User talk:Dr.Dev kumar Pukhraj: Difference between revisions

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(दंडी स्वामी सहजानंद सरस्वती भारत में किसान आंदोलन के जनक,लेखक और महान स्वतंत्रता सेनानी थे।)
 
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[[चित्र:[[चित्र:उदाहरण.jpg]][[चित्र:[http://www.deshbandhu.co.in/newsdetail/1560/4/135%20 hrudyanjali.blogspot.com/2010/.../blog-post_10.ht]--[[सदस्य:Dr.Dev kumar Pukhraj|Pukhraj]] 19:39, 28 फ़रवरी 2012 (IST)]]]]'''स्वामी सहजानंद सरस्वती'''
डॉ. देव कुमार पुखराज जी,  
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महात्मा गांधी ने चंपारण के किसानों को अंग्रेजी शोषण से बचाने के लिए
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आंदोलन छेड़ा था, लेकिन किसानों को अखिल भारतीय स्तर पर संगठित कर
प्रभावी आंदोलन खड़ा करने का काम स्वामी सहजानंद ने ही किया। दूसरे
शब्दों में कहें तो भारत में किसान आंदोलन शुरू करने का श्रेय स्वामी
सहजानंद सरस्वती को ही जाता है। एक ऐसा दंडी संन्यासी जिसे भगवान का
दर्शन भूखे,अधनंगे किसानों की झोपड़ी में होता है, जो परंपारनुपोषित
संन्यास धर्म का पालन करने की बजाय युगधर्म की पुकार सुन भारत माता को
गुलामी से मुक्त कराने के संघर्ष में कूद पड़ता है, लेकिन अन्न उत्पादकों
की दशा देख अंग्रेजी सत्ता के भूरे दलालों अर्थात देसी जमींदारों के
खिलाफ भी संघर्ष का सूत्रपात करता है। एक ऐसा संन्यासी ,जिसने रोटी को
हीं भगवान कहा और किसानों को भगवान से बढ़कर बताया।
'''आरंभिक जीवन'''- ऐसे महान संन्यासी, युगद्रष्टा और जननायक का जन्म उत्तरप्रदेश के
रंभिक जीवन-गाजीपुर जिले के देवा गांव में महाशिवरात्रि के दिन सन् 1889 ई. में हुआ
था। स्वामीजी के बचपन का नाम नौरंग राय था। उनके पिता बेनी राय सामान्य
किसान थे। बचपन में हीं मां का साया उठ गया। लालन-पालन चाची ने किया ।
जलालाबाद के मदरसे में आरंभिक शिक्षा हुई। मेधावी नौरंग राय ने मिडिल
परीक्षा में पूरे उत्तरप्रदेश में छठा स्थान प्राप्त किया। सरकार ने
छात्रवृत्ति दी। पढ़ाई के दौरान हीं उनका मन अध्यात्म में रमने लगा।
घरवालों ने बच्चे की स्थिति भांप कर शादी करा दी। संयोग ऐसा रहा कि पत्नी
एक साल बाद हीं चल बसीं। परिजनों ने दूसरी शादी की बात निकाली तो वे भाग
कर काशी चले गये।
'''संन्यास -'''
काशी में शंकराचार्य की परंपरा के स्वामी अच्युतानन्द से
दीक्षा लेकर संन्यासी बन गये। बाद के दो वर्ष उन्होंने तीर्थों के भ्रमण
और गुरु की खोज में बिताया। 1909 में पुनः काशी पहुंचकर दंडी स्वामी
अद्वैतानन्द से दीक्षा ग्रहणकर दण्ड प्राप्त किया और दण्डी स्वामी
सहजानंद सरस्वती बने। इसी दौरान उन्हें काशी में समाज की एक और कड़वी
सच्चाई से सामना हुआ। दरअसल काशी के कुछ पंड़ितों ने उनके संन्यास पर
सवाल उठा दिया। उनका कहना था कि  ब्राह्मणेतर जातियों को दण्ड धारण करने
का अधिकार नहीं है। स्वामी सहजानंद ने इसे चुनौती के तौर पर लिया और
विभिन्न मंचों पर शास्त्रार्थ कर ये प्रमाणित किया कि भूमिहार भी
ब्राह्मण ही हैं और हर योग्य व्यक्ति संन्यास ग्रहण करने की पात्रता रखता
है। काफी शोध के बाद उन्होंने भूमिहार-ब्राह्मण परिचय नामक ग्रंथ लिखा जो
आगे चलकर ब्रह्मर्षि वंश विस्तर के नाम से सामने आया। इसके जरिये
उन्होंने अपनी धारणा को सैद्धांतिक जामा पहनाया। संन्यास के तदुपरांत
उन्होंने काशी और दरभंगा में कई वर्षो तक संस्कृत साहित्य, व्याकरण,
न्याय और मीमांसा का गहन अध्ययन किया। साथ -साथ देश की सामाजिक-राजनीतिक
स्थितियों के अध्ययन भी करते रहे।
'''जीवन संघर्ष-'''
          स्वामी सहजानंद के समग्र जीवन पर नजर डालें तो मोटे तौर पर
उसे तीन खंडों में बांटा जा सकता है। पहला खंड है जब वे संन्यास धारण
करते हैं, काशी में रहते हुए धार्मिक कुरीतियों और बाह्यडम्बरों के खिलाफ
मोर्चा खोलते हैं। निज जाति गौरव को प्रतिष्ठापित करने के लिए भूमिहार
ब्राह्मण महासभा के आयोजनों में शामिल होते हैं। उनका ये क्रम सन 1909 से
लेकर 1920 तक चलता है। इस दौरान काशी के अलावा उनका कार्यक्षेत्र बक्सर
जिले का डुमरी, सिमरी और गाजीपुर का विश्वम्भरपुर गांव रहता है। काशी से
उन्होंने भूमिहार ब्राह्मण नामक पत्र भी निकाला।
'''स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान-'''
स्वामीजी के जीवन का दूसरा अध्याय तब शुरू होता है, जब 5 दिसम्बर 1920 को
पटना में कांग्रेस नेता मौलाना मजहरुल हक के आवास पर महात्मा गांधी से
उनकी मुलाकात होती है। गांधीजी के अनुरोध पर वे कांग्रेस में शामिल होते
हैं। साल के भीतर हीं वे गाजीपुर जिला कांग्रेस का अध्यक्ष चुने गये और
कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में शामिल हुए। अगले साल उनकी गिरफ्तारी और
एक साल की कैद हुई। जेल से रिहा होने के बाद बक्सर के सिमरी और आसपास के
गांवों में बड़े पैमाने पर चरखे से खादी वस्त्र का उत्पादन कराया।
ब्राह्मणों की एकता और संस्कृत शिक्षा के प्रचार पर उनका जोर रहा।  सिमरी
में रहते हुए सनातन धर्म के जन्म से मरण तक के संस्कारों पर आधारित
'कर्मकलाप ' नामक 1200 पृष्ठों के विशाल ग्रंथ की हिन्दी में रचना की।
काशी से कर्मकलाप का प्रकाशन किया।
'''किसान आंदोलन -'''
महात्मा गांधी के नेतृत्व में शुरू हुआ असहयोग आंदोलन जब बिहार में गति
पकड़ा तो सहजानंद उसके केन्द्र में थे। घूम-घूमकर उन्होंने अंग्रेजी राज
के खिलाफ लोगों को खड़ा किया। इसी दौरान स्वामी जी को लगा कि बिहार के
गांवों में गरीब लोग अंग्रेजो से नहीं वरन् गोरी सत्ता के इन भूरे दलालों
से आतंकित हैं। किसानों की हालत गुलामों से भी बदतर है। युवा संन्यासी का
मन एक बार फिर से नये संघर्ष की ओर उन्मुख हुआ। वे किसानों को लामबंद
करने की मुहिम में जुट गये। 17 नवंबर,1928 को सोनपुर में उन्हें बिहार
प्रांतीय किसान सभा का अध्यक्ष चुना गया। इस मंच से उन्होंने किसानों की
कारुणिक स्थिति को उठाया। एक साथ जमींदारों के शोषण से मुक्ति दिलाने और
जमीन पर रैयतों का मालिकाना हक दिलाने की मुहिम शुरू की। अप्रैल,1936 में
कांग्रेस के लखनऊ सम्मेलन में अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना हुई और
स्वामी सहजानंद सरस्वती को उसका पहला अध्यक्ष चुना गया। स्वामी सहजानंद
ने नारा दिया था-
'''''जो अन्न-वस्त्र उपजाएगा ,अब सो कानून बनायेगा,
ये भारतवर्ष उसी का है, अब शासन वहीं चलायेगा। '''''[[स्वामी सहजानंद]]


          कांग्रेस में रहते हुए स्वामीजी ने किसानों को जमींदारों के
* [[सहायता:संपादन|संपादन कैसे करें ?]]
शोषण और आतंक से मुक्त कराने का अभियान जारी रखा। उनकी बढ़ती सक्रियता से
* [[सहायता:नया पन्ना|नया पन्ना कैसे बनाएँ ?]]
घबड़ाकर अंग्रेजों ने उन्हें जेल में डाल दिया। कारावास के दौरान गांधीजी
* [[सहायता:लिंक|लिंक कैसे लगाएँ ?]]
के कांग्रेसी चेलों की सुविधाभोगी प्रवृति को देखकर स्वामीजी हैरान रह
* [[सहायता:हिन्दी टाइपिंग|हिन्दी टाइप करें]]
गये। कांग्रेस के नेता कारावास के दौरान सुविधा हासिल करने के लिए
इसके अतिरिक्त संपादन संबंधी किसी भी समस्या के लिए आप मेरे वार्ता पन्ने पर संदेश देकर या 9997298121 पर भी कर पूछ सकते हैं। [[चित्र:nib4.png|35px|top|link=User:गोविन्द राम]]<span class="sign">[[User:गोविन्द राम|गोविन्द राम]] - <small>[[सदस्य वार्ता:गोविन्द राम|वार्ता]]</small></span> 19:34, 1 मार्च 2012 (IST)
छल-प्रपंच का सहारा ले रहे थे। स्वभाव से हीं विद्रोही स्वामीजी का
कांग्रेस से मोहभंग होना शुरू हो गया। इस दौरान एक और घटना हुई। 1934 में
जब बिहार प्रलयंकारी भूकंप से तबाह हुआ तब स्वामीजी ने बढ़-चढ़कर राहत
और पुनर्वास के काम में भाग लिया।लेकिन किसानों जमींदारों के अत्याचार से
पीड़ित थे। जमींदारों के लठैत किसानों को टैक्स भरने के लिए प्रताड़ित कर
रहे थे। पटना में कैंप कर रहे महात्मा गांधी से मिलकर स्वामीजी ने ये हाल
सुनाया। कहते हैं कि गांधीजी ने दरभंगा महाराज से मिलकर किसानों के लिए
जरूरी अन्न का बंदोबस्त करने के लिए स्वामीजी को कहा । ऐसा सुनना था कि
स्वामी सहजानंद गुस्से में लाल हो गये और चले गये। जाते-जाते उन्होंने
गांधीजी को कह दिया कि अब आपका और मेरा रास्ता अलग-अलग है। स्वामीजी का
मानना था कि जो राजे-रजवाड़े और जमींदार अंग्रेजों की सरपरस्ती कर रहे
हैं, उनसे किसानों का भला नहीं हो सकता है। चाहे वो दरभंगा महाराज ही
क्यों न हो। इसी प्रकरण के बाद सहजानंद ने कांग्रेस में अपनी सक्रियता कम
कर दी और किसान सभा के कार्य में मन-प्राण से जुट गये।


स्वामीजी के जीवन का तीसरा चरण तब शुरू होता है जब वे कांग्रेस में रहते
[[Category:सदस्य वार्ता]]
हुए किसानों को हक दिलाने के लिए संघर्ष को हीं जीवन का लक्ष्य घोषित
करते हैं । उन्होंने नारा दिया - '' कैसे लोगे मालगुजारी,लट्ठ हमारा
जिन्दाबाद''. बाद में यहीं नारा किसान आंदोलन का सबसे प्रिय नारा बन गया।
वे कहते थे - अधिकार हम लड़ कर लेंगे और जमींदारी का खात्मा करके रहेंगे।
उनका ओजस्वी भाषण किसानों पर गहरा असर डालता था। काफी कम समय में किसान
आंदोलन पूरे बिहार में फैल गया। स्वामीजी का प्रांतीय किसान सभा संगठन के
तौर पर खड़ा होने के बजाए आंदोलन बन गया। हर जिले और प्रखण्डों में
किसानों की बड़ी-बड़ी रैलियां और सभाएँ हुईं। बाद के दिनों में उन्होंने
कांग्रेस के समाजवादी नेताओं से हाथ मिलाया। सर्वश्री एम जी रंगा, ई एम
एस नंबूदरीपाद, पंड़ित कार्यानंद शर्मा, पंडित यमुना कार्यजी जैसे
वामपंथी और समाजवादी नेता किसान आंदोलन के अग्रिम पंक्ति में। आचार्य
नरेन्द्र देव, राहुल सांकृत्यायन, राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण,
पंडित यदुनंदन शर्मा, पी. सुन्दरैया और बंकिम मुखर्जी जैसे तब के कई नामी
चेहरे भी किसान सभा से जुड़े थे। वामपंथी रुझान के चलते सीपीआई उन्हें
अपना समझती रही और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के साथ भी वे अनेक रैलियों
में शामिल हुए। आजादी की लड़ाई के दौरान जब उन्हें गिरफ्तार किया गया तो
नेताजी ने पूरे देश में फारवार्ड ब्लॉक के जरिये हड़ताल कराया।
          स्वामी सहजानंद ने पटना के समीप बिहटा में सीताराम आश्रम
स्थापित किया जो किसान आंदोलन का केन्द्र बना। वहीं से वे पूरे आंदोलन को
संचालित करते रहे। संघर्ष के साथ-साथ स्वामी जी सृजन के भी प्रतीक पुरुष
थे। अपनी तमाम व्यस्तताओं के बावजूद स्वामीजी ने सृजन का कार्य जारी रखा।
दो दर्जन से ज्यादा पुस्तकों की रचना की। मेरा जीवन संघर्ष नामक जीवनी
लिखी।
    जमींदारी प्रथा के खिलाफ लड़ते हुए स्वामी जी 26 जून ,1950 को
मुजफ्फरपुर में महाप्रयाण कर गये। आजादी मिलने के साथ हीं सरकार ने कानून
बनाकर जमींदारी राज को खत्म कर दिया। मरणोपरांत ही सही स्वामी जी की सबसे
बड़ी मांग पूरी हो गयी ,लेकिन किसानों को सुखी-समृद्ध और खुशहाल देखने की
उनकी इच्छा पूरी न हो सकी। वैश्वीकरण की आंधी ने तो अब किसानों को दोयम
दर्जे का नागरिक बनाकर छोड़ दिया है। किसान पहले से कहीं ज्यादा असंगठित
हैं और कर्ज के बोझ तले दबकर आत्महत्या करने को विवश हैं। देश में
किसानों के संगठन कई हैं,लेकिन एक भी नेता ऐसा नहीं है,जो किसानों में
सर्वमान्य हो और जिसकी राष्ट्रीय स्तर पर पहचान हो। ऐसे समय में स्वामी
सहजानंद और ज्यादा याद आते हैं, जिन्होंने किसान को संगठित और शोषण मुक्त
बनाने में अपना सम्पूर्ण जीवन बलिदान कर दिया।  उनके निधन के साथ हीं
भारतीय किसान आंदोलन का सूर्य अस्त हो गया। राष्ट्रकवि दिनकर के शब्दों
में दलितों का संन्यासी चला गया। स्वामीजी द्वारा प्रज्जवलित ज्योति की
लौ मद्धिम जरूर पड़ी है, बुझी नहीं है। देश के अलग-अलग हिस्सों में चल
रहे किसान-मजदूर आंदोलन इसके उदाहरण हैं।[[Category:भारत में किसान आंदोलन, स्वतंत्रता सेनानी]]
[[Category:Enter new category name]]

Latest revision as of 13:27, 18 March 2012

डॉ. देव कुमार पुखराज जी,

भारतकोश पर आपका स्वागत है। आपने भारतकोश पर संपादन कार्य करना आरंभ कर दिया है उसके लिए शुभकामनाएँ। आपके द्वारा बनाए लेख 'स्वामी सहजानंद सरस्वती' को सही रूप दे दिया गया है। भारतकोश पर संपादन सहायता के लिए नीचे दिये लिंक अवश्य देखें।

इसके अतिरिक्त संपादन संबंधी किसी भी समस्या के लिए आप मेरे वार्ता पन्ने पर संदेश देकर या 9997298121 पर भी कर पूछ सकते हैं। 35px|top|link=User:गोविन्द रामगोविन्द राम - वार्ता 19:34, 1 मार्च 2012 (IST)