छोटी थी -चित्रा देसाई: Difference between revisions

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Revision as of 12:10, 17 January 2013

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छोटी थी
तो ज़िद करती थी
फ़्रॉक के लिए,
मेले में जाने
और खिलोंनों के लिए।
खीर पूरी खाने के लिए
नानी की गोदी में सोने के लिए।
थोड़ी बड़ी हुई ...
तो स्कूल के लिए,
नई तख़्ती और
क़लम दवात के लिए।
थोड़ी और बड़ी हुई ...
तो धीरे से मेरे कानों में कहा ...
अब ज़िद करना छोड़ दो।
नानी की दुलारी थी
सो बात मान ली
ज़िद करना छोड़ दिया।
... और धीरे धीरे
मुझे पता ही नहीं चला
कब मेरी ज़मीन पर
दूसरों के गांव बसने लगे।
अनजान लोगों की ज़िद मानने लगी ...
पर आज अचानक भीड़ देखी
तो उस बच्ची की ज़िद याद आई।
बंद संदूक से
अपने ज़िद्दीपन को निकाला,
मनुहार किया अपना ही ...
सुनो!
अपने आह्वाहन में ...
मेरा भी मन जोड़ लो।
आओ इतनी ज़िद करें
कि छत और दीवार ही नहीं
नींव और ज़मीन भी हिल जाऐं ...
बंद कोठरी से
सबका ज़िद्दी मन निकालें,
खुले मैदानों में फैल जाऐं
अपने आसमान के लिए
सुनसान सड़कों पर
हवा से बह जाऐं।
आओ ...
आज पूरे ज़िद्दी बन जाऐं।

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