User talk:दिनेश सिंह: Difference between revisions
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Dinesh Singh (talk | contribs) (→एक सलोने से सपने में कोई------------दिनेश सिंह: नया विभाग) |
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आँखों के सम्मुख रहो सदा जो - | आँखों के सम्मुख रहो सदा जो - | ||
औ प्रीति रहे उर में चिरमय | औ प्रीति रहे उर में चिरमय | ||
== एक सलोने से सपने में कोई------------दिनेश सिंह == | |||
एक सलोने से सपने में कोई - | |||
नीदों में दस्तक दे जाती है - | |||
इन्द्रधनुष सा शतरंगी - | |||
स्वप्न को रंगीत कर जाती है | |||
अद्रशित सी कोई डोर - | |||
खीच रही है अपनी ओर - | |||
खीचा जाऊं हो आत्मविभोर - | |||
रूपसी कौन कौन चित चोर - | |||
अधरों में मुस्कान लिए - | |||
मुख पर शशी की जोत्स्रना - | |||
द्रगो में लाज-मुग्ध-यौवन विद्यमान - | |||
तेज रवि सा मुख-छबि-में रुचिमान | |||
आखों का फैलाये तिछर्ण जाल - | |||
फंसाकर मेरा खग अनजान चली - | |||
जैसे नभ में छायी बदली- | |||
पवन के झोंके उड़ा चली |
Revision as of 12:38, 18 October 2013
फिर लिखने लगा खीच खीचकर - कल्पित जीवन की रेखा - वही कल्पना खग_पुष्पों की - वही व्यथा मन रोदन की
जब नहीं शब्द ज्ञान मुझे - तो क्यों फैलाता शब्द जाल - बिन उपमा बिन अलंकार - फिर कौन कहेगा काव्यकार
कुछ रस तो लावो तुम - अपनी ललित कलित कविताओं में - कुछ काव्य सुगन्धित फैलावो - इन बहती काव्य हवाओं में
कुछ काव्य लिखो सु-मधुर सु-राग - छवि प्रतिबिम्बित हो उत्तम सन्देश - ले बहे समीरण उस दिशि में - हो जहाँ जहाँ वर्जित प्रदेश
जरा नजर काव्य की घुमाँ वहां - जो विचरण करता अन्धकार में - जो ढूंढ़ रहा है एक कण प्रकाश - जो भटक रहा निर्जन बन में
नहीं जिनको सुख दुःख का विषाद - दुःख ही बना गया हर्षोउल्लाश - रोये अन्तःकरण भीगि पलक - क्या ऋतू वर्षा क्या ऋतू तुषार
हर नई भोर बस एक सवाल - क्या भूंख मीटेगी फिर एक बार - फिर उड़ा परिंदा दाने को - औ बच्चे करते इन्तजार
स्वाभिमान से जीना उनको - कठिन हो गया अब जग में - बंद मुट्ठियाँ साहूकार की - चित्त हथेली याचक की
जिनके जीवन का सूनापन - कभी एक पल कम न हुवा - वही कार्य प्रणाली आदिकाल की - दयनीय बनी हुई जीवन शैली
मन की व्यथा====दिनेश सिंह ==
मन की व्यथा -------दिनेश सिंह
कितना सुंदर होता की हम - एक सिर्फ इन्सां होते - न जाती पाती के लिए जगह - न धर्मो के बंधन होते
शोर मचा है धर्म धर्म का - कौम कौम का लगता नारा - इस चलती कौमी बयारी में - उन्मय उन्मय जन मानस सारा
जो घूम रहा था शहर शहर - पहुँच रहा अब गाँव गाँव में - वो कौम बयारी जहर घोलते - महकती स्वच्छ हवाओं में
क्या सुलझेंगी ये मानस की गांठे घनेरी - क्या रोशन होंगी ये गलियाँ अंधेरी - क्यों बुझ जाती है गूंज आखिरी - इस उन्मन उन्मन पथ के ऊपर
प्रथम द्रश्य देखा जब तुमको---------------दिनेश सिंह
प्रथम द्रश्य देखा जब तुमको - था ऋतू बसंत फूलों का उपवन - छुई मुई के तरु सी लज्जित - नयनो का वो मौन मिलन
कम्पित अधरों से वो कहना - नख से धरा कुदॆर रही थी - आँखों मे मादकता चितवन - साँसों का मिलता स्पंदन
भटक रहा था एकाकी पथ पर - पथ पाया-जब मिला साथ तुम्हारा - ह्रदय शुन्य था उत्सर्ग मौन - खिल उठा पाकर स्पर्श तुम्हारा .
ह्रदय के गहरे अन्धकार में - मन डूबा था विरह व्यथा में - छूकर अपने सौन्दर्य ज्योति से - फैलाया उर में प्रकाश यौवन
कितने सुख दुःख जीवन में हो - नहीं मृत्यु से किंचित भय - आँखों के सम्मुख रहो सदा जो - औ प्रीति रहे उर में चिरमय
एक सलोने से सपने में कोई------------दिनेश सिंह
एक सलोने से सपने में कोई - नीदों में दस्तक दे जाती है - इन्द्रधनुष सा शतरंगी - स्वप्न को रंगीत कर जाती है
अद्रशित सी कोई डोर - खीच रही है अपनी ओर - खीचा जाऊं हो आत्मविभोर - रूपसी कौन कौन चित चोर -
अधरों में मुस्कान लिए - मुख पर शशी की जोत्स्रना - द्रगो में लाज-मुग्ध-यौवन विद्यमान - तेज रवि सा मुख-छबि-में रुचिमान
आखों का फैलाये तिछर्ण जाल - फंसाकर मेरा खग अनजान चली - जैसे नभ में छायी बदली- पवन के झोंके उड़ा चली