श्रीमद्भागवत माहात्म्य अध्याय 1 श्लोक 1-12: Difference between revisions
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सूतजी ने कहा—भगवान नारायण, नरोत्तम नर, देवी सरस्वती और महर्षि व्यास को नमस्कार करके शुद्धचित्त होकर भगवततत्व को प्रकाशित करने वाले इतिहास पुराण रूप ‘जय’ का उच्चारण करना चाहिये । | सूतजी ने कहा—भगवान नारायण, नरोत्तम नर, देवी सरस्वती और महर्षि व्यास को नमस्कार करके शुद्धचित्त होकर भगवततत्व को प्रकाशित करने वाले इतिहास पुराण रूप ‘जय’ का उच्चारण करना चाहिये । | ||
शौनकादि ब्रम्हर्षियों! जब धर्मराज युधिष्ठिर आदि पाण्डवगण स्वर्गारोहण के लिये हिमालय चले गये, तब सम्राट् परीक्षित् एक दिन मथुरा गये। उनकी इस यात्रा का उद्देश्य इतना ही था कि वहाँ चलकर वज्रनाभ से मिल-जुल आयें । | शौनकादि ब्रम्हर्षियों! जब धर्मराज युधिष्ठिर आदि पाण्डवगण स्वर्गारोहण के लिये हिमालय चले गये, तब सम्राट् परीक्षित् एक दिन मथुरा गये। उनकी इस यात्रा का उद्देश्य इतना ही था कि वहाँ चलकर वज्रनाभ से मिल-जुल आयें । | ||
जब वज्रनाभ को यह समाचार मालूम हुआ कि मेरे पितातुल्य परीक्षित् मुझसे मिलने के लिये आ रहे हैं, तब उनका | जब वज्रनाभ को यह समाचार मालूम हुआ कि मेरे पितातुल्य परीक्षित् मुझसे मिलने के लिये आ रहे हैं, तब उनका हृदय प्रेम से भर गया। उन्होंने नगर से आगे बढ़कर उनकी अगवानी की, चरणों में प्रणाम किया और बड़े प्रेम से उन्हें अपने महल में ले आये । वीर परीक्षित् भगवान श्रीकृष्ण के परम प्रेमी भक्त थे। उनका मन नित्य-निरन्तर आनन्दघन श्रीकृष्णचन्द्र में ही रमता रहता था। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ का बड़े प्रेम से आलिंगन किया। इसके बाद अन्तःपुर जाकर भगवान श्रीकृष्ण की रोहिणी आदि पत्नियों को नमस्कार किया । रोहिणी आदि श्रीकृष्ण-पत्नियो ने भी सम्राट् परीक्षित् का अत्यन्त सम्मान किया। वे विश्राम करके जब आराम से बैठ गये, तब उन्होंने वज्रनाभ से यह बात कही । | ||
राजा परीक्षित् ने कहा—‘हे तात! तुम्हारे पिता और पितामहों ने मेरे पिता-पितामह को बड़े-बड़े संकटों से बचाया है। मेरी रक्षा भी उन्होंने ही की है । प्रिय वज्रनाभ! यदि मैं उनके उपकारों का बदला चुकाना चाहूँ तो किसी प्रकार नहीं चुका सकता। इसलिये मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ कि तुम सुखपूर्वक अपने राजकाज में लगे रहो । | राजा परीक्षित् ने कहा—‘हे तात! तुम्हारे पिता और पितामहों ने मेरे पिता-पितामह को बड़े-बड़े संकटों से बचाया है। मेरी रक्षा भी उन्होंने ही की है । प्रिय वज्रनाभ! यदि मैं उनके उपकारों का बदला चुकाना चाहूँ तो किसी प्रकार नहीं चुका सकता। इसलिये मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ कि तुम सुखपूर्वक अपने राजकाज में लगे रहो । | ||
तुम्हें अपने खजाने की, सेना की तथा शत्रुओं को दबाने आदि की तनिक भी चिन्ता न करनी चाहिये। तुम्हारे लिये कोई कर्तव्य है तो केवल एक ही; वह यह है कि तुम्हें अपनी इन माताओं की खूब प्रेम से भलीभाँति सेवा करते रहना चाहिये । यदि कभी तुम्हारे ऊपर कोई आपत्ति-विपत्ति आये अथवा किसी कारणवश तुम्हारे | तुम्हें अपने खजाने की, सेना की तथा शत्रुओं को दबाने आदि की तनिक भी चिन्ता न करनी चाहिये। तुम्हारे लिये कोई कर्तव्य है तो केवल एक ही; वह यह है कि तुम्हें अपनी इन माताओं की खूब प्रेम से भलीभाँति सेवा करते रहना चाहिये । यदि कभी तुम्हारे ऊपर कोई आपत्ति-विपत्ति आये अथवा किसी कारणवश तुम्हारे हृदय में अधिक क्लेश का अनुभव हो तो मुझसे बताकर निश्चिन्त हो जाना; मैं तुम्हारी सारी चिन्ताएँ दूर कर दूँगा।’ सम्राट् परीक्षित् की यह बात सुनकर वज्रनाभ को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने राजा परीक्षित् से कहा— | ||
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प्रथम (1) अध्याय
परीक्षित् और वज्रनाभ का समागम, शाण्डिलजी के मुख से भगवान की लीला के रहस्य और व्रजभूमि के महत्व का वर्णन महर्षि व्यास कहते हैं—जिनका स्वरूप है सच्चिदानन्दघन, जो अपने सौन्दर्य और माधुर्यादि गुणों से सबका मन अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं और सदा-सर्वदा अनन्त सुख की वर्षा करते रहते हैं, जिनकी ही शक्ति से इस विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होते हैं—उन भगवान श्रीकृष्ण को हम भक्तिरस का अस्वादन करने के लिये नित्य-निरन्तर प्रणाम करते हैं । नैमिषारण्य क्षेत्र में श्रीसूतजी स्वस्थ चित्त से अपने आसन पर बैठे हुए थे। उस समय भगवान की अमृतमयी लीला कथा के रसिक, उसके रसास्वादन में अत्यन्त कुशल शौनकादि ऋषियों ने सूतजी को प्रणाम करके उनसे यह प्रश्न किया । ऋषियों ने पूछा—सूतजी! धर्मराज युधिष्ठिर जब श्रीमथुरा मण्डल में अनिरुद्ध नन्दन वज्र का और हस्तिनापुर में अपने पौत्र परीक्षित् का राज्याभिषेक करके हिमालय पर चले गये, तब राजा वज्र और परीक्षित् ने कैसे-कैसे कौन-कौन-सा कार्य किया । सूतजी ने कहा—भगवान नारायण, नरोत्तम नर, देवी सरस्वती और महर्षि व्यास को नमस्कार करके शुद्धचित्त होकर भगवततत्व को प्रकाशित करने वाले इतिहास पुराण रूप ‘जय’ का उच्चारण करना चाहिये । शौनकादि ब्रम्हर्षियों! जब धर्मराज युधिष्ठिर आदि पाण्डवगण स्वर्गारोहण के लिये हिमालय चले गये, तब सम्राट् परीक्षित् एक दिन मथुरा गये। उनकी इस यात्रा का उद्देश्य इतना ही था कि वहाँ चलकर वज्रनाभ से मिल-जुल आयें । जब वज्रनाभ को यह समाचार मालूम हुआ कि मेरे पितातुल्य परीक्षित् मुझसे मिलने के लिये आ रहे हैं, तब उनका हृदय प्रेम से भर गया। उन्होंने नगर से आगे बढ़कर उनकी अगवानी की, चरणों में प्रणाम किया और बड़े प्रेम से उन्हें अपने महल में ले आये । वीर परीक्षित् भगवान श्रीकृष्ण के परम प्रेमी भक्त थे। उनका मन नित्य-निरन्तर आनन्दघन श्रीकृष्णचन्द्र में ही रमता रहता था। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ का बड़े प्रेम से आलिंगन किया। इसके बाद अन्तःपुर जाकर भगवान श्रीकृष्ण की रोहिणी आदि पत्नियों को नमस्कार किया । रोहिणी आदि श्रीकृष्ण-पत्नियो ने भी सम्राट् परीक्षित् का अत्यन्त सम्मान किया। वे विश्राम करके जब आराम से बैठ गये, तब उन्होंने वज्रनाभ से यह बात कही । राजा परीक्षित् ने कहा—‘हे तात! तुम्हारे पिता और पितामहों ने मेरे पिता-पितामह को बड़े-बड़े संकटों से बचाया है। मेरी रक्षा भी उन्होंने ही की है । प्रिय वज्रनाभ! यदि मैं उनके उपकारों का बदला चुकाना चाहूँ तो किसी प्रकार नहीं चुका सकता। इसलिये मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ कि तुम सुखपूर्वक अपने राजकाज में लगे रहो । तुम्हें अपने खजाने की, सेना की तथा शत्रुओं को दबाने आदि की तनिक भी चिन्ता न करनी चाहिये। तुम्हारे लिये कोई कर्तव्य है तो केवल एक ही; वह यह है कि तुम्हें अपनी इन माताओं की खूब प्रेम से भलीभाँति सेवा करते रहना चाहिये । यदि कभी तुम्हारे ऊपर कोई आपत्ति-विपत्ति आये अथवा किसी कारणवश तुम्हारे हृदय में अधिक क्लेश का अनुभव हो तो मुझसे बताकर निश्चिन्त हो जाना; मैं तुम्हारी सारी चिन्ताएँ दूर कर दूँगा।’ सम्राट् परीक्षित् की यह बात सुनकर वज्रनाभ को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने राजा परीक्षित् से कहा—
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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