भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-94: Difference between revisions
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भागवत धर्म मिमांसा
3. माया-संतरण
विज्ञान के कारण दुनिया नजदीक आ रही है और इसीलिए अंतर्राष्ट्रीय झगड़े हो रहे हैं। उनका हल खोजलने के लिए मन के साथ चलेंगे तो झगड़े खतम नहीं होंगे, बल्कि दुनिया ही खतम हो जाएगी। ऐसे मसले मन को बाहर रखकर ही हल हो सकते हैं। दो देशों के नेता झगड़ा हल करने के लिए बैंठे, तो उन्हें उन देशों के हित की दृष्टि से सोचना पड़ेगा, व्यापक दृष्टि रखनी होगी, तभी काम बन सकता है। अपना-अपना आग्रह रखेंगे तो मसला हल न होगा। मन में जाति, धर्म, पंथ, पक्ष, राष्ट्र- ये सारी भावनाएँ भरी पड़ी है। ऐसा मन साथ लेकर जाएंगे तो मन के साथ ही मुलाकात होगी, मानव के साथ नहीं। परमार्थ में प्रवेश तो दूर ही रहा। इसलिए मन से अलग होने की बात कठिन होने पर भी हमें प्रथम उसी को साधना होगा। मन से अलग होने की यह बात बचपन से सिखानी चाहिए पुराने जमाने में बच्चा छह-सात साल का हो जाने पर उसे गुरु के घर भेजने का नियम ही था। यह मान लिया गया कि विद्या प्राप्ति के लिए कष्ट तो उठाना ही पड़ेगा। बच्चे को गुरु के घर भेजने का अर्थ है, उसे अपने घर से तोड़ना। देखने में इसमें कठोरता दीखती है, लेकिन माता-पिता और स्वयं बच्चे के लिए यही श्रेयस्कर है। माता-पिता की आसक्ति में बच्चा रहता है, तो वह दोनों के हित में नहीं। बच्चे को अपने मन के साथ असंग करना ही पड़ेगा। एक पिता की कहानी है। उन्होंने अपने बच्चे को हमारे आश्रम में रखा। आश्रम में खाना-पीना तो बहुत ही सादा होता था। दीपावली आयी, तो पिता ने मुझे पत्र लिखा : ‘इस साल दीपावली में हम मिठाई आदि नहीं बनायेंगे, क्योंकि हमारे बच्चे को आश्रम में मिठाई मिलने वाली नहीं है।’ वह पत्र मैंने बच्चे को पढ़कर बताया, तो उसे हिम्मत आयी। ऐसा ही होना चाहिए। बच्चा जैसा जीवन जी रहा है, उससे कठिन जीवन बच्चे के माता-पिता को जीना होगा, तभी बच्चे में हिम्मत आएगी। हमारे घर की ही बात है। घर में हम पाँच-छह लोग थे। यदि कोई लड़का बीमार पड़ता और डॉक्टर उसे दाल न खाने के लिए कहता, तो पिताजी घर में दाल बनने ही नहीं देते थे। जब तक लड़का दाल नहीं खा सकता, तब तक घर में दाल बनती ही न थी। माता-पिता यदि दाल खा रहे हों, तो बच्चे से उसका संयम नहीं सधेगा, उसमें हिम्मत नहीं आयेगी।
मतलब यह कि मन से अलग होने की बात बचपन से ही सिखानी चाहिए। यदि यह न सधेगी तो सत्संगति का लाभ नहीं मिलेगा। मैंने ऐसे कई उदाहरण देखे हैं, जिन्हें सत्संगति पची नहीं, क्योंकि वे अंदर से बाहर थे और ब्रह्मरूप में सत्संगति करते थे। फिर नंबर 2 में जो गुण बताया है वह कुछ सरल है। संगं च साधुषु- सज्जनों की संगति। पहले मन की असंगति और फिर सज्जनों की संगति। कहना यह चाहते हैं कि मन लेकर सज्जनों की संगति में जाएंगे, तो उस संगति से लाभ नहीं होगा। यही होगा कि पत्थर सदैव नदी में पड़ा रहा, पर भींगा नहीं। फिर कहते हैं कि आप समाज में रहेंगे, तो समाज के साथ व्यवहार कैसा करेंगे? अतः समाज के साथ व्यवहार करने की तीन वृत्तियाँ बतायी गयीं : दयां मैत्रीं प्रश्रयं च- किसी के प्रति दया, किसी के साथ मैत्री, तो किसी के प्रति आदर। लोगों के साथ व्यवहार में इन तीन प्रकार की वृत्तियों में से जो उचित हो, अपनानी चाहिए। जो लोग हमसे नीचे हैं, उनके लिए सामान्यतः तिरस्कार होता है। उनके लिए ‘दयाभाव’ हो। जो अपनी बराबरी के हैं, साथी हैं, उनके लिए स्पर्धा रहती है। उनके साथ ‘मैत्री’ होनी चाहिए। जो लोग हमसे आगे बढ़ चुके हैं, उनके लिए मत्सर होता है। उनके लिए ‘प्रश्रय’ यानी आदर होना चाहिए। भागवत समाज को तीन हिस्सों में बाँटकर कहती है कि तीनों के साथ तीन प्रकार के व्यवहार होने चाहिए। मन से अलग हो जाएं, सज्जनों की संगति में रहा करें और दया-मैत्री-आदर की भावनाओं से समाज में काम करें- यह एक सर्वसाधारण नीति-विधान (कम्प्लीट कोड ऑफ कांडक्ट) बता दिया। इसके आगे और गुण बताते हैं :
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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