मर्म की बात -विनोबा भावे: Difference between revisions
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बात उस समय की है जब विनोबा भावे गांव गांव घूमकर भूदान यज्ञ के लिये भूमि एकत्र कर रहे थे। उनके पास क्या था? न धन, न कोई बाहरी सत्ता; पर सेवा के जोर पर उन्होंने करोड़ों लोगों के दिलों में अपना घर बना लिया। उन्हें चालीस लाख एकड़ से उपर जमीन मिली। | बात उस समय की है जब [[विनोबा भावे]] गांव गांव घूमकर भूदान यज्ञ के लिये भूमि एकत्र कर रहे थे। उनके पास क्या था? न धन, न कोई बाहरी सत्ता; पर सेवा के जोर पर उन्होंने करोड़ों लोगों के दिलों में अपना घर बना लिया। उन्हें चालीस लाख एकड़ से उपर जमीन मिली। | ||
सैकड़ों | सैकड़ों गाँव ग्रामदान में मिले ओर जीवनदानियों की उनकी पास फौज़ इकट्ठी हो गयी। दरअसल उनके दिल में कोई स्वार्थ न था। ऐसे आदमी को अपने काम में सफलता मिलनी ही थी। वह हज़ारों मील पैदल चले। जाड़ों में चले, गर्मियों में चले, वर्षा में चले, धूप में चले। | ||
सेवा के आनन्द में लीन विनोबा चलते रहे, चलते रहे। देश का कोई भी कोना उन्होंने नहीं छोड़ा। एक दिन विनोबा भावे को बहुत-सी जमीन मिली थी। जब उन्हें दिनभर का हिसाब बताया गया तो वह मुस्कराने लगे। बोले, | सेवा के आनन्द में लीन विनोबा चलते रहे, चलते रहे। देश का कोई भी कोना उन्होंने नहीं छोड़ा। एक दिन विनोबा भावे को बहुत-सी जमीन मिली थी। जब उन्हें दिनभर का हिसाब बताया गया तो वह मुस्कराने लगे। बोले, | ||
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दरअसल उन्होंने बड़े मर्म की बात कहीं थी। जिसके हाथों में लाखों एकड़ भूमि आयी हो, उसके हाथ में एक कण भी चिपका न रहे, इससे बड़ा त्याग और क्या हो सकता है। | दरअसल उन्होंने बड़े मर्म की बात कहीं थी। जिसके हाथों में लाखों एकड़ भूमि आयी हो, उसके हाथ में एक कण भी चिपका न रहे, इससे बड़ा त्याग और क्या हो सकता है। | ||
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Latest revision as of 10:53, 13 January 2015
मर्म की बात -विनोबा भावे
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विवरण | विनोबा भावे |
भाषा | हिंदी |
देश | भारत |
मूल शीर्षक | प्रेरक प्रसंग |
उप शीर्षक | विनोबा भावे के प्रेरक प्रसंग |
संकलनकर्ता | अशोक कुमार शुक्ला |
बात उस समय की है जब विनोबा भावे गांव गांव घूमकर भूदान यज्ञ के लिये भूमि एकत्र कर रहे थे। उनके पास क्या था? न धन, न कोई बाहरी सत्ता; पर सेवा के जोर पर उन्होंने करोड़ों लोगों के दिलों में अपना घर बना लिया। उन्हें चालीस लाख एकड़ से उपर जमीन मिली।
सैकड़ों गाँव ग्रामदान में मिले ओर जीवनदानियों की उनकी पास फौज़ इकट्ठी हो गयी। दरअसल उनके दिल में कोई स्वार्थ न था। ऐसे आदमी को अपने काम में सफलता मिलनी ही थी। वह हज़ारों मील पैदल चले। जाड़ों में चले, गर्मियों में चले, वर्षा में चले, धूप में चले।
सेवा के आनन्द में लीन विनोबा चलते रहे, चलते रहे। देश का कोई भी कोना उन्होंने नहीं छोड़ा। एक दिन विनोबा भावे को बहुत-सी जमीन मिली थी। जब उन्हें दिनभर का हिसाब बताया गया तो वह मुस्कराने लगे। बोले,
"आज इतनी जमीन हाथ में आयी है, लेकिन देखों, कहीं हाथ में मिट्टी चिपकी तो नहीं!"
दरअसल उन्होंने बड़े मर्म की बात कहीं थी। जिसके हाथों में लाखों एकड़ भूमि आयी हो, उसके हाथ में एक कण भी चिपका न रहे, इससे बड़ा त्याग और क्या हो सकता है।
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