भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-102: Difference between revisions
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भगवान् कह रहे हैं कि ये सारे जीव मेरे ही अंश हैं और वे सभी एक ही अंश हैं, अलग-अलग नहीं हैं –एकस्यैव ममांशस्य जीवस्यैव महामते। लेकिन यह मानेगा कौन? किसी का चित्त साफ है, तो किसी का नहीं। उसकी आत्मा ढँकी | भगवान् कह रहे हैं कि ये सारे जीव मेरे ही अंश हैं और वे सभी एक ही अंश हैं, अलग-अलग नहीं हैं –एकस्यैव ममांशस्य जीवस्यैव महामते। लेकिन यह मानेगा कौन? किसी का चित्त साफ है, तो किसी का नहीं। उसकी आत्मा ढँकी हुई है। यानी ढँका हुआ-सा लगता है – विकारों के कारण। चित्त को साफ करना ही मुख्य जीवन-साधना है। लालटेन का काँच साफ न हो तो अन्दर की ज्योति का प्रकाश नहीं मिलता। काँच साफ रहता है तो प्रकाश मिलता है। इसी तरह आत्म-प्रकाश तब प्रकट होगा जब चित्त साफ होगा। मनुष्य चाहे कितना भी विद्वान् हो, विद्या-अविद्या तो उसे बन्धन और मोक्ष में डालती ही हैं। | ||
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भागवत धर्म मिमांसा
4. बुद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक
(11.3) विद्याविद्ये मम तनू विद्धयुद्धव! शरीरिणाम्।
मोक्षबंधकरी आद्ये मायमा में विनिर्मिते।।[1]
विद्या और अविद्या मेरे दो रूप हैं। विद्या है जानना और अविद्या है, न जानना। जो कुछ फरक पड़ता है, वह जानने से या न जानने से पड़ता है, वस्तुस्थिति के कारण नहीं। किसी पिता का एक बेटा अमेरिका गया था। वहाँ वह मर गया। छह महीने बाद उसके मरने की खबर पिता के पास आयी। तब तक पिता आनन्द में था। समझता था कि लड़का अमेरिका में मजे में है, लेकिन लड़का तो मर चुका था। यदि वह जानता कि लड़का मर गया, तो उसे दुःख होता। मतलब, दुःख मृत्यु के ज्ञान से होता है। दूसरी एक मिसाल। लड़का अमेरिका में था और बाप इधर, हिन्दुस्तान में। एक दिन अमेरिका से तार आया कि लड़का मर गया। बाप दुःख करने लगा। वास्तव में लड़का मरा नहीं था, किसी गलती के कारण उस तरह का तार आ गया था। मतलब, लड़का मर गया, यह जानने के कारण पिता को दुःख हुआ। यह विद्या का लक्षण है। यदि मृत्यु के कारण दुःख होता तो उधर लड़का मरते ही इधर बाप को दुःख होना चाहिए था। पर जानने के बाद दुःख हुआ। इसलिए स्पष्ट है कि विद्या और अविद्या के कारण ही सुख-दुःख हुआ करते हैं। फिर ये दोनों प्राणियों को बन्धन और मोक्ष में डालते हैं। यदि आप इन्हें पहचान लेते हैं, तो आपका इनसे छुटकारा हो सकता है। नहीं तो विद्या के कारण मोक्ष और अविद्या के कारण बन्धन में पड़ेगा। वास्तविक आनन्द इसी में है कि ‘मैं हूँ।’ अस्तित्व का हो आनन्द है। उसी को ‘सच्चिदानन्द’ कहते हैं। आद्ये मायया मे विनिर्मिते –माया पुराने जमाने से चली आयी है। दस हजार साल का अन्धेरा क्या कभी एकदम खत्म हो सकता है? फिर भी यदि आप वहाँ दीपक लाते हैं तो उसी क्षण वह खतम हो सकता है, चाहे कितना ही पुराना क्यों न हो। कारण अन्धेरे का अपना अस्तित्व ही नहीं है। वह नाचीज है। लेकिन अन्धेरा कोई चीज नहीं, इसलिए दीपक के बिना जाएँगे तो पत्थर से ठोकर लगेगी। विद्या और अविद्या पुरातनकाल से चली आ रही हैं। जैसा सनातन धर्म होता है, वैसा ही सनातन अधर्म भी होता है। एक है जानने के कारण, तो दूसरा है न जानने के कारण। ज्ञान और अज्ञान केवल बोलने की ही बात है। आत्मा को वह चीज लागू नहीं होती। भगवान् कहना चाहते हैं कि ये ज्ञान और अज्ञान दोनों मिथ्या हैं। एक ज्ञानी है, एक बेवकूफ। एक शेर है तो एक गाय। चारों सो गये तो सभी समान हैं। यदि ज्ञान सही है, तो वह निद्रा में क्यों नहीं टिक पाता? अतः जैसे अज्ञान मिथ्या, वैसे ज्ञान भी मिथ्या है। इसलिए भगवान् कह रहे हैं कि बन्धन, मोक्ष, विद्या, अविद्या ये सारे मिथ्या हैं, माया से निर्मित हैं।
(11.4) एकस्यैव ममांशस्य जीवस्यैव महामते!
बंधोऽस्याविद्ययानादिर् विद्यया च तथेतरः।।[2]
भगवान् कह रहे हैं कि ये सारे जीव मेरे ही अंश हैं और वे सभी एक ही अंश हैं, अलग-अलग नहीं हैं –एकस्यैव ममांशस्य जीवस्यैव महामते। लेकिन यह मानेगा कौन? किसी का चित्त साफ है, तो किसी का नहीं। उसकी आत्मा ढँकी हुई है। यानी ढँका हुआ-सा लगता है – विकारों के कारण। चित्त को साफ करना ही मुख्य जीवन-साधना है। लालटेन का काँच साफ न हो तो अन्दर की ज्योति का प्रकाश नहीं मिलता। काँच साफ रहता है तो प्रकाश मिलता है। इसी तरह आत्म-प्रकाश तब प्रकट होगा जब चित्त साफ होगा। मनुष्य चाहे कितना भी विद्वान् हो, विद्या-अविद्या तो उसे बन्धन और मोक्ष में डालती ही हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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