मै और कविता -दिनेश सिंह: Difference between revisions

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वो मेरी कविता तुम आकर
मेरे नभ पर दीप जला दो
मेरे धमनी के कम्पन को
प्रेम भरा एक गीत सीखा दो

वो सुंदरता की चिर सुकमारी
मै प्रेमयी गान कहाँ से लायूँ
वो तरुणी अलबेली कविता
जिससे तेरे हिय को भायूँ

कभी पास जब तुम आती हो
आती हो कितनी व्यथा छिपाये
इस प्रेम भरी धमनी की धधकन
क्या ये तुमको कभी ना भाये

धवल चाँदनी में विलीन
तुम लहराती नभ संसृति में
यौवन बिखरते है देखा
तुमको अवनि के प्रान्तर में

पर मेरे प्रान्तर में तुमको
कुछ भी आता रास नहीं
मै चिर प्रेमी युगांतर का
पर तुमको आभास नहीं

घिरकर सकल व्यथावों में
होती है अपनी मिलन रात
कभी स्वप्न में ही आकर
कर जावो मुझसे मधुर बात

अगर कहो तुम सम्मुख तेरे
दुःख का पारावार मै रख दूँ
व्यथित शब्द का जगत उठाकर
मै इन तेरे चरणो में रख दूँ

पर प्रेम भरे कुछ शब्दों को
तुम आ मेरे हिय में जगा दो
और, हृदय को स्पर्श करके
प्रेम की परिभाषा सीखा दो

कब मेरे व्यथित उर को
प्रेम आलिंगन करोगी
आ मेरे हिय में समा जा
सोंचता हूँ कब कहोगी

मेरे हृदय के सिन्धुं की
एक उठती लहर हो तुम
मेरे सघन बन में खिली
विकसी कलि की कुसुम हो तुम

एक तुम मेरी कविता नहीं
मेरे गगन की चाँदनी हो
शिथिल नभ की बाँह में जो
खोयी हुयी वो यामिनी हो

पर क्या तेरे अमर प्रेम की
उस अमर विभा को पाऊँगा
जहाँ सारी व्यथा भसम करके
तेरे संग मोद मनाऊंगा

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