भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-5: Difference between revisions

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1. ईश्वर-प्रार्थना

9. नस्योतगाव इव यस्य वशे भवन्ति
ब्रह्मादयस् तनुभृतो मिथुरर्रद्यमानाः।
कालस्यक ते प्रकृतिपुरुषयोः परस्य
शं नस् तनोतु चरणः पुरुषोत्तमस्य।।
अर्थः
एक-दूसरे से पीड़ित होने वाले ब्रह्मदेव आदि देहधारियों को नथे बैल की तरह जो वश में रखता है, उस प्रकृति-पुरुष से परे तुम कालस्वरूप पुरुषोत्तम के ये चरण हम लोगों का कल्याण करें।
 
10. अस्यासि हेतुरुदयस्थितिसंयमानां
अव्यक्त-जीव-महतां अपि कालमाहुः।
सोऽयं त्रिणाभिरखिलापचये प्रवृत्तः
कालो गभीर-रय उत्तमपुरुषस् त्वम्।।
अर्थः
वेद कहते हैं कि तू इस विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और लय का हेतु तथा प्रकृति, पुरुष और महत्व का ( काल याने ) नियंता है। वह ( शीत, ग्रीष्म और वर्षारूप ) तीन नाभिवाला ( संवत्सर-चक्ररूप ) तथा अखिल-क्षयार्थ प्रवृत्त अति वेगवान् कालरूप पुरुषोत्तम तू है।
 
11. त्वतः पुमान् समधिगम्य यथा स्वीवर्यं
धत्ते महांतमिव गर्भममोघवीर्यः।
सोऽयं तयानुगत आत्मन आंडकोशं
हैमं ससर्ज बहिरावरणैरुपेतम्।।
अर्थः
यह पुरुष तुझसे स्वीवीर्य पाकर अमोघ-वीर्य बनता है और फिर माया से संयुक्त होकर मानो महतत्वरूप गर्भ धारण करता है। फिर उस माया की सहायता से अपने में से बाहर से आवरणयुक्त सुवर्णवर्ण यानी तेजोमय ब्रह्मांड का निर्माण करता है।
 
12. तत् तस्थुषश्च जगतश्च भवान् अधीशो
यन्माययोत्थगुणविक्रिययोपनीतान्।
अर्थान् जुषन्नपि हृषीक-पते! न लिप्तो
येऽन्ये स्वतः परिहृतादपि विभ्यति स्म।।
अर्थः
हे ऋषीकेश! सचमुच तू इस ( समस्त ) चराचर का स्वामी है। क्योंकि माया की गुण-विक्रिया से प्राप्त पदार्थों का उपभोग करने पर भी तुझे उसका लेप नहीं लगता। उलटे अन्य लोग स्वतः त्याग दिए हुए विषयों से भी डरते हैं।
 
13. नमोऽस्तु ते महायोगिन्! प्रपन्नं अनुशाधि माम्।
यथा त्वच्चरणांभोजे रतिः स्यादनपायिनी।।
अर्थः
हे महायोगेश्वर! तुझे नमस्कार है। मैं तेरी शरण आया हूँ। इसलिए मुझे ऐसा ज्ञान दे कि तेरे चरण-कमलों में मेरा अटल अखंड प्रेम रहे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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