श्रीमद्भागवत माहात्म्य अध्याय 2 श्लोक 13-23: Difference between revisions

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत माहात्म्य: द्वितीय अध्यायः श्लोक 13-23 का हिन्दी अनुवाद </div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत माहात्म्य: द्वितीय अध्यायः श्लोक 13-23 का हिन्दी अनुवाद </div>


श्रीकृष्ण की राधा हैं और राधा ही श्रीकृष्ण हैं। उन दोनों का प्रेम ही वंशी है। तथा राधा की प्यारी सखी चन्द्रावली भी श्रीकृष्ण-चरणों के नखरूपी चन्द्रमाओं की सेवा में आसक्त रहने के कारण ही ‘चन्द्रावली’ नाम से कही जाती है । श्रीराधा और श्रीकृष्ण की सेवा में उसकी बड़ी लालसा, बड़ी लगन हैं; इसलिये वह कोई दूसरा स्वरुप धारणा नहीं करती। मैंने यहीं श्रीराधा में ही रुक्मिणी आदि का समावेश देखा है । तुम लोगों का भी सर्वांश में श्रीकृष्ण के साथ वियोग नहीं हुआ है, किन्तु तुम इस रहस्य को इस रूप में जानती नहीं हो, इसीलिये इतनी व्याकुल हो रही हो । इसी प्रकार पहले भी जब अक्रूर श्रीकृष्ण को नन्दगाँव से मथुरा ले आये थे, उस अवसर पर जो गोपियों को श्रीकृष्ण से विरह की प्रतीति हुई थी, ववह भी वास्तविक विरह नहीं, केवल विरह का आभास था। इस बात को जब तक वे नहीं जानती थीं, तब तक उन्हें बड़ा कष्ट था; फिर जब उद्धवजी ने आकर उनका समाधान किया, तब वे इस बात को समझ सकीं ।
श्रीकृष्ण की राधा हैं और राधा ही श्रीकृष्ण हैं। उन दोनों का प्रेम ही वंशी है। तथा राधा की प्यारी सखी चन्द्रावली भी श्रीकृष्ण-चरणों के नखरूपी चन्द्रमाओं की सेवा में आसक्त रहने के कारण ही ‘चन्द्रावली’ नाम से कही जाती है । श्रीराधा और श्रीकृष्ण की सेवा में उसकी बड़ी लालसा, बड़ी लगन हैं; इसलिये वह कोई दूसरा स्वरूप धारणा नहीं करती। मैंने यहीं श्रीराधा में ही रुक्मिणी आदि का समावेश देखा है । तुम लोगों का भी सर्वांश में श्रीकृष्ण के साथ वियोग नहीं हुआ है, किन्तु तुम इस रहस्य को इस रूप में जानती नहीं हो, इसीलिये इतनी व्याकुल हो रही हो । इसी प्रकार पहले भी जब अक्रूर श्रीकृष्ण को नन्दगाँव से मथुरा ले आये थे, उस अवसर पर जो गोपियों को श्रीकृष्ण से विरह की प्रतीति हुई थी, ववह भी वास्तविक विरह नहीं, केवल विरह का आभास था। इस बात को जब तक वे नहीं जानती थीं, तब तक उन्हें बड़ा कष्ट था; फिर जब उद्धवजी ने आकर उनका समाधान किया, तब वे इस बात को समझ सकीं ।
यदि तुम्हें भी उद्धवजी का सत्संग प्राप्त हो जाय, तो तुम सब भी अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के साथ नित्य विहार का सुख प्राप्त कर लोगी ।
यदि तुम्हें भी उद्धवजी का सत्संग प्राप्त हो जाय, तो तुम सब भी अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के साथ नित्य विहार का सुख प्राप्त कर लोगी ।
सूतजी कहते हैं—ऋषिगण! जब उन्होंने इस प्रकार समझाया, तब श्रीकृष्ण की पत्नियाँ सदा प्रसन्न रहने वाली यमुनाजी ने पुनः बोली। उस समय उनके ह्रदय में इस बात की बड़ी लालसा थी कि किसी उपाय से उद्धवजी का दर्शन हो, जिससे हमें अपने प्रियतम के नित्य संयोग का सौभाग्य प्राप्त हो सके ।
सूतजी कहते हैं—ऋषिगण! जब उन्होंने इस प्रकार समझाया, तब श्रीकृष्ण की पत्नियाँ सदा प्रसन्न रहने वाली यमुनाजी ने पुनः बोली। उस समय उनके हृदय में इस बात की बड़ी लालसा थी कि किसी उपाय से उद्धवजी का दर्शन हो, जिससे हमें अपने प्रियतम के नित्य संयोग का सौभाग्य प्राप्त हो सके ।
श्रीकृष्ण पत्नियों ने कहा—सखी! तुम्हारा ही जीवन धन्य है; क्योंकि तुम्हें कभी भी अपने प्राण नाथ के वियोग का दुःख नहीं भोगना पड़ता। जिन श्रीराधिकाजी की कृपा से तुम्हारे अभीष्ट अर्थ की सिद्धि हुई है, उनकी अब हमलोग भी दासी हुईं । किन्तु तुम अभी कह चुकी हो कि उद्धवजी के मिलने पर ही हमारे सभी मनोरथ पूर्ण होंगे; इसलिये कालिन्दी! अब ऐसा कोई उपाय बताओ, जिससे उद्धवजी भी शीघ्र मिल जायँ ।
श्रीकृष्ण पत्नियों ने कहा—सखी! तुम्हारा ही जीवन धन्य है; क्योंकि तुम्हें कभी भी अपने प्राण नाथ के वियोग का दुःख नहीं भोगना पड़ता। जिन श्रीराधिकाजी की कृपा से तुम्हारे अभीष्ट अर्थ की सिद्धि हुई है, उनकी अब हमलोग भी दासी हुईं । किन्तु तुम अभी कह चुकी हो कि उद्धवजी के मिलने पर ही हमारे सभी मनोरथ पूर्ण होंगे; इसलिये कालिन्दी! अब ऐसा कोई उपाय बताओ, जिससे उद्धवजी भी शीघ्र मिल जायँ ।
सूतजी कहते हैं—श्रीकृष्ण की रानियों ने जब यमुनाजी से इस प्रकार कहा, तब वे भगवान  श्रीकृष्णचन्द्र की सोलह कलाओं का चिन्तन करती हुई उसने कहने लगीं । “जब भगवान  श्रीकृष्ण अपने परम धाम को पधारने लगे, तब उन्होंने अपने मन्त्री उद्धव से कहा—‘उदध! साधना करने की भूमि है बदरिकाश्रम, अतः अपनी साधना पूर्ण करने के लिये तुम वहीं जाओ।’ भगवान  की इस आज्ञा के अनुसार उद्धवजी इस समय अपने साक्षात् स्वरूप से बदरिकाश्रम में विराजमान हैं और वहाँ जाने वाले जिज्ञासु लोगों को भगवान  के बतायें हुए ज्ञान का उपदेश करते रहते हैं । साधना की फलरुपा भूमि है—व्रजभूमि; इसे भी इसके रहस्यों सहित भगवान  ने पहले ही उद्धव को दे दिया था। किन्तु वह फलभूमि यहाँ से भगवान  के अन्तर्धान होने के साथ ही स्थूल दृष्टि से परे जा चुकी है; इसीलिये इस समय यहाँ उद्धव प्रत्यक्ष दिखायी नहीं पड़ते ।
सूतजी कहते हैं—श्रीकृष्ण की रानियों ने जब यमुनाजी से इस प्रकार कहा, तब वे भगवान  श्रीकृष्णचन्द्र की सोलह कलाओं का चिन्तन करती हुई उसने कहने लगीं । “जब भगवान  श्रीकृष्ण अपने परम धाम को पधारने लगे, तब उन्होंने अपने मन्त्री उद्धव से कहा—‘उदध! साधना करने की भूमि है बदरिकाश्रम, अतः अपनी साधना पूर्ण करने के लिये तुम वहीं जाओ।’ भगवान  की इस आज्ञा के अनुसार उद्धवजी इस समय अपने साक्षात् स्वरूप से बदरिकाश्रम में विराजमान हैं और वहाँ जाने वाले जिज्ञासु लोगों को भगवान  के बतायें हुए ज्ञान का उपदेश करते रहते हैं । साधना की फलरुपा भूमि है—व्रजभूमि; इसे भी इसके रहस्यों सहित भगवान  ने पहले ही उद्धव को दे दिया था। किन्तु वह फलभूमि यहाँ से भगवान  के अन्तर्धान होने के साथ ही स्थूल दृष्टि से परे जा चुकी है; इसीलिये इस समय यहाँ उद्धव प्रत्यक्ष दिखायी नहीं पड़ते ।

Latest revision as of 13:19, 29 October 2017

द्वितीय (2) अध्याय

श्रीमद्भागवत माहात्म्य: द्वितीय अध्यायः श्लोक 13-23 का हिन्दी अनुवाद

श्रीकृष्ण की राधा हैं और राधा ही श्रीकृष्ण हैं। उन दोनों का प्रेम ही वंशी है। तथा राधा की प्यारी सखी चन्द्रावली भी श्रीकृष्ण-चरणों के नखरूपी चन्द्रमाओं की सेवा में आसक्त रहने के कारण ही ‘चन्द्रावली’ नाम से कही जाती है । श्रीराधा और श्रीकृष्ण की सेवा में उसकी बड़ी लालसा, बड़ी लगन हैं; इसलिये वह कोई दूसरा स्वरूप धारणा नहीं करती। मैंने यहीं श्रीराधा में ही रुक्मिणी आदि का समावेश देखा है । तुम लोगों का भी सर्वांश में श्रीकृष्ण के साथ वियोग नहीं हुआ है, किन्तु तुम इस रहस्य को इस रूप में जानती नहीं हो, इसीलिये इतनी व्याकुल हो रही हो । इसी प्रकार पहले भी जब अक्रूर श्रीकृष्ण को नन्दगाँव से मथुरा ले आये थे, उस अवसर पर जो गोपियों को श्रीकृष्ण से विरह की प्रतीति हुई थी, ववह भी वास्तविक विरह नहीं, केवल विरह का आभास था। इस बात को जब तक वे नहीं जानती थीं, तब तक उन्हें बड़ा कष्ट था; फिर जब उद्धवजी ने आकर उनका समाधान किया, तब वे इस बात को समझ सकीं । यदि तुम्हें भी उद्धवजी का सत्संग प्राप्त हो जाय, तो तुम सब भी अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के साथ नित्य विहार का सुख प्राप्त कर लोगी । सूतजी कहते हैं—ऋषिगण! जब उन्होंने इस प्रकार समझाया, तब श्रीकृष्ण की पत्नियाँ सदा प्रसन्न रहने वाली यमुनाजी ने पुनः बोली। उस समय उनके हृदय में इस बात की बड़ी लालसा थी कि किसी उपाय से उद्धवजी का दर्शन हो, जिससे हमें अपने प्रियतम के नित्य संयोग का सौभाग्य प्राप्त हो सके । श्रीकृष्ण पत्नियों ने कहा—सखी! तुम्हारा ही जीवन धन्य है; क्योंकि तुम्हें कभी भी अपने प्राण नाथ के वियोग का दुःख नहीं भोगना पड़ता। जिन श्रीराधिकाजी की कृपा से तुम्हारे अभीष्ट अर्थ की सिद्धि हुई है, उनकी अब हमलोग भी दासी हुईं । किन्तु तुम अभी कह चुकी हो कि उद्धवजी के मिलने पर ही हमारे सभी मनोरथ पूर्ण होंगे; इसलिये कालिन्दी! अब ऐसा कोई उपाय बताओ, जिससे उद्धवजी भी शीघ्र मिल जायँ । सूतजी कहते हैं—श्रीकृष्ण की रानियों ने जब यमुनाजी से इस प्रकार कहा, तब वे भगवान श्रीकृष्णचन्द्र की सोलह कलाओं का चिन्तन करती हुई उसने कहने लगीं । “जब भगवान श्रीकृष्ण अपने परम धाम को पधारने लगे, तब उन्होंने अपने मन्त्री उद्धव से कहा—‘उदध! साधना करने की भूमि है बदरिकाश्रम, अतः अपनी साधना पूर्ण करने के लिये तुम वहीं जाओ।’ भगवान की इस आज्ञा के अनुसार उद्धवजी इस समय अपने साक्षात् स्वरूप से बदरिकाश्रम में विराजमान हैं और वहाँ जाने वाले जिज्ञासु लोगों को भगवान के बतायें हुए ज्ञान का उपदेश करते रहते हैं । साधना की फलरुपा भूमि है—व्रजभूमि; इसे भी इसके रहस्यों सहित भगवान ने पहले ही उद्धव को दे दिया था। किन्तु वह फलभूमि यहाँ से भगवान के अन्तर्धान होने के साथ ही स्थूल दृष्टि से परे जा चुकी है; इसीलिये इस समय यहाँ उद्धव प्रत्यक्ष दिखायी नहीं पड़ते ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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