अंधों का प्रशिक्षण और कल्याण: Difference between revisions

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|पुस्तक नाम=हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1
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|भाषा= हिन्दी देवनागरी
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|संपादक=सुधाकर पाण्डेय
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|संस्करण=सन्‌ 1973 ईसवी
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|उपलब्ध=भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
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|पाठ 1=डॉ. कृष्णनारायण माथुर।
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'''अंधों का प्रशिक्षण और कल्याण''' जिन व्यक्तियों की दृष्टि बिलकुल नष्ट हो जाती है, या इतनी क्षीण हो जाती है कि वे दृष्टि की सहायता से किए जाने वाले कार्य करने में असमर्थ हो जाते हैं, उनको अंधा कहा जाता है।
'''अंधों का प्रशिक्षण और कल्याण''' जिन व्यक्तियों की दृष्टि बिलकुल नष्ट हो जाती है, या इतनी क्षीण हो जाती है कि वे दृष्टि की सहायता से किए जाने वाले कार्य करने में असमर्थ हो जाते हैं, उनको अंधा कहा जाता है।



Latest revision as of 11:34, 19 May 2018

अंधों का प्रशिक्षण और कल्याण जिन व्यक्तियों की दृष्टि बिलकुल नष्ट हो जाती है, या इतनी क्षीण हो जाती है कि वे दृष्टि की सहायता से किए जाने वाले कार्य करने में असमर्थ हो जाते हैं, उनको अंधा कहा जाता है।

संसार के सब देशों की अपेक्षा, केवल मिस्र देश को छोड़, हमारे देश में अधिक अंधे हैं। किंतु शिक्षा, चिकित्सा के साधन तथा स्वच्छता के प्रचार से इस संख्या में कमी हो रही है। जैसा अन्यत्र वर्णित अंधता के कारणों से ज्ञात होगा[1], 10 प्रतिशत अंधता रोकी जा सकती है। जीवन के स्तर की उन्नति, शिक्षा प्रचार, पौष्टिक आहार, रोहे (कुकरे) नामक रोग की रोकथाम और टीका द्वारा चेचक के उन्मूलन से यह संख्या शीघ्र ही बहुत कम हो सकती है [2]। अंधता कम करने के लिए सरकार की ओर से विशेष आयोजनाएँ की गई हैं। मोतियाबिंद के, जो अंधता का दूसरा बड़ा कारण है, शस्त्रकर्म के लिए विशेष केंद्र खोले गए हैं। नवीन प्रतिजीवी औषधियों (ऐंटीबायोटिक्स) के प्रयोग से नेत्र संक्रमण का रोकना भी अब सरल हो गया है। इस प्रकार आशा की जाती है कि शीघ्र ही दृष्टिहीनता की दशा में बहुत कुछ कमी हो जाएगी।

अंधों की देखभाल करने तथा उनके जीवन को कष्टरहित और समाज के लिए उपयोगी बनाने का उत्तरदायित्व सरकार पर है। यह दृष्टिहीनों का अधिकार है कि सरकार या समाज की ओर से उनकी देखभाल की जाए, उनको शिक्षित किया जाए, उनके जीवन की आवश्यकताएँ पूरी की जाएँ और उनको समाज में उपयुक्त स्थान प्राप्त हो, न कि वे समाज की दया के पात्र बने रहें।

ब्रेल विधि

पढ़ने और लिखने के लिए केवल ब्रेल विधि का प्रयोग किया जाता है। इस विधि को ब्रेल नाम के एक फ्रांस निवासी ने निकाला और उसी के नाम से यह विधि संसार के सभी देशों में प्रचलित हो गई है। इसमें कागज पर उभरे हुए बिंदु बने रहते हैं जिनकी उँगलियों से छूकर बालक पढ़ना सीख जाता है। प्रत्येक अक्षर के लिए बिंदुओं की संख्या अथवा उनका क्रम भिन्न होता है। संसार की सभी भाषाओं में इस प्रकार की पुस्तकें छापी गई हैं जिनके द्वारा अंधे बालकों को शिक्षा दी जाती है। जितना ही शीघ्र शिक्षा का आरंभ किया जा सके, उतना ही उत्तम है। शीघ्र ही बालक उँगलियों से पुस्तक के पृष्ठ पर उभरे हुए बिंदुओं को स्पर्श करके उसी प्रकार पढ़ने लगता है जैसे अन्य बालक नेत्रों से देखकर पढ़ते हैं। ग्रामोफोन के रेकार्डों तथा टेप रेकार्डरों में भी ऐसी पुस्तकें उपलब्ध हैं जिनका उपयोग अंधे बालकों की शिक्षा के लिए किया जा सकता है।

दृष्टिहीन बालक के लिए औद्योगिक अथवा व्यावसायिक शिक्षा अत्यंत आवश्यक है। उसमें स्वावलंबी बनने, अपने पावों पर खड़े होने तथा स्वाभिमान उत्पन्न करने के लिए आवश्यक है कि उसे किसी ऐसे व्यवसाय की शिक्षा दी जाए जिससे वह अपना जीविकोपार्जन करने में समर्थ हो। अंध संस्थाओं में ऐसी शिक्षा का, विशेषकर बुनने, चटाई बुनने, दरी बुनने, तथा ब्रुश बनाने आदि व्यवसायों की शिक्षा का विशेष प्रबंध रहता है। अंधे टाइपिस्ट का काम भी अच्छा कर लेते हैं; मैनेजर चिट्ठी आदि को टेप रेकार्डर में बोल देता है और तब अंधा टेप रेकार्डर को सुनता चलता और टाइप करता जाता है। विशेष प्रतिभाशाली बालक, शिक्षा में जिनकी विशेष रुचि होती है, कालेज की उच्च शिक्षा प्राप्त करके बड़ी-बड़ी डिग्री ले सकते हैं और शिक्षक अथवा वकील बनकर इन व्यवसायों को जीविकोपार्जन का साधन बना सकते हैं। हमारे देश में संगीत दृष्टिहीनों का एक अति प्रिय व्यवसाय है। गायन तथा वाद्य संगीत की उत्तम शिक्षा प्राप्त करके वे संगीतज्ञ बन जाते हैं और यश तथा अर्थ दोनों के भाजन बनते हैं।

व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात्‌ अंधों को काम पर लगाने का प्रश्न आता है। यह समाजसेवी संस्थाओं का क्षेत्र है। ऐसी संस्था होनी चाहिए जो दृष्टिहीन शिक्षित व्यक्तियों को काम पर लगाने में सहायता कर सकें और उनकी बनाई हुई वस्तुओं को बाजार में बिकवाने का प्रबंध कर सकें। जहाँ बड़ी-बड़ी मशीनें, भट्ठियाँ, खराद या चक्के चलते हों वहाँ तनिक-सी भूल से अंधे का जीवन संकट में पड़ सकता है। परंतु खुले हुए कारखानों में, जहाँ चलने-फिरने की अधिक स्वतंत्रता रहती है, वे भली प्रकार काम कर सकते हैं। कुछ दृष्टिहीन बड़े मेधावी होते हैं और शिक्षकों, वकीलों, संगीतज्ञों तथा व्यवसायियों में प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त करने में सफल होते हैं। किंतु उनको उनके व्यवसाय स्थान तक ले जाने और वहाँ से लाने के लिए किसी सहायक की आवश्यकता होती है। यह काम कुत्तों से लिया जा सकता है। विदेशों में कुत्तों को इस काम के लिए विशेष रूप से तैयार किया जाता है। वे अपने मालिक को नगर के किसी भी भाग में ले जा सकते और निर्विघ्न लौटा ला सकते हैं।

जो व्यक्ति युवा या प्रौढ़ावस्था में अपने नेत्र गँवा देते हैं उनका प्रश्न कुछ भिन्न होता है। प्रथम तो उनको इतना मानसिक क्षोभ होता है कि उससे उबरने और चारों ओर की परिस्थितियों के अनुकूल बनने में बहुत समय लगता है। उनको समाजसेवी संस्थाएँ बहुत सहायता पहुँचा सकती हैं। अंधों को स्वावलंबी बनाने में ये संस्थाएँ बहुत कुछ कर सकती हैं।

जो वृद्धावस्था में नेत्रों से वंचित हो जाते हैं उनका प्रश्न सबसे टेढ़ा है। इस अवस्था में अपने को नवीन परिस्थितियों के अनुकूल बनाना उनके लिए दूभर हो जाता है। जिनके लिए अपने घर पर ही अच्छा प्रबंध नहीं हो सकता उनके लिए समाज और सरकार की ओर से ऐसी संस्थाएँ होनी चाहिए जहाँ इन वृद्धों को सम्मान और प्रेमसहित, शारीरिक अपूर्णताजनित कठिनाइयों से मुक्त करके रखा जा सके और अपने जीवन के अंत तक वे संतोष और आत्मीयता का अनुभव कर सकें। जाति, समाज और सरकार सबका यह कर्तव्य है।[3]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (द्र. अंधता)
  2. (द्र. रोहे)
  3. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 59 |

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