पुस्तक का सम्मान -जवाहरलाल नेहरू: Difference between revisions
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जवाहरलाल नेहरू किताबों से गहरा लगाव रखते थे। वे पुस्तकें पढ़ते ही नहीं, उन्हें संभालकर बड़े प्यार से रखते थे। बेतरतीब ढंग से रखी पुस्तकें देखकर उनका मूड खराब हो जाता था। एक बार नेहरू जी अपने एक दोस्त के यहां ठहरे हुए थे। जब किसी कार्यवश कुछ घंटों के लिए उनके मित्र घर से बाहर गए, तो कुछ पढ़ने के लिए नेहरू जी ने पुस्तकों की अलमारी खोली। अलमारी में किताबें इधर-उधर फेंकी हुई सी पड़ी थीं। यह देखकर नेहरू जी को बड़ा | [[जवाहरलाल नेहरू]] किताबों से गहरा लगाव रखते थे। वे पुस्तकें पढ़ते ही नहीं, उन्हें संभालकर बड़े प्यार से रखते थे। बेतरतीब ढंग से रखी पुस्तकें देखकर उनका मूड खराब हो जाता था। एक बार नेहरू जी अपने एक दोस्त के यहां ठहरे हुए थे। जब किसी कार्यवश कुछ घंटों के लिए उनके मित्र घर से बाहर गए, तो कुछ पढ़ने के लिए नेहरू जी ने पुस्तकों की अलमारी खोली। अलमारी में किताबें इधर-उधर फेंकी हुई सी पड़ी थीं। यह देखकर नेहरू जी को बड़ा दु:ख हुआ। एक सुंदर सी पुस्तक अलमारी के कोने में गर्द-गुबार से सनी पड़ी थी। नेहरू जी ने उस पुस्तक को उठाया, साफ किया और अपने पास रख लिया। इसके बाद उन्होंने एक तरफ से शुरू करके पूरी अलमारी साफ की तथा बेतरतीब ढंग से रखी पुस्तकों को झाड़-पोंछकर, साफ करके यथासंभव ठीक ढंग से रख दिया। | ||
जब मेजबान वापस आए, तो उन्होंने पंडित जी का चेहरा देखकर ही समझ लिया कि दाल में कुछ काला है। नेहरू जी ने उन्हें डांटते हुए कहा, | जब मेजबान वापस आए, तो उन्होंने पंडित जी का चेहरा देखकर ही समझ लिया कि दाल में कुछ काला है। नेहरू जी ने उन्हें डांटते हुए कहा, | ||
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मेजबान ने पंडित जी से क्षमा मांगी और भविष्य में पुस्तकों की कद्र करने का वादा किया। | मेजबान ने पंडित जी से क्षमा मांगी और भविष्य में पुस्तकों की कद्र करने का वादा किया। | ||
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पुस्तक का सम्मान -जवाहरलाल नेहरू
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विवरण | जवाहरलाल नेहरू |
भाषा | हिंदी |
देश | भारत |
मूल शीर्षक | प्रेरक प्रसंग |
उप शीर्षक | जवाहरलाल नेहरू के प्रेरक प्रसंग |
संकलनकर्ता | अशोक कुमार शुक्ला |
जवाहरलाल नेहरू किताबों से गहरा लगाव रखते थे। वे पुस्तकें पढ़ते ही नहीं, उन्हें संभालकर बड़े प्यार से रखते थे। बेतरतीब ढंग से रखी पुस्तकें देखकर उनका मूड खराब हो जाता था। एक बार नेहरू जी अपने एक दोस्त के यहां ठहरे हुए थे। जब किसी कार्यवश कुछ घंटों के लिए उनके मित्र घर से बाहर गए, तो कुछ पढ़ने के लिए नेहरू जी ने पुस्तकों की अलमारी खोली। अलमारी में किताबें इधर-उधर फेंकी हुई सी पड़ी थीं। यह देखकर नेहरू जी को बड़ा दु:ख हुआ। एक सुंदर सी पुस्तक अलमारी के कोने में गर्द-गुबार से सनी पड़ी थी। नेहरू जी ने उस पुस्तक को उठाया, साफ किया और अपने पास रख लिया। इसके बाद उन्होंने एक तरफ से शुरू करके पूरी अलमारी साफ की तथा बेतरतीब ढंग से रखी पुस्तकों को झाड़-पोंछकर, साफ करके यथासंभव ठीक ढंग से रख दिया।
जब मेजबान वापस आए, तो उन्होंने पंडित जी का चेहरा देखकर ही समझ लिया कि दाल में कुछ काला है। नेहरू जी ने उन्हें डांटते हुए कहा,
'तुम्हें सम्मान करना नहीं आता, तो मुझे अपने यहां बुलाते ही क्यों हो? तुमने मेरा अपमान किया है। अब मैं तुम्हारे यहां कभी नहीं आऊंगा।' मेजबान गिड़गिड़ाए।
जब पंडित जी का क्रोध शांत हुआ तो वे बोले, 'जानते हो, मैंने तुम्हारी अलमारी में पुस्तकों को दुर्दशा की स्थिति में पड़ा पाया। क्या तुम नहीं जानते कि पुस्तक में लेखक की आत्मा निवास करती है? पुस्तक का अपमान लेखक का अपमान है। उम्मीद है तुम मेरा मतलब समझ गए होगे।'
मेजबान ने पंडित जी से क्षमा मांगी और भविष्य में पुस्तकों की कद्र करने का वादा किया।
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