भगवद्गीता -राधाकृष्णन भाग-26: Difference between revisions

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<ref>7, 13। नारद पंचरात्र से तुलना कीजिएः “वह एक भगवान् सदा सबमें और प्रत्येक में रहता है। सब प्राणी उसके कर्म से ही उत्पन्न होते हैं, परन्तु वे उसकी माया द्वारा ठगे जाते है।” 2. 1, 22। महाभारत में कहा गया हैः “हे नारद, जो तुम देखते हो, वह माया है, जिसे मैंने उत्पन्न किया है। यह मत समझो कि मेरे रचे हुए संसार में जो गुण पाए जाते हैं, वे मुझमें विद्यमान हैं।” <poem>माया ह्मेषा मया सृष्टा यन्मा पश्यसि नारद।  सर्वभूतगुणैर्यक्तं नैव त्वं ज्ञातुमर्हसि।।</poem>  --शान्तिपर्व 339, 44</ref> माया की “शक्ति के कारण हमारे अन्दर एक भ्रमित करने वाली आंशिक चेतना आ जाती है, जो वास्तविकता को देखने में असमर्थ रहती है और दृश्य तत्त्व के जगत् में रहती है। परमात्मा का वास्तविक अस्तित्व प्रकृति की क्रीड़ा और इसके गुणों द्वारा आवृत्त हो जाता है। संसार को भ्रामक इसलिए कहा जाता है, क्योंकि परमात्मा अपने-आप को अपनी सृष्टि के पीछे छिपा लेता है। संसार अपने-आप में धोखा नहीं है, अपितु यह धोखे का निमित्त बन जाता है। वास्तविकता को जानने के लिए हमें सब रूपों को छिन्न-भिन्न करके आवरण के पीछे पहुँचना होगा। यह संसार और इसके परिवर्तन परमात्मा का तिरोधान (छिप जाना) बन जाते हैं या स्त्रष्टा को उसकी सृष्टि द्वारा धुंधला या अदर्शनीय कर देते हैं। मनुष्य की प्रवृत्ति अपने मन को स्त्रष्टा की और प्रेरित करने के बजाय संसार के विषयों की और झुकने की रहती है। परमात्मा एक महान् छलिया प्रतीत होता है, क्योंकि वह इस संसार को और इन्द्रियों के विषयों को उत्पन्न करता है और हमारी इन्द्रियों को बहिर्मुख कर देता है।<ref>कठोपनिषद्, 4, 1 </ref>अपने-आप को धोखा देने की प्रवृत्ति इन्द्रियों के विषयों को प्राप्त करने की इच्छा में निहित है। यह इच्छा वस्तुतः मनुष्य को परमात्मा से दूर ले जाती है। संसार की चमक-दमक हम पर अपना जादू फेर देती है और हम उससे प्राप्त होने वाले पुरस्कारों के दास बन जाते हैं। <br />
<ref>7, 13। नारद पंचरात्र से तुलना कीजिएः “वह एक भगवान् सदा सबमें और प्रत्येक में रहता है। सब प्राणी उसके कर्म से ही उत्पन्न होते हैं, परन्तु वे उसकी माया द्वारा ठगे जाते है।” 2. 1, 22। महाभारत में कहा गया हैः “हे नारद, जो तुम देखते हो, वह माया है, जिसे मैंने उत्पन्न किया है। यह मत समझो कि मेरे रचे हुए संसार में जो गुण पाए जाते हैं, वे मुझमें विद्यमान हैं।” <poem>माया ह्मेषा मया स्रष्टा यन्मा पश्यसि नारद।  सर्वभूतगुणैर्यक्तं नैव त्वं ज्ञातुमर्हसि।।</poem>  --शान्तिपर्व 339, 44</ref> माया की “शक्ति के कारण हमारे अन्दर एक भ्रमित करने वाली आंशिक चेतना आ जाती है, जो वास्तविकता को देखने में असमर्थ रहती है और दृश्य तत्त्व के जगत् में रहती है। परमात्मा का वास्तविक अस्तित्व प्रकृति की क्रीड़ा और इसके गुणों द्वारा आवृत्त हो जाता है। संसार को भ्रामक इसलिए कहा जाता है, क्योंकि परमात्मा अपने-आप को अपनी सृष्टि के पीछे छिपा लेता है। संसार अपने-आप में धोखा नहीं है, अपितु यह धोखे का निमित्त बन जाता है। वास्तविकता को जानने के लिए हमें सब रूपों को छिन्न-भिन्न करके आवरण के पीछे पहुँचना होगा। यह संसार और इसके परिवर्तन परमात्मा का तिरोधान (छिप जाना) बन जाते हैं या स्त्रष्टा को उसकी सृष्टि द्वारा धुंधला या अदर्शनीय कर देते हैं। मनुष्य की प्रवृत्ति अपने मन को स्त्रष्टा की और प्रेरित करने के बजाय संसार के विषयों की और झुकने की रहती है। परमात्मा एक महान् छलिया प्रतीत होता है, क्योंकि वह इस संसार को और इन्द्रियों के विषयों को उत्पन्न करता है और हमारी इन्द्रियों को बहिर्मुख कर देता है।<ref>कठोपनिषद्, 4, 1 </ref>अपने-आप को धोखा देने की प्रवृत्ति इन्द्रियों के विषयों को प्राप्त करने की इच्छा में निहित है। यह इच्छा वस्तुतः मनुष्य को परमात्मा से दूर ले जाती है। संसार की चमक-दमक हम पर अपना जादू फेर देती है और हम उससे प्राप्त होने वाले पुरस्कारों के दास बन जाते हैं। <br />
यह दुनिया वस्तु-रूपात्मक प्रकृति या संसार पतित, दास और विजातीय है और यह कष्टों से भरा हुआ है, क्योंकि आन्तरिक सत्ता से विजातीय बन जाना कष्ट है। जब यह कहा जाता है कि ‘मेरी इस दिव्य माया को जीतना बहुत कठिन है’ तो इसका अर्थ यह होता है कि हम संसार और उसकी गतिविधियों को आसानी से भेदकर उनके पीछे नहीं पहुँच सकते।<ref>7, 14; साथ ही देखिए ईशोपनिषद्, 16</ref> यहां पर हम उन विभिन्न अर्थो में अन्तर कर सकते हैं, जिनमें ‘माया’ शब्द का प्रयोग किया गया है, और गीता में इसका स्थान नियत कर सकते हैं। (1) यदि परम वास्तविकता संसार की घटनाओं से अप्रभावित रहती है, तो इन घटनाओं का होना एक ऐसा रहस्य बन जाता है, जिसकी व्याख्या हो ही नहीं सकती। गीता का लेखक ‘माया’ शब्द का प्रयोग इस अर्थ में नहीं करता, भले ही उसके विचार में यह अर्थ कितना ही निहित क्यों न रहा हो। एक आदिहीन और साथ ही अवास्तविक अविद्या की धारणा, जो इस सारे संसार की प्रकृति का कारण है, गीता के लेखक के मन में नहीं आई। (2) व्यक्तिक ईश्वर के सम्बन्ध में यह बताया गया है कि वह अपने सत् और असत् को मिलाता है।  
यह दुनिया वस्तु-रूपात्मक प्रकृति या संसार पतित, दास और विजातीय है और यह कष्टों से भरा हुआ है, क्योंकि आन्तरिक सत्ता से विजातीय बन जाना कष्ट है। जब यह कहा जाता है कि ‘मेरी इस दिव्य माया को जीतना बहुत कठिन है’ तो इसका अर्थ यह होता है कि हम संसार और उसकी गतिविधियों को आसानी से भेदकर उनके पीछे नहीं पहुँच सकते।<ref>7, 14; साथ ही देखिए ईशोपनिषद्, 16</ref> यहां पर हम उन विभिन्न अर्थो में अन्तर कर सकते हैं, जिनमें ‘माया’ शब्द का प्रयोग किया गया है, और गीता में इसका स्थान नियत कर सकते हैं। (1) यदि परम वास्तविकता संसार की घटनाओं से अप्रभावित रहती है, तो इन घटनाओं का होना एक ऐसा रहस्य बन जाता है, जिसकी व्याख्या हो ही नहीं सकती। गीता का लेखक ‘माया’ शब्द का प्रयोग इस अर्थ में नहीं करता, भले ही उसके विचार में यह अर्थ कितना ही निहित क्यों न रहा हो। एक आदिहीन और साथ ही अवास्तविक अविद्या की धारणा, जो इस सारे संसार की प्रकृति का कारण है, गीता के लेखक के मन में नहीं आई। (2) व्यक्तिक ईश्वर के सम्बन्ध में यह बताया गया है कि वह अपने सत् और असत् को मिलाता है।  



Latest revision as of 07:28, 7 November 2017

6.संसार की स्थिति और माया की धारणा

[1] माया की “शक्ति के कारण हमारे अन्दर एक भ्रमित करने वाली आंशिक चेतना आ जाती है, जो वास्तविकता को देखने में असमर्थ रहती है और दृश्य तत्त्व के जगत् में रहती है। परमात्मा का वास्तविक अस्तित्व प्रकृति की क्रीड़ा और इसके गुणों द्वारा आवृत्त हो जाता है। संसार को भ्रामक इसलिए कहा जाता है, क्योंकि परमात्मा अपने-आप को अपनी सृष्टि के पीछे छिपा लेता है। संसार अपने-आप में धोखा नहीं है, अपितु यह धोखे का निमित्त बन जाता है। वास्तविकता को जानने के लिए हमें सब रूपों को छिन्न-भिन्न करके आवरण के पीछे पहुँचना होगा। यह संसार और इसके परिवर्तन परमात्मा का तिरोधान (छिप जाना) बन जाते हैं या स्त्रष्टा को उसकी सृष्टि द्वारा धुंधला या अदर्शनीय कर देते हैं। मनुष्य की प्रवृत्ति अपने मन को स्त्रष्टा की और प्रेरित करने के बजाय संसार के विषयों की और झुकने की रहती है। परमात्मा एक महान् छलिया प्रतीत होता है, क्योंकि वह इस संसार को और इन्द्रियों के विषयों को उत्पन्न करता है और हमारी इन्द्रियों को बहिर्मुख कर देता है।[2]अपने-आप को धोखा देने की प्रवृत्ति इन्द्रियों के विषयों को प्राप्त करने की इच्छा में निहित है। यह इच्छा वस्तुतः मनुष्य को परमात्मा से दूर ले जाती है। संसार की चमक-दमक हम पर अपना जादू फेर देती है और हम उससे प्राप्त होने वाले पुरस्कारों के दास बन जाते हैं।
यह दुनिया वस्तु-रूपात्मक प्रकृति या संसार पतित, दास और विजातीय है और यह कष्टों से भरा हुआ है, क्योंकि आन्तरिक सत्ता से विजातीय बन जाना कष्ट है। जब यह कहा जाता है कि ‘मेरी इस दिव्य माया को जीतना बहुत कठिन है’ तो इसका अर्थ यह होता है कि हम संसार और उसकी गतिविधियों को आसानी से भेदकर उनके पीछे नहीं पहुँच सकते।[3] यहां पर हम उन विभिन्न अर्थो में अन्तर कर सकते हैं, जिनमें ‘माया’ शब्द का प्रयोग किया गया है, और गीता में इसका स्थान नियत कर सकते हैं। (1) यदि परम वास्तविकता संसार की घटनाओं से अप्रभावित रहती है, तो इन घटनाओं का होना एक ऐसा रहस्य बन जाता है, जिसकी व्याख्या हो ही नहीं सकती। गीता का लेखक ‘माया’ शब्द का प्रयोग इस अर्थ में नहीं करता, भले ही उसके विचार में यह अर्थ कितना ही निहित क्यों न रहा हो। एक आदिहीन और साथ ही अवास्तविक अविद्या की धारणा, जो इस सारे संसार की प्रकृति का कारण है, गीता के लेखक के मन में नहीं आई। (2) व्यक्तिक ईश्वर के सम्बन्ध में यह बताया गया है कि वह अपने सत् और असत् को मिलाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 7, 13। नारद पंचरात्र से तुलना कीजिएः “वह एक भगवान् सदा सबमें और प्रत्येक में रहता है। सब प्राणी उसके कर्म से ही उत्पन्न होते हैं, परन्तु वे उसकी माया द्वारा ठगे जाते है।” 2. 1, 22। महाभारत में कहा गया हैः “हे नारद, जो तुम देखते हो, वह माया है, जिसे मैंने उत्पन्न किया है। यह मत समझो कि मेरे रचे हुए संसार में जो गुण पाए जाते हैं, वे मुझमें विद्यमान हैं।”

    माया ह्मेषा मया स्रष्टा यन्मा पश्यसि नारद। सर्वभूतगुणैर्यक्तं नैव त्वं ज्ञातुमर्हसि।।

    --शान्तिपर्व 339, 44
  2. कठोपनिषद्, 4, 1
  3. 7, 14; साथ ही देखिए ईशोपनिषद्, 16

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