भगवद्गीता -राधाकृष्णन भाग-8: Difference between revisions
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जीव और परमात्मा को शाश्वत रूप से एक-दूसरे से पृथक् माना जाना चाहिए, और उन दोनों में आंशिक या पूर्ण एकता का किसी प्रकार समर्थन नहीं किया जा सकता। ‘वह तू है’ इस प्रसंग की व्याख्या वह यह अर्थ बताकर करता है कि हमें मेरे और तेरे के भेदभाव को त्याग देना चाहिए और यह समझना चाहिए कि प्रत्येक वस्तु भगवान् के नियन्त्रण के अधीन है।[1] माध्व का मत है कि गीता में भक्ति-पद्धति पर बल दिया गया है। निम्बार्क (ईसवी सन् 1162) ने द्वैताद्वैत के सिद्धान्त को अपनाया है। उसने ‘ब्रह्मसूत्र’ पर भी टीका लिखी और उसके शिष्य केशव कश्मीरी ने गीता पर एक टीका लिखी, जिसका नाम ‘तत्त्वप्रकाशिका’ है। निम्बार्क का मत है कि आत्मा (जीव), संसार (जगत्) और परमात्मा एक-दूसरे से भिन्न हैं। फिर भी आत्मा और संसार का अस्तित्व और गतिविधि परमात्मा की इच्छा पर निर्भर है। निम्बार्क की रचनाओं का मुख्य वण्र्य-विषय भगवान् की भक्ति है। वल्लभाचार्य (ईसवी सन् 1479) ने उस मत का विकास किया, जिसे शुद्धाद्वैत कहा जाता है। जीव, जब वह शुद्ध अवस्था में होता है और माया द्वारा अन्धा हुआ नहीं रहता, और पर ब्रह्म एक ही वस्तु हैं। आत्माएं ईश्वर का ही अंश हैं, जैसे चिनगारियां अग्नि का अंश होती हैं, और वे भगवान् की कृपा के बिना मुक्ति पाने के लिए आवश्यक ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकती। मुक्ति पाने का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन भगवान् की भक्ति है। भक्ति प्रेम मिश्रित धर्म है।[2] गीता पर और भी अनेक टीकाकारों ने, और हमारे अपने समय मे बालगंगाधर तिलक और श्री अरविन्द ने भी टीकाएं लिखी हैं। गीता पर गांधी जी के अपने अलग विचार हैं। सामान्यतया यह माना जाता है कि व्याख्याओं में अन्तर व्याख्याकार द्वारा अपनाए गए दृष्टिकोण के कारण है। हिन्दू परम्परा का यह विश्वास है कि ये विभिन्न दृष्टिकोण एक-दूसरे के पूरक हैं। भारतीय दर्शनशास्त्र की प्रणालियां भी अलग-अलग दृष्टिकोण या दर्शन ही हैं, जो एक-दूसरे के पूरक हैं और विरोधी नहीं। भागवत में कहा गया है कि ऋषियों ने मूल तत्त्वों का ही वर्णन अनेक रूपों में किया है।[3] एक लोकप्रिय श्लोक में, जो हनुमान रचित माना जाता है, कहा गया हैः “शरीर के दृष्टिकोण से मैं तेरा सेवक हूँ, जीव के दृष्टिकोण से मैं तेरा अंग हूँ और आत्मा के दृष्टिकोण से मैं स्वयं तू ही हूँ:, यह मेरा दृढ़ विश्वास है।”[4] परमात्मा का अनुभव उस स्तर के अनुसार ‘तू’ यह ‘मैं’ के रूप में होता है, जिसमें कि चेतना केन्द्रित रहती है।
आत्मबुद्धया त्वमेवाहमिति मे निश्चिता मतिः।।
(चतुर्थ पाद में पाठभेद हैः ‘इति वेदान्तडिण्डिमः’ – अनुवादक।) साथ ही देख्एि आनन्दगिरि का ‘शंकरदिग्विजय’।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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