भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-118: Difference between revisions
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भागवत धर्म मिमांसा
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति
(19.6) आदौ अंते च मध्ये च सृज्यात् सृज्यं यदन्वियात् ।
पुनस् तत्प्रतिसंक्रामे यत् शिष्येत तदेव सत् ।।[1]
ज्ञान-विज्ञान तो वह है, जिससे सत्य की पहचान हो। बुद्धि से समझना ‘ज्ञान’ है और हृदय से अनुभव करना ‘विज्ञान’। यहाँ भगवान् सत्य की व्याख्या कर रहे हैं। वही सत्य है, जिसमें सृजन (क्रिएटिव) शक्ति है। आदौ सृज्यात् –शुरू में पैदा करता है। वास्तव में उसकी जो शक्ति है, वह पैदा करती है। लेकिन पैदा करके वह उससे अलग नहीं रहता। उससे अनुगत होता है यानी अंदर दाखिल हो जाता है, प्रविष्ट होता है। सूत कपड़े के अंदर दीख पड़ता है, लेकिन बुनकर नहीं। घड़े में मिट्टी का दर्शन होता है, पर कुम्हार का नहीं। यानी वस्तु में कर्ता का दर्शन नहीं होता। लेकिन जो सत्य है, वह चीज बनाता है और उसमें स्वयं दाखिल होता है और चीज का लय होने पर भी स्वयं कायम रहता है। अब सत्य की व्याख्या के मूल में जो चीज है, उसकी व्याख्या करें। एक बार यह सवाल मुझसे पूछा गया कि सत्य क्या है? मैंने कहा :‘सत्य यानी खजूर।’ पूछनेवाले ने कहा :‘नहीं।’ मैंने कहा :‘सत्य यानी शक्कर।’ उसे लगा कि मैं मजाक कर रहा हूँ। तब मैंने उससे कहा :‘यदि आप इसे सही नहीं मानते, तो आप जानते हैं कि क्या कहने पर आपका समाधान होगा। इसका मतलब है कि सत्य क्या है, यह आप जानते हैं।’ वास्तव में सत्य ऐसी चीज है, जिसकी व्याख्या करना मुश्किल है। सत्य चीज को पैदा करेगा, उसमें अनुगत यानी प्रविष्ट होगा और चीज के लय होने पर भी शेष रहेगा। यानी उसकी घुसपैठ होती है, ‘अनुप्रविष्ट हुआ’ कहते हैं। लेकिन ‘अनुगत’ शब्द ही अच्छा है। किसी का पिता मर गया, तो हम समझते हैं कि ‘उसका पिता गया।’ लेकिन यह सत्य नहीं। ध्यान में आना चाहिए कि मरने पर भी वह है। तभी हमने सत् को पहचाना। सत् अनुगत है, मृत्यु पर भी कायम है, यह ध्यान में रखें। सत्य को पहचानने के लिए साधन क्या है?इसे ‘प्रमाण-परीक्षा’ कहते हैं। बहुत से दर्शन इसी में लगे हुए हैं। उसके लिए विवाद भी होते हैं, लेकिन निर्णय नहीं हो पाता; क्योंकि एक ही भाषा सब कोई नहीं जानते। कोई मुझसे पूछता है :‘ईश्वर यानी क्या?’ तो मैं कहता हूँ :“आप क्या समझते हैं? यदि उसे जानते हों तो पूछने की आवश्यकता ही नहीं। मैं समझता हूँ ईश्वर यानी आम!” वह समझेगा कि मैं मजाक कर रहा हूँ। लेकिन बात यह है कि जिसे आप ईश्वर मानते हैं, उसी को मैं भी ईश्वर मानूँ, यह हो नहीं सकता। यह ठीक है कि शक्कर कहने से एक समान समझ (कामन अंडरस्टैंडिंग) हो जाती है। वैसे ही मीठा कहने से समान समझ होती है। लेकिन ‘आप ईश्वर किसे कहते हैं? उसके लिए प्रमाण चाहिए। यदि प्रमाण नहीं है, तो प्रमेय कैसे सिद्ध होगा?’ इस तरह वाद-विवाद चलते रहते हैं। ये प्रमाण चार माने गये हैं, जिनका विवरण अगले श्लोक में है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11.19.16
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