श्रीमद्भागवत माहात्म्य अध्याय 3 श्लोक 1-13: Difference between revisions
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श्रीमद्भागवत की परम्परा और उसका माहात्म्य, भागवत श्रवण से श्रोताओं को भगवद्धाम की प्राप्ति | श्रीमद्भागवत की परम्परा और उसका माहात्म्य, भागवत श्रवण से श्रोताओं को भगवद्धाम की प्राप्ति | ||
सूतजी कहते हैं—उद्धवजी ने वहाँ एकत्र हुए सब लोगों को श्रीकृष्ण कीर्तन में लगा देखकर सभी का सत्कार किया और राजा परीक्षित् को | सूतजी कहते हैं—उद्धवजी ने वहाँ एकत्र हुए सब लोगों को श्रीकृष्ण कीर्तन में लगा देखकर सभी का सत्कार किया और राजा परीक्षित् को हृदय से लगाकर कहा । | ||
उद्धवजी ने कहा—राजन्! तुम धन्य हो, एक मात्र श्रीकृष्ण की भक्ति से ही पूर्ण हो! क्योंकि श्रीकृष्ण-संकीर्तन के महोत्सव में तुम्हारा | उद्धवजी ने कहा—राजन्! तुम धन्य हो, एक मात्र श्रीकृष्ण की भक्ति से ही पूर्ण हो! क्योंकि श्रीकृष्ण-संकीर्तन के महोत्सव में तुम्हारा हृदय इस प्रकार निमग्न हो रहा है । | ||
बड़े सौभाग्य की बात है कि श्रीकृष्ण की पत्नियों के प्रति तुम्हारी भक्ति और वज्रनाभ पर तुम्हारा प्रेम है। तात! तुम जो कुछ कर रहे हो, सब तुम्हारे अनुरूप ही है। क्यों न हो, श्रीकृष्ण ने ही शरीर और वैभव प्रदान किया है; अतः तुम्हारा उनके प्रपौत्र पर प्रेम होना स्वाभाविक ही है । इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि समस्त द्वारिकावासियों में ये लोग सबसे बढ़कर धन्य हैं, जिन्हें व्रज में निवास कराने के लिये भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को आज्ञा की थी । श्रीकृष्ण का मन रूपी चन्द्रमा राधा के मुख की प्रभा रूप चाँदनी से युक्त हो उनकी लीला भूमि वृन्दावन को अपनी किरणों से सुशोभित करता हुआ यहाँ सदा प्रकाशमान रहता है । श्रीकृष्णचन्द्र नित्य परिपूर्ण हैं, प्राकृत चन्द्रमा की भाँति उनमें वृद्धि और क्षय रूप विकार नहीं होते। उनकी जो सोलह कलाएँ हैं, उनसे सहस्त्रों चिन्मय किरणें निकलती रहती हैं; इससे उनके सहस्त्रों भेद हो जाते हैं। इन सभी कलाओं से युक्त, नित्य परिपूर्ण श्रीकृष्ण इस व्रजभूमि में सदा ही विद्यमान रहते हैं; इस भूमि में और उनके | बड़े सौभाग्य की बात है कि श्रीकृष्ण की पत्नियों के प्रति तुम्हारी भक्ति और वज्रनाभ पर तुम्हारा प्रेम है। तात! तुम जो कुछ कर रहे हो, सब तुम्हारे अनुरूप ही है। क्यों न हो, श्रीकृष्ण ने ही शरीर और वैभव प्रदान किया है; अतः तुम्हारा उनके प्रपौत्र पर प्रेम होना स्वाभाविक ही है । इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि समस्त द्वारिकावासियों में ये लोग सबसे बढ़कर धन्य हैं, जिन्हें व्रज में निवास कराने के लिये भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को आज्ञा की थी । श्रीकृष्ण का मन रूपी चन्द्रमा राधा के मुख की प्रभा रूप चाँदनी से युक्त हो उनकी लीला भूमि वृन्दावन को अपनी किरणों से सुशोभित करता हुआ यहाँ सदा प्रकाशमान रहता है । श्रीकृष्णचन्द्र नित्य परिपूर्ण हैं, प्राकृत चन्द्रमा की भाँति उनमें वृद्धि और क्षय रूप विकार नहीं होते। उनकी जो सोलह कलाएँ हैं, उनसे सहस्त्रों चिन्मय किरणें निकलती रहती हैं; इससे उनके सहस्त्रों भेद हो जाते हैं। इन सभी कलाओं से युक्त, नित्य परिपूर्ण श्रीकृष्ण इस व्रजभूमि में सदा ही विद्यमान रहते हैं; इस भूमि में और उनके स्वरूप में कुछ अन्तर नहीं है । राजेन्द्र परीक्षित्! इस प्रकार विचार करने पर सभी व्रजवासी भगवान के अंग में स्थित हैं। शरणागतों का भय दूर करने वाले जो ये वज्र हैं, इनका स्थान श्रीकृष्ण के दाहिने चरण में है । इस अवतार में भगवान श्रीकृष्ण ने इन सबको अपनी योगमाया से अभिभूत कर लिया है, उसी के प्रभाव से ये अपने स्वरूप को भूल गये हैं और इसी कारण सदा दुःखी रहते हैं। यह बात निस्सन्देह ऐसी ही है । श्रीकृष्ण का प्रकश प्राप्त हुए बिना किसी को भी अपने स्वरूप का बोध नहीं हो सकता। जीवों के अन्तःकरण में जो श्रीकृष्णतत्व का प्रकाश है, उस पर सदा माया का पर्दा पड़ा रहता है । अट्ठाईसवें द्वापर के अन्त में जा भगवान श्रीकृष्ण स्वयं ही सामने प्रकट होकर अपनी माया का पर्दा उठा लेते हैं, उस समय जीवों को उनका प्रकाश प्राप्त होता है । | ||
किन्तु अब वह समय तो बीत गया; इसलिये उनके प्रकाश की प्राप्ति के लिये अब दूसरा उपाय बतलाया जा रहा है, सुनो। अट्ठाईसवें द्वापर के अतिरिक्त समय में यदि कोई श्रीकृष्णतत्व का प्रकाश पाना चाहे तो उसे वह श्रीमद्भागवत से ही प्राप्त हो सकता है । | किन्तु अब वह समय तो बीत गया; इसलिये उनके प्रकाश की प्राप्ति के लिये अब दूसरा उपाय बतलाया जा रहा है, सुनो। अट्ठाईसवें द्वापर के अतिरिक्त समय में यदि कोई श्रीकृष्णतत्व का प्रकाश पाना चाहे तो उसे वह श्रीमद्भागवत से ही प्राप्त हो सकता है । | ||
भगवान के भक्त जहाँ जब कभी श्रीमद्भागवत शास्त्र का कीर्तन और श्रवण करते हैं, वहाँ उस समय भगवान श्रीकृष्ण साक्षात् रूप से विराजमान रहते हैं । | भगवान के भक्त जहाँ जब कभी श्रीमद्भागवत शास्त्र का कीर्तन और श्रवण करते हैं, वहाँ उस समय भगवान श्रीकृष्ण साक्षात् रूप से विराजमान रहते हैं । |
Latest revision as of 13:19, 29 October 2017
तृतीय (3) अध्याय
श्रीमद्भागवत की परम्परा और उसका माहात्म्य, भागवत श्रवण से श्रोताओं को भगवद्धाम की प्राप्ति सूतजी कहते हैं—उद्धवजी ने वहाँ एकत्र हुए सब लोगों को श्रीकृष्ण कीर्तन में लगा देखकर सभी का सत्कार किया और राजा परीक्षित् को हृदय से लगाकर कहा । उद्धवजी ने कहा—राजन्! तुम धन्य हो, एक मात्र श्रीकृष्ण की भक्ति से ही पूर्ण हो! क्योंकि श्रीकृष्ण-संकीर्तन के महोत्सव में तुम्हारा हृदय इस प्रकार निमग्न हो रहा है । बड़े सौभाग्य की बात है कि श्रीकृष्ण की पत्नियों के प्रति तुम्हारी भक्ति और वज्रनाभ पर तुम्हारा प्रेम है। तात! तुम जो कुछ कर रहे हो, सब तुम्हारे अनुरूप ही है। क्यों न हो, श्रीकृष्ण ने ही शरीर और वैभव प्रदान किया है; अतः तुम्हारा उनके प्रपौत्र पर प्रेम होना स्वाभाविक ही है । इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि समस्त द्वारिकावासियों में ये लोग सबसे बढ़कर धन्य हैं, जिन्हें व्रज में निवास कराने के लिये भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को आज्ञा की थी । श्रीकृष्ण का मन रूपी चन्द्रमा राधा के मुख की प्रभा रूप चाँदनी से युक्त हो उनकी लीला भूमि वृन्दावन को अपनी किरणों से सुशोभित करता हुआ यहाँ सदा प्रकाशमान रहता है । श्रीकृष्णचन्द्र नित्य परिपूर्ण हैं, प्राकृत चन्द्रमा की भाँति उनमें वृद्धि और क्षय रूप विकार नहीं होते। उनकी जो सोलह कलाएँ हैं, उनसे सहस्त्रों चिन्मय किरणें निकलती रहती हैं; इससे उनके सहस्त्रों भेद हो जाते हैं। इन सभी कलाओं से युक्त, नित्य परिपूर्ण श्रीकृष्ण इस व्रजभूमि में सदा ही विद्यमान रहते हैं; इस भूमि में और उनके स्वरूप में कुछ अन्तर नहीं है । राजेन्द्र परीक्षित्! इस प्रकार विचार करने पर सभी व्रजवासी भगवान के अंग में स्थित हैं। शरणागतों का भय दूर करने वाले जो ये वज्र हैं, इनका स्थान श्रीकृष्ण के दाहिने चरण में है । इस अवतार में भगवान श्रीकृष्ण ने इन सबको अपनी योगमाया से अभिभूत कर लिया है, उसी के प्रभाव से ये अपने स्वरूप को भूल गये हैं और इसी कारण सदा दुःखी रहते हैं। यह बात निस्सन्देह ऐसी ही है । श्रीकृष्ण का प्रकश प्राप्त हुए बिना किसी को भी अपने स्वरूप का बोध नहीं हो सकता। जीवों के अन्तःकरण में जो श्रीकृष्णतत्व का प्रकाश है, उस पर सदा माया का पर्दा पड़ा रहता है । अट्ठाईसवें द्वापर के अन्त में जा भगवान श्रीकृष्ण स्वयं ही सामने प्रकट होकर अपनी माया का पर्दा उठा लेते हैं, उस समय जीवों को उनका प्रकाश प्राप्त होता है । किन्तु अब वह समय तो बीत गया; इसलिये उनके प्रकाश की प्राप्ति के लिये अब दूसरा उपाय बतलाया जा रहा है, सुनो। अट्ठाईसवें द्वापर के अतिरिक्त समय में यदि कोई श्रीकृष्णतत्व का प्रकाश पाना चाहे तो उसे वह श्रीमद्भागवत से ही प्राप्त हो सकता है । भगवान के भक्त जहाँ जब कभी श्रीमद्भागवत शास्त्र का कीर्तन और श्रवण करते हैं, वहाँ उस समय भगवान श्रीकृष्ण साक्षात् रूप से विराजमान रहते हैं । जहाँ श्रीमद्भागवत के एक या आधे श्लोक का ही पाठ होता है, वहाँ भी श्रीकृष्ण अपनी प्रियतमा गोपियों के साथ विद्यमान रहते हैं ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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