भगवद्गीता -राधाकृष्णन भाग-9: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
 
m (1 अवतरण)
 
(No difference)

Latest revision as of 13:17, 2 September 2015

4.सर्वोच्च वास्तविकता

अपनी आधिविद्यक स्थिति (अभिमत) के समर्थन में गीता मे कोई युक्तियां प्रस्तुत नहीं की गई। भगवान् की वास्तविकता ऐसा प्रश्न नहीं है, जिसे ऐसी तर्क-प्रणाली द्वारा हल किया जा सके, जिसे मानव-जाति का विशाल बहुमत समझ पाने में असमर्थ रहेगा। तर्क अपने-आप, किसी व्यक्तिगत अनुभव के निर्देश के बिना हमें विश्वास नहीं दिला सकता। आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में प्रमाण केवल आत्मिक अनुभव से प्राप्त हो सकता है।
उपनिषदों में पर ब्रह्म की वास्तविकता की बात ज़ोर देकर कही गई है। यह परब्रह्म अद्वितीय है। उसमें कोई गुण या विशेषताएं नहीं हैं। यह मनुष्य की गूढ़तम आत्मा के साथ तद्रूप है। आध्यात्मिक अनुभव एक सर्वोच्च एकता के चारों ओर केन्द्रित रहता है, जो ज्ञाता और ज्ञेय के द्वैत पर विजय पा लेती है। इस अनुभव को पूरी तरह हृदयंगम कर पाने की असमर्थता का परिणाम यह होता है कि उसका वर्णन एक शुद्ध और निर्विशेष के रूप में किया जाता है। ब्रह्म स्वतन्त्र सत्ता के रूप में विद्यमान निर्विशेषता है। वह अन्तः स्फुरणा में, जो कि उसका अपना अस्तित्व है, अपना विषय स्वयं ही होता है। यह वह विशुद्धकर्ता है, जिसके अस्तित्व को ब्रह्म या वस्तुरूपतामक जगत् में नहीं छोड़ा जा सकता। यदि ठीक-ठीक कहा जाए, तो हम ब्रह्म का किसी प्रकार वर्णन नहीं कर सकते। कठोर चुप्पी ही वह एकमात्र उपाय है, जिसके द्वारा हम अपने अटकते हुए वर्णनों और अपूर्ण प्रमापों की अपर्याप्तता को प्रकट कर सकते हैं।[1]


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. लाओत्से से तुलना कीजिएः “व ताओ, जिसे कोई नाम दिया जा सकता है, सच्चा ताओ नहीं है।” “निराकार की वास्तविकता और जिसका आकार है, उसकी अवास्तविकता सबको मालूम है।
    जो लोग ज्ञान-प्राप्ति के मार्ग पर चल रहे हैं, वे इन बातों की परवाह नहीं करते, परन्तु अन्य लोग इन चीज़ो पर वाद-विवाद करते हैं। ज्ञान-प्राप्ति का अर्थ है—विवाद न करना। वाद-विवाद करने का अर्थ है—ज्ञान की प्राप्ति न होना। प्रकट रूप में दीख पड़ने वाले ताओ का कोई वस्तुरूपतामक मूल्य नहीं हैः इसलिए बहस करने की अपेक्षा मौन रहना अधिक अच्छा है। इसे वाणी द्वारा प्रकट नहीं किया जा सकता; इसलिए यह अधिक अच्छा है कि कुछ कहा ही न जाए। यही महान् उपलब्धि कही जाती है।” सूटहिलः दि थ्रि रिलिजन्स ऑफ़ चाइना; दूसरा संस्करण (1923), पृ. 56-57। जब बुद्ध से ब्रह्म और निर्वाण की प्रकृति के सम्बन्ध में प्रश्न किया गया, तो उसने शान्त मौन धारण कर लिया। ईसा ने भी, जब उससे पौण्टियस पाइलेट ने सत्य की प्रकृति के विषय में प्रश्न किया था, तब इसी प्रकार की चुप्पी साध ली थी। प्लौटिनस से तुलना कीजिएः यदि कोई प्रकृति से यह पूछे कि वह उत्पादन क्यों करती है, तो यदि वह सुनने और बोलने को इच्छुक हो, तो वह यह उत्तर देगी कि तुम्हें यह बात पूछनी नहीं चाहिए, बल्कि मौन रहते हुए समझनी चाहिए। जैसे मैं मौन रहती हूँ; क्योंकि मुझे बोलने की आदत नहीं है।

संबंधित लेख

-