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(पुस्तक ‘ग़ालिब’) पृष्ठ संख्या- 07 से
 
ग़ालिब
मिर्ज़ा असद उल्लाह ख़ाँ ‘ग़ालिब’ 27 सितम्बर, 1797 को पैदा हुए। सितम्बर, 1796 में एक फ़्राँसीसी, पर्रों, जो अपनी क़िस्मत आज़माने हिन्दुस्तान आया था, दौलत राव सिंधिया की शाही फ़ौज का सिपहसलार बना दिया गया। इस हैसियत से वह हिन्दुस्तान का गवर्नर भी था। उसने दिल्ली का मुहासरा करके<ref>घेरकर</ref> उसे फ़तह<ref>जीत</ref> कर लिया और अपने एक कमांडर, ले मारशाँ को शहर का गवर्नर और शाह आलक का मुहाफ़िज<ref>रक्षक</ref> मुक़र्रर<ref>नियुक्त</ref> किया। उसके बाद उसने आगरा पर क़ब्ज़ा कर लिया। अब शुमाली<ref>उत्तरी</ref> हिन्दुस्तान में उसके मुक़ाबले का कोई भी नहीं था और उसकी हुमूमत एक इलाक़े पर थी, जिसकी सालाना मालगुज़ारी<ref>भूमिकर</ref> दस लाख पाउण्ड से ज़्यादा थी। वह अलीगढ़ के क़रीब एक महल में शाहाना<ref>राजसी</ref> शानौ-शौकत<ref>ठाट-बाट</ref> से रहता था। यहीं से वह राजाओं और नवाबों के नाम अहकामात<ref>आदेश</ref> जारी करता और बग़ैर किसी मदाख़लत<ref>रोक-टोक</ref> के चंबल से सतलुज तक अपना हुक्म चलाता था।
15 सितम्बर, 1803 ई. को जनरल लेक सिंधिया के एक सरदार बोर्गी ई को शिकस्त<ref>पराजय</ref> देकर फ़ातेहाना<ref>विजयी, विजेता</ref> अंदाज़ से दाख़िल हुआ। बोर्गी ई का कुछ अर्से तक शहर पर क़ब्ज़ा रह चुका था और उसने इसे अंग्रेज़ों के लिए ख़ाली करने से पहले बहुत एहतेमाम<ref>आयोजन</ref> से लूटा था। जनरल लेक शहंशाह क ख़िदमत में हाज़िर हुआ, उसे बड़े-बड़े ख़िताब<ref>उपाधियाँ, अलंकरण</ref> दिए गए और शाहआलम और उसके जा-नशीन<ref>उत्तराधिकारी</ref> ईस्ट इण्डिया कम्पनी के वज़ीफ़ा-ख़्वार</ref>वज़ीफ़ा पाने वाले</ref> हो गए।
अट्ठाहरवीं सदी का दूसरा हिस्सा वह ज़माना था, जब यूरोप से सिपाही और ताजिर<ref>व्यापारी</ref> हिन्दुस्तान में अपनी क़िस्मत आजमाने आए और उन्होंने ख़ूब हंगामे किए। इसके मुक़ाबले में बस्त<ref>मध्य</ref> एशिया से मौक़े और मआश<ref>जीविका</ref> की तलाश में आने वालों की तादाद कम थी, मगर थोड़े-बहुत आते ही रहे। इन्हीं में से एक मिर्ज़ा क़ोक़न बेग, मुहम्मद शाही दौर के आख़िर में समरकन्द से आए और लाहौर में मुईन-उल-मुल्क के यहाँ मुलाज़िम<ref>नौकर</ref> हुए। उनके बारे में हमें कम ही मालूम है। उनके दो लड़के थे, मिर्ज़ा ग़ालिब के वालिद<ref>पिता</ref> अब्दुल्लाह बेग और नस्र उल्लाह बेग। अब्दुल्ला बेग को सिपगहरी<ref>सिपाहीगीरी</ref> के पेशे में कोई ख़ास कामयाबी प्राप्त नहीं हुई। पहले वह आसिफ़ उद्दौला की फ़ौज में मुलाज़िम हुए, फिर हैदराबाद में और फिर अलवर के राजा बख़्तावर सिंह के यहाँ। बेशतर<ref>अधिकांश</ref> वक़्त उन्होंने ‘ख़ाना दामाद’<ref>घरजवाँई</ref> की हैसियत से गुज़ारा। सन 1802 ई. में वह एक लड़ाई में काम आए, जब ग़ालिब की उम्र पाँच साल की थी। उनसे सबसे क़रीबी<ref>निकट के</ref> अज़ीज़, <ref>प्रिय व्यक्ति</ref> लोहारू के नवाब, भी तुर्किस्तान से आए हुए ख़ानदान के थे और उनके जद्दे-आला<ref>पूर्वज</ref> भी उसी ज़माने में हिन्दुस्तान आए थे, जिस वक़्त मिर्ज़ा क़ोक़म बेग आए थे।
ऐसे हालात, जबकि निज़ामे-ज़िन्दगी<ref>जीवन व्यवस्था</ref> के क़ायम रहने का ऐतबार<ref>विश्वास</ref> और निराज<ref>व्यवस्था</ref> और तसद्दुद<ref>हिंसा</ref> का दौर हो, जब मालूम होता हो कि सब कुछ चंद<ref>कुछ</ref> जाँबाज़ों<ref>जान पर खेल जाने वाले, लड़ाकू</ref> के हाथ में हैं, असर डालते हैं और मुस्तक़िल<ref>स्थायी</ref> मायूसी<ref>निराशा</ref> की फ़िजा<ref>वातावरण</ref> पैदा कर देते हैं। वैसे भी हस्सास<ref>संवेदनशील</ref> तबीअतं खुशी से ज़्यादा दर्द और ग़म की तरफ़ माइल<ref>प्रवृत्त</ref> रहती है। ग़ालिब की ज़िन्दगी का पसे-मंज़र<ref>पृष्ठभूमि</ref> मुग़ल सल्तनत का ज़वाल<ref>पतन</ref>, देहाती सरदारों का उभरना और इक़्तिदार<ref>सत्ताधिकार, प्रभुत्व</ref> हासिल करने के लिए उनके मुसलसल<ref>निरन्तर</ref> मुक़ाबिले है, अगर इन्हें कुछ ख़ास अहमियत<ref>महत्व</ref> नहीं दी जा सकती। हिन्दुस्तान में सियासी<ref>राजनैतिक</ref> ज़िन्दगी का दायरा विस्तृत नहीं था। नमक-हलाली की क़द्र की जाती थी, लेकिन सियासी वफ़ादारी को आमतौर पर एक अख़्लाक़ी<ref>नैतिक</ref> उसूल<ref>सिद्धांत</ref> नहीं माना जाता था। रिआया<ref>प्रजा</ref> के ख़ैर-ख़्वाह<ref>शुभ-चिन्तक</ref> हाकिम<ref>अधिकारी</ref> अम्न<ref>शांति</ref> और इत्मीनान<ref>संतोष, विश्वास</ref> क़ायम रखने की अपने बस भर कोशिश करते थे। मगर देहाती आबादी में ऐसे अनासिर <ref>तत्त्व</ref> थे, जो कि मौक़ा पाते ही रहज़नी<ref>डाका डालन</ref> शुरू कर देते। हम अगर अंदाज़ करना चाहें की शुमाली<ref>उत्तरी</ref> हिन्दुस्तान की मुश्तरिक<ref>मिली-जुली, साझे की</ref> शहरी तहज़ीब<ref>सभ्यता, संस्कृति</ref> और उस अदब<ref>साहित्य</ref> पर, जो उस तहज़ीब का तुर्जुमान<ref>प्रवक्ता</ref> था, क्या-क्या असरात<ref>प्रभाव</ref> पड़े, तो हम देखेंगे की उसकी तशकील<ref>निरूपण</ref> में बर्तानवी<ref>ब्रिटिश</ref> तसल्लुत<ref>सत्ता</ref> से पहले की बदनज़्मी<ref>दुर्व्यवस्था</ref> से ज़्यादा दख़्ल<ref>अधिकार, हस्तक्षेप</ref> उन आदतों और उन तसव्वुरात<ref>मान्यताओं, विचारों</ref> को था, जो सदियों से उस तहज़ीब को एक ख़ास शक्ल<ref>रूप</ref> दे रहे थे। उस मुश्तरिक शहरी तहज़ीब को शहरी होने और शहरी रहने की ज़िद थी। उसके नज़दीक शहर की वही हैसियत थी, जो सहरा<ref>मरुस्थल, रेगिस्तान</ref> में नख़लिस्तान<ref>मरुद्वीप</ref> की, शहर की फ़सील<ref>परकोटा<ref> गोया</ref>मानो, जैसे की</ref> तहज़ीब को उस बरबरियत<ref>पशुता</ref> से बचाती थी, जो उसे चारो तरफ़ से घेरे हुए थी। ज़िन्दगी सिर्फ़ शहर में मुमकिन<ref>सम्भव</ref> थी, और जितना बड़ा शहर उतनी ही मुकम्मल<ref>पूर्ण</ref> ज़िन्दगी। यह हो सकता था कि इश्क़ और दीवानगी में कोई शहर से बाहर निकल जाए, क़ुदरत<ref>प्रकृति</ref> से क़रीब होने के शौक़ में शायद ही कोई ऐसा करता, इसलिए की यह मानी हुई बात थी कि क़ुदरत की तकमील<ref>पूर्णता</ref> शहर में होती है और शहर के बाहर क़ुदरत की कोई जानी-पहचानी शक्ल नज़र नहीं आती। शहर में बाग़ हो सकते थे और फूलों के हुजूम,<ref>भीड़</ref> सर्व<ref>सरो वृक्ष</ref> की क़तारों के दरमियान<ref>मध्य</ref> ख़िरामेनाज़<ref>सैर (प्रेयसी की मन्थर गति)</ref> के लिए रविशें, <ref>बाढ़</ref> पत्तियों और पंखुड़ियों पर मोतियों की सी शबनम<ref>ओस</ref> की बूँदें, यहाँ बादे-सबा<ref>प्रात: समीर</ref> चल सकती थी। बुलबलें गुलाबों को अपने नग़्में<ref>गीत</ref> सुना सकती थीं। क़फ़स<ref>पिंजरा</ref> के गिरफ़्तार आज़ादी से लुत्फ़<ref>आनन्द</ref> उठाते हुए परिन्दों पर रश्क़<ref>ईर्ष्या</ref> कर सकते थे। आशियानों<ref>घोंसलों</ref> पर बिजलियाँ गिर सकती थीं। बे-शक शाइर का तसव्वुर<ref>कल्पना</ref> तशबीहों<ref>उपमानों</ref> और इस्तआरों<ref>रूपकों</ref> की तलाश में शहर से बाहर जाने पर मजबूर था, जिनकी मिसाल<ref>उदाहरण</ref> क़ाफ़िले और कारवाँ और मज़िलें, तूफ़ानों से दिलेराना मुक़ाबिले, दश्त<ref>जंगल</ref> सहरा, समंदर और साहिल<ref>किनारा</ref> थे। लेकिन इस्तआरों की इफ़रात<ref>आधिक्य</ref> भी शहर ही के अन्दर थी। मयख़ाना, साक़ी, शराब, जाहिद, <ref>धर्मभीरु</ref> वाइज़,<ref>उपदेशक</ref> कूच-ए-यार,<ref>प्रेमिका की गली</ref> दरबान, दीवार, सहारा लेकर बैठने या सर फोड़ने के लिए, वह बाम<ref>मुंडेर</ref> जिस पर माशूक इत्तफ़ाक़<ref>संयोग</ref> से या जल्व:गरी<ref>रूप-सौंदर्य दिखाने, दर्शन देने</ref> के इरादे से नमूदार<ref>प्रकट</ref> हो सकता था, वह बाज़ार जहाँ आशिक़ रुस्वाई<ref>बदनामी</ref> की तलाश में जा सकता था या जहाँ दार<ref>सूली</ref> पर चढ़ने के मंज़र<ref>दृश्य</ref> उसे दिखा सकते थे कि माशूक की संगदिली<ref>कठोर ह्रदयता</ref> उसे कहाँ तक पहुँचा सकती है। शहरों ही में महफ़िलें हो सकती थीं, जिसको शम्मए रौशन<ref>प्रकाशित</ref> करतीं और जहाँ परवाने शोले पर फ़िदा होते, जहाँ आशिक़ और माशूक़ की मुलाक़ात होती। हम शहरों पर इसका इल्ज़ाम<ref>आरोप</ref> नहीं रख सकते कि उन्होंने शहर को यह अहमियत दे दी,शहर और देहात की बेगानिगी सदियों से चली आ रही थी, ये गोया हिन्दुस्तान के दो मुतज़ाद<ref>प्रतिकूल</ref> हिस्से थे।
मुल्क की तक़सीम<ref>विभाजन</ref> इसी एक नहज<ref>ढंग</ref> पर नहीं थी। बादशाह, उमरा<ref>अमीर का बहुवचन</ref> सिपहसलार इक़तिदार<ref>सत्ताधिकारी</ref> की कशमकश<ref>संघर्ष</ref> में मुब्तिला<ref>व्यस्त</ref> थे, एक जुए के खेल में जहाँ हर एक हिम्मत, मौक़ा और अपनी मस्लेहत<ref>स्वार्थ, हित</ref> के लहहाज़ से<ref>दृष्टि से</ref> बाज़ी लगाता, बाक़ी आबादी को बस अपनी सलामती<ref>कुशल-क्षेम, सुरक्षा</ref> की फ़िक्र थी। ज़मीर<ref>अन्तरात्मा</ref> और अख़्लाकी<ref>नैतिक</ref> उसूल बहस में नहीं आते थे। बाज़ी हारना और जीतना क़िस्मत की बात थी। आम मफ़ाद<ref>लाभ</ref> का कोई तसव्वुर था भी तो वह ज़ाती<ref>व्यक्तिगत</ref> अग़राज़<ref>स्वार्थ, ग़र्ज़ का बहुवचन</ref> की गंजलक़<ref>उलझन</ref> में खो जाता और अगर कोई आम मफ़ाद को महसूस करता और उसे बयान करना चाहता तो उसे दीनी<ref>धार्मिक</ref> और फ़िक़ही<ref>धर्मशास्त्रीय</ref> इस्तलाहों<ref>पारिभाषिक शब्दावली</ref> का सहारा लेना पड़ता, जिसका लाज़मी<ref>अनिवार्य</ref> नतीजा यह होता कि एक मज़हबी बहस खड़ी हो जाती। शाह इस्माइल शहीद की तसानीफ़<ref>ग्रन्थों, रचनाओं</ref> में जहाँ कहीं सियासी मसाइल<ref>समस्याएँ</ref> मोज़ू-ए-बहस<ref>विवाद का विषय</ref> है, वहाँ हम देखते हैं कि एक नेकनीयत इंसान, जिसकी ख़्वाहिश यह थी कि हुकूमत की बुनियाद अदल<ref>न्याय</ref> पर हो सिर्फ़ अपने ग़म और ग़ुस्से का इज़हार<ref>अभिव्यक्ति कर सकता था।</ref> कोई वाज़िह<ref>स्पष्ट</ref> और मुदल्लल<ref>तर्क-संगत</ref> बात कहना मुमकिन ही नहीं था। शाइर को इख़्तियार था कि अहले-दौलतो-सर्वत<ref>धनाढ्य और समृद्ध लोग</ref> की शान में क़सीदे<ref>प्रंशसा-काव्य</ref> लिखे या तवक्कुल<ref>अल्लाह के भरोसे</ref> पर दरवेशों की सी ज़िन्दगी गुज़ारे। किसी मुरब्बी<ref>संरक्षक, अविभावक</ref> पर भरोसा करने से आला<ref>ऊँचा, श्रेष्ठ</ref> मेयार<ref>आदर्श</ref> की शायरी करने में रुकावट पैदा नहीं होती थी। मुरब्बी का एहसान मानना एक रस्मी<ref>परम्परा</ref> बात थी, इश्क़ और वफ़ादारी का मुस्तहक़<ref>अधिकारी</ref> सिर्फ़ माशूक था, और शाइर अपनी तारीफ़ भी जिस अंदाज़ से चाहता कर सकता था। अगर वह किसी हद तक भी नाम पैदा करता तो उसका शुमार मुन्तख़ब<ref>चुने हुए</ref> लोगों में होता और उसकी दुनिया मुन्तख़ब लोगों की दुनिया होती थी।
एक और तक़सीम ‘आज़ाद’ यानी शरीफ़ मर्दों और औरतों की थी। आमतौर पर लोगों को अंदेशा<ref>आशंका</ref> था कि देखने से गुफ़्तगू<ref>वार्तालाप</ref> और गुफ़्तगू से बदन छूने तक बात पहुँचती है, और बदन छूने का नतीजा यह हो सकता था कि दोनों फ़रीक़<ref>पक्ष</ref> बेक़ाबू हो जाएँ। इस अंदेशे ने एक रस्म बनकर आज़ाद ना-महरम<ref>अपरिचित</ref> मर्दों-औरतों को सख़्ती के साथ एक-दूसरे से अलग कर दिया गया। इसी वजह से आज़ाद औरतों के बारे में लिखना उन्हें ज़बान और अदब की आँखों से देखने के बराबर और इसीलिए ना-मुनासिब<ref>अनुचित</ref> क़रार दिया गया।<ref>ठहरा दिया गया</ref> इश्क़ से मुराद<ref>आशय, अर्थ</ref> मर्द-औरत की वह मुहब्बत नहीं थी, जिसका मक़सद<ref>उद्देश्य</ref> रफ़ीके-हयात<ref>जीवन साथी</ref> बनना हो, और इस बिना<ref>आधार</ref> पर शाइर यह जाहिर नहीं कर सकता था कि उसका माशूक मर्द है या औरत। माशूक़ के चेहरे और कमर का ज़िक्र किया जा सकता था। इसके अलावा उसके जिस्म के बारे में कुछ कहना बेहूदगी में शुमार होता था, अगरचे<ref>हालांकि</ref> ऐसे दौरे भी गुज़रे हैं जब बयान में उयानी<ref>नग्नता</ref> वज़:<ref>रीति, प्रणाली</ref> के ख़िलाफ़ नहीं समझी जाती थी। लेकिन क़ायदे की पाबंदी का मतलब यह नहीं था कि औरत वुजूद<ref>अस्तित्व</ref> को ही नज़रअंदाज़<ref>उपेक्षित, उपेक्षा</ref> किया गया। उन मिसालों को छोड़कर जहाँ ईरानी रिवायत<ref>परम्परा</ref> की पैरवी में माशूक़ को अमरद<ref>वह लड़का जिसके अभी दाढ़ी मूंछ नहीं आई हो</ref> माना गया है, यह साफ़ जाहिर हो जाता है कि उर्दू के शाइर का ‘माशूक़’ औरत है। अलबत्ता इस बात का पता उसके तौर-तरीक़े, नाज़ो-अंदाज़ से चलता है, जिस्मानी<ref>शारीरिक</ref> तफ़सीलात<ref>विवरण</ref> से नहीं, और पसे-मंज़र घर नहीं है, बल्कि तवाइफ़<ref>वेश्या</ref> की बज़्म<ref>महफ़िल</ref>।
‘मुरक़्क़:<ref>वह ग्रन्थ जिसमें लेखन कला के सुन्दर नमूने या चित्र संग्रहीत हों</ref>-ए-देहली’ से, जो 1739 ई. की तसनीफ़<ref>रचना</ref> है, मालूम होता है कि तवाइफ़ें किस दर्जा<ref>किस सीमा तक</ref> शहर की तहज़ीबी<ref>सांस्कृतिक</ref> और समाजी ज़िन्दगी पर हावी<ref>छाई हुई</ref> थीं। लखनऊ और दूसरे बड़े शहरों की हालत वही होगी, जो कि देहली की। शाह इस्माईल शहीद के बारे में एक क़िस्सा है कि, उन्होंने बहुत-सी औरतों की टोलियों को, जो बहुत आरास्ता-पैरास्ता<ref>सजी-धजी</ref> थीं, रास्ते पर से गुज़रते देखा। दरयाफ़्त<ref>पूछ-ताछ</ref> करने पर मालूम हुआ कि वे तवाइफ़ें हैं और किसी मुमताज़<ref>लोकप्रिय</ref> तवाइफ़ के यहाँ तक़रीब<ref>आयोजन</ref> शिरकत<ref>भाग लेने, सम्मिलित होने</ref> के लिए जा रही हैं। शाह साहब ने उन्हें ‘राह:-ए-रास्त’<ref>सीधी राह</ref> पर चलने की तरग़ीब<ref>प्रलोभन, आकर्षण</ref>
दिलाने के लिए इसे एक बहुत अच्छा मौक़ा समझा और फ़क़ीर का भेस बनाकर उस मकान के अन्दर पहुँच गए जहाँ तवाइफ़ें जमा हो रही थीं। उनकी शख़्सियत<ref>व्यक्तित्व</ref> में बड़ा वक़ार<ref>वैभव</ref> था और अगरचे उन्हें इस्लाह<ref>सुधार</ref> का काम शुरू किए ज़्यादा अर्सा नहीं हुआ था। साहिबे-ख़ान:<ref>मेज़बान, आथितेय, गृह स्वामी</ref> ने उन्हें फ़ौरन पहचान लिया। उसके सवाल के जवाब में कि वह कैसे तशरीफ़ लाए है, शाह साहब ने क़ुरआन की एक आयत<ref>वाक्य</ref> पढ़ी और एक वाज़<ref>प्रवचन</ref> कहा, जिसको सुनकर तवाइफ़ें आबदीद:<ref>आँखें भर लाईं</ref> हो गईं। नदामत<ref>लज्जा, पश्चाताप</ref> से आँसू बहाना तवाइफ़ों की तहज़ीब में शामिल था, अगरचे निजात<ref>मुक्ति</ref> की ख़ातिर पेशा तर्क कर देना<ref>छोड़ देना</ref> क़ाबिले-तारीफ़<ref>प्रवचन</ref> मगर ख़िलाफ़े-मामूल<ref>सामान्य आचरण के प्रतिकूल</ref> समझा जाता था। तवाइफ़ें अपने ख़ास क़ायदों और रस्मों के मुताबिक़<ref>अनुसार</ref> ज़िन्दगी बसर करती थीं और अगर एक तरफ़ उनका पेशा बहुत गिरा हुआ माना जाता था तो दूसरी तरफ़ बाज़<ref>कुछ</ref> ऐतबार से<ref>दृष्टियों से</ref> इस नुक़सान की कुछ तलाफ़ी<ref>क्षतिपूर्ति</ref> भी हो जाती थी।
वह बज़्म, जिसका उर्दू शाइरी में इतना ज़िक्र आता है, दोस्तों की महफ़िल नहीं होती थी। लोग किसी मेज़बान की दावत<ref>आमंत्रण</ref> पर जमा नहीं होते थे, न तहज़ीबी मशाग़िल<ref>कार्यों</ref> के लिए आम इज़्तमा<ref>सभा, सम्मेलन</ref> होता था। ऐसी महफ़िलों में माशूक़ और रक़ीब<ref>प्रतिद्वन्द्वी</ref> और ग़ैर<ref>पराया</ref> का क्या काम होता, मगर तवाइफ़ की बज़्म में यह सब मुमकिन था। ग़ालिब ने ये शेर कहे तो ऐसी बज़्म उनकी नज़र में होगी-
मैंने कहा कि बज़्मे-नाज़<ref>प्रेमिका की महफ़िल</ref> चाहिए ग़ैर से तही<ref>ख़ाली</ref>
सुनकर सितम-ज़रीफ़<ref>विनोद-विनोद में सताने वाला</ref> ने मुझको उठा दिया कि यूँ
हाँ वो नहीं ख़ुदा-परस्त<ref>ख़ुदा-भक्त</ref> जाओ वो बेवफ़ा सही
जिसको हो दीनो-दिल अज़ीज़<ref>प्यारा, प्रिय</ref> उसकी गली में जाएँ क्यों।
 
हम जितना उन सूरतों पर ग़ौर करें, जिनमें की माशूक़ एक औरत है और देखें कि वह आशिक़ के साथ क्या बर्ताव करती है, उतना ही यह वाज़ह<ref>स्पष्ट</ref> हो जाता है कि इस शाइराना इस्तआर:<ref>रूपक</ref> से मुराद क्या है और उतना ही साफ़ बज़्म का नक़्शा हो जाता है। इसका हरग़िज़ यह मतलब नहीं है कि वो तमाम शाइर जो माशूक़ की बज़्म का ज़िक्र करते हैं, तवाइफ़ों की बज़्म में शरीक<ref>सम्मिलित</ref> होते थे, जैसे शराब और मयख़ाना का ज़िक्र करने का यह मतलब नहीं है कि वो शराब की दुकान पर बैठकर ठर्रा चलाते थे। मगर इसमें शक नहीं कि शहर में लौंडियों और ख़ादिमाओं<ref>सेविकाओं</ref> और मज़दूर पैशा औरतों के अलावा सिर्फ़ तवाइफ़ें बे-नक़ाब<ref>बेपर्दा</ref> नज़र आती थीं। नाज़ो-अदा दिखाने, तल्ख़<ref>कड़वी</ref> और शीरीं<ref>मीठी</ref> गुफ़्तगू करने, लुत्फ़ और सितम से पेश आने का मौका उन्हीं को था। उन्हें नाच और गाने के अलावा गुफ़्तगू का फ़न<ref>कला</ref> सिखाया जाता था और तवाइफ़ों की बज़्म ही एक ऐसी जगह थी, जहाँ मर्द बे-तकल्लुफ़ी<ref>अनौपचारिक</ref> और आज़ादी के साथ रंगीन गुफ़्तगू, फ़िक़रेबाज़ी और हाज़िर जवाबी में अपना कमाल दिखा सकते थे। बड़ी ख़ानदानी तक़रीबों<ref>उत्सव आयोजन</ref> तवाइफ़ों का नाच गाना कराना खुशहाल घरानों का दस्तूर<ref>चलन</ref> था, और जो लोग ‘बज़्म’ में शिरकत करना पसंद न करते, वे ऐसे मौक़ों पर गुफ़्तगू के फ़न में अपना हुनर दिखा सकते थे। शरीफ़ों और तवाइफ़ों के यक-जा<ref>एक स्थान पर</ref> होने के मौक़े उर्स फ़राहम<ref>उपलब्ध</ref> करते थे, जिनमें से अक्सर में तवाइफ़ों को शरीक़होने की इजाज़त थी। अब हम खुद ही सोच सकते हैं कि माशूक़ की तस्तीरें किस बुनियादी अक्स<ref>प्रतिबिम्ब</ref> को सामने रखकर बनाई गई होगी, और ऐसी औरत कौन हो सकती थी, जिसका कोई ख़ानदान न हो, ताल्लुक़ात<ref>सम्बन्ध</ref> और ज़िम्मेदारियाँ न हों और जो इस वजह से एक वुजूदे-महज़<ref>अस्तित्व मात्र</ref> एक ख़ालिस<ref>शुद्ध</ref> जमालियाती<ref>सौंदर्य शास्त्रीय</ref> तसव्वुर<ref>कल्पना</ref> में तब्दील की जा सके।
उन्नीसवीं सदी के निस्फ़-आख़िर<ref>उत्तरार्ध</ref> की जहनी क़ैफ़ियत<ref>मानसिक स्थिति, मनोदशा</ref> और इस्लाह की मुख्लिसाना<ref>सौहार्दपूर्ण</ref> कोशिशों ने इस हक़ीकत<ref>वास्तविकता</ref> पर पर्दा डाल दिया है। दूसरी तरफ़ पारसा मिजाज़<ref>धर्मनिष्ठ</ref> और हया-ज़दा<ref>लोक लाज के मारे हुए</ref> लोग इस पर मुसिर<ref>आग्रही</ref> रहे कि मयख़ाना और शराब की तरह माशूक़ भी एक अलामत<ref>प्रतीक</ref>, एक इस्तआर: है, जिसे मजाज़ी<ref>लौकिक</ref> कसाफ़तों<ref>विकारों</ref> से कोई निस्वत<ref>सम्बन्ध</ref> नहीं। उन्हें अपने जिद पूरी करने में कोई दुश्वारी<ref>कठिनाई</ref> नहीं होती। इसलिए की सूफ़ियाना<ref>सूफियों (सांसारिक मोहों से मुक्त ईश्वर की साधना में लगे हुए लोग)-जैसी</ref> शाइरी की रिवायत<ref>परम्पराओं</ref> ने तमाम कैफ़ियतों<ref>स्थिति</ref> को, और ख़ासतौर से आसिक़ो-माशूक़ के रिश्ते को एक रूहानी<ref>आध्यात्मिक</ref> हक़ीक़त का अक्स माना जाता है। लेकिन इस वजह ने हमारे ज़माने के नक़्क़ाद<ref>आलोचक</ref> क्यों समाजी हालात को नज़रअंदाज़ करें और क्यों शहर को इस इल्ज़ाम से न बचाएँ कि उसका माशूक़ बिल्कुल फ़र्जी<ref>कृत्रिम</ref>, उसका इश्क़ महज धोका और एहसासात<ref>अनुभूतियाँ</ref> ख़ालिस तमन्ना<ref>बनावटी</ref> हैं।
अब कुछ समाजी हालात को देखिए, जिनका अदब पर अक्स पड़ा। शहरों में शरीफ़ों के लिए पैदल चलना दस्तूर न था। किसी क़िस्म की सवारी पर आना-जाना लाज़िमी था। घोड़े-गाड़ी का रिवाज़ अंग्रेज़ों की वजह से हुआ, घोड़े की सवारी लम्बे सफ़र पर की जाती, शहर के अन्दर इसका रिवाज़ न था। आम सवारी किसी क़िस्म की पालकी थी। इसका नतीजा यह था कि कोई हैसियत वाला अकेला टहन नहीं सकता था। रास्ते में खड़े होकर लोगों को अपने काम से आते-जाते नहीं देख सकता था, सेहत<ref>स्वास्थ्य</ref> की ख़ातिर भी पैदल सैर नहीं कर सकता था। अवाम<ref>जनता, साधारण लोग</ref> घुल-मिल नहीं सकता था। आवाम में घुलने-मिलने का और कोई इम्कान<ref>सम्भावना</ref> नहीं था। शरई<ref>इस्लाम धर्म के</ref> क़ानून के मुताबिक़ सब इंसान बराबर थे और इस क़ानून को मानने से किसी ने भी इन्कार नहीं किया। लेकिन क़ानून ने इसका हुक्म नहीं दिया था कि लोग आला<ref>उच्च</ref> और अदना<ref>साधारण, तुच्छ</ref>, अमीर और ग़रीब के फ़र्क़ को नज़रअंदाज़ करके वजह से मुख़्तलिफ़<ref>विभिन्न</ref> तब्क़े<ref>वर्ग</ref> अलग रहते थे, सख़्ती से अमल किया जाता था। मुमकिन है कि यह जातों की तक़सीम<ref>विभाजन</ref> के इन क़ायदों के वुजूद<ref>अस्तित्व</ref> से इन्कार नहीं किया जा सकता। इनकी वजह से शाइर अवाम से अलग और शाइरी के अवाम के ज़ज़्बात<ref>भावों, भावनओं</ref> से दूर रही। सिर्फ़ नज़ीर अकबरावादी ने शाइरी को इस करन्तीन: <ref>दायरा</ref> से निकाला और उनके कलाम का हुस्न<ref>सौंदर्य</ref> और उसकी रंगीनी इसकी शहादत<ref>साक्षी, गवाही</ref> देती है कि उर्दू शाइरी ने समाजी पाबंदी का लिहाज़ करके अपने आपको बहुत-सी वारदाते-क़ल्बी<ref>हार्दिक घटनाएँ</ref> से महरूम<ref>वंचित</ref> रखा। लेकिन नज़ीर अकबरावादी के तरीक़े को शाइरों और नक़्क़ादों<ref>आलोचकों</ref> ने पसंद नहीं किया, और उनके हम-अस्र<ref>समकालीन</ref> लोगों पर उनके कलाम का असर नहीं हुआ। इस तरह शाइर के एहसासात<ref>भावनाओं</ref> का ताल्लुक<ref>सम्बन्ध</ref> उसकी ज़ात<ref>निज से, शरीर से</ref> से ही रहा, उसकी कैफ़ियतें<ref>स्थिति</ref> समाज की ख़ुशी और रंज से अलग और मुख़्तलिफ़<ref>भिन्न रहीं।</ref>
सफ़र का रिवाज़ भी इंसानों को एक-दूसरे के क़रीब लाने का ज़रिया<ref>माध्यम</ref> है। लेकिन यह भी समाज में रब्त<ref>सम्पर्क</ref> पैदा न कर सका। सफ़र करना मुश्किल था, लोग शहर से बाहर निकलने से घबराते थे। ‘ग़ालिब’ का एक फ़ारसी का शेर है-
अगर ब-दिल<ref>दिल में</ref> न ख़लद<ref>न चुभे</ref> हर चे<ref>जो कुछ</ref> दर नज़र<ref>नज़र में</ref> गुज़रद<ref>गुज़रे</ref>
खुशा<ref>कितना अच्छा है</ref> रवानी-ए-उम्रे<ref>उम्र की रवानी</ref> कि दर सफ़र<ref>सफ़र में</ref> गुज़रद
 
लेकिन दरअसल वह सफ़र की ज़हमतों<ref>कष्टों</ref> से बचना चाहते थे। कलकत्ता जाते हुए उन्हें जो लुत्फ़<ref>आनन्द</ref> आया वह मुलाकालों और सुहबतों<ref>संग-साथ</ref> का लुत्फ़ था, या फिर नया शहर देखने का। बनारस और कलकत्ता दोनों ही उन्होंने फ़ारसी की मस्नवियों में बहुत तारीरफ़ की है।
क़ानून और रस्मों-रिवाज दोनों हर फ़र्द<ref>व्यक्ति</ref> को समाज और उस जमात<ref>समूदाय, वर्ग</ref> का, जिसका वह रुकन<ref>सदस्य</ref> होता, मातहत<ref>अधीन</ref> और पाबंद रखते थे। शायद इसी से रिहाई<ref>मुक्ति</ref> हासिल करने के लिए हस्सास<ref>संवेदन, शील</ref> अफ़राद<ref>व्यक्ति (फ़र्द का बहुवचन)</ref> दिलो-दिमाग की तन्हाई<ref>एकान्त</ref> में अपनी ज़िन्दगी अलग बनाते थे। इसके अलावा उस दौर में अलग-अलग जहनी<ref>मानसिक</ref> खानों में बन्द होकर सोचने और अमल<ref>आचरण</ref> करने की एक अजीबो-ग़रीब कैफ़ियत थी। शाइर को उन सियासी<ref>राजनैतिक</ref> तब्दीलियों<ref>परिवर्तन</ref> से, जिनका शुरू में ज़िक्र किया गया, इस क़द्र कम वास्ता<ref>सम्बन्ध</ref> था कि गौया<ref>मानो</ref> शाइरी और सियासी ज़िन्दगी में कोई लाज़िमी<ref>अनिवार्य</ref> और क़ुदरती<ref>प्राकृतिक, स्वाभाविक</ref> ताल्लुक़ नहीं। ‘ग़ालिब’ ने अपनी एक फ़ारसी की मस्नवी में वुजूदियों<ref>अस्तित्ववादी सूफ़ी</ref> और शहूदियों<ref>साक्ष्यवादी सूफ़ी</ref> के इख़्तलाफ़ात<ref>मतभेद</ref> का ज़िक्र किया है। मगर इसके बावजूद यह कहना ग़लत नहीं है कि उस दौर की इस्लाही<ref>सुधारक, सुधारकवादी</ref> तहरीरों<ref>आन्दोलन</ref> का, जिनकी रहनुमाई<ref>पथ-प्रदर्शन</ref> सैयद अहमद शहीद और शाह इस्माइल शहीद जैसे बुज़ुर्ग कर रहे थे। शाइरी पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ा। ‘ग़ालिब’ ने जहाँ कहीं ज़ाहिद<ref>ईश्वर भक्त, ख़ुदापरस्त</ref> और वाइज़<ref>धर्मोपदेशक</ref> का ज़िक्र किया है। उससे मुराद<ref>आशय</ref> रिवायती<ref>पारम्परिक</ref> ज़ाहिद और वाइज़ हैं। उनके अपने ज़माने के लोग नहीं हैं। खुद ग़लत का तर्ज<ref>शैली</ref> खानों में बन्द होकर सोचने की एक नुमायाँ<ref>प्रकट, खुला</ref> मिसाल है कि ग़ज़ल के हर शेर का अलग मौजू<ref>विषय</ref> होता है और उसका पिछले और बाद के शेर से कोई ताल्लुक़ नहीं होता। बेशक ग़ज़लों में भी कभी-कभी ख़याल का तसल्सुल<ref>निरन्तरता</ref> मिलता है और कत:बंद की भी मुमानियत<ref>वर्ज़ना</ref> नहीं थी, लेकिन मुनासिब<ref>उचित</ref> यह था कि हर शेर का मज़मून<ref>विषय</ref> अलग हो। मालूम होता है कि ‘ग़ालिब’ के दौर में शाइर के सियासत,<ref>राजनीति</ref> समाज और मज़हब<ref>धर्म</ref> के मुआमलात<ref>मामलों</ref> से अलग रहने का असल सबब<ref>कारण</ref> यह था कि ज़िन्दगी का मुख़्तलिफ़ ख़ानों में तक़सीम<ref>विभाजन</ref> होना आमतौर पर तस्लीम<ref>स्वीकार</ref> कर लिया गया था। शहरों में इन-फ़रादियत<ref>व्यक्तित्ववाद</ref> को फ़रौग<ref>प्रोत्साहन</ref> वहदत-उल-बुजूद<ref>अद्वैतवाद</ref> के नज़रिये<ref>विचारधारा, दृष्टिकोण</ref> की वजह से भी हुआ। इस नज़रिए के मुताबिक़<ref>अनुसार</ref> इंसान और उसके ख़ालिक़<ref>सृष्टा</ref> के दरमियान ब-राहे रास्त<ref>सीधा</ref> ताल्लुक़ हो सकता था। किसी वसीले<ref>माध्यम</ref> की ज़रूरत नहीं थी। इस तरह शाइर अक़ीदे<ref>दृढ़ विश्वास, आस्था</ref> और अमल के मुआमलात में ख़ुद फैसला करने का इख़्तियार<ref>अधिकार</ref> रखता था, और समाज से अलग होकर वह अपनी इन्फ़रादियत का जो तसव्वुर<ref>विचार, कल्पना</ref> चाहता क़ायम कर सकता था। अपनी ज़िन्दगी का अलग नस्ब-उल-ऐन<ref>उद्देश्य, लक्ष्य</ref> मुक़र्रर करके चाहता तो कह सकता था कि इश्क़, आशिक़ और माशूक़ के सिवा जो कुछ है, सब हेच<ref>तुच्छ</ref> है।


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Latest revision as of 13:05, 25 June 2011