भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-146: Difference between revisions

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ज्ञानासिनोपासनया शितेन
ज्ञानासिनोपासनया शितेन
च्छित्वा मुनिर् गां विचरत्यतृष्णः ।।<ref>11.28.17</ref></poem>
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जितने भी काम होते हैं, वे मन, वाणी, प्राण या शरीर द्वारा होते हैं। लेकिन जो भी काम होते हैं, वे निराधार हैं। उन्हें कोई आधार नहीं। इसलिए ज्ञानी उन्हें काटता है और पृथ्वी पर विचरता रहता है – '''मुनिः गां विचरति'''। ‘गाम्’ यानी पृथ्वी पर। पृथ्वी पर वह कैसे विचरता है? तृष्णारहित होकर – '''अतृष्णः'''। किन्हें काटकर विचरता है? मनो-वचः-प्राण-शरीर-कर्म च्छित्वा – मन, प्राण आदि से जो कर्म, जो हलचलें या जो अभिमान होता है, उन सबको काटकर। कैसे काटेगा? काटने का साधन कौन-सा है? '''ज्ञानासिना उपासनया''' – ज्ञानरूपी खड्ग से। '''शितेन''' – जो प्रखर या तीक्ष्ण किया हुआ है। जिस चीज पर औजार की धार-तीक्ष्ण करते हैं, उसे संस्कृत में ‘शाण’ कहते हैं। यहाँ वह शाण कौन-सा है? '''उपासनया''' – उपासनारूपी शाण पर ज्ञान-खड्ग को धार लगाकर, सारे कर्मों को काटते हैं। वे कर्म कैसे होते हैं? '''अमूल''' यानी निर्मूल। जब वह तृष्णारहित होकर घूमत है, तो उसके द्वारा दुनिया के बहुत बड़े-बड़े काम बनते हैं, क्योंकि उसके अपने कामों का तो प्रश्न ही नहीं रहता। वह स्वयं तृष्णारहित है। वह समझता है कि यह सारा भासमान है, मृग-जलवत् है। इतना सारा ग्रामदान का काम चला। यदि भूकम्प आ जाए, तो सब जमीन अन्दर चली जायेगी और एक बड़ा समुद्र बन जायेगा। इसलिए ग्रामदान का काम करनेवाला व्यक्ति भी अगर उसमें आसक्ति रखेगा, तो डूब जायेगा। इसीलिए मुनि तृष्णारहित होकर विचरता है। इस कर्म के रूप बहुत होते हैं – बहु-रूप-रूपितम्। फिर भी मुनिः विचरति अतृष्णः।
जितने भी काम होते हैं, वे मन, वाणी, प्राण या शरीर द्वारा होते हैं। लेकिन जो भी काम होते हैं, वे निराधार हैं। उन्हें कोई आधार नहीं। इसलिए ज्ञानी उन्हें काटता है और पृथ्वी पर विचरता रहता है – '''मुनिः गां विचरति'''। ‘गाम्’ यानी पृथ्वी पर। पृथ्वी पर वह कैसे विचरता है? तृष्णारहित होकर – '''अतृष्णः'''। किन्हें काटकर विचरता है? मनो-वचः-प्राण-शरीर-कर्म च्छित्वा – मन, प्राण आदि से जो कर्म, जो हलचलें या जो अभिमान होता है, उन सबको काटकर। कैसे काटेगा? काटने का साधन कौन-सा है? '''ज्ञानासिना उपासनया''' – ज्ञानरूपी खड्ग से। '''शितेन''' – जो प्रखर या तीक्ष्ण किया हुआ है। जिस चीज पर औजार की धार-तीक्ष्ण करते हैं, उसे संस्कृत में ‘शाण’ कहते हैं। यहाँ वह शाण कौन-सा है? '''उपासनया''' – उपासनारूपी शाण पर ज्ञान-खड्ग को धार लगाकर, सारे कर्मों को काटते हैं। वे कर्म कैसे होते हैं? '''अमूल''' यानी निर्मूल। जब वह तृष्णारहित होकर घूमत है, तो उसके द्वारा दुनिया के बहुत बड़े-बड़े काम बनते हैं, क्योंकि उसके अपने कामों का तो प्रश्न ही नहीं रहता। वह स्वयं तृष्णारहित है। वह समझता है कि यह सारा भासमान है, मृग-जलवत् है। इतना सारा ग्रामदान का काम चला। यदि भूकम्प आ जाए, तो सब जमीन अन्दर चली जायेगी और एक बड़ा समुद्र बन जायेगा। इसलिए ग्रामदान का काम करने वाला व्यक्ति भी अगर उसमें आसक्ति रखेगा, तो डूब जायेगा। इसीलिए मुनि तृष्णारहित होकर विचरता है। इस कर्म के रूप बहुत होते हैं – बहु-रूप-रूपितम्। फिर भी मुनिः विचरति अतृष्णः।


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भागवत धर्म मिमांसा

11. ब्रह्म-स्थिति

(28.3) शोक–हर्ष–भय-क्रोध-लोभ-मोह-स्पृहादयः ।
अहंकारस्य दृश्यन्ते जन्ममृत्युश्च नात्मनः ।।[1]

शोक, हर्ष, भय, क्रोध, लोभ, मोह, स्पृहा और जो इनके परिवार में हैं, सारे अहंकार को लागू होते हैं। जन्म और मृत्यु को भी उसके साथ जोड़ दिया है। पर ये सारे आत्मा को लागू नहीं होते और न देह को ही लागू होते हैं। देह और आत्मा से भिन्न एक तीसरी वस्तु है, अहंकार! उसी को यह सारा लागू होता है। अहंकार ने इन सबको पकड़ रखा है। मृत्यु से दुःख किसे हुआ! अहंकार को। आत्मा के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं। यह सारा अज्ञानी का वर्णन हुआ। अब ज्ञानी पुरुष का वर्णन कर रहे हैं :

(28.4) अमूलमेतद् बहु-रूप-रूपितं
मनो-वचः-प्राण-शरीर-कर्म।
ज्ञानासिनोपासनया शितेन
च्छित्वा मुनिर् गां विचरत्यतृष्णः ।।[2]

जितने भी काम होते हैं, वे मन, वाणी, प्राण या शरीर द्वारा होते हैं। लेकिन जो भी काम होते हैं, वे निराधार हैं। उन्हें कोई आधार नहीं। इसलिए ज्ञानी उन्हें काटता है और पृथ्वी पर विचरता रहता है – मुनिः गां विचरति। ‘गाम्’ यानी पृथ्वी पर। पृथ्वी पर वह कैसे विचरता है? तृष्णारहित होकर – अतृष्णः। किन्हें काटकर विचरता है? मनो-वचः-प्राण-शरीर-कर्म च्छित्वा – मन, प्राण आदि से जो कर्म, जो हलचलें या जो अभिमान होता है, उन सबको काटकर। कैसे काटेगा? काटने का साधन कौन-सा है? ज्ञानासिना उपासनया – ज्ञानरूपी खड्ग से। शितेन – जो प्रखर या तीक्ष्ण किया हुआ है। जिस चीज पर औजार की धार-तीक्ष्ण करते हैं, उसे संस्कृत में ‘शाण’ कहते हैं। यहाँ वह शाण कौन-सा है? उपासनया – उपासनारूपी शाण पर ज्ञान-खड्ग को धार लगाकर, सारे कर्मों को काटते हैं। वे कर्म कैसे होते हैं? अमूल यानी निर्मूल। जब वह तृष्णारहित होकर घूमत है, तो उसके द्वारा दुनिया के बहुत बड़े-बड़े काम बनते हैं, क्योंकि उसके अपने कामों का तो प्रश्न ही नहीं रहता। वह स्वयं तृष्णारहित है। वह समझता है कि यह सारा भासमान है, मृग-जलवत् है। इतना सारा ग्रामदान का काम चला। यदि भूकम्प आ जाए, तो सब जमीन अन्दर चली जायेगी और एक बड़ा समुद्र बन जायेगा। इसलिए ग्रामदान का काम करने वाला व्यक्ति भी अगर उसमें आसक्ति रखेगा, तो डूब जायेगा। इसीलिए मुनि तृष्णारहित होकर विचरता है। इस कर्म के रूप बहुत होते हैं – बहु-रूप-रूपितम्। फिर भी मुनिः विचरति अतृष्णः।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 11.28.15
  2. 11.28.17

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