भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-74: Difference between revisions
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असद्-आत्मभावात्- देहात्मभाव से, अर्थात् आत्मा के बारे में ‘देह ही आत्मा है’ ऐसी मिथ्या कल्पना होने के कारण। उद्विग्नबुद्धेः- जिसकी बुद्धि उद्विग्न होती है, यानी असद् आत्मभाव से बुद्धि भयग्रस्त होती है। किंतु अच्युत की चरण-सेवा से विश्वात्मता यानी ‘सारा विश्व मेरा ही रूप है’ ऐसी व्यापक भावना होती है, जिससे ‘निवर्तते भीः- भय निवृत्त हो जाता है। सारांश, देहबुद्धि या देहभावना यानी ‘मैं देह हूँ’ यह भावना दृढ़ होने के कारण भय पैदा होता है। पर भय निवृत्त कैसे होता है? भागवत-धर्म के परिणामस्वरूप। भगवद्-भक्ति से, अच्युत की चरण-सेवा से मनुष्य विश्वात्मा बनता है। देहभाव की जगह विश्वात्मभाव पैदा होता है। ‘सारे विश्व में मेरा ही रूप है’ ऐसी व्यापक भावना पैदा होती है और उससे भय निवृत्त हो जाता है। देहभाव होने से मानव भयभीत होता है तो भगवद्-भक्ति से विश्वव्यापक भाव बनता और भय खतम होता है। भगवद् भक्ति मनुष्य को अपनी देह से अलग करके सारे विश्व के साथ जोड़ देती है। देह की भावना अपने को विश्व से अलग करती है- ‘मैं अकेला एक बाजू और कुल दुनिया दूसरी बाजू! मैं अलग और ये सब अलग!’ इसी को संस्कृत में ‘स्व-पर-भेद’ कहते हैं। देहबुद्धि के कारण ऐसे दो टुकड़े हो जाते हैं, पर विश्वात्म-भावना से वे टुकड़े जुड़ जाते हैं। सार यह कि भगवान् विश्वेश्वर की भक्ति के कारण विश्वात्म भावना आती है, इसलिए भय निवृत्त होता है। | असद्-आत्मभावात्- देहात्मभाव से, अर्थात् आत्मा के बारे में ‘देह ही आत्मा है’ ऐसी मिथ्या कल्पना होने के कारण। उद्विग्नबुद्धेः- जिसकी बुद्धि उद्विग्न होती है, यानी असद् आत्मभाव से बुद्धि भयग्रस्त होती है। किंतु अच्युत की चरण-सेवा से विश्वात्मता यानी ‘सारा विश्व मेरा ही रूप है’ ऐसी व्यापक भावना होती है, जिससे ‘निवर्तते भीः- भय निवृत्त हो जाता है। सारांश, देहबुद्धि या देहभावना यानी ‘मैं देह हूँ’ यह भावना दृढ़ होने के कारण भय पैदा होता है। पर भय निवृत्त कैसे होता है? भागवत-धर्म के परिणामस्वरूप। भगवद्-भक्ति से, अच्युत की चरण-सेवा से मनुष्य विश्वात्मा बनता है। देहभाव की जगह विश्वात्मभाव पैदा होता है। ‘सारे विश्व में मेरा ही रूप है’ ऐसी व्यापक भावना पैदा होती है और उससे भय निवृत्त हो जाता है। देहभाव होने से मानव भयभीत होता है तो भगवद्-भक्ति से विश्वव्यापक भाव बनता और भय खतम होता है। भगवद् भक्ति मनुष्य को अपनी देह से अलग करके सारे विश्व के साथ जोड़ देती है। देह की भावना अपने को विश्व से अलग करती है- ‘मैं अकेला एक बाजू और कुल दुनिया दूसरी बाजू! मैं अलग और ये सब अलग!’ इसी को संस्कृत में ‘स्व-पर-भेद’ कहते हैं। देहबुद्धि के कारण ऐसे दो टुकड़े हो जाते हैं, पर विश्वात्म-भावना से वे टुकड़े जुड़ जाते हैं। सार यह कि भगवान् विश्वेश्वर की भक्ति के कारण विश्वात्म भावना आती है, इसलिए भय निवृत्त होता है। ‘क़ुरआन’ में बार-बार इसी विश्वात्म-भाव पर जो दिया है : रब्बुल अल् अमोन। भगवान् कैसे हैं? सब दुनिया के प्रभु हैं। केवल मेरे नहीं, सबके प्रभु! इससे बुद्धि व्यापक बनती है कि हम सब एक प्रभु की संतानें हैं। ‘यह एक विश्व और वही हम’ यानी विश्व और हममें कोई फरक ही नहीं, यह भावना होती है। इस तरह स्पष्ट है कि मनुष्य भगवद् भक्ति से विश्वात्मा बनता है और विश्वात्मा बनने पर उसकी भय-निवृत्ति होती है। | ||
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Latest revision as of 10:33, 5 July 2017
भागवत धर्म मिमांसा
1. भागवत-धर्म
(2.1) मन्येऽकुतश्चित् भयमच्युतस्य
पादांबुजोपासनमत्र नित्यम्।
उद्विग्नबुद्धेर् असदात्मभावात्
विश्वात्मना यत्र निवर्तते भीः।।[1][2]
मन्ये- मानता हूँ। अत्र- इस दुनिया में। नित्यम्- सदैव के लिए। अच्युतस्य पादांबुजोपासनम्- भगवान् के चरण-कमलों की सेवा। अकुत्श्चित् भयम्- कहीं से कोई भयम्- कहीं से कोई भयप्रद नहीं। वह सर्वथा निर्भय है। भागवत में भगवान् भगवद्-भक्ति का विशेष वर्णन कर रहे हैं। जो भगवान् के चरणों की सेवा करेगा, वह इस दुनिया में किसी प्रकार किसी से कभी नहीं डरेगा। उसे कभी किसी प्रकार का भय हो ही नहीं सकता। फिर भी आश्चर्य की बात है कि हिंदुस्तान में भगवान् की भक्ति अधिक देखी जाती है और डरने वाले लोगों की संख्या भी अधिक है। प्रश्न होगा : हम भगवान् की भक्ति करें और चित्त में डर भी रखें, ऐसा क्यों होता है? इसीलिए कि उस भक्ति में जड़ता है। वह भक्ति जड़ श्रद्धा के रूप में है, जीवित-जागृत भक्ति नहीं। माँ पर बच्चे की जीवित श्रृद्धा होती है। वह माँ की गोद में होगा, तो कभी नहीं डरेगा। माँ कोई बड़ी ताकत नहीं रखती, फिर भी बच्चा समझता है कि वह मेरा हर प्रकार से बचाव करने वाली है। घर को आग लगी हो, तो भी बच्चा कुछ हलचल नहीं करेगा। माँ उसे उठा ले जाए तो ठीक, नहीं तो वहीं पड़ा रहेगा। माँ के प्रति बच्चे की जैसी दृढ़ श्रद्धा है, क्या भगवान् के प्रति हमारी वैसी श्रद्धा है? हम अनुभव ही नहीं करते कि ‘भगवान् की भक्ति करते हैं, उनका नाम लेते हैं तो हर हालत में वे हमें बचाएंगे, हम निर्भय हैं।’ हमने अपने माता-पिता से सुना कि ‘कोई भगवान् है’, इसीलिए हम भी कहते हैं कि ‘भगवान् हैं।’ किंतु वह कोई जीवित श्रद्धा नहीं। यदि जीवित श्रद्धा हो तो किसी प्रकार का भय ही नहीं रहेगा। संसार में अत्यंत निर्भर करने वाली कोई वस्तु है तो वह भगवान् की भक्ति ही है। भय कैसे पैदा होता है और कैसे निवृत्त होता है, तो कहते हैं :
उद्विग्नबुद्धेः असद्-आत्मभावात् विश्वात्मना यत्र निवर्तते भीः।
असद्-आत्मभावात्- देहात्मभाव से, अर्थात् आत्मा के बारे में ‘देह ही आत्मा है’ ऐसी मिथ्या कल्पना होने के कारण। उद्विग्नबुद्धेः- जिसकी बुद्धि उद्विग्न होती है, यानी असद् आत्मभाव से बुद्धि भयग्रस्त होती है। किंतु अच्युत की चरण-सेवा से विश्वात्मता यानी ‘सारा विश्व मेरा ही रूप है’ ऐसी व्यापक भावना होती है, जिससे ‘निवर्तते भीः- भय निवृत्त हो जाता है। सारांश, देहबुद्धि या देहभावना यानी ‘मैं देह हूँ’ यह भावना दृढ़ होने के कारण भय पैदा होता है। पर भय निवृत्त कैसे होता है? भागवत-धर्म के परिणामस्वरूप। भगवद्-भक्ति से, अच्युत की चरण-सेवा से मनुष्य विश्वात्मा बनता है। देहभाव की जगह विश्वात्मभाव पैदा होता है। ‘सारे विश्व में मेरा ही रूप है’ ऐसी व्यापक भावना पैदा होती है और उससे भय निवृत्त हो जाता है। देहभाव होने से मानव भयभीत होता है तो भगवद्-भक्ति से विश्वव्यापक भाव बनता और भय खतम होता है। भगवद् भक्ति मनुष्य को अपनी देह से अलग करके सारे विश्व के साथ जोड़ देती है। देह की भावना अपने को विश्व से अलग करती है- ‘मैं अकेला एक बाजू और कुल दुनिया दूसरी बाजू! मैं अलग और ये सब अलग!’ इसी को संस्कृत में ‘स्व-पर-भेद’ कहते हैं। देहबुद्धि के कारण ऐसे दो टुकड़े हो जाते हैं, पर विश्वात्म-भावना से वे टुकड़े जुड़ जाते हैं। सार यह कि भगवान् विश्वेश्वर की भक्ति के कारण विश्वात्म भावना आती है, इसलिए भय निवृत्त होता है। ‘क़ुरआन’ में बार-बार इसी विश्वात्म-भाव पर जो दिया है : रब्बुल अल् अमोन। भगवान् कैसे हैं? सब दुनिया के प्रभु हैं। केवल मेरे नहीं, सबके प्रभु! इससे बुद्धि व्यापक बनती है कि हम सब एक प्रभु की संतानें हैं। ‘यह एक विश्व और वही हम’ यानी विश्व और हममें कोई फरक ही नहीं, यह भावना होती है। इस तरह स्पष्ट है कि मनुष्य भगवद् भक्ति से विश्वात्मा बनता है और विश्वात्मा बनने पर उसकी भय-निवृत्ति होती है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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