भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-93: Difference between revisions

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<poem style="text-align:center">' (4.6)  सर्वतो मनसोऽसंगं आदौ संगं च साधुषु।
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दयां मैत्रीं प्रश्रयं च भूतेष्वद्धा यथोवितम्।।<ref>11.3.23</ref></poem>             
दयां मैत्रीं प्रश्रयं च भूतेष्वद्धा यथोवितम्।।<ref>11.3.23</ref></poem>             
गुणों का वर्णन कर रहे हैं : आदौ- प्रारंभ में। सर्वतः मनसः असंगम्- सभी ओर से मन की असंगति, मन की संगति न करना। अब प्रश्न उठता है कि आरंभ मे जो गुण बताए जाएं, वे सरल होने चाहिए या कठिन? क्योंकि पहले नंबर मे जो गुण बताया जाएगा, वह भागवत् धर्म की सर्वथा नींव होगी। यहाँ मन की असंगति पहला गुण बताया। यानी अपना सारा गोदाम ही खाली कर दिया। अंदर जो सारा कचरा भरा पड़ा था, वह मन के कारण ही। मानो उस कचरे को आग ही लगा दी। मैं इस पर बहुत जोर दिया करता हूँ। निश्चय ही मन से ऊपर उठना या मन से अलग होना कठिन बात है, पर उसके बिना गति ही नहीं। उसके बिना परमार्थ में प्रवेश ही नहीं हो सकता। इसलिए आरंभ में ही मन का असंग करने के लिए कहा गया है। कबीर ने कहा है : एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाय। ऐसा एक हगी काम हो, जिससे सब काम सध जायँ। गीता में दैवी-संपत्ति का वर्णन करते हुए ‘अभय’ से प्रारंभ किया गया है। सिखों में भी ‘निर्भय’ और ‘निर्वैर’ ये दो गुण बताये हैं। हर एक गुण का अपना-अपना महत्व है। लेकिन परमार्थ प्रवेश के लिए यह जो बात भागवत में बतायी गयी है, उसके साथ मेरा मानसिक मैल बैठ गया है। यहाँ लोग आया करते हैं जूते पहनकर, किंतु अंदर आते हैं जूते बाहर उतारकर ही। जूते पहनकर कभी अंदर नहीं आते। इसी तरह यदि आप मन के साथ आते हैं तो आइए, जूती की तरह उसे भी बाहर रखकर आइए। जब यहाँ के वापस जाएं, तो पहनकर जा सकते हैं। गुरु का दरबार है, मंदिर है, मसजिद है, चर्च है, पंचायतघर है- वहाँ मन को बाहर रखकर ही अंदर प्रवेश करें। अन्यथा क्या होगा? ग्रामसभा में 50 लोग हैं, तो 50 मन वहां इकट्ठे होंगे और झगड़ा खड़ा होगा।  
गुणों का वर्णन कर रहे हैं : आदौ- प्रारंभ में। सर्वतः मनसः असंगम्- सभी ओर से मन की असंगति, मन की संगति न करना। अब प्रश्न उठता है कि आरंभ मे जो गुण बताए जाएं, वे सरल होने चाहिए या कठिन? क्योंकि पहले नंबर मे जो गुण बताया जाएगा, वह भागवत् धर्म की सर्वथा नींव होगी। यहाँ मन की असंगति पहला गुण बताया। यानी अपना सारा गोदाम ही ख़ाली कर दिया। अंदर जो सारा कचरा भरा पड़ा था, वह मन के कारण ही। मानो उस कचरे को आग ही लगा दी। मैं इस पर बहुत जोर दिया करता हूँ। निश्चय ही मन से ऊपर उठना या मन से अलग होना कठिन बात है, पर उसके बिना गति ही नहीं। उसके बिना परमार्थ में प्रवेश ही नहीं हो सकता। इसलिए आरंभ में ही मन का असंग करने के लिए कहा गया है। कबीर ने कहा है : एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाय। ऐसा एक हगी काम हो, जिससे सब काम सध जायँ। गीता में दैवी-संपत्ति का वर्णन करते हुए ‘अभय’ से प्रारंभ किया गया है। सिखों में भी ‘निर्भय’ और ‘निर्वैर’ ये दो गुण बताये हैं। हर एक गुण का अपना-अपना महत्व है। लेकिन परमार्थ प्रवेश के लिए यह जो बात भागवत में बतायी गयी है, उसके साथ मेरा मानसिक मैल बैठ गया है। यहाँ लोग आया करते हैं जूते पहनकर, किंतु अंदर आते हैं जूते बाहर उतारकर ही। जूते पहनकर कभी अंदर नहीं आते। इसी तरह यदि आप मन के साथ आते हैं तो आइए, जूती की तरह उसे भी बाहर रखकर आइए। जब यहाँ के वापस जाएं, तो पहनकर जा सकते हैं। गुरु का दरबार है, मंदिर है, मसजिद है, चर्च है, पंचायतघर है- वहाँ मन को बाहर रखकर ही अंदर प्रवेश करें। अन्यथा क्या होगा? ग्रामसभा में 50 लोग हैं, तो 50 मन वहां इकट्ठे होंगे और झगड़ा खड़ा होगा।  
इसलिए कुछ स्थान ऐसे हों, जहाँ प्रवेश करने के पहले मन को बाहर रखने की आदत डाली जाए। ऐसी आदत लग सकती है। एक बार वह आदत लग जाए, तो फिर मन के साथ संबंध रखने का प्रश्न ही नहीं उठेगा। यह विज्ञान का जमाना है। इसलिए अब भी मन के साथ संबंध बनाए रखा, तो खतम ही समझें।  
इसलिए कुछ स्थान ऐसे हों, जहाँ प्रवेश करने के पहले मन को बाहर रखने की आदत डाली जाए। ऐसी आदत लग सकती है। एक बार वह आदत लग जाए, तो फिर मन के साथ संबंध रखने का प्रश्न ही नहीं उठेगा। यह विज्ञान का जमाना है। इसलिए अब भी मन के साथ संबंध बनाए रखा, तो खतम ही समझें।  



Latest revision as of 11:17, 5 July 2017

भागवत धर्म मिमांसा

3. माया-संतरण

'
(4.5) तत्र भागवतान् धर्मान् शिक्षेद् गुरुवात्मदैवतः।
अमाययाऽनुवृत्या यैस् तुष्येदात्मात्मदो हरिः।।[1]

भागवतान् धर्मान् शिक्षेत्- भागवत धर्म सीखना चाहिए। गुर्वात्म दैवतः- गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा रखकर और आत्म देवता का आदर कर। अमायया- पूर्ण निष्कपट भाव सेयानी ऋजुबुद्धि से और अनुवृत्त्या- सेवाभाव से गुरु के पास जाना चाहिए। भागवत् धर्म यानी भक्ति मार्ग। भक्ति मार्ग तो सद्गुणों का ही बनता है। भक्ति मार्ग यानी सद्गुण विकास। नानक का प्रसिद्ध काव्य है : बिनु गुण कीते भगति न होई- गुण प्राप्त किए बिना भक्ति नहीं। पूजा पाठ करना भक्ति नहीं। वह श्रद्धामात्र है। भक्ति तो तब होगी, जब गुण प्राप्त करेंगे। इसलिए गुणों का अनुशीलन करना चाहिए। आगे के श्लोकों में ऐसे 31 गुण दिए गए हैं, जिनका अनुशीलन होना चाहिए। अनुशीलन कैसे किया जाए? ये गुण अपनी डायरी में लिख रखें और रोज सोने के पहले और उठने के बाद उन्हें देखें। जैसे : क्या मुझे गुस्सा आया था? आया था तो मैंने क्षमा गुण खो दिया। सभी गुणों का अनुशीलन न कर सकें, तो उनमें से कुच चुन लें और उनका परिशीलन करें। आज गलती हुई, तो कल सावधान रहें। दूसरे दिन गलती हुई, तो तीसरे दिन अधिक सावधान रहें। रोज इस तरह देखते जाएंगे, तो एक दिन ऐसा आयेगा जिस दिन आपकी कोई गलती नहीं होगी। ऐसा हुआ, तो आपने निषेधात्मक (निगेटिव) परीक्षा पास कर ली। लेकिन विधायक (पॉजिटिव) भी कुछ करना होगा, तो देखें कि क्या हमने किसी पर दया की, क्षमा की, प्रेम या परोपकार किया। गुण-विकास का यह एक तरीका है। इसे एक खेल ही मान सकते हैं।

' (4.6) सर्वतो मनसोऽसंगं आदौ संगं च साधुषु।
दयां मैत्रीं प्रश्रयं च भूतेष्वद्धा यथोवितम्।।[2]

गुणों का वर्णन कर रहे हैं : आदौ- प्रारंभ में। सर्वतः मनसः असंगम्- सभी ओर से मन की असंगति, मन की संगति न करना। अब प्रश्न उठता है कि आरंभ मे जो गुण बताए जाएं, वे सरल होने चाहिए या कठिन? क्योंकि पहले नंबर मे जो गुण बताया जाएगा, वह भागवत् धर्म की सर्वथा नींव होगी। यहाँ मन की असंगति पहला गुण बताया। यानी अपना सारा गोदाम ही ख़ाली कर दिया। अंदर जो सारा कचरा भरा पड़ा था, वह मन के कारण ही। मानो उस कचरे को आग ही लगा दी। मैं इस पर बहुत जोर दिया करता हूँ। निश्चय ही मन से ऊपर उठना या मन से अलग होना कठिन बात है, पर उसके बिना गति ही नहीं। उसके बिना परमार्थ में प्रवेश ही नहीं हो सकता। इसलिए आरंभ में ही मन का असंग करने के लिए कहा गया है। कबीर ने कहा है : एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाय। ऐसा एक हगी काम हो, जिससे सब काम सध जायँ। गीता में दैवी-संपत्ति का वर्णन करते हुए ‘अभय’ से प्रारंभ किया गया है। सिखों में भी ‘निर्भय’ और ‘निर्वैर’ ये दो गुण बताये हैं। हर एक गुण का अपना-अपना महत्व है। लेकिन परमार्थ प्रवेश के लिए यह जो बात भागवत में बतायी गयी है, उसके साथ मेरा मानसिक मैल बैठ गया है। यहाँ लोग आया करते हैं जूते पहनकर, किंतु अंदर आते हैं जूते बाहर उतारकर ही। जूते पहनकर कभी अंदर नहीं आते। इसी तरह यदि आप मन के साथ आते हैं तो आइए, जूती की तरह उसे भी बाहर रखकर आइए। जब यहाँ के वापस जाएं, तो पहनकर जा सकते हैं। गुरु का दरबार है, मंदिर है, मसजिद है, चर्च है, पंचायतघर है- वहाँ मन को बाहर रखकर ही अंदर प्रवेश करें। अन्यथा क्या होगा? ग्रामसभा में 50 लोग हैं, तो 50 मन वहां इकट्ठे होंगे और झगड़ा खड़ा होगा। इसलिए कुछ स्थान ऐसे हों, जहाँ प्रवेश करने के पहले मन को बाहर रखने की आदत डाली जाए। ऐसी आदत लग सकती है। एक बार वह आदत लग जाए, तो फिर मन के साथ संबंध रखने का प्रश्न ही नहीं उठेगा। यह विज्ञान का जमाना है। इसलिए अब भी मन के साथ संबंध बनाए रखा, तो खतम ही समझें।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 11.3.22
  2. 11.3.23

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