गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-17: Difference between revisions
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तो ऐसे हैं गीता के भगवद्-गुरु, सनातन अवतार, स्वयं श्री भगवान् जो मानव-चैतन्य में अवतीर्ण हुए हैं, ये वे महाप्रभु हैं जो प्राणिमात्र के हृदय में अवतीर्ण हुए हैं, ये वे हैं जो परदे की आड़ में रहकर हमारे समस्त चिंतन, कर्म और हृदय की खोज का भी उसी प्रकार संचालन करते हैं जैसे दृश्यमान और इंन्द्रिग्राह्य रूपों, शक्तियों और प्रवृत्तियों की ओट में रहकर इस जगत् के,- जिसको उन्होंने अपनी सत्ता में अभिव्यक्त किया है,- महान् विश्वव्यापी कर्म का संचालन करते हैं। उन्नत होने की हमारी संपूर्ण चेष्टा और खोज शांत, तृप्त और परिपूर्ण हो जाती है यदि हम इस पर्दे का फाड़ सकें, और अपन इस बाह्य स्व के परे अपनी वास्तविक आत्मा को प्राप्त हों, अपनी सत्ता के इन सच्चे स्वामी के अंदर अपनी समग्र सत्ता को अनुभव कर सकें, अपना व्यक्तित्व इन एक वास्तविक पुरुष पर उत्सर्ग करके उनके होकर रहें, अपने मन की सदा छितरी हुई और सदा चक्कर काटने वाली कर्मण्यताओं को उनके पूर्ण प्रकाश में मिला दें, अपने प्रमादशील बेचैन संकल्प चेष्टाओं को उन्हीं के महत्, ज्योतिर्मय और अखंड दिव्य संकल्प की भेंट कर दें, अपनी नानाविध बर्हिमुखी वासनाओं और उमंगों को, उन्हीं के स्वतःसिद्ध, आनंद की परिपूर्णता में त्यागकर, तृप्त करें।
यही जगदगुरु हैं जिनके सनातन ज्ञान के ही बाकी सब उत्तमोत्तम उपदेश केवल विभिन्न प्रतिबिंब आंशिक शब्द मात्र यही वह ध्वनि है जिसे सुनने के लिये जीव को जागना होगा। अर्जुन- जो इन गुरु का शिष्य है और जिसने युद्ध क्षेत्र में दीक्षा ली है- इस धारणा का पूरा भाग है; अर्जुन संघर्ष में पड़ी हुई उस मानव-आत्मा का नमूना है जिसे अभी तक ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है, पर जो मानव-जाति में विद्यमान उन श्रेष्ठतर तथा भागवत आत्मा के उत्तरोत्तर अधिकाधिक समीप रहने तथा उनके अंतरंग सखा होने के कारण इस ज्ञान को कर्म-जगत् में प्राप्त करने का अधिकारी हो गया है। गीता के प्रतिपादन की एक ऐसी पद्धति भी है जिससे केवल यह उपाख्या ही नहीं, बल्कि संपूर्ण महाभारत के मनुष्य के आंतरिक जीवन का एक रूपक मात्र बन जाता है, और फिर उसमें हमारे इस बाह्य जीवन और कर्म का कोई संबंध नहीं रहता, बल्कि इसका संबंध अंतरात्मा और हमारे अंदर स्वत्व के लिये लड़ने वाली शक्तियों के युद्ध से रह जाता है। इस प्रकार विचार की पुष्टि महाकाव्य के साधारण स्वरूप और इसकी यथार्थ भाषा से तो नहीं होती और यदि इस विचार पर बहुत अधिक जोर दिया जाये, तो गीता की सीधी-सादी दार्शनिक भाषा आदि से अंत तक क्लिष्ट, कुछ-कुछ निरर्थक दुर्बोधता में बदल जायेगी।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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