रक्तमूर्च्छा: Difference between revisions

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([[अंग्रेज़ी भाषा|अंग्रेज़ी]]: Apoplexy) मस्तिष्क की [[कोशिका|कोशिकाओं]] के कार्य में रक्तस्राव या अन्य कारणों से उत्पन्न रक्त की कमी के फलस्वरूप विक्षोभ होने पर यह होती है। [[मस्तिष्क]] में धमनी काठिन्य के कारण तीव्ररक्तचाप होने पर धमनी की दीवारें कभी कभी टूट जाती हैं, जिससे रक्तस्राव होने लगता है। इसी को रक्तमूर्च्छा कहते हैं। तीव्र [[रक्तचाप]] के अतिरिक्त स्कर्वी, फिरंगरोग, मस्तिष्क आघात इत्यादि कारणों से भी रक्तमूर्च्छा उत्पन्न होती है।
([[अंग्रेज़ी भाषा|अंग्रेज़ी]]: Apoplexy) मस्तिष्क की [[कोशिका|कोशिकाओं]] के कार्य में रक्तस्राव या अन्य कारणों से उत्पन्न रक्त की कमी के फलस्वरूप विक्षोभ होने पर यह होती है। [[मस्तिष्क]] में धमनी काठिन्य के कारण तीव्ररक्तचाप होने पर धमनी की दीवारें कभी कभी टूट जाती हैं, जिससे रक्तस्राव होने लगता है। इसी को रक्तमूर्च्छा कहते हैं। तीव्र [[रक्तचाप]] के अतिरिक्त स्कर्वी, फिरंगरोग, मस्तिष्क आघात इत्यादि कारणों से भी रक्तमूर्च्छा उत्पन्न होती है।
==लक्षण==  
==लक्षण==  
स्त्रियों की अपेक्षा पुरुष इस रोग से अधिक ग्रसित होते हैं। जब रोग का आक्रमण धीरे धीरे होता है तब प्रारंभ में मिचली, शिरपीड़ा, तथा हाथ पैरों में चैतन्यशून्यता होती है। परंतु जब रोग का एकाएक आक्रमण होता है, तब रोगी एकाएक मूर्च्छित होकर गिर जाता है, चेहरे पर लालिमा आ जाती है, साँस फूलने लगता है, नाड़ी की गति मंद पड़ जाती है, आँखों की दोनों पुतलियाँ असमान, एक छोटी और एक बड़ी, हो जाती हैं। चेहरा एक तरफ को टेढ़ा हो जाता है और शरीर के एक भाग में आक्षेप होने लगता है। रोगी के दाँत बैठ जाते हैं। तथा रोगी तरल पदार्थ भी नहीं निगल सकता और जो कुछ भी वह मुँह में लेता है, वह किनारों से बाहर निकल जाता है। हाथ पैर ठंडे प्रतीत होते हैं तथा उन पर से ठंडा पसीना निकलता है। रोगी के बिना जाने ही उसका मलमूत्र निकल जाता है। जिस ओर पक्षाघात होता है उधर की त्वचा फूली सी प्रतीत होती है। नाड़ी की गति कम से कम 60 प्रतिमिनट तथा अधिक से अधिक 110 प्रति मिनट हो जाती है। रक्तमूर्च्छा का आक्रमण काल 2-3 घंटे से लेकर कई दिनों तक रह सकता है और जितना ही रोगी के होश में आने में विलंब होता है उतनी ही साध्यासाध्यता की दृष्टि से घातक अवस्था समझी जाती है। पूर्ण घातक अवस्था में रोगी की पुतलियों की अभिक्रिया नष्टप्राय हो जाती है और यदि उपचार से 42 घंटे में भी रोगी होश में न आया, तो अवस्था अत्यंत गंभीर समझी जाती है।
स्त्रियों की अपेक्षा पुरुष इस रोग से अधिक ग्रसित होते हैं। जब रोग का आक्रमण धीरे धीरे होता है तब प्रारंभ में मिचली, शिरपीड़ा, तथा हाथ पैरों में चैतन्यशून्यता होती है। परंतु जब रोग का एकाएक आक्रमण होता है, तब रोगी एकाएक मूर्च्छित होकर गिर जाता है, चेहरे पर लालिमा आ जाती है, साँस फूलने लगता है, नाड़ी की गति मंद पड़ जाती है, आँखों की दोनों पुतलियाँ असमान, एक छोटी और एक बड़ी, हो जाती हैं। चेहरा एक तरफ को टेढ़ा हो जाता है और शरीर के एक भाग में आक्षेप होने लगता है। रोगी के दाँत बैठ जाते हैं। तथा रोगी तरल पदार्थ भी नहीं निगल सकता और जो कुछ भी वह मुँह में लेता है, वह किनारों से बाहर निकल जाता है। हाथ पैर ठंडे प्रतीत होते हैं तथा उन पर से ठंडा पसीना निकलता है। रोगी के बिना जाने ही उसका मलमूत्र निकल जाता है। जिस ओर पक्षाघात होता है उधर की त्वचा फूली सी प्रतीत होती है। नाड़ी की गति कम से कम 60 प्रतिमिनट तथा अधिक से अधिक 110 प्रति मिनट हो जाती है। रक्तमूर्च्छा का आक्रमण काल 2-3 घंटे से लेकर कई दिनों तक रह सकता है और जितना ही रोगी के होश में आने में विलम्ब होता है उतनी ही साध्यासाध्यता की दृष्टि से घातक अवस्था समझी जाती है। पूर्ण घातक अवस्था में रोगी की पुतलियों की अभिक्रिया नष्टप्राय हो जाती है और यदि उपचार से 42 घंटे में भी रोगी होश में न आया, तो अवस्था अत्यंत गंभीर समझी जाती है।


इस रोग की अति तीव्र मूर्च्छा की अवस्था में सापेक्ष निदान मूर्च्छा, मदिरा के विषाक्त प्रभाव, अफीम के अतिसेवन से उत्पन्न बेहोशी तथा मस्तिष्क आघातजन्य बेहोशी से करना चाहिए। रक्तमूर्च्छा के प्रारंभिक उपचार के लिए रोगी के शरीर पर के वस्त्रों को तत्काल ढीला कर देना चाहिए। सिर ऊँचा करके शुद्ध वायु के संचार का उपाय करना चाहिए। माथे पर ठंडा पानी छिड़कना तथा पेडू पर बर्फ़ रखना चाहिए। सिर और कंधे को रोगी के एक तरफ मोड़कर जीभ बाहर करके खींचे रहना चाहिए। रोगी में उच्च ताप रहने पर सिर पर बर्फ़ की टोपी रखें। मलावरोध एवं मूत्र रुक जाने पर शलाका एंव मूत्रनलिका की सहायता से उनका उत्सर्ग कराना चाहिए। रोगी को अधिक उत्तेजक एवं शमक औषधियों का सेवन कराना निषेध है तथा संज्ञा लौट आने पर भी रोगी को उठने-बैठने नहीं देना चाहिए। आहार में तरल पदार्थ का ही समय-समय पर सेवन कराना चाहिए।
इस रोग की अति तीव्र मूर्च्छा की अवस्था में सापेक्ष निदान मूर्च्छा, मदिरा के विषाक्त प्रभाव, अफीम के अतिसेवन से उत्पन्न बेहोशी तथा मस्तिष्क आघातजन्य बेहोशी से करना चाहिए। रक्तमूर्च्छा के प्रारंभिक उपचार के लिए रोगी के शरीर पर के वस्त्रों को तत्काल ढीला कर देना चाहिए। सिर ऊँचा करके शुद्ध वायु के संचार का उपाय करना चाहिए। माथे पर ठंडा पानी छिड़कना तथा पेडू पर बर्फ़ रखना चाहिए। सिर और कंधे को रोगी के एक तरफ मोड़कर जीभ बाहर करके खींचे रहना चाहिए। रोगी में उच्च ताप रहने पर सिर पर बर्फ़ की टोपी रखें। मलावरोध एवं मूत्र रुक जाने पर शलाका एवं मूत्रनलिका की सहायता से उनका उत्सर्ग कराना चाहिए। रोगी को अधिक उत्तेजक एवं शमक औषधियों का सेवन कराना निषेध है तथा संज्ञा लौट आने पर भी रोगी को उठने-बैठने नहीं देना चाहिए। आहार में तरल पदार्थ का ही समय-समय पर सेवन कराना चाहिए।


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Latest revision as of 09:08, 10 February 2021

(अंग्रेज़ी: Apoplexy) मस्तिष्क की कोशिकाओं के कार्य में रक्तस्राव या अन्य कारणों से उत्पन्न रक्त की कमी के फलस्वरूप विक्षोभ होने पर यह होती है। मस्तिष्क में धमनी काठिन्य के कारण तीव्ररक्तचाप होने पर धमनी की दीवारें कभी कभी टूट जाती हैं, जिससे रक्तस्राव होने लगता है। इसी को रक्तमूर्च्छा कहते हैं। तीव्र रक्तचाप के अतिरिक्त स्कर्वी, फिरंगरोग, मस्तिष्क आघात इत्यादि कारणों से भी रक्तमूर्च्छा उत्पन्न होती है।

लक्षण

स्त्रियों की अपेक्षा पुरुष इस रोग से अधिक ग्रसित होते हैं। जब रोग का आक्रमण धीरे धीरे होता है तब प्रारंभ में मिचली, शिरपीड़ा, तथा हाथ पैरों में चैतन्यशून्यता होती है। परंतु जब रोग का एकाएक आक्रमण होता है, तब रोगी एकाएक मूर्च्छित होकर गिर जाता है, चेहरे पर लालिमा आ जाती है, साँस फूलने लगता है, नाड़ी की गति मंद पड़ जाती है, आँखों की दोनों पुतलियाँ असमान, एक छोटी और एक बड़ी, हो जाती हैं। चेहरा एक तरफ को टेढ़ा हो जाता है और शरीर के एक भाग में आक्षेप होने लगता है। रोगी के दाँत बैठ जाते हैं। तथा रोगी तरल पदार्थ भी नहीं निगल सकता और जो कुछ भी वह मुँह में लेता है, वह किनारों से बाहर निकल जाता है। हाथ पैर ठंडे प्रतीत होते हैं तथा उन पर से ठंडा पसीना निकलता है। रोगी के बिना जाने ही उसका मलमूत्र निकल जाता है। जिस ओर पक्षाघात होता है उधर की त्वचा फूली सी प्रतीत होती है। नाड़ी की गति कम से कम 60 प्रतिमिनट तथा अधिक से अधिक 110 प्रति मिनट हो जाती है। रक्तमूर्च्छा का आक्रमण काल 2-3 घंटे से लेकर कई दिनों तक रह सकता है और जितना ही रोगी के होश में आने में विलम्ब होता है उतनी ही साध्यासाध्यता की दृष्टि से घातक अवस्था समझी जाती है। पूर्ण घातक अवस्था में रोगी की पुतलियों की अभिक्रिया नष्टप्राय हो जाती है और यदि उपचार से 42 घंटे में भी रोगी होश में न आया, तो अवस्था अत्यंत गंभीर समझी जाती है।

इस रोग की अति तीव्र मूर्च्छा की अवस्था में सापेक्ष निदान मूर्च्छा, मदिरा के विषाक्त प्रभाव, अफीम के अतिसेवन से उत्पन्न बेहोशी तथा मस्तिष्क आघातजन्य बेहोशी से करना चाहिए। रक्तमूर्च्छा के प्रारंभिक उपचार के लिए रोगी के शरीर पर के वस्त्रों को तत्काल ढीला कर देना चाहिए। सिर ऊँचा करके शुद्ध वायु के संचार का उपाय करना चाहिए। माथे पर ठंडा पानी छिड़कना तथा पेडू पर बर्फ़ रखना चाहिए। सिर और कंधे को रोगी के एक तरफ मोड़कर जीभ बाहर करके खींचे रहना चाहिए। रोगी में उच्च ताप रहने पर सिर पर बर्फ़ की टोपी रखें। मलावरोध एवं मूत्र रुक जाने पर शलाका एवं मूत्रनलिका की सहायता से उनका उत्सर्ग कराना चाहिए। रोगी को अधिक उत्तेजक एवं शमक औषधियों का सेवन कराना निषेध है तथा संज्ञा लौट आने पर भी रोगी को उठने-बैठने नहीं देना चाहिए। आहार में तरल पदार्थ का ही समय-समय पर सेवन कराना चाहिए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  • विश्व कोश (खण्ड 10) पेज न.21, प्रियकुमार चौबे