14 । 2. समन्तभद्र, आप्तमी. का 104</ref> चित्ररूप भी उन्होंने स्वीकार किया है, जो परस्पर विरुद्ध रूपों का समुदाय है। बौद्ध दर्शन में भी एक चित्रज्ञान स्वीकृत है, जो परस्परविरुद्ध नीलादि ज्ञानों का समूह है।<br />
<br />
==स्याद्वाद विमर्श==<br />
स्याद्वाद उसी प्रकार अनेकान्त का वाचक अथवा व्यवस्थापक है जिस प्रकार ज्ञान उस अनेकान्त का व्यापक अथवा व्यवस्थापक है। जब ज्ञान के द्वारा वह जाना जाता है तो दोनों में ज्ञान-ज्ञेय का संबंध होता है और जब वह स्याद्वाद के द्वारा कहा जाता है तो उनमें वाच्य-वाचक संबंध होता है। ज्ञान का महत्त्व यह है कि वह ज्ञेय को जानकर उन ज्ञेयों की व्यवस्था बनाता है- उन्हें मिश्रित नहीं होने देता है। यह अमुक है, यह अमुक नहीं है इस प्रकार वह ज्ञाता को उस उस ज्ञेय की परिच्छित्ति कराता है। स्याद्वाद का भी वही महत्त्व है। वह वचनरूप होने से वाच्य को कहकर उसके अन्य धर्मों की मौन व्यवस्था करता है। ज्ञान और वचन में अंतर यही है कि ज्ञान एक साथ अनेक ज्ञेयों को जान सकता है पर वचन एक बार में एक ही वाच्य धर्म को कह सकता है, क्योंकि 'सकृदुच्चरित शब्द: एकमेवार्थ गमयति' इस नियम के अनुसार एक बार बोला गया वचन एक ही अर्थ का बोध कराता है। <br />
*समन्तभद्र की 'आप्त-मीमांसा', जिसे 'स्याद्वाद-मीमांसा' कहा जा सकता है, ऐसी कृति है, जिसमें एक साथ स्याद्वाद, अनेकान्त और सप्तभंगी तीनों का विशद और विस्तृत विवेचन किया गया है। अकलंकदेव ने उस पर 'अष्टशती' (आप्त मीमांसा- विवृति) और [[विद्यानन्द]] ने उसी पर 'अष्टसहस्त्री' (आप्तमीमांसालंकृति) व्याख्या लिखकर जहाँ आप्तमीमांसा की कारिकाओं एवं उनके पद-वाक्यादिकों का विशद व्याख्यान किया है वहाँ इन तीनों का भी अद्वितीय विवेचन किया है।<br />
---- <br />
<br />
'''न्याय विद्या'''<br />
<br />
*'नीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन स न्याय:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार न्याय वह विद्या है जिसके द्वारा वस्तु का स्वरूप निर्णीत किया जाए। इस व्युत्पत्ति के आधार पर कोई प्रमाण को, कोई लक्षण और प्रमाण को, कोई लक्षण, प्रमाण, नय और निक्षेप को तथा कोई पंचावयव-वाक्य के प्रयोग को न्याय कहते हैं क्योंकि इनके द्वारा वस्तु-प्रतिपत्ति होती है। <br />
*न्यायदीपिकाकार अभिनव धर्मभूषण का मत है कि न्याय प्रमाण और नयरूप है। अपने इस मत का समर्थन वे आचार्य गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्रगत उस सूत्र से करते हैं<ref>'प्रमाणनयैरधिगम:'- त.सू. 1-16</ref>, जिसमें कहा गया है कि वस्तु (जीवादि पदार्थों) का अधिगम प्रमाणों तथा नयों से होता है। प्रमाण और नय इन दो को ही अधिगम का उपाय सूत्रकार ने कहा है। उनका आशय है कि चूँकि प्रत्येक वस्तु अखंड (धर्मी) और सखंड (धर्म) दोनों रूप है। उसे अखंडरूप में ग्रहण करने वाला प्रमाण है और खंडरूप में जानने वाला नय है। अत: इन दो के सिवाय किसी तीसरे ज्ञापकोपाय की आवश्यकता नहीं है। <br />
*न्यायविद्या को 'अमृत' भी कहा गया है।<ref>'न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने।' –अनन्तवीर्य, प्रमेयरत्नमाला पृ. 2,2 श्लो. 2</ref> इसका कारण यह कि जिस प्रकार 'अमृत' अमरत्व को प्रदान करता है उसी प्रकार न्यायविद्या भी तत्त्वज्ञान प्राप्त कराकर आत्मा को अमर (मिथ्याज्ञानादि से मुक्त और सम्यग्ज्ञान से युक्त) बना देती है।<br />
<br />
'''आगमों में न्याय-विद्या'''<br />
<br />
*षट्खंडागम<ref>षट्ख. 5।5।51, शोलापुर संस्करण, 1965</ref> में श्रुत के पर्याय-नामों को गिनाते हुए एक नाम 'हेतुवाद' भी दिया गया है, जिसका अर्थ हेतुविद्या, न्यायविद्या, तर्क-शास्त्र और युक्ति-शास्त्र किया है। <br />
*स्थानांगसूत्र<ref>'अथवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते तं जहा- पच्चक्खे अनुमाने उवमे आगमे। अथवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते। तं जहा-अत्थि तं अत्थि सो हेऊ, अत्थि तं णत्थि सो हेऊ, णत्थि तं अत्थि सो हेऊ णत्थि तं णत्थि सो हेऊ।' –स्थानांग स्.-पृ. 309-310, 338</ref> में 'हेतु' शब्द प्रयुक्त है, जिसके दो अर्थ किये गये हैं- <br />
*प्रमाण-सामान्य; इसके [[प्रत्यक्ष]], अनुमान, उपमान और आगम-ये चार भेद हैं। अक्षपाद गौतम के न्यायसूत्र में भी इन चार का प्रतिपादन है। पर उन्होंने इन्हें प्रमाण के भेद कहे हैं। यद्यपि स्थानांगसूत्रकार को भी हेतुशब्द प्रमाण के अर्थ में ही यहाँ विवक्षित है। <br />
*हेतु शब्द का दूसरा अर्थ उन्होंने अनुमान का प्रमुख अंग हेतु (साधन) किया है। उसके निम्न चार भेद किये हैं-<br />
#विधि-विधि (साध्य और साधन दोनों सद्भव रूप)<br />
#विधि-निषेध (साध्य विधिरूप और साधन निषेधरूप)<br />
#निषेध-विधि (साध्य निषेधरूप और हेतु विधिरूप)<br />
#निषेध-निषेध (साध्य और साधन दोनों निषेधरूप)<br />
इन्हें हम क्रमश: निम्न नामों से व्यवहृत कर सकते हैं-<br />
#विधिसाधक विधिरूप<ref>धर्मभूषण, न्यायदीपिका, पृ. 95-99 दिल्ली संस्करण</ref> अविरुद्धोपलब्धि<ref> माणिक्यनन्दि, परीक्षामुख 3/57-58</ref> <br />
#विधिसाधक निषेधरूप विरुद्धानुपलब्धि<br />
#निषेधसाधक विधिरूप विरुद्धोपलब्धि<br />
#निषेधसाधक निषेधरूप अविरुद्धानुपलब्धि<ref>डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ. 24 का टिप्पणी नं. 3</ref> <br />
इनके उदाहरण निम्न प्रकार दिये जा सकते हैं-<br />
#अग्नि है, क्योंकि धूम है। यहाँ साध्य और साधन दोनों विधि (सद्भाव) रूप हैं।<br />
#इस प्राणी में व्याधि विशेष है, क्योंकि स्वस्थचेष्टा नहीं है। साध्य विधिरूप है और साधन निषेधरूप है।<br />
#यहाँ शीतस्पर्श नहीं है, क्योंकि उष्णता है। यहाँ साध्य निषेधरूप व साधन विधिरूप है।<br />
#यहाँ धूम नहीं है, क्योंकि अग्नि का अभाव है। यहाँ साध्य व साधन दोनों निषेधरूप है। <br />
अनुयोगसूत्र में<ref>)डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार पृ. 25 व उसके टिप्पणी</ref> अनुमान और उसके भेदों की विस्तृत चर्चा उपलब्ध है, जिससे ज्ञात होता है कि आगमों में न्यायविद्या एक महत्त्वपूर्ण विद्या के रूप में वर्णित है। आगमोत्तरवर्ती दार्शनिक साहित्य में तो वह उत्तरोत्तर विकसित होती गई है।<br /><br />
'''प्रमाण और नय'''<br /><br />
*तत्त्वमीमांसा में हेय और उपादेय के रूप में विभक्त जीव आदि सात तत्त्वों का विवेचन हैं। तत्त्व का दूसरा अर्थ वस्तु है।<ref>डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ. 58, 59</ref> यह वस्तुरूप तत्त्व दो प्रकार का है- 1. उपेय और 2. उपाय। उपेय के दो भेद हैं- एक ज्ञाप्य (ज्ञेय) और दूसरा कार्य। जो ज्ञान का विषय होता है वह ज्ञाप्य अथवा ज्ञेय कहा जाता है और जो कारणों द्वारा निष्पाद्य या निष्पन्न होता है वह कार्य है।<br />
*उपाय तत्त्व दो तरह का है- <br />
#कारक, <br />
#ज्ञापक। <br />
*कारक वह है जो कार्य की उत्पत्ति करता है अर्थात कार्य के उत्पादक कारणों का नाम कारक है। कार्य की उत्पत्ति दो कारणों से होती है- <br />
#उपादान और <br />
#निमित्त (सहकारी)। <br />
*उपादान वह है जो स्वयं कार्यरूप परिणत होता है और निमित्त वह है जो उसमें सहायक होता है। उदाहरणार्थ घड़े की उत्पत्ति में मृत्पिण्ड उपादान और दण्ड चक्र, चीवर, कुंभकार प्रभृति निमित्त हैं। <br />
*न्यायदर्शन में इन दो कारणो के अतिरिक्त एक तीसरा कारण भी स्वीकृत है वह है असमवायि पर वह समवायि कारणगत रूपादि और संयोगरूप होने से उसे अन्य दर्शनों में उस से भिन्न नहीं माना। <br />
*ज्ञापकतत्त्व भी दो प्रकार का है-<br />
#प्रमाण<ref>डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार पृ. 58 का मूल व टिप्पणी 1; 'प्रमाणनयैरधिगम:'-त.सू. 1-6 'प्रमाणनयाभ्यां हि विवेचिता जीवादय: पदार्थ: सम्यगधिगम्यन्ते।'- न्या.दी. पृ. 2, वीर सेवामंदिर, दिल्ली संस्करण</ref> और <br />
#नय<ref>'प्रमाणादर्थ संसिद्धिस्तदाभासासाद्विपर्यय:। 'परीक्षामु. श्लो. 1</ref> <br />
<br />
'''प्रमाण-भेद'''<br /><br />
*[[वैशेषिक दर्शन]] के प्रणेता [[कणाद]] ने<ref> वैशेषिक सूत्र 10/1/3</ref> प्रमाण के प्रत्यक्ष और लैंगिक- ये दो भेद स्वीकार किये हैं। उन्होंने इन दो के सिवाय न अन्य प्रमाणों की संभावना की है और न न्यायसूत्रकार अक्षपाद की तरह स्वीकृत प्रमाणों में अन्तर्भाव आदि की चर्चा ही की है। इससे प्रतीत होता है कि प्रमाण के उक्त दो भेदों की मान्यता प्राचीन है। इसके अतिरिक्त चार्वाक ने प्रत्यक्ष को माना और मात्र अनुमान की समीक्षा की है<ref>सर्वदर्शन सं., चार्वाकदर्शन, पृ. 3</ref>,अन्य उपमान, आगम आदि की नहीं। जबकि न्याय सूत्रकार ने<ref>न्यायसूत्र 2/2/1, 2</ref> *प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम (शब्द)- इन चार प्रमाणों को स्वीकार किया है तथा ऐतिह्य, अर्थापत्ति, संभव और अभाव-इन चार का स्पष्ट रूप से उल्लेख करके उनकी अतिरिक्त प्रमाणता की आलोचना की हें साथ ही शब्द में ऐतिह्य का और अनुमान में शेष तीनों का अन्तर्भाव प्रदर्शित किया है। <br />
*कणाद के व्याख्याकार प्रशस्तपाद ने<ref>प्रश. भा., पृ. 106-111</ref> अवश्य उनके मान्य प्रत्यक्ष और लैंगिक इन दो प्रमाणों का समर्थन करते हुए उल्लिखित शब्द आदि प्रमाणों का इन्हीं दो में समावेश किया है तथा चेष्टा, निर्णय, आर्ष (प्रातिभ) और सिद्ध दर्शन को भी इन्हीं दो के अन्तर्गत सिद्ध किया है। यदि वैशेषिक दर्शन से पूर्व न्यायदर्शन या अन्य दर्शन की प्रमाण भेद परम्परा होती, तो चार्वाक उसके प्रमाणों की अवश्य आलोचना करता। इससे विदित होता है कि वैशेषिक दर्शन की प्रमाण-द्वय की मान्यता सब से प्राचीन है। <br />
*वैशेषिकों की<ref>वैशे. सू. 10/1/3</ref>तरह बौद्धों ने<ref>दिग्नाग, प्रमाण समु.प्र.परि.का. 2, पृ. 4</ref> भी प्रत्यक्ष और अनुमान- इन दो प्रमाणों की स्वीकार किया है। <br />
*शब्द सहित तीनों को सांख्यों ने<ref>सांख्य का. 4</ref>, उपमान सहित चारों को नैयायिकों ने<ref>न्याय सू. 1/1/3</ref>और अर्थापत्ति तथा अभाव सहित छह प्रमाणों को जैमिनीयों (मीमांसकों) ने<ref>शावरभा. 1/1/5</ref> मान्य किया है। कुछ काल बाद जैमिनीय दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गये- <br />
#भाट्ट (कुमारिल भट्ट के अनुगामी) और <br />
#प्राभाकर (प्रभाकर के अनुयायी)। <br />
भाट्टों ने छहों प्रमाणों को माना। पर प्राभाकरों ने अभाव प्रमाण को छोड़ दिया तथा शेष पाँच प्रमाणों को अंगीकार किया। इस तरह विभिन्न दर्शनों में प्रमाण-भेद की मान्यताएँ<ref>जैमिने: षट् प्रमाणानि चत्वारि न्यायवादिन:। सांख्यस्य त्रीणि वाच्यानि द्वे वैशेषिकबौद्धयो:॥ - प्रमेयर. 2/2 का टि.</ref> दार्शनिक क्षेत्र में चर्चित हैं।<br /><br />
'''जैन न्याय में प्रमाण-भेद'''<br /><br />
*जैन न्याय में प्रमाण के श्वेताम्बर परम्परा में मान्य भगवती सूत्र<ref>भगवती सूत्र 5/3/191-192</ref> और स्थानांग सूत्र में<ref>स्थानांग सूत्र 338</ref> चार प्रमाणों का उल्लेख है- <br />
#प्रत्यक्ष, <br />
#अनुमान, <br />
#उपमान और <br />
#आगम। <br />
*स्थानांग सूत्र में<ref>स्थानांग सूत्र 185</ref> व्यवसाय के तीन भेदों द्वारा प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणों का भी निर्देश है। <br />
*संभव है [[सिद्धसेन]]<ref>न्यायाव. का 8</ref> और [[हरिभद्र]] के<ref>अनेका.ज.प.टी. पृ. 142, 215</ref> तीन प्रमाणों की मान्यता का आधार यही स्थानांग सूत्र हो। <br />
*श्री पं. दलसुख मालवणिया का विचार है<ref>आगम युग का जैन दर्शन पृ. 136 से 138</ref> कि उपर्युक्त चार प्रमाणों की मान्यता नैयायिकादि सम्मत और तीन प्रमाणों का कन सांख्यादि स्वीकृत परम्परा मूलक हों तो आश्चर्य नहीं। यदि ऐसा हो तो भगवती सूत्र और स्थानांग सूत्र के क्रमश: चार और तीन प्रमाणों की मान्यता लोकानुसरण की सूचक होने से अर्वाचीन होना चाहिए। <br />
*दिगम्बर परम्परा के षड्खंडागम में<ref>भूतबली. पुष्पदन्त, षट्खण्डा. 1/1/15 तथा जैन तर्क शा.अनु.वि. पृ. 71 व इसका नं. 5 टिप्पणी</ref> मात्र तीन ज्ञानमीमांसा उपलब्ध होती है। वहाँ तीन प्रकार के मिथ्या ज्ञान और पाँच प्रकार के सम्यग्ज्ञान को गिनाकर आठ ज्ञानों का निरूपण किया गया है। वहाँ प्रमाणाभास के रूप में ज्ञानों का विभाजन नहीं है और न प्रमाण तथा प्रमाणाभास शब्द ही वहाँ उपलब्ध होते हैं। <br />
*कुन्दकुन्द<ref>नियमसार गा. 10, 11, 12, प्रवचनसार प्रथम ज्ञानाधिकार</ref> के ग्रन्थों में भी ज्ञानमीमांसा की ही चर्चा है, प्रमाण मीमांसा की नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि उस प्राचीनकाल में सम्यक और मिथ्या मानकर तो ज्ञान का कथन किया जाता था, किन्तु प्रमाण और प्रमाणाभास मानकर नहीं, पर एक वर्ग के ज्ञानों को सम्यक और दूसरे वर्ग के ज्ञानों को मिथ्या प्रतिपादन करने से अवगत होता है कि जो ज्ञान सम्यक कहे गये हैं वे सम्यक परिच्छित्ति कराने से प्रमाण तथा जिन्हें मिथ्या बताया गया है वे मिथ्या प्रतिपत्ति कराने से अप्रमाण (प्रमाणाभास) इष्ट है।<ref>यह उस समय की प्रतिपादन शैली थी। वैशेषिक दर्शन के प्रवर्त्तक कणाद ने भी इसी शैली से बुद्धि के अविद्या और विद्या ये दो भेद बतलाकर अविद्या के संशय आदि चार तथा विद्या के प्रत्यक्षादि चार भेद कहे हैं तथा दूषित ज्ञान (मिथ्या ज्ञान) को अविद्या और निर्दोष ज्ञान को-सम्यग्ज्ञान का विद्या का लक्षण कहा है। - वैशे.सू. 9/2/7, 8, 10 से 13 तथा 10/1/3</ref> इसकी संपुष्टि तत्त्वार्थसूत्रकार<ref>त.सू. 1/9, 10</ref> के निम्न प्रतिपादन से भी होती है-<br />
<poem>मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानिज्ञानम्। <br />
तत्प्रमाणे'। 'मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च। -तत्त्वार्थसूत्र 1-9, 10, 31 ।</poem><br />
इस प्रकार सम्यग्ज्ञान या प्रमाण के मति, श्रुत, अवधि आदि पाँच भेदों की परम्परा आगम में उपलब्ध होती है, जो अत्यन्त प्राचीन है और जिस पर लोकानुसरण का कोई प्रभाव नहीं है। <br />
<br />
'''तर्कशास्त्र में परोक्ष के भेद'''<br />
<br />
तर्कशास्त्र में परोक्ष के पाँच भेद माने गये हैं<ref>माणिक्यनन्दि, प. मु. 3-1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10</ref>- <br />
#स्मृति, <br />
#प्रत्यभिज्ञान, <br />
#तर्क, <br />
#अनुमान और <br />
#आगम। यद्यपि आगम में आरम्भ के चार ज्ञानों को मतिज्ञान और आगम को श्रुतज्ञान कहकर दोनों को परोक्ष कहा है और इस तरह तर्कशास्त्र तथा आगम के निरूपणों में अन्तर नहीं है।<br />
<br />
'''स्मृति''' <br />
<br />
पूर्वानुभूत वस्तु के स्मरण को स्मृति कहते हैं। यथा 'वह' इस प्रकार से उल्लिखित होने वाला ज्ञान। यह ज्ञान अविसंवादि होता है, इसलिए प्रमाण है। यदि कदाचित् उसमें विसंवाद हो तो वह स्मृत्याभास है। इसे अप्रमाण नहीं माना जा सकता, अन्यथा व्याप्ति स्मरणपूर्वक होने वाला अनुमान प्रमाण नहीं हो सकता और बिना व्याप्ति स्मरण के अनुमान संभव नहीं है। अत: स्मृति को प्रमाण मानना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है।<ref>विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. 36 व पृ. 42, वीर सेवा. ट्र., वाराणसी</ref><br />
<br />
'''प्रत्यभिज्ञान'''<br />
<br />
अनुभव तथा स्मरणपूर्वक होने वाला जोड़ रूप ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है इसे प्रत्यभिज्ञा, प्रत्यवमर्श और संज्ञा भी कहते हैं। जैसे- 'यह वही देवदत्त हे, अथवा यह (गवय) गौ के समान है, यह (महिष) गौ से भिन्न है, आदि। पहला एकत्व प्रत्यभिज्ञान का उदाहरण है, दूसरा सादृश्य प्रत्यभिज्ञान और तीसरा वैसा दृश्य प्रत्यभिज्ञान का है। संकलनात्मक जितने ज्ञान हैं वे इसी प्रत्यभिज्ञान में समाहित होते हैं। उपमान प्रमाण इसी के सादृश्य प्रत्यभिज्ञान में अन्तर्भूत होता है, अन्यथा वैसा दृश्य आदि प्रत्यभिज्ञान भी पृथक् प्रमाण मानना पड़ेंगे। यह भी प्रत्यक्षादि की तरह अविसंवादी होने से प्रमाण है, अप्रमाण नहीं। यदि कोई प्रत्यभिज्ञान विसंवाद (भ्रमादि) पैदा करता है तो उसे प्रत्यभिज्ञानाभास जानना चाहिए। <br />
<br />
'''तर्क'''<br />
जो ज्ञान अन्वय और व्यतिरेकपूर्वक व्याप्ति का निश्चय कराता है वह तर्क है। इसे ऊह, ऊहा और चिन्ता भी कहा जाता है। 'इसके होने पर ही यह होता है', यह अन्वय है और 'इसके न होने पर यह नहीं होता', यह व्यतिरेक है, इन दोनों पूर्वक यह ज्ञान साध्य के साथ साधन में व्याप्ति का निर्माण कराता है। इसका उदाहरण है- 'अग्नि के होने पर ही धूम होता है, अग्नि के अभाव में धूम नहीं होता' इस प्रकार अग्नि के साथ धूम की व्याप्ति का निश्चय कराना तर्क है। इससे सम्यक अनुमान का मार्ग प्रशस्त होता है। <br />
<br />
'''अनुमान'''<br />
<br />
निश्चित साध्याविनाभावी साधन से होने वाला साध्य का ज्ञान अनुमान कहलाता है।<ref>विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. 45, 46, 47, 48, 49; वीर सेवा. ट्र., वाराणसी</ref> जैसे धूम से अग्नि का ज्ञान करना।<br />
<br />
'''अनुमान के अंग:- साध्य और साधन'''<br />
<br />
इस अनुमान के मुख्य घटक (अंग) दो हैं- <br />
#साध्य और <br />
#साधन। <br />
*साध्य तो वह है, जिसे सिद्ध किया जाता है और वह वही होता है जो शक्य (अबाधित), अभिप्रत (वादी द्वारा इष्ट) और असिद्ध (प्रतिवादी के लिए अमान्य) होता है तथा इससे जो विपरीत (बाधित, अनिष्ट और सिद्ध) होता है वह साध्याभास है, क्योंकि वह साधन द्वारा विषय (निश्चय) नहीं किया जाता। [[अकलंकदेव]] ने साध्य और साध्याभास का लक्षण करते हुए यही लिखा है-<br />
<poem>साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धं ततोऽपरम्।<br />
साध्याभासं विरुद्धादि, साधनाविषयत्वत:॥ न्यायविनिश्चय 2-172</poem><br />
*साधन वह है जिसका साध्य के साथ अविनाभाव निश्चित है- साध्य के होने पर ही होता है, उसके अभाव में नहीं होता। ऐसा साधन ही साध्य का गमक (अनुमापक) होता है। साधन को हेतु और लिङ्ग भी कहा जाता है। माणिक्यनन्दि साधन का लक्षण करते हुए कहते हैं-<br />
साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतु:।<ref>परीक्षामुखसूत्र 3-15</ref>' साध्य के साथ जिसका अविनाभाव निश्चित है वह हेतु है। <br />
<br />
'''अविनाभाव-भेद'''<br />
<br />
अविनाभाव दो प्रकार का है<ref>माणिक्यनन्दि, प.मु. 3-16, 17, 18</ref>-<br />
#सहभाव नियम और <br />
#क्रमभाव नियम। <br />
*जो सहचारी और व्याप्य-व्यापक होते हैं उनमें सहभाव नियम अविनाभाव रहता है। जैसे रूप और रस दोनों सहचारी हैं- रूप के साथ रस और रस के साथ रूप नियम से रहता है। अत: दोनों सहचारी हैं और इसलिए उनमें सहभाव नियम अविनाभाव है तथा शिंशपात्व और वृक्षत्व इन दोनों में व्याप्य-व्यापक भाव है। शिंशपात्व व्याप्य है और वृक्षत्व व्यापक है। शिंशपात्व होने पर वृक्षत्व अवश्य होता है। किन्तु वृक्षत्व के होने पर शिंशपात्व के होने का नियम नहीं है। अतएव सहचारियों और व्याप्य-व्यापक में सहभाव नियम अविनाभाव होता है, जिससे रूप से रस का और शिंशपात्व से वृक्षत्व का अनुमान किया जाता है। <br />
<br />
'''हेतु-भेद'''<br />
<br />
इन दोनों प्रकार के अविनाभाव से विशिष्ट हेतु के भेदों का कथन जैन न्यायशास्त्र में विस्तार से किया गया है, जिसे हमने 'जैन तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार' ग्रन्थ में विशदतया दिया है। अत: उस सबकी पुनरावृत्ति न करके मात्र माणिक्यनन्दि के 'परीक्षामुख' के अनुसार उनका दिग्दर्शन किया जाता है।<ref>माणिक्यनन्दि, प. मु. 3-57 58, 59, 65 से 79 तक</ref><br />
*माणिक्यनन्दि ने अकलंकदेव की तरह आरम्भ में हेतु के मूल दो भेद बतलाये हैं-<br />
#उपलब्धि और <br />
#अनुपलब्धि। <br />
*तथा इन दोनों को विधि और प्रतिषेध उभय का साधक कहा है और इस तरह दोनों के उन्होंने दो-दो भेद कहे हैं। उपलब्धि के- <br />
#अविरुद्धोपलब्धि और <br />
#विरुद्धोपलब्धि <br />
*अनुपलब्धि के- <br />
#अविरुद्धानुपलब्धि और <br />
#विरुद्धानुपलब्धि <br />
*इनके प्रत्येक के भेद इस प्रकार प्रतिपादित किये हैं- <br />
*अविरुद्धोपलब्धि छह- <br />
#व्याप्त, <br />
#कार्य,<br />
#कारण, <br />
#पूर्वचर, <br />
#उत्तरचर और <br />
#सहचर।<br />
*विरुद्धोपलब्धि के भी अविरुद्धोपलब्धि की तरह छह भेद हैं- <br />
#विरुद्ध व्याप्य, <br />
#विरुद्ध कार्य, <br />
#विरुद्ध कारण, <br />
#विरुद्ध पूर्वचर, <br />
#विरुद्ध उत्तरचर और <br />
#विरुद्ध-सहचर। <br />
*अविरुद्धानुपलब्धि प्रतिषेध रूप साध्य को सिद्ध करने की अपेक्षा 7. प्रकार की कही है- <br />
#अविरुद्धस्वभावानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धव्यापकानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धकार्यानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धकारणानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धपूर्वचरानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धउत्तरचरानुपलब्धि और <br />
#अविरुद्धसहचरानुपलब्धि। <br />
*विरुद्धानुपलब्धि विधि रूप साध्य को सिद्ध करने में तीन प्रकार की कही गयी है- <br />
#विरुद्धकार्यानुपलब्धि, <br />
#विरुद्धकारणानुपलब्धि और <br />
#विरुद्धस्वभावानुपलब्धि। <br />
*इस तरह माणिक्यनन्दि ने 6+6+7= 22 हेतुभेदों का सोदाहरण निरूपण किया है, परम्परा हेतुओं की भी उन्होंने संभावना करके उन्हें यथायोग्य उक्त हेतुओं में ही अन्तर्भाव करने का इंगित किया है। साथ ही उन्होंने अपने पूर्वज अकलंक की भांति कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर-इन नये हेतुओं को पृथक् मानने की आवश्यकता को भी सयुक्तिक बतलाया है।<br />
<br />
==आगम (श्रुत)==<br />
शब्द, संकेत, चेष्टा आदि पूर्वक जो ज्ञान होता है वह आगम है। जैसे- 'मेरु आदिक है' शब्दों को सुनने के बाद सुमेरु पर्वत आदि का बोध होता है।<ref>परी.मु. 3-99, 100, 101</ref> शब्द श्रवणादि मतिज्ञान पूर्वक होने से यह ज्ञान (आगम) भी परोक्ष प्रमाण है। इस तरह से स्मृत्यादि पाँचों ज्ञान ज्ञानान्तरापेक्ष हैं। स्मरण में धारणा रूप अनुभव (मति), प्रत्यभिज्ञान में अनुभव तथा स्मरण, तर्क में अनुभव, स्मृति और प्रत्यभिज्ञान, अनुमान में लिंगदर्शन, व्याप्ति स्मरण और आगम में शब्द, संकेतादि अपेक्षित हैं- उनके बिना उनकी उत्पत्ति संभव नहीं है। अतएव ये और इस जाति के अन्य सापेक्ष ज्ञान परोक्ष प्रमाण माने गये हैं।<br />
==नय-विमर्श==<br />
नय-स्वरूप— अभिनव धर्मभूषण ने<ref>न्यायदीपिका, पृ. 5, संपादन डॉ. दरबारीलाल कोठिया, 1945</ref> न्याय का लक्षण करते हुए कहा है कि 'प्रमाण-नयात्मको न्याय:'- प्रमाण और नय न्याय हैं, क्योंकि इन दोनों के द्वारा पदार्थों का सम्यक् ज्ञान होता है। अपने इस कथन को प्रमाणित करने के लिए उन्होंने आचार्य गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्र के, जिसे 'महाशास्त्र' कहा जाता है, उस सूत्र को प्रस्तुत किया है, जिसमें प्रमाण और मय को जीवादि तत्त्वार्थों को जानने का उपाय बताया गया है और वह है- 'प्रमाणनयैरधिगम:<ref>तत्त्वार्थसूत्र, 1-6</ref>'। वस्तुत: जैन न्याय का भव्य प्रासाद इसी महत्त्वपूर्ण सूत्र के आधार पर निर्मित हुआ है। <br />
<br />
'''नय-भेद'''<br />
<br />
उपर्युक्त प्रकार से मूल नय दो हैं<ref>प्रमयरत्नमाला 6/74, पृ. 206, सं. 1928</ref>- <br />
#द्रव्यार्थिक और <br />
#पर्यायार्थिक। <br />
*इनमें द्रव्यार्थिक तीन प्रकार का हैं<ref> प्रमयरत्नमाला, 6/74</ref>-<br />
#नैगम, <br />
#संग्रह, <br />
#व्यवहार। तथा <br />
*पर्यायार्थिक नय के चार भेद हैं<ref>प्रमयरत्नमाला, पृ. 207</ref>-<br />
#ऋजुसूत्र, <br />
#शब्द, <br />
#समभिरूढ़ और <br />
#एवम्भूत। <br />
<br />
'''नैगम नय'''<br />
जो धर्म और धर्मी में एक को प्रधान और एक को गौण करके प्ररूपण करता है वह नैगम नय है। जैसे जीव का गुण सुख है, ऐसा कहना। इसमें 'सुख' धर्म की प्रधानता और 'जीव' धर्मी की गौणता है अथवा यह सुखी जीव है, ऐसा कहना। इसमें 'जीव' धर्मी की प्रधानता है, क्योंकि वह विशेष्य है और 'सुख' धर्म गौण है, क्योंकि वह विशेषण है। इस नय का अन्य प्रकार से भी लक्षण किया गया है। जो भावी कार्य के संकल्प को बतलाता है वह नैगम नय है।<br />
<br />
'''संग्रह नय'''<br />
जो प्रतिपक्ष की अपेक्षा के साथ 'सन्मात्र' को ग्रहण करता है वह संग्रह नय है। जैसे 'सत्' कहने पर चेतन, अचेतन सभी पदार्थों का संग्रह हो जाता है, किन्तु सर्वथा 'सत्' कहने पर 'चेतन, अचेतन विशेषों का निषेध होने से वह संग्रहाभास है। विधिवाद इस कोटि में समाविष्ट होता है। <br />
<br />
'''व्यवहार नय'''<br />
संग्रहनय से ग्रहण किये 'सत्' में जो नय विधिपूर्वक यथायोग्य भेद करता है वह व्यवहारनय है। जैसे संग्रहनय से गृहीत 'सत्' द्रव्य हे या पर्याप्त है या गुण है। पर मात्र कल्पना से जो भेद करता है वह व्यवहारनयाभास है।<br />
<br />
'''ऋजुसूत्र नय''' <br />
भूत और भविष्यत पर्यायों को गौण कर केवल वर्तमान पर्याय को जो नय ग्रहण करता है वह ऋजुसूत्रनय है। जैसे प्रत्येक वस्तु प्रति समय परिणमनशील है। वस्तु को सर्वथा क्षणिक मानना ऋजुसूत्रनय है, क्योंकि इसमें वस्तु में होने वाली भूत और भविष्यत की पर्यायों तथा उनके आधारभूत अन्वयी द्रव्य का लोप हो जाता है। <br />
<br />
'''शब्द नय''' <br />
<br />
जो काल, कारक और लिङ्ग के भेद से शब्द में कथं चित् अर्थभेद को बतलाता है वह शब्दनय है। जैसे 'नक्तं निशा' दोनों पर्यायावाची हैं, किन्तु दोनों में लिंग भेद होने के कथं चित् अर्थभेद है। 'नक्तं' शब्द नंपुसक लिंग है और 'निशा' शब्द स्त्रीलिंग है। 'शब्दभेदात् ध्रुवोऽर्थभेद:' यह नय कहता है। अर्थभेद को कथं चित् माने बिना शब्दों को सर्वथा नाना बतलाकर अर्थ भेद करना शब्दनयाभास हैं <br />
<br />
'''समभिरूढ़ नय'''<br />
<br />
जो पर्याय भेद पदार्थ का कथंचित् भेद निरूपित करता है वह समभिरूढ़ नय है। जैसे इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि शब्द पर्याय शब्द होने से उनके अर्थ में कथं चित् भेद बताना। पर्याय भेद माने बिना उनका स्वतंत्र रूप से कथन करना समभिरूढ नयाभास है।<ref>'तत्र प्रमाणं द्विविधं स्वार्थं परार्थं च। तत्र स्वार्थं प्रमाणं श्रुतवर्ज्यम् श्रुतं पुन: स्वार्थं भवति परार्थं च। - सर्वार्थसिद्धि 1-6, भा. ज्ञा. संस्करण</ref>'<br />
<br />
'''एवंभूत नय'''<br />
<br />
जो क्रिया भेद से वस्तु के भेद का कथन करता है वह एवंभूत नय हैं जैसे पढ़ाते समय ही पाठक या अध्यापक अथवा पूजा करते समय ही पुजारी कहना। यह नय क्रिया पर निर्भर है। इसका विषय बहुत सूक्ष्म है। क्रिया की अपेक्षा न कर क्रिया वाचक शब्दों का कल्पनिक व्यवहार करना एवंभूतनयाभास है।<br />
==जैन दर्शन का उद्भव और विकास==<br />
'''उद्भव'''<br />
*आचार्य भूतबली और पुष्पदन्त द्वारा निबद्ध 'षट्खंडागम' में, जो दृष्टिवाद अंग का ही अंश है, 'सिया पज्जत्ता', 'सिया अपज्जता', 'मणुस अपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया', 'अखंखेज्जा* 'जैसे 'सिया' (स्यात्) शब्द और प्रश्नोत्तरी शैली को लिए प्रचुर वाक्य पाए जाते हैं।<br />
*'षट्खंडागम' के आधार से रचित आचार्य कुन्दकुन्द के 'पंचास्तिकाय', 'प्रवचनसार' आदि आर्ष ग्रन्थों में भी उनके कुछ और अधिक उद्गमबीज मिलते हैं। 'सिय अत्थिणत्थि उहयं', 'जम्हा' जैसे युक्ति प्रवण वाक्यों एवं शब्द प्रयोगों द्वारा उनमें प्रश्नोत्तर पूर्वक विषयों को दृढ़ किया गया है। <br />
'''विकास'''<br />
<br />
काल की दृष्टि से उनके विकास को तीन कालखंडों में विभक्त किया जा सकता है और उन कालखंडों के नाम निम्न प्रकार रखे जा सकते हैं :-<br />
*आदिकाल अथवा समन्तभद्र-काल (ई. 200 से ई. 650)।<br />
*मध्यकाल अथवा अकलंक-काल (ई. 650 से ई. 1050)।<br />
*उत्तरमध्ययुग (अन्त्यकाल) अथवा प्रभाचन्द्र-काल (ई. 1050 से 1700)। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन दर्शन का उद्भव और विकास]]<br />
<br />
==जैन दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ==<br />
आचार्य जिनसेन और गुणभद्र : एक परिचय<br />
*ये दोनों ही आचार्य उस पंचस्तूप नामक अन्वय में हुए हैं जो आगे चलकर सेनान्वय का सेनसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। जिनसेन स्वामी के गुरु वीरसेन ने भी अपना वंश पत्र्चस्तूपान्वय ही लिखा है। परन्तु गुणभद्राचार्य ने सेनान्वय लिखा है। इन्द्रानन्दी ने अपने श्रुतावतार में लिखा है कि जो मुनि पंचस्तूप निवास से आये उनमें से किन्हीं को सेन और किन्हीं को भद्र नाम दिया गया। तथा कोई आचार्य ऐसा भी कहते हैं कि जो गुहाओं से आये उन्हें नन्दी, जो अशोक वन से आये उन्हें देव और जो पंचस्तूप से आये उन्हें सेन नाम दिया गया। श्रुतावतार के उक्त उल्लेख से प्रतीत होता है कि सेनान्त और भद्रान्त नाम वाले मुनियों का समूह ही आगे चलकर सेनान्वय या सेना संघ से प्रसिद्ध हुआ है। <br />
<br />
जिनसेनाचार्य सिद्धान्तशास्त्रों के महान् ज्ञाता थे। इन्होंने कषायप्राभृत पर 40 हज़ार श्लोक प्रमाण जयधवल टीका लिखी है। आचार्य वीरसेन स्वामी उस पर 20 हज़ार श्लोक प्रमाण टीका लिख पाये थे और वे दिवंगत हो गये थे। तब उनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने 40 हज़ार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर उसे पूर्ण किया। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ]]<br />
==जैन दर्शन में अध्यात्म==<br />
'अध्यात्म' शब्द अधि+आत्म –इन दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है कि आत्मा को आधार बनाकर चिन्तन या कथन हो, वह अध्यात्म है। यह इसका व्युत्पत्ति अर्थ हे। यह जगत जैन दर्शन के अनुसार छह द्रव्यों के समुदायात्मक है। वे छह द्रव्य हैं-<br />
*जीव,<br />
*पुद्गल,<br />
*धर्म,<br />
*अधर्म,<br />
*आकाश और<br />
*काल। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन दर्शन में अध्यात्म]]<br />
==जैन तार्किक और उनके न्यायग्रन्थ==<br />
'''बीसवीं शती के जैन तार्किक'''<br />
<br />
बीसवीं शती में भी कतिपय दार्शनिक एवं नैयायिक हुए हैं, जो उल्लेखनीय हैं। इन्होंने प्राचीन आचार्यों द्वारा लिखित दर्शन और न्याय के ग्रन्थों का न केवल अध्ययन-अध्यापन किया, अपितु उनका राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनुवाद एवं सम्पादन भी किया है। साथ में अनुसंधानपूर्ण विस्तृत प्रस्तावनाएँ भी लिखी हैं, जिनमें ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार के ऐतिहासिक परिचय के साथ ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषयों का भी तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक आकलन किया गया है। कुछ मौलिक ग्रन्थ भी हिन्दी भाषा में लिखे गये हैं। सन्तप्रवर न्यायचार्य पं. गणेशप्रसाद वर्णी न्यायचार्य, पं. माणिकचन्द्र कौन्देय, पं. सुखलाल संघवी, डा. पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, पं. कैलाश चन्द्र शास्त्री, पं. दलसुख भाइर मालवणिया एवं इस लेख के लेखक डा. पं. दरबारी लाला कोठिया न्यायाचार्य आदि के नाम विशेष उल्लेख योग्य हैं। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन तार्किक और उनके न्यायग्रन्थ]]<br />
==त्रिभंगी टीका==<br />
#आस्रवत्रिभंगी, <br />
#बंधत्रिभंगी, <br />
#उदयत्रिभंगी और <br />
#सत्त्वत्रिभंगी-इन 4 त्रिभंगियों को संकलित कर टीकाकार ने इन पर [[संस्कृत]] में टीका की है। <br />
*आस्रवत्रिभंगी 63 गाथा प्रमाण है। <br />
*इसके रचयिता श्रुतमुनि हैं। <br />
*बंधत्रिभंगी 44 गाथा प्रमाण है तथा उसके कर्ता नेमिचन्द शिष्य माधवचन्द्र हैं। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[त्रिभंगी टीका]]<br />
==पंचसंग्रह टीका==<br />
मूल पंचसंग्रह नामक यह मूलग्रन्थ [[प्राकृत]] भाषा में है। इस पर तीन [[संस्कृत]]-टीकाएँ हैं। <br />
#श्रीपालसुत डड्ढा विरचित पंचसंग्रह टीका, <br />
#आचार्य अमितगति रचित संस्कृत-पंचसंग्रह, <br />
#सुमतकीर्तिकृत संस्कृत-पंचसंग्रह। <br />
*पहली टीका दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह का संस्कृत-अनुष्टुपों में परिवर्तित रूप है। इसकी श्लोक संख्या 1243 है। कहीं कहीं कुछ गद्यभाग भी पाया जाता है, जो लगभग 700 श्लोक प्रमाण है। इस तरह यह लगभग 2000 श्लोक प्रमाण है। यह 5 प्रकरणों का संग्रह है। वे 5 प्रकरण निम्न प्रकार हैं- <br />
#जीवसमास, <br />
#प्रकृतिसमुत्कीर्तन, <br />
#कर्मस्तव, <br />
#शतक और <br />
#सप्ततिका। <br />
*इसी तरह अन्य दोनों संस्कृत टीकाओं में भी समान वर्णन है। <br />
*विशेष यह है कि आचार्य अमितगति कृत पंचसंग्रह का परिमाण लगभग 2500 श्लोक प्रमाण है। तथा सुमतकीर्ति कृत पंचसंग्रह अति सरल व स्पष्ट है। <br />
*इस तरह ये तीनों टीकाएँ संस्कृत में लिखी गई हैं और समान होने पर भी उनमें अपनी अपनी विशेषताएँ पाई जाती हैं। <br />
*कर्म साहित्य के विशेषज्ञों को इन टीकाओं का भी अध्ययन करना चाहिए। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[पंचसंग्रह टीका]]<br />
==मन्द्रप्रबोधिनी==<br />
*शौरसेनी [[प्राकृत|प्राकृत भाषा]] में आचार्य नेमिचन्द्र सि0 चक्रवर्ती द्वारा निबद्ध गोम्मटसार मूलग्रन्थ की [[संस्कृत भाषा]] में रची यह एक विशद् और सरल व्याख्या है। इसके रचयिता अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती हैं। यद्यपि यह टीका अपूर्ण है किन्तु कर्मसिद्धान्त को समझने के लिए एक अत्यन्त प्रामाणिक व्याख्या है। केशववर्णी ने इनकी इस टीका का उल्लेख अपनी कन्नडटीका में, जिसका नाम कर्नाटकवृत्ति है, किया है। इससे ज्ञात होता है कि केशववर्णी ने उनकी इस मन्दप्रबोधिनी टीका से लाभ लिया है। <br />
*गोम्मटसार आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा लिखा गया कर्म और जीव विषयक एक प्रसिद्ध एवं महत्त्वपूर्ण प्राकृत-ग्रन्थ है। इसके दो भाग हैं- <br />
#एक जीवकाण्ड और <br />
#दूसरा कर्मकाण्ड। <br />
जीवकाण्ड में 734 और कर्मकाण्ड में 972 शौरसेनी-प्राकृत भाषाबद्ध गाथाएं हैं। कर्मकाण्ड पर संस्कृत में 4 टीकाएं लिखी गई हैं। वे हैं- <br />
#[[गोम्मट पंजिका]], <br />
#मन्दप्रबोधिनी, <br />
#कन्नड़ संस्कृत मिश्रित जीवतत्त्वप्रदीपिका, <br />
#संस्कृत में ही रचित अन्य नेमिचन्द्र की जीवतत्त्वप्रदीपिका। इन टीकाओं में विषयसाम्य है पर विवेचन की शैली इनकी अलग अलग हैं। भाषा का प्रवाह और सरलता इनमें देखी जा सकती है। <br />
आगे विस्तार में पढ़ें:- [[मन्द्रप्रबोधिनी]]<br />
{{संदर्भ ग्रंथ}}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
{{प्रचार}}<br />
==संबंधित लेख==<br />
{{जैन धर्म}}{{संस्कृत साहित्य}}{{जैन धर्म2}}{{दर्शन शास्त्र}}<br />
[[Category:दर्शन कोश]]<br />
<br />
[[Category:जैन दर्शन]] <br />
__INDEX__<br />
{{toc}}</div>हिमानीhttps://en.bharatdiscovery.org/w/index.php?title=User:%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80/%E0%A4%85%E0%A4%AD%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B82&diff=208601User:हिमानी/अभ्यास22011-08-20T13:16:23Z<p>हिमानी: 'हकीकत राय (जन्म- 1724 ई. स्यालकोट (अब पाकिस्तान), मृत्यु- 174...' के साथ नया पन्ना बनाया</p>
<hr />
<div>हकीकत राय (जन्म- 1724 ई. स्यालकोट (अब पाकिस्तान), मृत्यु- 1740) एक वीर साहसी बालक थे। उनके पिता का नाम भागमल था। हकीकत राय बचपन से ही बड़ी धार्मिक प्रवृत्ति के थे। वे एक मकतब में मौलवी साहब के पास पढ़ने के लिए जाया करते थे। एक दिन मौलवी साहब की अनुपस्थिति में उनके कुछ सहपाठियों ने हिन्दू देवी दुर्गा को गाली दी। हकीकत राय ने विरोध किया और कहा, ‘यदि मैं मुहम्मद साहब की पुत्री फ़ातिमा के विषय में ऐसी ही अपमान जनक भाषा का प्रयोग करूँ, तो तुम लोगों को कैसा लगेगा?’ सहपाठियों ने इसकी शिकायत मौलवी साहब से की।<br />
बाद में यह मामला स्यालकोट के शासक अमीर बेग की अदालत में पहुँचा। हकीकत राय ने दोनों जगह सही बात बता दी। मुल्लाओं की राय ली गई, तो उन्होंने कहा कि, हकीकत राय के मन में इस्लाम के अपमान का विचार आया, इसीलिए उसे मृत्युदण्ड दिया जाए। लाहौर के सूबेदार की कचहरी में भी यही निर्णय बहाल रहा। तब मुल्लाओं ने कहा कि, हकीकत राय इस्लाम धर्म ग्रहण कर ले, तो उसके प्राण बच सकते हैं। माता-पिता और वयस्क पत्नी ने इसे मान लेने का अनुरोध किया, पर हकीकत राय इसके तैयार नहीं हुए। 1740 ई. में उन्हें फाँसी पर चढ़ा दिया गया। लाहौर के दो मील पूर्व की दिशा में हकीकत राय की समाधि बनी हुई है। (हिन्दी विश्वकोश, खण्ड-12, पृष्ठ संख्या-85)</div>हिमानीhttps://en.bharatdiscovery.org/w/index.php?title=User:%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80/%E0%A4%85%E0%A4%AD%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B81&diff=208513User:हिमानी/अभ्यास12011-08-20T12:59:17Z<p>हिमानी: </p>
<hr />
<div>==चकबन्दी==<br />
चकबन्दी वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा स्वामित्त्वधारी कृषकों को उनके इधर-उधर बिखरे हुए खेतों के बदले में उसी किस्म के कुल उतने ही आकार के एक या दो खेत लेने के लिए राजी किया जाता है।<br />
<br />
इस प्रकार चकबन्दी एक परिवार के बिखरे हुए खेतों को एक स्थान पर करने की प्रक्रिया है। लेकिन चकबन्दी करने में उसी प्रकार की भूमि मिले, जिस प्रकार की कृषक की भूमि भिन्न-भिन्न स्थानों पर है, ऐसा होना सम्भव नहीं है। उसको पहले से अच्छी या घटिया भूमि मिल सकती है। ऐसी स्थिति में भूमि का मूल्य लगाया जाता है। यदि उसको पहले से अच्छी भूमि मिलती है तो उसकी मात्रा कम होती है। इसके विपरीत, यदि भूमि पहले से घटिया मिलती है तो उसकी मात्रा अधिक होती है, लेकिन जब भूमि की कुल मात्रा को बढ़ाया नहीं जा सकता है तो फिर इसकी क्षतिपूर्ति रुपयों में आंकी जाती है, जिसको लेकर या देकर हिसाब बराबर किया जाता है। <br />
==प्रकार==<br />
चकबन्दी दो प्रकार की होती है-<br />
#ऐच्छिक चकबन्दी<br />
#अनिवार्य चकबन्दी।<br />
====ऐच्छिक चकबन्दी====<br />
ऐच्छिक चकबन्दी से अर्थ उस चकबन्दी से है, जिसमें चकबन्दी कराना कृषक की इच्छा पर निर्भर करता है। उस पर चकबन्दी कराने के लिए दबाव नहीं डाला जाता है। अत: इस प्रकार की चकबन्दी से अच्छे परिणाम निकलते हैं और बाद में विवाद भी खड़ा नहीं होता है। इस प्रकार की चकबन्दी की शुरुआत [[भारत]] में सबसे पहले [[पंजाब]] राज्य में 1921 में हुई थी, जहाँ पर सहकारी समितियों द्वारा यह कार्य किया गया था। पंजाब के समान ही अन्य राज्यों में भी इसी प्रकार के नियम बनाए गए, जिनमें यह व्यवस्था थी कि यदि गाँव के 90 प्रतिशत किसान चकबन्दी के लिए सहमत हों तो उस गाँव में ऐच्छिक चकबन्दी की अनुमति दी जा सकती है। ऐसी स्थिति में शेष 10 प्रतिशत को यह व्यवस्था मानने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। अभी [[गुजरात]], [[मध्य प्रदेश]] व [[पश्चिम बंगाल]] में ऐच्छिक चकबन्दी क़ानून है।<br />
====अनिवार्य चकबन्दी====<br />
अनिवार्य चकबन्दी से अर्थ उस चकबन्दी से है, जिसके अन्तर्गत कृषक को चकबन्दी अनिवार्य रूप से करानी पड़ती है। ऐसी चकबन्दी क़ानूनी चकबन्दी भी कहलाती है। ऐच्छिक चकबन्दी वाले राज्य गुजरात, मध्य प्रदेश व पश्चिम बंगाल हैं, जिन्हें छोड़कर [[आन्ध्र प्रदेश]], [[अरुणाचल प्रदेश]], [[मिजोरम]], [[मणिपुर]], [[मेघालय]], [[नागालैण्ड]], [[त्रिपुरा]], [[तमिलनाडु]] और [[केरल]] में चकबन्दी सम्बन्धी कोई क़ानून नहीं है। शेष सभी राज्यों में अनिवार्य चकबन्दी क़ानून लागू है।<br />
==चकबन्दी की प्रगति==<br />
भारत में 9 राज्यों को छोड़कर शेष सभी राज्यों में चकबन्दी सम्बन्धी क़ानून हैं, जिनके अन्तर्गत चकबन्दी की जा रही है। पंजाब व [[हरियाणा]] में चकबन्दी का कार्य पूरा किया जा चुका है। [[उत्तर प्रदेश]] में भी 90 प्रतिशत कार्य पूरा हो चुका है। शेष राज्यों में अभी आवश्यक गति आना बाकी है। अब तक देशभर में 1,633,47 लाख एकड़ भूमि की चकबन्दी कर दी गई है।<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<br />
*पुस्तक इण्टरमीडिएट ‘भारत का आथिक विकास’ पृष्ठ संख्या-68<br />
__NOTOC__</div>हिमानीhttps://en.bharatdiscovery.org/w/index.php?title=User:%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80/%E0%A4%85%E0%A4%AD%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B81&diff=208501User:हिमानी/अभ्यास12011-08-20T12:58:18Z<p>हिमानी: </p>
<hr />
<div>==चकबन्दी==<br />
चकबन्दी वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा स्वामित्त्वधारी कृषकों को उनके इधर-उधर बिखरे हुए खेतों के बदले में उसी किस्म के कुल उतने ही आकार के एक या दो खेत लेने के लिए राजी किया जाता है।<br />
<br />
इस प्रकार चकबन्दी एक परिवार के बिखरे हुए खेतों को एक स्थान पर करने की प्रक्रिया है। लेकिन चकबन्दी करने में उसी प्रकार की भूमि मिले, जिस प्रकार की कृषक की भूमि भिन्न-भिन्न स्थानों पर है, ऐसा होना सम्भव नहीं है। उसको पहले से अच्छी या घटिया भूमि मिल सकती है। ऐसी स्थिति में भूमि का मूल्य लगाया जाता है। यदि उसको पहले से अच्छी भूमि मिलती है तो उसकी मात्रा कम होती है। इसके विपरीत, यदि भूमि पहले से घटिया मिलती है तो उसकी मात्रा अधिक होती है, लेकिन जब भूमि की कुल मात्रा को बढ़ाया नहीं जा सकता है तो फिर इसकी क्षतिपूर्ति रुपयों में आंकी जाती है, जिसको लेकर या देकर हिसाब बराबर किया जाता है। <br />
==प्रकार==<br />
चकबन्दी दो प्रकार की होती है-<br />
#ऐच्छिक चकबन्दी<br />
#अनिवार्य चकबन्दी।<br />
====ऐच्छिक चकबन्दी====<br />
ऐच्छिक चकबन्दी से अर्थ उस चकबन्दी से है, जिसमें चकबन्दी कराना कृषक की इच्छा पर निर्भर करता है। उस पर चकबन्दी कराने के लिए दबाव नहीं डाला जाता है। अत: इस प्रकार की चकबन्दी से अच्छे परिणाम निकलते हैं और बाद में विवाद भी खड़ा नहीं होता है। इस प्रकार की चकबन्दी की शुरुआत [[भारत]] में सबसे पहले [[पंजाब]] राज्य में 1921 में हुई थी, जहाँ पर सहकारी समितियों द्वारा यह कार्य किया गया था। पंजाब के समान ही अन्य राज्यों में भी इसी प्रकार के नियम बनाए गए, जिनमें यह व्यवस्था थी कि यदि गाँव के 90 प्रतिशत किसान चकबन्दी के लिए सहमत हों तो उस गाँव में ऐच्छिक चकबन्दी की अनुमति दी जा सकती है। ऐसी स्थिति में शेष 10 प्रतिशत को यह व्यवस्था मानने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। अभी [[गुजरात]], [[मध्य प्रदेश]] व [[पश्चिम बंगाल]] में ऐच्छिक चकबन्दी क़ानून है।<br />
====अनिवार्य चकबन्दी====<br />
अनिवार्य चकबन्दी से अर्थ उस चकबन्दी से है, जिसके अन्तर्गत कृषक को चकबन्दी अनिवार्य रूप से करानी पड़ती है। ऐसी चकबन्दी क़ानूनी चकबन्दी भी कहलाती है। ऐच्छिक चकबन्दी वाले राज्य गुजरात, मध्य प्रदेश व पश्चिम बंगाल हैं, जिन्हें छोड़कर [[आन्ध्र प्रदेश]], [[अरुणाचल प्रदेश]], [[मिजोरम]], [[मणिपुर]], [[मेघालय]], [[नागालैण्ड]], [[त्रिपुरा]], [[तमिलनाडु]] और [[केरल]] में चकबन्दी सम्बन्धी कोई क़ानून नहीं है। शेष सभी राज्यों में अनिवार्य चकबन्दी क़ानून लागू है।<br />
==चकबन्दी की प्रगति==<br />
भारत में 9 राज्यों को छोड़कर शेष सभी राज्यों में चकबन्दी सम्बन्धी क़ानून हैं, जिनके अन्तर्गत चकबन्दी की जा रही है। पंजाब व [[हरियाणा]] में चकबन्दी का कार्य पूरा किया जा चुका है। [[उत्तर प्रदेश]] में भी 90 प्रतिशत कार्य पूरा हो चुका है। शेष राज्यों में अभी आवश्यक गति आना बाकी है। अब तक देशभर में 1,633,47 लाख एकड़ भूमि की चकबन्दी कर दी गई है।<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<br />
*पुस्तक इण्टरमीडिएट ‘भारत का आथिक विकास’ पृष्ठ संख्या-68</div>हिमानीhttps://en.bharatdiscovery.org/w/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%A4%E0%A4%B8&diff=207917कृशानुरेतस2011-08-19T13:48:39Z<p>हिमानी: </p>
<hr />
<div>[[चित्र:Shiva.jpg|thumb|[[शिव]] <br />Shiva]]<br />
{{main| शिव}}<br />
भगवान [[शिव]] का एक अन्य नाम कृशानुरेतस भी है। <br />
<br />
{| class="bharattable" border="1"<br />
|+ भगवान शिव के अन्य नाम<br />
| [[सर्वज्ञ (शिव)|सर्वज्ञ]]<br />
| [[मारजित (शिव)|मारजित]]<br />
| [[रुद्र]]<br />
| [[शम्भू]]<br />
| [[ईश]]<br />
| [[पशुपति]]<br />
| [[शूलिन]]<br />
| [[महेश्वर]]<br />
|-<br />
| [[भगवत (शिव)|भगवत]]<br />
| [[ईशान]]<br />
| [[शंकर]]<br />
| [[चन्द्रशेखर (शिव)|चन्द्रशेखर]]<br />
| [[शर्व (शिव)|शर्व]]<br />
| [[भूतेश (शिव)|भूतेश]]<br />
| [[पिनाकिन]]<br />
| [[खण्डपरशु]]<br />
|-<br />
| [[मृड]]<br />
| [[मृत्युंजय]]<br />
| [[कृत्तिवासस]]<br />
| [[गिरिश]]<br />
| [[प्रमथाधिप]]<br />
| [[उग्र (शिव)|उग्र]]<br />
| [[कपर्दिन्]]<br />
| [[श्रीकण्ठ]]<br />
|-<br />
| [[शितकिण्ठ (शिव)|शितकिण्ठ]]<br />
| [[कपालभृत]]<br />
| [[वामदेव (शिव)|वामदेव]]<br />
| [[महादेव]]<br />
| [[विरूपाक्ष]]<br />
| [[त्रिलोचन]]<br />
| [[कपालभृत ]]<br />
| [[धूर्जटि]]<br />
|-<br />
| [[नीललोहित]]<br />
| [[हर (शिव)|हर]]<br />
| [[स्मरहर]]<br />
| [[भर्ग]]<br />
| [[त्र्यम्बक]]<br />
| [[त्रिपुरान्तक]]<br />
| [[गंगधर]]<br />
| [[अन्धकरिपु]]<br />
|-<br />
| [[क्रतुध्वंसिन]]<br />
| [[वृषध्वज (शिव)|वृषध्वज]]<br />
| [[व्योमकेश]]<br />
| [[भव (शिव)|भव]]<br />
| [[भीम (शिव)|भीम]]<br />
| [[स्थाणु]]<br />
| [[उमापति]]<br />
| [[गिरीश (शिव)|गिरीश]]<br />
|-<br />
| [[यतिनाथ]]<br />
|<br />
|<br />
|<br />
|<br />
|<br />
|<br />
|<br />
|}<br />
{{प्रचार}}<br />
==संबंधित लेख==<br />
{{हिन्दू देवी देवता और अवतार}}<br />
{{शिव2}}<br />
{{द्वादश ज्योतिर्लिंग}}<br />
{{शिव}}<br />
[[Category:शिव]]<br />
[[Category:पर्यायवाची कोश]]<br />
__INDEX__</div>हिमानीhttps://en.bharatdiscovery.org/w/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%A4%E0%A4%B8&diff=207914कृशानुरेतस2011-08-19T13:46:59Z<p>हिमानी: '[[शिव <br />Shiva]] {{main| शिव}} भगवान शिव का एक अन्...' के साथ नया पन्ना बनाया</p>
<hr />
<div>[[चित्र:Shiva.jpg|thumb|[[शिव]] <br />Shiva]]<br />
{{main| शिव}}<br />
भगवान [[शिव]] का एक अन्य नाम कृशानुरेतस भी है। <br />
<br />
{| class="bharattable" border="1"<br />
|+ भगवान शिव के अन्य नाम<br />
| [[सर्वज्ञ (शिव)|सर्वज्ञ]]<br />
| [[मारजित (शिव)|मारजित]]<br />
| [[रुद्र]]<br />
| [[शम्भू]]<br />
| [[ईश]]<br />
| [[पशुपति]]<br />
| [[शूलिन]]<br />
| [[महेश्वर]]<br />
|-<br />
| [[भगवत (शिव)|भगवत]]<br />
| [[ईशान]]<br />
| [[शंकर]]<br />
| [[चन्द्रशेखर (शिव)|चन्द्रशेखर]]<br />
| [[शर्व (शिव)|शर्व]]<br />
| [[भूतेश (शिव)|भूतेश]]<br />
| [[पिनाकिन]]<br />
| [[खण्डपरशु]]<br />
|-<br />
| [[मृड]]<br />
| [[मृत्युंजय]]<br />
| [[कृत्तिवासस]]<br />
| [[गिरिश]]<br />
| [[प्रमथाधिप]]<br />
| [[उग्र (शिव)|उग्र]]<br />
| [[कपर्दिन्]]<br />
| [[श्रीकण्ठ]]<br />
|-<br />
| [[शितकिण्ठ (शिव)|शितकिण्ठ]]<br />
| [[कपालभृत]]<br />
| [[वामदेव (शिव)|वामदेव]]<br />
| [[महादेव]]<br />
| [[विरूपाक्ष]]<br />
| [[त्रिलोचन]]<br />
| [[कृशानुरेतस]]<br />
| [[धूर्जटि]]<br />
|-<br />
| [[नीललोहित]]<br />
| [[हर (शिव)|हर]]<br />
| [[स्मरहर]]<br />
| [[भर्ग]]<br />
| [[त्र्यम्बक]]<br />
| [[त्रिपुरान्तक]]<br />
| [[गंगधर]]<br />
| [[अन्धकरिपु]]<br />
|-<br />
| [[क्रतुध्वंसिन]]<br />
| [[वृषध्वज (शिव)|वृषध्वज]]<br />
| [[व्योमकेश]]<br />
| [[भव (शिव)|भव]]<br />
| [[भीम (शिव)|भीम]]<br />
| [[स्थाणु]]<br />
| [[उमापति]]<br />
| [[गिरीश (शिव)|गिरीश]]<br />
|-<br />
| [[यतिनाथ]]<br />
|<br />
|<br />
|<br />
|<br />
|<br />
|<br />
|<br />
|}<br />
{{प्रचार}}<br />
==संबंधित लेख==<br />
{{हिन्दू देवी देवता और अवतार}}<br />
{{शिव2}}<br />
{{द्वादश ज्योतिर्लिंग}}<br />
{{शिव}}<br />
[[Category:शिव]]<br />
[[Category:पर्यायवाची कोश]]<br />
__INDEX__</div>हिमानीhttps://en.bharatdiscovery.org/w/index.php?title=User_talk:%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6_%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE&diff=207869User talk:गोविन्द राम2011-08-19T13:28:52Z<p>हिमानी: </p>
<hr />
<div>__TOC__<br />
{{toc}}<br />
भईया [[माउंट आबू]] के page में Check क्या करना है?<br />
[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 15:30, 29 जून 2010 (IST)<br />
<br />
== उत्तर प्रदेश की झीलें ==<br />
<br />
भईया मैंने [[उत्तर प्रदेश की झीलें|उत्तर प्रदेश की झीलों]] में लिंक लगा दिया है। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign"> [[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 10:35, 15 जून 2010 (IST)<br />
<br />
== श्रेणि ==<br />
<br />
कृपया मेरे द्वारा बनाये गये [[पटना]] के पन्ने में श्रेणियाँ जाच लीजिए। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 10:39, 17 जून 2010 (IST)<br />
<br />
== नीलकंठ महादेव ==<br />
<br />
कृपया [[नीलकंठ महादेव]] के पेज को जाँचें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign"> [[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 12:48, 19 जून 2010 (IST)<br />
<br />
== ॠषिकेश ==<br />
<br />
कृपया [[ॠषिकेश]] पेज ले लिंक को जाँचें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign"> [[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 13:28, 19 जून 2010 (IST)<br />
<br />
== साँचा:लेख सूची ==<br />
<br />
[[साँचा:लेख सूची]] बना दिया गया है कृपा आप इस साँचे के उदाहरण के लिय [[उदयपुर]] का पन्ना देखें । जैसे कि उदयपुर के सम्बंधित लेख उदयपुर के पन्ने में लगा दियें गये है । [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:अश्वनी भाटिया]]<span class="sign"> [[User:अश्वनी भाटिया|अश्वनी भाटिया]] | <small>[[सदस्य वार्ता:अश्वनी भाटिया|वार्ता]]</small></span> 14:55, 28 जून 2010 (IST)<br />
<br />
== श्रेणि ==<br />
<br />
कृपया मेरे द्वारा बनाये गये [[पोरबंदर]] के पन्ने में श्रेणियाँ जाच लीजिए। <br />
[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 15:30, 29 जून 2010 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[देहरादून]] के पेज को देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign"> [[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 11:43, 8 जुलाई 2010 (IST)<br />
<br />
== साँचा देखें ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Shilpi]] में अमृतसर का साँचा जाचें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign"> [[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 17:35, 17 जुलाई 2010 (IST)<br />
<br />
== वंश वृक्ष ==<br />
<br />
सूर्य वंश अच्छा लग रहा है। कोलकाता पर भी कार्य संतोषजनक है [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आदित्य चौधरी]]<span class="sign"> [[User:आदित्य चौधरी|आदित्य चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आदित्य चौधरी|वार्ता]]</small></span> 08:00, 19 जुलाई 2010 (IST)<br />
<br />
== साँचा:लेख प्रगति ==<br />
<br />
कृपया [[साँचा:लेख प्रगति]] में अब <nowiki>==पन्ने की प्रगति अवस्था==</nowiki> heading ना लगायें वो heading साँचे में ही डाल दी गई है । [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:अश्वनी भाटिया]]<span class="sign">[[User:अश्वनी भाटिया|अश्वनी भाटिया]] | <small>[[सदस्य वार्ता:अश्वनी भाटिया|वार्ता]]</small></span> 11:13, 31 जुलाई 2010 (IST)<br />
<br />
== ब्रज/आलेख ==<br />
<br />
{{50-50}} क्या इसे ब्रज से replace कर दिया जाए ? <u>बाहरी लिंक में ब्रजडिस्कवरी के लिंक डालें</u> [[चित्र:nib4.png|35px|top]]<span class="sign">[[User:आदित्य चौधरी|आदित्य चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आदित्य चौधरी|वार्ता]]</small></span> 15:29, 7 अगस्त 2010 (IST)<br />
<br />
== कोलकाता और ब्रज ==<br />
<br />
कृपया [[वार्ता:कोलकाता]] और [[वार्ता:ब्रज]] पन्ने को देखें । [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:अश्वनी भाटिया]]<span class="sign">[[User:अश्वनी भाटिया|अश्वनी भाटिया]] | <small>[[सदस्य वार्ता:अश्वनी भाटिया|वार्ता]]</small></span> 16:07, 8 अगस्त 2010 (IST)<br />
<br />
== श्रेणी:अंग्रेज़ी शासन ==<br />
श्रेणी:अंग्रेज़ी शासन नई बनी है पुरानी हटा दि गयी है। उसमें <u>'''अंग्रेजी'''</u> लिखा था। [[चित्र:nib4.png|35px|top]]<span class="sign">[[User:आदित्य चौधरी|आदित्य चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आदित्य चौधरी|वार्ता]]</small></span><br />
<br />
== प्रेमचन्द ==<br />
<br />
अच्छा बन गया है लेकिन अभी काम बाक़ी है। सूचना बक्सा आदि लगाएँ। [[चित्र:nib4.png|35px|top]]<span class="sign">[[User:आदित्य चौधरी|आदित्य चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आदित्य चौधरी|वार्ता]]</small></span> 10:47, 30 अगस्त 2010 (IST)<br />
<br />
== साँचा:व्रत और उत्सव2 ==<br />
<br />
कृपया [[साँचा:व्रत और उत्सव2]] को देखें । [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:अश्वनी भाटिया]]<span class="sign">[[User:अश्वनी भाटिया|अश्वनी भाटिया]] | <small>[[सदस्य वार्ता:अश्वनी भाटिया|वार्ता]]</small></span> 18:31, 10 सितंबर 2010 (IST)<br />
==शिवाजी==<br />
<br />
कृपया [[वार्ता:शिवाजी]] पन्ने को देखें । [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:अश्वनी भाटिया]]<span class="sign">[[User:अश्वनी भाटिया|अश्वनी भाटिया]] | <small>[[सदस्य वार्ता:अश्वनी भाटिया|वार्ता]]</small></span> 13:36, 12 सितंबर 2010 (IST)<br />
<br />
== जम्मू और कश्मीर ==<br />
<br />
[[साँचा:जम्मू और कश्मीर के पर्यटन स्थल]] बना दिया गया है कृपया इस को [[पर्यटन]] के पन्ने में डाले [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:अश्वनी भाटिया]]<span class="sign">[[User:अश्वनी भाटिया|अश्वनी भाटिया]] | <small>[[सदस्य वार्ता:अश्वनी भाटिया|वार्ता]]</small></span> 12:21, 13 सितंबर 2010 (IST)<br />
<br />
कृपया [[वैशेषिक दर्शन की तत्त्व मीमांसा]] पर चित्र लगाए। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 13:02, 19 सितंबर 2010 (IST)<br />
<br />
[[संसद]] image<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[लता मंगेशकर]], [[आशा भोंसले]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 12:07, 23 सितंबर 2010 (IST)<br />
<br />
== कपिल सिब्बल ==<br />
<br />
संदेश देने के लिए धन्यवाद जल्दी ही लग जाएगी।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:अश्वनी भाटिया]]<span class="sign">[[User:अश्वनी भाटिया|अश्वनी भाटिया]] | <small>[[सदस्य वार्ता:अश्वनी भाटिया|वार्ता]]</small></span> 16:38, 28 सितंबर 2010 (IST)<br />
<br />
== चित्रकार ==<br />
<br />
चित्रकार का लिंक नहीं दिया जा रहा ??? [[चित्र:nib4.png|35px|top]]<span class="sign">[[User:आदित्य चौधरी|आदित्य चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आदित्य चौधरी|वार्ता]]</small></span> 22:26, 23 अक्टूबर 2010 (IST)<br />
==बाजीराव==<br />
इस पृष्ठ पर मैंने काफ़ी काम किया है। आपको बस साँचा लगाना है। कृपया इस काम को कर दें।<br />
<br />
== category ==<br />
<br />
कृपया [[वर्तनी (हिन्दी)]] में category लगा दो। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 17:03, 25 दिसंबर 2010 (IST)<br />
<br />
== संवरण ==<br />
<br />
कृपया इस पन्ने पर श्रेणी लगाए [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:अश्वनी भाटिया]]<span class="sign">[[User:अश्वनी भाटिया|अश्वनी भाटिया]] | <small>[[सदस्य वार्ता:अश्वनी भाटिया|वार्ता]]</small></span> 17:03, 27 दिसंबर 2010 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[अलंकार]], [[लिंग]] का पेज देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 12:19, 29 दिसंबर 2010 (IST)<br />
<br />
== रबीन्द्रनाथ ठाकुर ==<br />
<br />
कृपया [[वार्ता:रबीन्द्रनाथ ठाकुर]] पन्ने को देखें । [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:अश्वनी भाटिया]]<span class="sign">[[User:अश्वनी भाटिया|अश्वनी भाटिया]] | <small>[[सदस्य वार्ता:अश्वनी भाटिया|वार्ता]]</small></span> 11:53, 30 दिसंबर 2010 (IST)<br />
<br />
==सामान्य ज्ञान हिन्दी- 3==<br />
<br />
गोविन्द जी, कृपया हिन्दी सामान्य ज्ञान का तीसरा भाग देखें, जिसमें प्रश्न सं. 12 और 17 एक ही हैं, कृपया सही करवायें. हिन्दी का सामान्य ज्ञान कौन बना रहा है, जानकारी दें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 16:37, 30 दिसंबर 2010 (IST)<br />
==सामान्य ज्ञान हिन्दी-4==<br />
<br />
<poem>गोदान में - 15. 'आदमी कितना स्वार्थी हो जाता है, जिसके लिए मरो, वही जान का दुश्मन हो जाता है।' यह कथन 'गोदान' के किस पात्र का है?<br />
मेहता<br />
खन्ना<br />
मालती<br />
होरी<br />
<br />
16. 'नारी में पुरुष के गुण आ जाते हैं, तो वह कुलटा हो जाती है।' यह कथन 'गोदान' के किस पात्र का है?<br />
रायसाहब<br />
ओंकारनाथ<br />
मेहता<br />
होरी<br />
<br />
17. 'जो अपनी जान खपाते हैं, उनका हक उन लोगों से ज्यादा है, जो केवल रुपया लगाते हैं।' यह कथन 'गोदान' के किस पात्र द्वारा कहा गया है?<br />
मालती<br />
ओंकारनाथ<br />
मेहता<br />
खन्ना</poem><br />
गोदान के पात्र का नाम महतो है ना कि मेहता कृपया जानकारी कर सही करें[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 16:37, 30 दिसंबर 2010 (IST)<br />
==हिन्दी सामान्य ज्ञान 5==<br />
<poem>7. 'गिरि' शब्द का शुद्ध बहुवचन है-<br />
गिरियाँ<br />
गिरी<br />
गिरि<br />
गिरिएं<br />
http://pustak.org/bs/home.php?bookid=4883&act=continue&index=6&booktype=free<br />
(8) कुछ शब्दों के रूप ‘एकवचन’ और ‘बहुवचन’ दोनो में समान होते हैं। जैसे-<br />
एकवचन बहुवचन एकवचन बहुवचन<br />
क्षमा क्षमा नेता नेता<br />
जल जल प्रेम प्रेम<br />
गिरि गिरि क्रोध क्रोध<br />
राजा राजा पानी पानी<br />
यहाँ से कंफर्म करें[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 16:57, 30 दिसंबर 2010 (IST)</poem><br />
==श्रेणी==<br />
<br />
गोविन्द जी, इतिहास से सम्बन्धित लेखों में इतिहास कोश श्रेणी अवश्य होनी चाहिए।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 13:15, 1 जनवरी 2011 (IST)<br />
==पात्र==<br />
<br />
कृपया सामान्य ज्ञान में प्रयुक्त पात्रों के नामों को जाँच लें, वह बिल्कुल सही होने चाहियें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 13:24, 1 जनवरी 2011 (IST)<br />
==सामान्य ज्ञान- 1==<br />
<poem>18. अर्द्धमागधी अपभ्रंश से इनमें से किस बोली का विकास हुआ है?<br />
पश्चिमी<br />
बिहारी<br />
'''बंगाली<br />
बंगाली'''</poem><br />
यह अभी तक सही नहीं हुआ है[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 13:37, 1 जनवरी 2011 (IST)<br />
==2011==<br />
<br />
नववर्ष आपके लिए मंगलमय हो। शुभकामनाएँ...[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 14:13, 1 जनवरी 2011 (IST)<br />
==शनि चालीसा==<br />
गोविंद जी, कृपया शनि चालीसा और शिव चालीसा ये पन्ने भी देखें और इन सभी नये पन्नों में साँचा भी लगा दें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 14:37, 4 जनवरी 2011 (IST)<br />
==शिक्षा सामान्य ज्ञान==<br />
<poem>1- शिक्षा शब्द समानार्थी है?<br />
निर्देश का<br />
विद्यालयीकरण का<br />
प्रशिक्षन का<br />
इनमें से सभी</poem><br />
कृपया ध्यान दें, सही शब्द '''प्रशिक्षण''' होता है ना कि 'प्रशिक्षन', इसे ठीक करें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 17:02, 7 जनवरी 2011 (IST)<br />
==प्रव्रज्या==<br />
<br />
<poem>4. बौद्ध युग में शिक्षा ग्रहण करने के लिए बालक का एक संस्कार होता था जिसे कहते हैं?<br />
प्रवज्जा संस्कार<br />
उपनयन संस्कार<br />
परिणय संस्कार<br />
इनमें से कोई नहीं</poem><br />
कृपया ध्यान दें, सही शब्द '''प्रव्रज्या''' होता है ना कि 'प्रवज्जा', इसे ठीक करें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 17:24, 7 जनवरी 2011 (IST)<br />
==विद्यालय के==<br />
17. निजी विद्यालय के आय के स्त्रोत कौन से होते हैं? - यहाँ पर '''विद्यालय की''' होना चाहिए, कृपया सही करें[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 17:59, 7 जनवरी 2011 (IST)<br />
==प्रबन्धन==<br />
<br />
<poem>18. विद्यालय के संचालन के लिए आवश्यक है?<br />
विद्यालय संगठन<br />
'''विद्यालय प्रबन्ध'''<br />
विद्यालय प्रशासन<br />
इनमें से सभी</poem>सही शब्द '''विद्यालय प्रबन्धन''' होना चाहिए<br />
==माध्यिका==<br />
<poem>20- पचास शतांक मान का दूसरा नाम क्या है?<br />
माध्यिका<br />
मध्यमान<br />
बहुलांक<br />
प्रारम्भिक स्तर</poem><br />
'''माध्यिका''' शब्द के विषय में आदित्य जी से बात कर लें। मेरे विचार से सही शब्द 'मध्यांक' होना चाहिए।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 18:07, 7 जनवरी 2011 (IST)<br />
==व्यवस्था==<br />
कृपया बतायें क्या नये पन्ने क्रमवार जाँचे जा रहे हैं? नहीं तो क्या व्यवस्था चल रही है?[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 18:10, 7 जनवरी 2011 (IST)<br />
==अर्थशास्त्र सामान्य ज्ञान-1==<br />
18. 'दोपहर का भोजन' नामक कार्यक्रम निम्नलिखित मंत्रालय के अंतर्गत संचालित होता है? - प्रश्न संख्या 18 और 19 समान है, कृपया ध्यान दें[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 05:37, 8 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[इन्दौर]] का पेज देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 15:29, 9 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== गोवा ==<br />
<br />
अगर आप गोवा के पन्ने पर काम नहीं कर रहे हो तो कया में गोवा के पन्ने में चित्रों को सही से लगालो? [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 18:01, 9 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[अर्थशास्त्र सामान्य ज्ञान 4]], [[अर्थशास्त्र सामान्य ज्ञान 5]] देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 18:00, 10 जनवरी 2011 (IST)<br />
==इतिहास सामान्य ज्ञान 2==<br />
प्रश्न संख्या-1 और 16 एक ही प्रकार के प्रश्न हैं जिसे हटा दिया गया है। कृपया दूसरा प्रश्न सम्मिलित करें[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 18:48, 11 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Shilpi2]] देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 18:07, 19 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Shilpi2]] में भूगोल सामान्य ज्ञान एक बार देख लीजिए। इसके अलावा [[गुवाहाटी]], [[कोणार्क]], [[गांधीनगर]], [[विशाखापत्तनम]], [[~]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 09:59, 22 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[रायपुर]] का पन्ना देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 12:00, 22 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[लेप्चा]] का पन्ना देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 16:52, 22 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[इटावा]] का पन्ना देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 15:00, 23 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[चित्रकला]] और [[साँचा:चित्रकला शैलियाँ|भारतीय चित्रकला शैलियाँ]] के पन्ने देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 15:38, 24 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[मनाली हिमाचल प्रदेश|मनाली]] का पन्ना देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 17:26, 24 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[मेवाड़]], [[जूनागढ़]], [[भावनगर]] के पन्ने देखें और विज्ञान का सामान्य ज्ञान मेरे [[प्रयोग:Fozia4]] में देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 00:09, 27 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
==गणतंत्र दिवस==<br />
भारतकोश परिवार की ओर से आपको गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 15:21, 26 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[ब्यावर]], [[जालंधर]], [[विशाखापत्तनम]], [[लुधियाना]], [[हम्पी]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 10:55, 27 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
मैंने [[प्रयोग:Fozia4]] देख लिया है। एक बार आप भी देख लें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 11:42, 27 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Shilpi2]] देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 17:14, 27 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[भारतीय सेना]] का पन्ना देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 23:19, 28 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== संगीत सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Priya1]] शीघ्र जाँचे। जबाब अवश्य दें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:प्रिया]]<span class="sign"> [[User:प्रिया|प्रियंका चतुर्वेदी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:प्रिया|वार्ता]]</small></span> 11:45, 29 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[सदस्य:लक्ष्मी गोस्वामी/अभ्यास5 ]] एक बार देख लेना। वो आज ही लगना है।<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[बिस्मिल्ला ख़ाँ]], [[आँख]], [[तन्त्रिका तन्त्र]], [[मस्तिष्क]], [[मेरुरज्जु]] और [[रक्त]] के पन्नो को देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 09:44, 31 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Priya2]] में भूगोल सामान्य ज्ञान का पन्ना देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 16:15, 31 जनवरी 2011 (IST)<br />
==पन्ना==<br />
प्रयोग:Priya2 में भूगोल सामान्य ज्ञान का पन्ना देख लिया है,किंतु प्रश्न सं. 6 और 10 को एक बार ठीक से जाँच लें। बाक़ी ठीक है।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 18:54, 31 जनवरी 2011 (IST)<br />
==बिस्मिल्ला ख़ाँ==<br />
बिस्मिल्ला ख़ाँ साहेब के पन्ने में 'जीवन परिचय' में जीवन परिचय ही नही है और यह पन्ना अधिक विस्तृत बनेगा। कृपया ध्यान दें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 18:58, 31 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Shilpi6]] का पेज देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 13:26, 1 फ़रवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[मुहम्मद हिदायतुल्लाह]] का पन्ना देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 16:31, 1 फ़रवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Fozia5]] देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:प्रिया]]<span class="sign"> [[User:प्रिया|प्रियंका चतुर्वेदी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:प्रिया|वार्ता]]</small></span> 12:04, 4 फ़रवरी 2011 (IST)<br />
==काशी हिन्दू विश्वविद्यालय== <br />
गोविन्द जी, कृपया काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और मदनमोहन मालवीय के सन्दर्भ देख लें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 18:50, 7 फ़रवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Shilpi4]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 11:01, 10 फ़रवरी 2011 (IST)<br />
==बैडमिंटन==<br />
<br />
गोविन्द जी, कृपया बैडमिंटन का पेज़ देखें, सही करवाएँ और पाठ्य सामग्री भी होनी चाहिए। भाषा और सामग्री पर ध्यान दें[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 16:19, 11 फ़रवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें। ==<br />
<br />
[[कबूतर]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:लक्ष्मी गोस्वामी]]<span class="sign"> [[User:लक्ष्मी गोस्वामी|लक्ष्मी गोस्वामी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:लक्ष्मी गोस्वामी|वार्ता]]</small></span> 18:23, 11 फ़रवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Shilpi6]] व [[प्रयोग:Shilpi4]] देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 13:02, 12 फ़रवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[इन्दौर पर्यटन]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 12:15, 14 फ़रवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[इन्दौर पर्यटन]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 10:30, 15 फ़रवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:शिल्पी]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 18:01, 15 फ़रवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[महाबलेश्वर]] के पन्ने को देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 14:37, 19 फ़रवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:शिल्पी]], [[ग़ाज़ियाबाद]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 15:48, 19 फ़रवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[राहुल सांकृत्यायन]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 13:37, 20 फ़रवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[रावी, रामप्रसाद विद्यार्थी]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 15:53, 21 फ़रवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
[[प्रयोग:शिल्पी]] देखें व देखने के पश्चात आगे संदेश भेजे। चैक होने के पश्चात इस पेज को बना दे। धन्यवाद[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 17:52, 21 फ़रवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[सदस्य:लक्ष्मी गोस्वामी/अभ्यास3#कम्प्यूटर|सदस्य:लक्ष्मी गोस्वामी/अभ्यास3]] में कम्प्यूटर सामान्य ज्ञान का पन्ना देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 11:17, 25 फ़रवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[वृंदावनलाल वर्मा]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 16:15, 2 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[सदस्य:लक्ष्मी गोस्वामी/अभ्यास3]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 11:06, 3 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
कृपया [[अट्टुकल पोंगल]] के पेज देखें व उचित साँचा लगायें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 12:20, 3 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Shilpi6]] देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 17:03, 3 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
[[सदस्य:लक्ष्मी गोस्वामी/अभ्यास2]]<br />
<br />
[[प्रयोग:Shilpi6]] पेज देख लिया गया है।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:प्रिया]]<span class="sign"> [[User:प्रिया|प्रियंका चतुर्वेदी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:प्रिया|वार्ता]]</small></span> 18:32, 5 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[मैग्नीसियम]], [[सोना]] और [[प्लेटिनम]] के पन्ने देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 17:46, 6 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[एल्युमिनियम]], [[गन्धक]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 16:04, 8 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Shilpi4]] में इतिहास सामान्य ज्ञान देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 16:21, 9 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[फॉस्फोरस]] का पन्ना देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 11:15, 10 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
कृपया [[मैंगनीज]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 15:15, 13 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[सदस्य:लक्ष्मी गोस्वामी/अभ्यास3]] पुनः चैक करें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 11:28, 14 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[रत्नगिरि]] का पन्ना देखें और श्रेणियाँ भी देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 11:31, 14 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== श्रेणी लगाएँ ==<br />
<br />
कृपया [[यातुधान]], [[यच]] में श्रेणी लगाएँ।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:प्रिया]]<span class="sign"> [[User:प्रिया|प्रियंका चतुर्वेदी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:प्रिया|वार्ता]]</small></span> 18:37, 14 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Shilpi4]] देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:प्रिया]]<span class="sign"> [[User:प्रिया|प्रियंका चतुर्वेदी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:प्रिया|वार्ता]]</small></span> 13:17, 15 मार्च 2011 (IST)<br />
* गोविंद जी, [[एनी बेसेंट]] का जो चित्र पेज़ पर लगा है, वह बहुत कॉमन है, हमें कोई दूसरा चित्र लगाना चाहिए। -आशा चौधरी<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[हाइड्रोजन]] का पन्ना देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 12:53, 18 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Shilpi4]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 17:09, 18 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[चित्र सामान्य ज्ञान 5]] का पन्ना देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 18:14, 18 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[एलुमिनियम]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 18:34, 18 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== नये पृष्ठ ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:रविन्द्र१]] को देखें।<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[अनंत कुमार]] का पन्ना देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 16:42, 21 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[अटाला मस्जिद]] का पन्ना देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 13:19, 23 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Shilpi4]] देखें व बनाने के बाद वार्ता करें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 10:51, 24 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Shilpi5]] जाँचें व जाँचने के बाद वार्ता करें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 17:19, 24 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== नज़ीबाबाद ==<br />
<br />
कृपया [[नज़ीबाबाद]] और [http://en.wikipedia.org/wiki/Nizamabad,_Uttar_Pradesh Nizamabad, Uttar Pradesh] के पन्ना देखें, शायद नज़ीबाबाद पन्ने का नाम निज़ामाबाद होना चाहीये। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 13:38, 25 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
क्रपया [[सदस्य:लक्ष्मी गोस्वामी/अभ्यास6]][[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:प्रिया]]<span class="sign"> [[User:प्रिया|प्रियंका चतुर्वेदी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:प्रिया|वार्ता]]</small></span> 17:51, 25 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:प्रिया1]] देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 15:43, 31 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[सदस्य:फ़िज़ा/अभ्यास]] में गुजरात के चित्र के Caption check करे। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़िज़ा]]<span class="sign"> [[User:फ़िज़ा|फ़िज़ा]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़िज़ा|वार्ता]]</small></span> 15:13, 6 अप्रॅल 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
कृपया [[प्रयोग:प्रिया1]] में भूगोल सामान्य ज्ञान देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 17:40, 6 अप्रॅल 2011 (IST)<br />
<br />
== नया पृष्ठ ==<br />
कृपया [[प्रयोग:रविन्द्र१]] देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:रविन्द्र प्रसाद]]<span class="sign">[[User:रविन्द्र प्रसाद|रविन्द्र प्रसाद]] | <small>[[सदस्य वार्ता:रविन्द्र प्रसाद|वार्ता]]</small></span> 17:11, 7 अप्रॅल 2011 (IST)<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:शिल्पी]] देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 18:46, 9 अप्रॅल 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[जुझार सिंह]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 14:08, 15 अप्रॅल 2011 (IST)<br />
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== पेज देखें ==<br />
<br />
[[सदस्य:लक्ष्मी गोस्वामी/अभ्यास3]] पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:लक्ष्मी गोस्वामी]]<span class="sign"> [[User:लक्ष्मी गोस्वामी|लक्ष्मी गोस्वामी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:लक्ष्मी गोस्वामी|वार्ता]]</small></span> 15:44, 15 अप्रॅल 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया सामान्य ज्ञान [[प्रयोग:फ़ौज़िया5]] में चित्र सामान्य ज्ञान देखें और update kare. [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 15:15, 16 अप्रॅल 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[अगुआड़ा दुर्ग]] का पन्ना देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] . <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 12:19, 22 अप्रॅल 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:शिल्पी]] में खेल सामान्य ज्ञान देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 16:53, 22 अप्रॅल 2011 (IST)<br />
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== नया पृष्ठ ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:रविन्द्र१]] को देख लें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:रविन्द्र प्रसाद]]<span class="sign">[[User:रविन्द्र प्रसाद|रविन्द्र प्रसाद]] . <small>[[सदस्य वार्ता:रविन्द्र प्रसाद|वार्ता]]</small></span> 16:02, 23 अप्रॅल 2011 (IST)<br />
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== नया पृष्ठ ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:लक्ष्मी2]] को देख लें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:रविन्द्र प्रसाद]]<span class="sign">[[User:रविन्द्र प्रसाद|रविन्द्र प्रसाद]] . <small>[[सदस्य वार्ता:रविन्द्र प्रसाद|वार्ता]]</small></span> 19:08, 7 मई 2011 (IST)<br />
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== नया पृष्ठ ==<br />
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कृपया [[प्रयोग:लक्ष्मी3]] को देख लें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:रविन्द्र प्रसाद]]<span class="sign">[[User:रविन्द्र प्रसाद|रविन्द्र प्रसाद]] . <small>[[सदस्य वार्ता:रविन्द्र प्रसाद|वार्ता]]</small></span> 17:22, 9 मई 2011 (IST)<br />
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== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[हम्पी]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 16:47, 11 मई 2011 (IST)<br />
<br />
== नया पृष्ठ ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:लक्ष्मी2]] को देख लें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:रविन्द्र प्रसाद]]<span class="sign">[[User:रविन्द्र प्रसाद|रविन्द्र प्रसाद]] . <small>[[सदस्य वार्ता:रविन्द्र प्रसाद|वार्ता]]</small></span> 19:08, 11 मई 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:शिल्पी2]] देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 11:01, 14 मई 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:शिल्पी]] देखें व बताये कि ये वाला सामान्य ज्ञान लगा दिया गया है या नहीं।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 11:06, 14 मई 2011 (IST)<br />
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== नये पृष्ठ ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:रविन्द्र]], [[प्रयोग:शिल्पी2]], [[प्रयोग:RAVI]] को जाँचें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:रविन्द्र प्रसाद]]<span class="sign">[[User:रविन्द्र प्रसाद|रविन्द्र प्रसाद]] . <small>[[सदस्य वार्ता:रविन्द्र प्रसाद|वार्ता]]</small></span> 14:20, 14 मई 2011 (IST)<br />
<br />
== जाँचें ==<br />
<br />
कृपया हाल में हुए शिल्पी गोयल के बदलाव देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 18:35, 14 मई 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:शिल्पी1]] देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 14:04, 16 मई 2011 (IST)<br />
<br />
== चयनित चित्र ==<br />
<br />
गोविन्द जी चयनित चित्र में अपडेट कर रहा हूँ। [[चित्र:nib4.png|35px|top]]<span class="sign">[[User:अश्वनी भाटिया|अश्वनी भाटिया <sub>प्रबंधक</sub>]] . <sub>[[सदस्य वार्ता:अश्वनी भाटिया|वार्ता]]</sub></span> 20:04, 16 मई 2011 (IST)<br />
<br />
== चयनित चित्र ==<br />
<br />
कहा किए है। मेरे को तोपुराने दिखा रहा है। किसमे पडे है।[[चित्र:nib4.png|35px|top]]<span class="sign">[[User:अश्वनी भाटिया|अश्वनी भाटिया <sub>प्रबंधक</sub>]] . <sub>[[सदस्य वार्ता:अश्वनी भाटिया|वार्ता]]</sub></span> 20:09, 16 मई 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:शिल्पी]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 19:10, 19 मई 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया सामान्य ज्ञान [[प्रयोग:Ravi4]], [[प्रयोग:हिना1]], [[प्रयोग:हिना]], [[प्रयोग:लक्ष्मी3]] को अपडेट करें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:रविन्द्र प्रसाद]]<span class="sign">[[User:रविन्द्र प्रसाद|रविन्द्र प्रसाद]] . <small>[[सदस्य वार्ता:रविन्द्र प्रसाद|वार्ता]]</small></span> 16:03, 20 मई 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:शिल्पी1]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 15:12, 21 मई 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:हिना]], [[प्रयोग:लक्ष्मी5]] और [[प्रयोग:लक्ष्मी3]] देखें[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:लक्ष्मी गोस्वामी]]<span class="sign"> [[User:लक्ष्मी गोस्वामी|लक्ष्मी गोस्वामी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:लक्ष्मी गोस्वामी|वार्ता]]</small></span> 17:06, 26 मई 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Shilpi6]] देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 13:30, 31 मई 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें। ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Laxmi1]] देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:लक्ष्मी गोस्वामी]]<span class="sign"> [[User:लक्ष्मी गोस्वामी|लक्ष्मी गोस्वामी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:लक्ष्मी गोस्वामी|वार्ता]]</small></span> 16:30, 1 जून 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:शिल्पी1]] देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 16:37, 10 जून 2011 (IST)<br />
<br />
== सूचना बक्सा ==<br />
<br />
कृपया [[राज कुमार]] में लगे सूचना बक्से पर एक बार निगाह डालें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 16:27, 16 जून 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[लघु उद्योग]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 11:03, 21 जून 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज जाँचे ==<br />
<br />
कृपया [[हिन्दी साहित्य]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:हिमानी]]<span class="sign">[[User:हिमानी|हिमानी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:हिमानी|वार्ता]]</small></span> 16:09, 24 जून 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें। ==<br />
<br />
कृपया [[संजीव कुमार]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 17:34, 2 जुलाई 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[सदस्य:शिल्पी गोयल/Sandbox]], [[प्रयोग:शिल्पी]], [[प्रयोग:शिल्पी2]], [[प्रयोग:शिल्पी3]], [[प्रयोग:शिल्पी4]] देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 15:42, 11 जुलाई 2011 (IST)<br />
<br />
== जाँचें ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:शिल्पी4]] अब जाँचें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 16:21, 11 जुलाई 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें। ==<br />
<br />
कृपया [[सदस्य:लक्ष्मी गोस्वामी/अभ्यास6]] देखें:-[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:लक्ष्मी गोस्वामी]]<span class="sign"> [[User:लक्ष्मी गोस्वामी|लक्ष्मी गोस्वामी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:लक्ष्मी गोस्वामी|वार्ता]]</small></span> 17:34, 15 जुलाई 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[शिशु]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 18:58, 17 जुलाई 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें। ==<br />
<br />
कृपया [[सदस्य:लक्ष्मी गोस्वामी/अभ्यास3]] देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:लक्ष्मी गोस्वामी]]<span class="sign"> [[User:लक्ष्मी गोस्वामी|लक्ष्मी गोस्वामी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:लक्ष्मी गोस्वामी|वार्ता]]</small></span> 19:16, 18 जुलाई 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[गायत्री देवी]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 17:41, 21 जुलाई 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[वहीदा रहमान]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:हिमानी]]<span class="sign">[[User:हिमानी|हिमानी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:हिमानी|वार्ता]]</small></span> 14:03, 22 जुलाई 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[सदस्य:शिल्पी गोयल/अभ्यास1]] देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 18:57, 25 जुलाई 2011 (IST)<br />
<br />
== प्रयोग ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Janmejay]] देखें व पूरा करें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 17:47, 2 अगस्त 2011 (IST)<br />
<br />
[[Category:सदस्य वार्ता]]<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[सूरसारावली]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:हिमानी]]<span class="sign">[[User:हिमानी|हिमानी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:हिमानी|वार्ता]]</small></span> 18:52, 19 अगस्त 2011 (IST)<br />
<br />
[[कपालभृत्]] शब्द है।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:हिमानी]]<span class="sign">[[User:हिमानी|हिमानी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:हिमानी|वार्ता]]</small></span> 18:58, 19 अगस्त 2011 (IST)</div>हिमानीhttps://en.bharatdiscovery.org/w/index.php?title=User_talk:%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6_%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE&diff=207865User talk:गोविन्द राम2011-08-19T13:22:29Z<p>हिमानी: /* पेज देखें */ नया विभाग</p>
<hr />
<div>__TOC__<br />
{{toc}}<br />
भईया [[माउंट आबू]] के page में Check क्या करना है?<br />
[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 15:30, 29 जून 2010 (IST)<br />
<br />
== उत्तर प्रदेश की झीलें ==<br />
<br />
भईया मैंने [[उत्तर प्रदेश की झीलें|उत्तर प्रदेश की झीलों]] में लिंक लगा दिया है। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign"> [[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 10:35, 15 जून 2010 (IST)<br />
<br />
== श्रेणि ==<br />
<br />
कृपया मेरे द्वारा बनाये गये [[पटना]] के पन्ने में श्रेणियाँ जाच लीजिए। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 10:39, 17 जून 2010 (IST)<br />
<br />
== नीलकंठ महादेव ==<br />
<br />
कृपया [[नीलकंठ महादेव]] के पेज को जाँचें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign"> [[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 12:48, 19 जून 2010 (IST)<br />
<br />
== ॠषिकेश ==<br />
<br />
कृपया [[ॠषिकेश]] पेज ले लिंक को जाँचें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign"> [[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 13:28, 19 जून 2010 (IST)<br />
<br />
== साँचा:लेख सूची ==<br />
<br />
[[साँचा:लेख सूची]] बना दिया गया है कृपा आप इस साँचे के उदाहरण के लिय [[उदयपुर]] का पन्ना देखें । जैसे कि उदयपुर के सम्बंधित लेख उदयपुर के पन्ने में लगा दियें गये है । [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:अश्वनी भाटिया]]<span class="sign"> [[User:अश्वनी भाटिया|अश्वनी भाटिया]] | <small>[[सदस्य वार्ता:अश्वनी भाटिया|वार्ता]]</small></span> 14:55, 28 जून 2010 (IST)<br />
<br />
== श्रेणि ==<br />
<br />
कृपया मेरे द्वारा बनाये गये [[पोरबंदर]] के पन्ने में श्रेणियाँ जाच लीजिए। <br />
[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 15:30, 29 जून 2010 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[देहरादून]] के पेज को देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign"> [[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 11:43, 8 जुलाई 2010 (IST)<br />
<br />
== साँचा देखें ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Shilpi]] में अमृतसर का साँचा जाचें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign"> [[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 17:35, 17 जुलाई 2010 (IST)<br />
<br />
== वंश वृक्ष ==<br />
<br />
सूर्य वंश अच्छा लग रहा है। कोलकाता पर भी कार्य संतोषजनक है [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आदित्य चौधरी]]<span class="sign"> [[User:आदित्य चौधरी|आदित्य चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आदित्य चौधरी|वार्ता]]</small></span> 08:00, 19 जुलाई 2010 (IST)<br />
<br />
== साँचा:लेख प्रगति ==<br />
<br />
कृपया [[साँचा:लेख प्रगति]] में अब <nowiki>==पन्ने की प्रगति अवस्था==</nowiki> heading ना लगायें वो heading साँचे में ही डाल दी गई है । [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:अश्वनी भाटिया]]<span class="sign">[[User:अश्वनी भाटिया|अश्वनी भाटिया]] | <small>[[सदस्य वार्ता:अश्वनी भाटिया|वार्ता]]</small></span> 11:13, 31 जुलाई 2010 (IST)<br />
<br />
== ब्रज/आलेख ==<br />
<br />
{{50-50}} क्या इसे ब्रज से replace कर दिया जाए ? <u>बाहरी लिंक में ब्रजडिस्कवरी के लिंक डालें</u> [[चित्र:nib4.png|35px|top]]<span class="sign">[[User:आदित्य चौधरी|आदित्य चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आदित्य चौधरी|वार्ता]]</small></span> 15:29, 7 अगस्त 2010 (IST)<br />
<br />
== कोलकाता और ब्रज ==<br />
<br />
कृपया [[वार्ता:कोलकाता]] और [[वार्ता:ब्रज]] पन्ने को देखें । [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:अश्वनी भाटिया]]<span class="sign">[[User:अश्वनी भाटिया|अश्वनी भाटिया]] | <small>[[सदस्य वार्ता:अश्वनी भाटिया|वार्ता]]</small></span> 16:07, 8 अगस्त 2010 (IST)<br />
<br />
== श्रेणी:अंग्रेज़ी शासन ==<br />
श्रेणी:अंग्रेज़ी शासन नई बनी है पुरानी हटा दि गयी है। उसमें <u>'''अंग्रेजी'''</u> लिखा था। [[चित्र:nib4.png|35px|top]]<span class="sign">[[User:आदित्य चौधरी|आदित्य चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आदित्य चौधरी|वार्ता]]</small></span><br />
<br />
== प्रेमचन्द ==<br />
<br />
अच्छा बन गया है लेकिन अभी काम बाक़ी है। सूचना बक्सा आदि लगाएँ। [[चित्र:nib4.png|35px|top]]<span class="sign">[[User:आदित्य चौधरी|आदित्य चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आदित्य चौधरी|वार्ता]]</small></span> 10:47, 30 अगस्त 2010 (IST)<br />
<br />
== साँचा:व्रत और उत्सव2 ==<br />
<br />
कृपया [[साँचा:व्रत और उत्सव2]] को देखें । [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:अश्वनी भाटिया]]<span class="sign">[[User:अश्वनी भाटिया|अश्वनी भाटिया]] | <small>[[सदस्य वार्ता:अश्वनी भाटिया|वार्ता]]</small></span> 18:31, 10 सितंबर 2010 (IST)<br />
==शिवाजी==<br />
<br />
कृपया [[वार्ता:शिवाजी]] पन्ने को देखें । [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:अश्वनी भाटिया]]<span class="sign">[[User:अश्वनी भाटिया|अश्वनी भाटिया]] | <small>[[सदस्य वार्ता:अश्वनी भाटिया|वार्ता]]</small></span> 13:36, 12 सितंबर 2010 (IST)<br />
<br />
== जम्मू और कश्मीर ==<br />
<br />
[[साँचा:जम्मू और कश्मीर के पर्यटन स्थल]] बना दिया गया है कृपया इस को [[पर्यटन]] के पन्ने में डाले [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:अश्वनी भाटिया]]<span class="sign">[[User:अश्वनी भाटिया|अश्वनी भाटिया]] | <small>[[सदस्य वार्ता:अश्वनी भाटिया|वार्ता]]</small></span> 12:21, 13 सितंबर 2010 (IST)<br />
<br />
कृपया [[वैशेषिक दर्शन की तत्त्व मीमांसा]] पर चित्र लगाए। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 13:02, 19 सितंबर 2010 (IST)<br />
<br />
[[संसद]] image<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[लता मंगेशकर]], [[आशा भोंसले]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 12:07, 23 सितंबर 2010 (IST)<br />
<br />
== कपिल सिब्बल ==<br />
<br />
संदेश देने के लिए धन्यवाद जल्दी ही लग जाएगी।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:अश्वनी भाटिया]]<span class="sign">[[User:अश्वनी भाटिया|अश्वनी भाटिया]] | <small>[[सदस्य वार्ता:अश्वनी भाटिया|वार्ता]]</small></span> 16:38, 28 सितंबर 2010 (IST)<br />
<br />
== चित्रकार ==<br />
<br />
चित्रकार का लिंक नहीं दिया जा रहा ??? [[चित्र:nib4.png|35px|top]]<span class="sign">[[User:आदित्य चौधरी|आदित्य चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आदित्य चौधरी|वार्ता]]</small></span> 22:26, 23 अक्टूबर 2010 (IST)<br />
==बाजीराव==<br />
इस पृष्ठ पर मैंने काफ़ी काम किया है। आपको बस साँचा लगाना है। कृपया इस काम को कर दें।<br />
<br />
== category ==<br />
<br />
कृपया [[वर्तनी (हिन्दी)]] में category लगा दो। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 17:03, 25 दिसंबर 2010 (IST)<br />
<br />
== संवरण ==<br />
<br />
कृपया इस पन्ने पर श्रेणी लगाए [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:अश्वनी भाटिया]]<span class="sign">[[User:अश्वनी भाटिया|अश्वनी भाटिया]] | <small>[[सदस्य वार्ता:अश्वनी भाटिया|वार्ता]]</small></span> 17:03, 27 दिसंबर 2010 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[अलंकार]], [[लिंग]] का पेज देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 12:19, 29 दिसंबर 2010 (IST)<br />
<br />
== रबीन्द्रनाथ ठाकुर ==<br />
<br />
कृपया [[वार्ता:रबीन्द्रनाथ ठाकुर]] पन्ने को देखें । [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:अश्वनी भाटिया]]<span class="sign">[[User:अश्वनी भाटिया|अश्वनी भाटिया]] | <small>[[सदस्य वार्ता:अश्वनी भाटिया|वार्ता]]</small></span> 11:53, 30 दिसंबर 2010 (IST)<br />
<br />
==सामान्य ज्ञान हिन्दी- 3==<br />
<br />
गोविन्द जी, कृपया हिन्दी सामान्य ज्ञान का तीसरा भाग देखें, जिसमें प्रश्न सं. 12 और 17 एक ही हैं, कृपया सही करवायें. हिन्दी का सामान्य ज्ञान कौन बना रहा है, जानकारी दें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 16:37, 30 दिसंबर 2010 (IST)<br />
==सामान्य ज्ञान हिन्दी-4==<br />
<br />
<poem>गोदान में - 15. 'आदमी कितना स्वार्थी हो जाता है, जिसके लिए मरो, वही जान का दुश्मन हो जाता है।' यह कथन 'गोदान' के किस पात्र का है?<br />
मेहता<br />
खन्ना<br />
मालती<br />
होरी<br />
<br />
16. 'नारी में पुरुष के गुण आ जाते हैं, तो वह कुलटा हो जाती है।' यह कथन 'गोदान' के किस पात्र का है?<br />
रायसाहब<br />
ओंकारनाथ<br />
मेहता<br />
होरी<br />
<br />
17. 'जो अपनी जान खपाते हैं, उनका हक उन लोगों से ज्यादा है, जो केवल रुपया लगाते हैं।' यह कथन 'गोदान' के किस पात्र द्वारा कहा गया है?<br />
मालती<br />
ओंकारनाथ<br />
मेहता<br />
खन्ना</poem><br />
गोदान के पात्र का नाम महतो है ना कि मेहता कृपया जानकारी कर सही करें[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 16:37, 30 दिसंबर 2010 (IST)<br />
==हिन्दी सामान्य ज्ञान 5==<br />
<poem>7. 'गिरि' शब्द का शुद्ध बहुवचन है-<br />
गिरियाँ<br />
गिरी<br />
गिरि<br />
गिरिएं<br />
http://pustak.org/bs/home.php?bookid=4883&act=continue&index=6&booktype=free<br />
(8) कुछ शब्दों के रूप ‘एकवचन’ और ‘बहुवचन’ दोनो में समान होते हैं। जैसे-<br />
एकवचन बहुवचन एकवचन बहुवचन<br />
क्षमा क्षमा नेता नेता<br />
जल जल प्रेम प्रेम<br />
गिरि गिरि क्रोध क्रोध<br />
राजा राजा पानी पानी<br />
यहाँ से कंफर्म करें[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 16:57, 30 दिसंबर 2010 (IST)</poem><br />
==श्रेणी==<br />
<br />
गोविन्द जी, इतिहास से सम्बन्धित लेखों में इतिहास कोश श्रेणी अवश्य होनी चाहिए।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 13:15, 1 जनवरी 2011 (IST)<br />
==पात्र==<br />
<br />
कृपया सामान्य ज्ञान में प्रयुक्त पात्रों के नामों को जाँच लें, वह बिल्कुल सही होने चाहियें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 13:24, 1 जनवरी 2011 (IST)<br />
==सामान्य ज्ञान- 1==<br />
<poem>18. अर्द्धमागधी अपभ्रंश से इनमें से किस बोली का विकास हुआ है?<br />
पश्चिमी<br />
बिहारी<br />
'''बंगाली<br />
बंगाली'''</poem><br />
यह अभी तक सही नहीं हुआ है[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 13:37, 1 जनवरी 2011 (IST)<br />
==2011==<br />
<br />
नववर्ष आपके लिए मंगलमय हो। शुभकामनाएँ...[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 14:13, 1 जनवरी 2011 (IST)<br />
==शनि चालीसा==<br />
गोविंद जी, कृपया शनि चालीसा और शिव चालीसा ये पन्ने भी देखें और इन सभी नये पन्नों में साँचा भी लगा दें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 14:37, 4 जनवरी 2011 (IST)<br />
==शिक्षा सामान्य ज्ञान==<br />
<poem>1- शिक्षा शब्द समानार्थी है?<br />
निर्देश का<br />
विद्यालयीकरण का<br />
प्रशिक्षन का<br />
इनमें से सभी</poem><br />
कृपया ध्यान दें, सही शब्द '''प्रशिक्षण''' होता है ना कि 'प्रशिक्षन', इसे ठीक करें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 17:02, 7 जनवरी 2011 (IST)<br />
==प्रव्रज्या==<br />
<br />
<poem>4. बौद्ध युग में शिक्षा ग्रहण करने के लिए बालक का एक संस्कार होता था जिसे कहते हैं?<br />
प्रवज्जा संस्कार<br />
उपनयन संस्कार<br />
परिणय संस्कार<br />
इनमें से कोई नहीं</poem><br />
कृपया ध्यान दें, सही शब्द '''प्रव्रज्या''' होता है ना कि 'प्रवज्जा', इसे ठीक करें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 17:24, 7 जनवरी 2011 (IST)<br />
==विद्यालय के==<br />
17. निजी विद्यालय के आय के स्त्रोत कौन से होते हैं? - यहाँ पर '''विद्यालय की''' होना चाहिए, कृपया सही करें[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 17:59, 7 जनवरी 2011 (IST)<br />
==प्रबन्धन==<br />
<br />
<poem>18. विद्यालय के संचालन के लिए आवश्यक है?<br />
विद्यालय संगठन<br />
'''विद्यालय प्रबन्ध'''<br />
विद्यालय प्रशासन<br />
इनमें से सभी</poem>सही शब्द '''विद्यालय प्रबन्धन''' होना चाहिए<br />
==माध्यिका==<br />
<poem>20- पचास शतांक मान का दूसरा नाम क्या है?<br />
माध्यिका<br />
मध्यमान<br />
बहुलांक<br />
प्रारम्भिक स्तर</poem><br />
'''माध्यिका''' शब्द के विषय में आदित्य जी से बात कर लें। मेरे विचार से सही शब्द 'मध्यांक' होना चाहिए।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 18:07, 7 जनवरी 2011 (IST)<br />
==व्यवस्था==<br />
कृपया बतायें क्या नये पन्ने क्रमवार जाँचे जा रहे हैं? नहीं तो क्या व्यवस्था चल रही है?[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 18:10, 7 जनवरी 2011 (IST)<br />
==अर्थशास्त्र सामान्य ज्ञान-1==<br />
18. 'दोपहर का भोजन' नामक कार्यक्रम निम्नलिखित मंत्रालय के अंतर्गत संचालित होता है? - प्रश्न संख्या 18 और 19 समान है, कृपया ध्यान दें[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 05:37, 8 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[इन्दौर]] का पेज देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 15:29, 9 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== गोवा ==<br />
<br />
अगर आप गोवा के पन्ने पर काम नहीं कर रहे हो तो कया में गोवा के पन्ने में चित्रों को सही से लगालो? [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 18:01, 9 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[अर्थशास्त्र सामान्य ज्ञान 4]], [[अर्थशास्त्र सामान्य ज्ञान 5]] देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 18:00, 10 जनवरी 2011 (IST)<br />
==इतिहास सामान्य ज्ञान 2==<br />
प्रश्न संख्या-1 और 16 एक ही प्रकार के प्रश्न हैं जिसे हटा दिया गया है। कृपया दूसरा प्रश्न सम्मिलित करें[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 18:48, 11 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Shilpi2]] देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 18:07, 19 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Shilpi2]] में भूगोल सामान्य ज्ञान एक बार देख लीजिए। इसके अलावा [[गुवाहाटी]], [[कोणार्क]], [[गांधीनगर]], [[विशाखापत्तनम]], [[~]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 09:59, 22 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[रायपुर]] का पन्ना देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 12:00, 22 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[लेप्चा]] का पन्ना देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 16:52, 22 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[इटावा]] का पन्ना देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 15:00, 23 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[चित्रकला]] और [[साँचा:चित्रकला शैलियाँ|भारतीय चित्रकला शैलियाँ]] के पन्ने देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 15:38, 24 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[मनाली हिमाचल प्रदेश|मनाली]] का पन्ना देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 17:26, 24 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[मेवाड़]], [[जूनागढ़]], [[भावनगर]] के पन्ने देखें और विज्ञान का सामान्य ज्ञान मेरे [[प्रयोग:Fozia4]] में देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 00:09, 27 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
==गणतंत्र दिवस==<br />
भारतकोश परिवार की ओर से आपको गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 15:21, 26 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[ब्यावर]], [[जालंधर]], [[विशाखापत्तनम]], [[लुधियाना]], [[हम्पी]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 10:55, 27 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
मैंने [[प्रयोग:Fozia4]] देख लिया है। एक बार आप भी देख लें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 11:42, 27 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Shilpi2]] देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 17:14, 27 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[भारतीय सेना]] का पन्ना देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 23:19, 28 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== संगीत सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Priya1]] शीघ्र जाँचे। जबाब अवश्य दें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:प्रिया]]<span class="sign"> [[User:प्रिया|प्रियंका चतुर्वेदी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:प्रिया|वार्ता]]</small></span> 11:45, 29 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[सदस्य:लक्ष्मी गोस्वामी/अभ्यास5 ]] एक बार देख लेना। वो आज ही लगना है।<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[बिस्मिल्ला ख़ाँ]], [[आँख]], [[तन्त्रिका तन्त्र]], [[मस्तिष्क]], [[मेरुरज्जु]] और [[रक्त]] के पन्नो को देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 09:44, 31 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Priya2]] में भूगोल सामान्य ज्ञान का पन्ना देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 16:15, 31 जनवरी 2011 (IST)<br />
==पन्ना==<br />
प्रयोग:Priya2 में भूगोल सामान्य ज्ञान का पन्ना देख लिया है,किंतु प्रश्न सं. 6 और 10 को एक बार ठीक से जाँच लें। बाक़ी ठीक है।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 18:54, 31 जनवरी 2011 (IST)<br />
==बिस्मिल्ला ख़ाँ==<br />
बिस्मिल्ला ख़ाँ साहेब के पन्ने में 'जीवन परिचय' में जीवन परिचय ही नही है और यह पन्ना अधिक विस्तृत बनेगा। कृपया ध्यान दें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 18:58, 31 जनवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Shilpi6]] का पेज देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 13:26, 1 फ़रवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[मुहम्मद हिदायतुल्लाह]] का पन्ना देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 16:31, 1 फ़रवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Fozia5]] देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:प्रिया]]<span class="sign"> [[User:प्रिया|प्रियंका चतुर्वेदी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:प्रिया|वार्ता]]</small></span> 12:04, 4 फ़रवरी 2011 (IST)<br />
==काशी हिन्दू विश्वविद्यालय== <br />
गोविन्द जी, कृपया काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और मदनमोहन मालवीय के सन्दर्भ देख लें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 18:50, 7 फ़रवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Shilpi4]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 11:01, 10 फ़रवरी 2011 (IST)<br />
==बैडमिंटन==<br />
<br />
गोविन्द जी, कृपया बैडमिंटन का पेज़ देखें, सही करवाएँ और पाठ्य सामग्री भी होनी चाहिए। भाषा और सामग्री पर ध्यान दें[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:आशा चौधरी]]<span class="sign">[[User:आशा चौधरी|आशा चौधरी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:आशा चौधरी|वार्ता]]</small></span> 16:19, 11 फ़रवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें। ==<br />
<br />
[[कबूतर]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:लक्ष्मी गोस्वामी]]<span class="sign"> [[User:लक्ष्मी गोस्वामी|लक्ष्मी गोस्वामी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:लक्ष्मी गोस्वामी|वार्ता]]</small></span> 18:23, 11 फ़रवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Shilpi6]] व [[प्रयोग:Shilpi4]] देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 13:02, 12 फ़रवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[इन्दौर पर्यटन]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 12:15, 14 फ़रवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[इन्दौर पर्यटन]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 10:30, 15 फ़रवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:शिल्पी]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 18:01, 15 फ़रवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[महाबलेश्वर]] के पन्ने को देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 14:37, 19 फ़रवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:शिल्पी]], [[ग़ाज़ियाबाद]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 15:48, 19 फ़रवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[राहुल सांकृत्यायन]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 13:37, 20 फ़रवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[रावी, रामप्रसाद विद्यार्थी]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 15:53, 21 फ़रवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
[[प्रयोग:शिल्पी]] देखें व देखने के पश्चात आगे संदेश भेजे। चैक होने के पश्चात इस पेज को बना दे। धन्यवाद[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 17:52, 21 फ़रवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[सदस्य:लक्ष्मी गोस्वामी/अभ्यास3#कम्प्यूटर|सदस्य:लक्ष्मी गोस्वामी/अभ्यास3]] में कम्प्यूटर सामान्य ज्ञान का पन्ना देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 11:17, 25 फ़रवरी 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[वृंदावनलाल वर्मा]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 16:15, 2 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[सदस्य:लक्ष्मी गोस्वामी/अभ्यास3]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 11:06, 3 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
कृपया [[अट्टुकल पोंगल]] के पेज देखें व उचित साँचा लगायें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 12:20, 3 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Shilpi6]] देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 17:03, 3 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
[[सदस्य:लक्ष्मी गोस्वामी/अभ्यास2]]<br />
<br />
[[प्रयोग:Shilpi6]] पेज देख लिया गया है।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:प्रिया]]<span class="sign"> [[User:प्रिया|प्रियंका चतुर्वेदी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:प्रिया|वार्ता]]</small></span> 18:32, 5 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[मैग्नीसियम]], [[सोना]] और [[प्लेटिनम]] के पन्ने देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 17:46, 6 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[एल्युमिनियम]], [[गन्धक]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 16:04, 8 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Shilpi4]] में इतिहास सामान्य ज्ञान देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 16:21, 9 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[फॉस्फोरस]] का पन्ना देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 11:15, 10 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
कृपया [[मैंगनीज]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 15:15, 13 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[सदस्य:लक्ष्मी गोस्वामी/अभ्यास3]] पुनः चैक करें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 11:28, 14 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[रत्नगिरि]] का पन्ना देखें और श्रेणियाँ भी देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 11:31, 14 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== श्रेणी लगाएँ ==<br />
<br />
कृपया [[यातुधान]], [[यच]] में श्रेणी लगाएँ।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:प्रिया]]<span class="sign"> [[User:प्रिया|प्रियंका चतुर्वेदी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:प्रिया|वार्ता]]</small></span> 18:37, 14 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Shilpi4]] देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:प्रिया]]<span class="sign"> [[User:प्रिया|प्रियंका चतुर्वेदी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:प्रिया|वार्ता]]</small></span> 13:17, 15 मार्च 2011 (IST)<br />
* गोविंद जी, [[एनी बेसेंट]] का जो चित्र पेज़ पर लगा है, वह बहुत कॉमन है, हमें कोई दूसरा चित्र लगाना चाहिए। -आशा चौधरी<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[हाइड्रोजन]] का पन्ना देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 12:53, 18 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Shilpi4]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 17:09, 18 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[चित्र सामान्य ज्ञान 5]] का पन्ना देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 18:14, 18 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[एलुमिनियम]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 18:34, 18 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== नये पृष्ठ ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:रविन्द्र१]] को देखें।<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[अनंत कुमार]] का पन्ना देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 16:42, 21 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[अटाला मस्जिद]] का पन्ना देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 13:19, 23 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Shilpi4]] देखें व बनाने के बाद वार्ता करें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 10:51, 24 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Shilpi5]] जाँचें व जाँचने के बाद वार्ता करें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 17:19, 24 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== नज़ीबाबाद ==<br />
<br />
कृपया [[नज़ीबाबाद]] और [http://en.wikipedia.org/wiki/Nizamabad,_Uttar_Pradesh Nizamabad, Uttar Pradesh] के पन्ना देखें, शायद नज़ीबाबाद पन्ने का नाम निज़ामाबाद होना चाहीये। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 13:38, 25 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
क्रपया [[सदस्य:लक्ष्मी गोस्वामी/अभ्यास6]][[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:प्रिया]]<span class="sign"> [[User:प्रिया|प्रियंका चतुर्वेदी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:प्रिया|वार्ता]]</small></span> 17:51, 25 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:प्रिया1]] देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 15:43, 31 मार्च 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[सदस्य:फ़िज़ा/अभ्यास]] में गुजरात के चित्र के Caption check करे। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़िज़ा]]<span class="sign"> [[User:फ़िज़ा|फ़िज़ा]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़िज़ा|वार्ता]]</small></span> 15:13, 6 अप्रॅल 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
कृपया [[प्रयोग:प्रिया1]] में भूगोल सामान्य ज्ञान देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 17:40, 6 अप्रॅल 2011 (IST)<br />
<br />
== नया पृष्ठ ==<br />
कृपया [[प्रयोग:रविन्द्र१]] देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:रविन्द्र प्रसाद]]<span class="sign">[[User:रविन्द्र प्रसाद|रविन्द्र प्रसाद]] | <small>[[सदस्य वार्ता:रविन्द्र प्रसाद|वार्ता]]</small></span> 17:11, 7 अप्रॅल 2011 (IST)<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:शिल्पी]] देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 18:46, 9 अप्रॅल 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[जुझार सिंह]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] | <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 14:08, 15 अप्रॅल 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
[[सदस्य:लक्ष्मी गोस्वामी/अभ्यास3]] पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:लक्ष्मी गोस्वामी]]<span class="sign"> [[User:लक्ष्मी गोस्वामी|लक्ष्मी गोस्वामी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:लक्ष्मी गोस्वामी|वार्ता]]</small></span> 15:44, 15 अप्रॅल 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया सामान्य ज्ञान [[प्रयोग:फ़ौज़िया5]] में चित्र सामान्य ज्ञान देखें और update kare. [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] | <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 15:15, 16 अप्रॅल 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[अगुआड़ा दुर्ग]] का पन्ना देखें। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:फ़ौज़िया ख़ान]]<span class="sign"> [[User:फ़ौज़िया ख़ान|फ़ौज़िया ख़ान]] . <small>[[सदस्य वार्ता:फ़ौज़िया ख़ान|वार्ता]]</small></span> 12:19, 22 अप्रॅल 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:शिल्पी]] में खेल सामान्य ज्ञान देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 16:53, 22 अप्रॅल 2011 (IST)<br />
<br />
== नया पृष्ठ ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:रविन्द्र१]] को देख लें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:रविन्द्र प्रसाद]]<span class="sign">[[User:रविन्द्र प्रसाद|रविन्द्र प्रसाद]] . <small>[[सदस्य वार्ता:रविन्द्र प्रसाद|वार्ता]]</small></span> 16:02, 23 अप्रॅल 2011 (IST)<br />
<br />
== नया पृष्ठ ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:लक्ष्मी2]] को देख लें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:रविन्द्र प्रसाद]]<span class="sign">[[User:रविन्द्र प्रसाद|रविन्द्र प्रसाद]] . <small>[[सदस्य वार्ता:रविन्द्र प्रसाद|वार्ता]]</small></span> 19:08, 7 मई 2011 (IST)<br />
<br />
== नया पृष्ठ ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:लक्ष्मी3]] को देख लें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:रविन्द्र प्रसाद]]<span class="sign">[[User:रविन्द्र प्रसाद|रविन्द्र प्रसाद]] . <small>[[सदस्य वार्ता:रविन्द्र प्रसाद|वार्ता]]</small></span> 17:22, 9 मई 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[हम्पी]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 16:47, 11 मई 2011 (IST)<br />
<br />
== नया पृष्ठ ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:लक्ष्मी2]] को देख लें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:रविन्द्र प्रसाद]]<span class="sign">[[User:रविन्द्र प्रसाद|रविन्द्र प्रसाद]] . <small>[[सदस्य वार्ता:रविन्द्र प्रसाद|वार्ता]]</small></span> 19:08, 11 मई 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:शिल्पी2]] देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 11:01, 14 मई 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:शिल्पी]] देखें व बताये कि ये वाला सामान्य ज्ञान लगा दिया गया है या नहीं।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 11:06, 14 मई 2011 (IST)<br />
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== नये पृष्ठ ==<br />
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कृपया [[प्रयोग:रविन्द्र]], [[प्रयोग:शिल्पी2]], [[प्रयोग:RAVI]] को जाँचें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:रविन्द्र प्रसाद]]<span class="sign">[[User:रविन्द्र प्रसाद|रविन्द्र प्रसाद]] . <small>[[सदस्य वार्ता:रविन्द्र प्रसाद|वार्ता]]</small></span> 14:20, 14 मई 2011 (IST)<br />
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== जाँचें ==<br />
<br />
कृपया हाल में हुए शिल्पी गोयल के बदलाव देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 18:35, 14 मई 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:शिल्पी1]] देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 14:04, 16 मई 2011 (IST)<br />
<br />
== चयनित चित्र ==<br />
<br />
गोविन्द जी चयनित चित्र में अपडेट कर रहा हूँ। [[चित्र:nib4.png|35px|top]]<span class="sign">[[User:अश्वनी भाटिया|अश्वनी भाटिया <sub>प्रबंधक</sub>]] . <sub>[[सदस्य वार्ता:अश्वनी भाटिया|वार्ता]]</sub></span> 20:04, 16 मई 2011 (IST)<br />
<br />
== चयनित चित्र ==<br />
<br />
कहा किए है। मेरे को तोपुराने दिखा रहा है। किसमे पडे है।[[चित्र:nib4.png|35px|top]]<span class="sign">[[User:अश्वनी भाटिया|अश्वनी भाटिया <sub>प्रबंधक</sub>]] . <sub>[[सदस्य वार्ता:अश्वनी भाटिया|वार्ता]]</sub></span> 20:09, 16 मई 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:शिल्पी]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 19:10, 19 मई 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया सामान्य ज्ञान [[प्रयोग:Ravi4]], [[प्रयोग:हिना1]], [[प्रयोग:हिना]], [[प्रयोग:लक्ष्मी3]] को अपडेट करें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:रविन्द्र प्रसाद]]<span class="sign">[[User:रविन्द्र प्रसाद|रविन्द्र प्रसाद]] . <small>[[सदस्य वार्ता:रविन्द्र प्रसाद|वार्ता]]</small></span> 16:03, 20 मई 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:शिल्पी1]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 15:12, 21 मई 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:हिना]], [[प्रयोग:लक्ष्मी5]] और [[प्रयोग:लक्ष्मी3]] देखें[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:लक्ष्मी गोस्वामी]]<span class="sign"> [[User:लक्ष्मी गोस्वामी|लक्ष्मी गोस्वामी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:लक्ष्मी गोस्वामी|वार्ता]]</small></span> 17:06, 26 मई 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Shilpi6]] देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 13:30, 31 मई 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें। ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Laxmi1]] देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:लक्ष्मी गोस्वामी]]<span class="sign"> [[User:लक्ष्मी गोस्वामी|लक्ष्मी गोस्वामी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:लक्ष्मी गोस्वामी|वार्ता]]</small></span> 16:30, 1 जून 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:शिल्पी1]] देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 16:37, 10 जून 2011 (IST)<br />
<br />
== सूचना बक्सा ==<br />
<br />
कृपया [[राज कुमार]] में लगे सूचना बक्से पर एक बार निगाह डालें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 16:27, 16 जून 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[लघु उद्योग]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 11:03, 21 जून 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज जाँचे ==<br />
<br />
कृपया [[हिन्दी साहित्य]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:हिमानी]]<span class="sign">[[User:हिमानी|हिमानी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:हिमानी|वार्ता]]</small></span> 16:09, 24 जून 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें। ==<br />
<br />
कृपया [[संजीव कुमार]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 17:34, 2 जुलाई 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[सदस्य:शिल्पी गोयल/Sandbox]], [[प्रयोग:शिल्पी]], [[प्रयोग:शिल्पी2]], [[प्रयोग:शिल्पी3]], [[प्रयोग:शिल्पी4]] देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 15:42, 11 जुलाई 2011 (IST)<br />
<br />
== जाँचें ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:शिल्पी4]] अब जाँचें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 16:21, 11 जुलाई 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें। ==<br />
<br />
कृपया [[सदस्य:लक्ष्मी गोस्वामी/अभ्यास6]] देखें:-[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:लक्ष्मी गोस्वामी]]<span class="sign"> [[User:लक्ष्मी गोस्वामी|लक्ष्मी गोस्वामी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:लक्ष्मी गोस्वामी|वार्ता]]</small></span> 17:34, 15 जुलाई 2011 (IST)<br />
<br />
== पन्ना देखें ==<br />
<br />
कृपया [[शिशु]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 18:58, 17 जुलाई 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें। ==<br />
<br />
कृपया [[सदस्य:लक्ष्मी गोस्वामी/अभ्यास3]] देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:लक्ष्मी गोस्वामी]]<span class="sign"> [[User:लक्ष्मी गोस्वामी|लक्ष्मी गोस्वामी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:लक्ष्मी गोस्वामी|वार्ता]]</small></span> 19:16, 18 जुलाई 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[गायत्री देवी]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 17:41, 21 जुलाई 2011 (IST)<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[वहीदा रहमान]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:हिमानी]]<span class="sign">[[User:हिमानी|हिमानी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:हिमानी|वार्ता]]</small></span> 14:03, 22 जुलाई 2011 (IST)<br />
<br />
== सामान्य ज्ञान ==<br />
<br />
कृपया [[सदस्य:शिल्पी गोयल/अभ्यास1]] देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 18:57, 25 जुलाई 2011 (IST)<br />
<br />
== प्रयोग ==<br />
<br />
कृपया [[प्रयोग:Janmejay]] देखें व पूरा करें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:शिल्पी गोयल]]<span class="sign">[[User:शिल्पी गोयल|शिल्पी गोयल]] . <small>[[सदस्य वार्ता:शिल्पी गोयल|वार्ता]]</small></span> 17:47, 2 अगस्त 2011 (IST)<br />
<br />
[[Category:सदस्य वार्ता]]<br />
<br />
== पेज देखें ==<br />
<br />
कृपया [[सूरसारावली]] का पेज देखें।[[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:हिमानी]]<span class="sign">[[User:हिमानी|हिमानी]] | <small>[[सदस्य वार्ता:हिमानी|वार्ता]]</small></span> 18:52, 19 अगस्त 2011 (IST)</div>हिमानीhttps://en.bharatdiscovery.org/w/index.php?title=Talk:%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%B2%E0%A5%80&diff=207862Talk:सूरसारावली2011-08-19T13:19:53Z<p>हिमानी: '{{वार्ता}}' के साथ नया पन्ना बनाया</p>
<hr />
<div>{{वार्ता}}</div>हिमानीhttps://en.bharatdiscovery.org/w/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%B2%E0%A5%80&diff=207861सूरसारावली2011-08-19T13:18:15Z<p>हिमानी: </p>
<hr />
<div>{{पुनरीक्षण}}<br />
*सूरसारावली एक सम्पूर्ण ग्रन्थ है। यह एक "वृहद् होली' गीत के रुप में रचित हैं।<br />
*सूरसारावली में 1107 [[छन्द]] हैं। <br />
*इसकी टेक है- "खेलत यह विधि हरि [[होली|होरी]] हो, हरि होरी हो वेद विदित यह बात।'' <br />
*सूरसारावली की रचना-काल संवत 1662 वि० निश्चित किया गया है, क्योंकि इसकी रचना [[सूरदास|सूर]] के 67 वें वर्ष में हुई थी।<br />
<br />
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}<br />
{{संदर्भ ग्रंथ}}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==बाहरी कड़ियाँ==<br />
<br />
==संबंधित लेख==<br />
{{भक्ति कालीन साहित्य}}<br />
[[Category:सूरदास]]<br />
[[Category:भक्ति काल]]<br />
[[Category:भक्ति साहित्य]]<br />
[[Category:साहित्य कोश]]<br />
[[Category:पद्य साहित्य]]<br />
__INDEX__<br />
[[Category:नया पन्ना]]</div>हिमानीhttps://en.bharatdiscovery.org/w/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%B2%E0%A5%80&diff=207860सूरसारावली2011-08-19T13:16:16Z<p>हिमानी: '{{पुनरीक्षण}} *सूरसारावली एक सम्पूर्ण ग्रन्थ है। यह ए...' के साथ नया पन्ना बनाया</p>
<hr />
<div>{{पुनरीक्षण}}<br />
*सूरसारावली एक सम्पूर्ण ग्रन्थ है। यह एक "वृहद् होली' गीत के रुप में रचित हैं।<br />
*सूरसारावली में 1107 [[छन्द]] हैं। <br />
*इसकी टेक है- "खेलत यह विधि [[हरि]] [[होली|होरी]] हो, हरि होरी हो वेद विदित यह बात।'' <br />
*सूरसारावली की रचना-काल संवत 1662 वि० निश्चित किया गया है, क्योंकि इसकी रचना [[सूरदास|सूर]] के 67 वें वर्ष में हुई थी।<br />
<br />
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}<br />
{{संदर्भ ग्रंथ}}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==बाहरी कड़ियाँ==<br />
<br />
==संबंधित लेख==<br />
{{भक्ति कालीन साहित्य}}<br />
[[Category:सूरदास]]<br />
[[Category:भक्ति काल]]<br />
[[Category:भक्ति साहित्य]]<br />
[[Category:साहित्य कोश]]<br />
[[Category:पद्य साहित्य]]<br />
__INDEX__<br />
[[Category:नया पन्ना]]</div>हिमानी