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'''जबीन जलिल''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Jabeen Jalil'', [[1 अप्रैल]], [[1937]], [[दिल्ली]]; मृत्यु: ) [[1950]] और [[1960]] के दशक के हिन्दी सिनेमा के प्रेमियों के लिए अभिनेत्री जबीन जलील का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। क़रीब 20 साल के अपने कॅरियर के दौरान भले ही जबीन ने महज़ 24 हिन्दी और 4 पंजाबी फ़िल्मों में काम किया हो, लेकिन अपनी ख़ूबसूरती और दिलकश अभिनय के दम पर उस जमाने में उन्होंने लाखों लोगों को अपना दीवाना बनाया था।
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'''सिद्धेश्वरी देवी''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Siddheshwari Devi'', जन्म: [[8 अगस्त]], [[1908]], [[वाराणसी]]; मृत्यु: [[17 मार्च]], [[1977]]) प्रसिद्ध भारतीय शास्त्रीय संगीत गायिका थीं। उस काल में गाने व नाचने वालों को अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता था और महिला कलाकारों को तो वेश्या ही मान लिया जाता था। ऐसे समय में सिद्धेश्वरी देवी ने अपनी कला के माध्यम से भरपूर मान और सम्मान अर्जित किया। उन्हें निर्विवाद रूप से ठुमरी गायन की साम्राज्ञी मान लिया गया।<ref>{{cite web |url=https://www.facebook.com/GeneralKnowledgeandIndianHistory/posts/831936316908485 |title=सुरों की सिद्धेश्वरी |accessmonthday=18 जून |accessyear=2017 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=www.facebook.com |language=हिंदी}}</ref>


हिन्दी सिनेमा का स्वर्णकाल कहलाए जाने वाले उस दौर की चर्चित अभिनेत्री जबीन अब एक बार फिर से हिन्दी सिनेमा के क्षेत्र में प्रोडयूसर के रुप में सक्रिय हुर्इ हैं। जबीन का ताल्लुक बंगाल के एक बेहद ज़हीन और पढ़े-लिखे ख़ानदान से रहा है। उनके दादा सैयद मौलवी अहमद कोलकाता यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल करने वाले पहले बंगाली मुस्लिम थे तो पिता सैयद अबू अहमद जलील अंग्रेज़ों के ज़माने के आर्इ.सी.एस. अफ़सर। जबीन की अम्मी दिलारा जलील भी एक पढ़ी-लिखी और मुंशी फ़ाजिल की डिग्री हासिल कर चुकी महिला थीं जिनका ताल्लुक़ लाहौर के मशहूर फ़कीर ब्रदर्स के ख़ानदान से था। ये तीनों भार्इ सैयद फ़कीर नूरुद्दीन, सैयद फ़कीर सर्इदुद्दीन और सैयद फ़कीर अज़ीज़ुद्दीन महाराजा रणजीत सिंह के बेहद विश्वस्त मन्त्रियों में से थे। महाराजा रणजीत सिंह ने ही इन भार्इयों को फ़कीर टार्इटिल से नवाज़ा था और इनका नाम हिन्दुस्तान के इतिहास में भी दर्ज है। लाहौर का मशहूर फ़कीरखाना म्यूज़ियम भी इन्हीं तीन भार्इयों के नाम पर है। सैयद फ़कीर अज़ीज़ुद्दीन महाराजा रणजीत सिंह के दरबार में विदेश मंत्री थे। जबीन की अम्मी दिलारा बेगम इन्हीं सैयद फ़कीर अज़ीज़ुद्दीन की पड़पोती थीं।
==परिचय==
==परिचय==
जबीन जलिल का जन्म 1 अप्रैल, 1937 को दिल्ली में हुआ था, लेकिन वो सिर्फ़ दो महिने की थीं जब उनके पिता का ट्रांसफर हुआ और वो माता-पिता के साथ [[जापान]] चली गयीं। चार साल जापान में गुज़ारने के बाद उनके पिता कण्ट्रोलर आफ़ टेक्सटार्इल बनकर [[मुम्बर्इ]] चले आए। जहां नानाचौक-मुम्बर्इ स्थित मशहूर क्वीन मेरी स्कूल में जबीन को दाख़िला दिलाया गया। स्कूली पढ़ार्इ क्वीन मेरी से पूरी करने के दौरान जबीन अपने स्कूल की हेडगर्ल भी रहीं। आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने एल्फ़िन्स्टन कॉलेज में दाख़िला लिया।
सिद्धेश्वरी देवी का जन्म 8 अगस्त, 1908 को वाराणसी ([[उत्तर प्रदेश]]]) में हुआ था। अपने जीवन काल में निर्विवाद रूप से उन्हें ठुमरी गायन की साम्राज्ञी मान लिया गया । इनके पिता श्री श्याम तथा माता श्रीमती चंदा उर्फ श्यामा थीं। जब ये डेढ़ वर्ष की ही थीं, तब इनकी माता का निधन हो गया। अतः इनका पालन इनकी नानी मैनाबाई ने किया, जो एक लोकप्रिय गायिका व नर्तकी थीं। सिद्धेश्वरी देवी का बचपन का नाम गोनो था। उन्हें सिद्धेश्वरी देवी नाम प्रख्यात विद्वान व ज्योतिषी पंडित महादेव प्रसाद मिश्र (बच्चा पंडित) ने दिया।
 
====संगीत की शिक्षा====
पढ़ाई के साथ साथ वह पूरे जोशोख़रोश के साथ कॉलेज के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी हिस्सा लेती थी। कॉलेज के एक नाटक 'नेक-परवीन' में वह अहम रोल निभा रही थी, जिसमें उस ज़माने के जाने-माने निर्माता निर्देशक एस.एम.यूसुफ़ और उनकी पत्नी निगार सुल्ताना जज बनकर आए थे। उन्हें मेरा अभिनय इतना पसन्द आया कि यूसुफ़ साहब के हाथों मुझे सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार तो मिला ही, उन्होंने मुझे अपनी अगली फ़िल्म  में हिरोर्इन का रोल भी ऑफ़र किया। फ़िल्मों  से हमारे परिवार का सिर्फ़ इतना सा रिश्ता था कि प्रोडयूसर-डायरेक्टर और अभिनेता सोहराब मोदी मेरे पिता के अच्छे दोस्त थे। मेरे पिता साल 1949 में ही ग़ुज़र गए थे। बड़ी दोनों बहनें शादी के बाद पाकिस्तान चली गयी थीं। घर में सिर्फ़ अम्मी, मैं और मेरा छोटा भार्इ थे। यूसुफ़ साहब के इस ऑफ़र पर मेरे लिए ख़ुद कोर्इ फ़ैसला ले पाना मुमकिन नहीं था इसलिए अगले ही दिन वो मेरे घर चले आए। उनके समझाने पर अम्मी ने थोड़ी ना-नुकुर के बाद आखिरकार मुझे फ़िल्म  में काम करने की इजाज़त दे दी”।
सिद्धेश्वरी देवी ने संगीत की शिक्षा पंडित सिया जी मिश्र, पंडित बड़े रामदास जी, उस्ताद रज्जब अली खां और इनायत खां आदि से ली। ईश्वर प्रदत्त जन्मजात प्रतिभा के बाद ऐसे श्रेष्ठ गुरुओं का सान्निध्य पाकर सिद्धेश्वरी देवी गीत-संगीत के क्षेत्र में एक प्रसिद्ध हस्ती बन गयीं।
 
==कॅरियर की शुरुआत==
साल 1954 में रिलीज हुर्इ ‘ग़ुज़ारा’ जबीन की पहली फ़िल्म थी, जिसमें उनके हीरो करण दीवान थे। संगीत ग़ुलाम मोहम्मद का था। फ़िल्म तो ज्यादा नहीं चली लेकिन जबीन अपनी तरफ़ लोगों का ध्यान आकृष्ट करने में ज़रूर कामयाब रहीं। साल 1955 में उनकी दूसरी फ़िल्म  ‘लुटेरा’ रिलीज़ हुर्इ जिसमें उनके हीरो नासिर ख़ान थे। लेकिन सही मायनों में उन्हें पहचान मिली अपनी तीसरी फ़िल्म ‘नर्इ दिल्ली’ से जिसमें उन्होंने हीरो किशोर कुमार की बहन निक्की का रोल किया था। 1956 में रिलीज़ हुर्इ इस फ़िल्म में जबीन के हीरो की भूमिका अभिनेत्री नलिनी जयवन्त के पति प्रभुदयाल ने की थी। शंकर-जयकिशन के संगीत से सजी, प्रोडयूसर-डायरेक्टर मोहन सहगल की ये फ़िल्म उस दौर की सफलतम फ़िल्मों में से थी।
सिद्धेश्वरी देवी को पहली बार 17 साल की अवस्था में सरगुजा के युवराज के विवाहोत्सव में गाने का अवसर मिला। उनके पास अच्छे वस्त्र नहीं थे। ऐसे में विद्याधरी देवी ने इन्हें वस्त्र दिये। वहां से सिद्धेश्वरी देवी का नाम सब ओर फैल गया। एक बार तो [[मुंबई]] के एक समारोह में वरिष्ठ गायिका केसरबाई इनके साथ ही उपस्थित थीं। जब उनसे ठुमरी गाने को कहा गया, तो उन्होंने कहा कि जहां ठुमरी साम्राज्ञी सिद्धेश्वरी देवी हों वहां मैं कैसे गा सकती हूं। अधिकांश बड़े संगीतकारों का भी यही मत था कि मलका और गौहर के बाद ठुमरी के सिंहासन पर बैठने की अधिकार सिद्धेश्वरी देवी ही हैं। उन्होंने [[पाकिस्तान]], [[अफ़ग़ानिस्तान]], [[नेपाल]] तथा अनेक यूरोपीय देशों में जाकर भारतीय ठुमरी की धाक जमाई। उन्होंने राजाओं और जमीदारों के दरबारों से अपने प्रदर्शन प्रारम्भ किये और बढ़ते हुए आकाशवाणी और दूरदर्शन तक पहुंचीं। जैसे-जैसे समय और श्रोता बदले, उन्होंने अपने संगीत में परिवर्तन किया, यही उनका सफलता का रहस्य था। सिद्धेश्वरी देवी ने श्रीराम भारतीय कला केन्द्र, [[दिल्ली]] और कथक केन्द्र में नये कलाकारों को ठुमरी सिखाई।
 
फ़िल्म ‘नर्इ दिल्ली’ की सफलता का जबीन को भरपूर फायदा मिला। 1950 के दशक के आख़िर में उनकी ‘चारमीनार’, ‘फ़ैशन’, ‘जीवनसाथी’, ‘हथकड़ी’, ‘पंचायत’, ‘रागिनी’, ‘बेदर्द ज़माना क्या जाने’ और ‘रात के राही’ जैसी फ़िल्में रिलीज़ हुर्इं। ‘तुम और हम’ (फ़ैशन), ‘मदभरे ये प्यार की पलकें’ (फ़ैशन), ‘ता थैय्या करते आना’ (पंचायत), ‘इस दुनिया से निराला हूं’ (रागिनी), ‘पिया मैं हूं पतंग तू डोर’ (रागिनी), ‘क़ैद में है बुलबुल सय्याद मुस्कुराए’ (बेदर्द ज़माना क्या जाने), ‘दूर कहीं तू चल’ (बेदर्द ज़माना क्या जाने), ‘आ भी जा बेवफा’ (रात के राही), ‘तू क्या समझे तू क्या जाने’ (रात के राही) और ‘एक नज़र एक अदा’ (रात के राही) जैसे उन पर फ़िल्माए गए कर्इ गीत भी उस दौर में बेहद मशहूर हुए थे।
 
1960 के दशक में जबीन ने ‘बंटवारा’, ‘खिलाड़ी’, ‘सच्चे मोती’, ‘ताजमहल’ और ‘राजू’ जैसी कुछ फ़िल्मों में काम किया। फ़िल्म ‘ताजमहल’ में लाडली बानो का उनका किरदार बेहद सराहा गया था। फ़िल्म ‘बंटवारा’ का जवाहर कौल और जबीन पर पिक्चरार्इज हुआ गीत ‘ये रात ये फिजाएं फिर आएं या न आएं’ तो आज भी संगीतप्रेमियों के बीच उतना ही लोकप्रिय है। उसी दौरान उन्हें साल 1962 में बनी पंजाबी फ़िल्म ‘चौधरी करनैल सिंह’ के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का नेशनल अवार्ड भी मिला जिसमें उनके हीरो प्रेम चोपड़ा थे। ‘चौधरी करनैल सिंह’ प्रेम चोपड़ा की पहली फ़िल्म थी। इसके बाद जबीन ने तीन और पंजाबी फ़िल्मों ‘कदी धूप कदी छांव’, ‘ऐ धरती पंजाब दी’ और ‘गीत बहारां दे’ में काम किया।
 
साल 1968 में जबीन की शादी हुर्इ। जोधपुर के रहने वाले कश्मीरी मूल के उनके पति अशोक काक कोडक कम्पनी के प्रेसिडेण्ट थे और उस दौर में देश के सबसे कम उम्र के सी.र्इ.ओ. थे। पिलानी से एम.बी.ए. पास अशोक भी बेहद पढ़े-लिखे ख़ानदान से ताल्लुक रखते थे और वो जबीन के छोटे भार्इ असजद जलील के दोस्त थे। जबीन कहती हैं, ‘मैं सैयद मुस्लिम थी और अशोक कश्मीरी पण्डित। लेकिन हम दोनों ही के परिवारों का माहौल इतना खुला हुआ था कि धर्म कहीं भी हमारी शादी में आड़े नहीं आया। शादी के बाद मैंने अपना पूरा ध्यान गृहस्थी सम्भालने में लगा दिया। शादी के बाद मैंने सिर्फ़ एक फ़िल्म की और वो थी ‘वचन’ जो 1974 में रिलीज़ हुर्इ थी।
 
फ़िल्मों से अलग होने के बाद जबीन सामाजिक कार्यों में भी व्यस्त हो गयी थीं। बेटा स्कूल जाने लगा तो उन्होंने उसके कैथेड्रल स्कूल की पी.टी.ए. के चेयरपर्सन की कुर्सी सम्भाल ली। उनकी दोनों बड़ी बहनें पाकिस्तान में और छोटा भार्इ अमेरिका में सेटल हो चुके थे। भारत में उनका कोर्इ भी रिश्तेदार नहीं था इसलिए बेटे की पढ़ाई और अच्छे भविष्य के लिए जबीन ने भी अमेरिका में सेटल हो जाना बेहतर समझा। पति और बेटे के साथ शुरु से ही उनका अमेरिका जाना-आना लगा रहता था इसलिए ग्रीन कार्ड मिलने में भी कोर्इ मुश्किल नहीं हुर्इ। आख़िरकार साल 1989 में वो परिवार सहित अमेरिका चली गयीं।
 
जबीन और उनके परिवार ने क़रीब 10 साल अमेरिका में गुज़ारे। उनकी सास और मां दोनों ही अमेरिका में उनके साथ रहती थीं। जबीन की मां गुजरीं तो बेटा दिविज जो अपनी नानी के बेहद क़रीब था डिप्रेशन में चला गया। नतीजन डाक्टर्स की सलाह पर जबीन को साल 1998 में वापस मुम्बर्इ आना पड़ा क्योंकि डाक्टरों का कहना था कि जल्द रिकवरी के लिए दिविज का वापस उस माहौल में जाना ज़रुरी था जिसमें उसका बचपन गुज़रा था। दिविज को डाक्टरों की इस सलाह का फ़ायदा भी हुआ और मुम्बर्इ आकर उनकी तबीयत में पूरी तरह से ठीक हो गयी।


अशोक काक साल 2002 में भारत लौटे। जाने माने उधोगपति के.के.बिडला उनकी प्रबन्धन क्षमता से पहले ही से परिचित थे इसलिए उन्होंने अशोक काक से अपनी सबसे पुरानी कम्पनियों में से एक, कोलकाता स्थित घाटे में चल रही इंडिया स्टीमशिप कम्पनी के हालात सुधारने का आग्रह किया। अशोक ने तीन साल के काण्ट्रेक्ट के दौरान न सिर्फ़ कम्पनी को घाटे से उबारा, बल्कि उसे लाभ की स्थिति में भी ला खड़ा किया। वो तीन साल जबीन ने कोलकाता में गुज़ारे और फिर पति और बेटे के साथ वापस मुम्बर्इ लौट आयीं। फ़िल्म ‘वचन’ के क़रीब 30 साल बाद 2004-05 में जबीन ने दूरदर्शन धारावाहिक ‘हवाएं’ में अभिनय किया।
सिद्धेश्वरी देवी ने उषा मूवीटोन की कुछ फ़िल्मों में अभिनय भी किया पर शीघ्र ही वे समझ गयीं कि उनका क्षेत्र केवल गायन है। उन्होंने स्वतंत्रता के आंदोलन में खुलकर तो भाग नहीं लिया पर उसके लिए वे आर्थिक सहायता करती रहती थीं। उन दिनों वे अपने कार्यक्रमों में यह भजन अवश्य गाती थीं।
 
अब जबीन मुम्बर्इ के वर्ली इलाक़े में अपने पति और बेटे के साथ रहती हैं। उनकी बुज़ुर्ग सास भी उन्हीं के साथ रहती थीं जिनका 101 साल की उम्र में 24 जून 2013 को निधन हुआ।  जबीन के पति विक्रोली की एक कंपनी में सर्वोच्च पद पर हैं और बेटे दिविज काक ने अपनी मां के नक्शे कदम पर चलते हुए अभिनय को पेशे के तौर पर चुना है। ज़िंदगी के दस साल अमेरिका में गुज़ारने के बावजूद हिन्दी और उर्दू पर दिविज की पकड़ अचम्भित कर देने वाली है। साल 2005 में दिविज की बतौर हीरो पहली फ़िल्म ‘साथी’ रिलीज़ हुर्इ थी जिसके निर्देशक फ़ैज़ अनवर थे। दिविज की दूसरी फ़िल्म ‘पहली नज़र का प्यार’ रिलीज़ के लिए तैयार है। ‘जबीन इण्टरनेशनल’ के बैनर में बनी इस फ़िल्म से जबीन बतौर प्रोडयूसर एक बार फिर से हिन्दी सिनेमा के मैदान में उतरने जा रही हैं।


:::'''मथुरा न सही गोकुल न सही, रहो वंशी बजाते कहीं न कहीं।'''


जबीन कहती हैं, “कॅरियर के दौरान अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि, पालन-पोषण और संस्कारों की वजह से मैं हमेशा ख़ुद को इण्डस्ट्री के माहौल में अनुपयुक्त महसूस करती रही। लेकिन उस दौरान हुए अनुभवों का फ़ायदा मेरे बेटे को मिलेगा इसमें कोर्इ शक़ नहीं है। जहां तक सवाल है उस दौर की यादों का तो मेरे ज़हन में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे याद करके ख़ुशी मिले। और तकलीफ़देह बातों को भूल जाना ही बेहतर है”। लेकिन जबीन गुज़रे ज़माने की मशहूर अभिनेत्री शकीला के गुणगान करते नहीं थकतीं जिन्होंने जबीन को मुम्बर्इ में एक बार फिर से जड़ें जमाने में निस्वार्थ भाव से हर तरह से मदद की।
:::'''दीन भारत का दुख अब दूर करो, रहो झलक दिखाते कहीं न कहीं।।'''
==सम्मान एवं पुरस्कार==
सिद्धेश्वरी देवी को अपने जीवन काल बहुत-से पुरस्कार एवं सम्मान मिले हैं, जो इस प्रकार है-
*[[भारत सरकार]] द्वारा [[पद्मश्री]] पुरस्कार
*साहित्य कला परिषद सम्मान ([[उत्तर प्रदेश]])
*संगीत नाटक अकादमी सम्मान
*केन्द्रीय संगीत नाटक अकादमी सम्मान
==निधन==
सिद्धेश्वरी देवी पर [[26 जून]], [[1976]] को उन पर पक्षाघात का आक्रमण हुआ और [[17 मार्च]], [[1977]] की प्रातः वे ब्रह्मलीन हो गयीं। उनकी पुत्री सविता देवी भी प्रख्यात गायिका हैं। उन्होंने अपनी मां की स्मृति में 'सिद्धेश्वरी देवी एकेडेमी ऑफ़ म्यूजिक' की स्थापना की है। इसके माध्यम से वे प्रतिवर्ष संगीत समारोह आयोजित कर वरिष्ठ संगीत साधकों को सम्मानित करती हैं।

Revision as of 12:24, 18 June 2017

कविता बघेल 7
पूरा नाम सिद्धेश्वरी देवी
अन्य नाम गोनो
जन्म 8 अगस्त, 1908
जन्म भूमि वाराणसी
मृत्यु 17 मार्च, 1977
अभिभावक पिता: श्री श्याम तथा माता: श्रीमती चंदा उर्फ श्यामा थीं
संतान सविता देवी
कर्म भूमि मुम्बई
कर्म-क्षेत्र शास्त्रीय संगीत
पुरस्कार-उपाधि पद्मश्री
प्रसिद्धि गायिका
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी सिद्धेश्वरी देवी ने उषा मूवीटोन की कुछ फ़िल्मों में अभिनय भी किया पर शीघ्र ही वे समझ गयीं कि उनका क्षेत्र केवल गायन ही है।

सिद्धेश्वरी देवी (अंग्रेज़ी: Siddheshwari Devi, जन्म: 8 अगस्त, 1908, वाराणसी; मृत्यु: 17 मार्च, 1977) प्रसिद्ध भारतीय शास्त्रीय संगीत गायिका थीं। उस काल में गाने व नाचने वालों को अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता था और महिला कलाकारों को तो वेश्या ही मान लिया जाता था। ऐसे समय में सिद्धेश्वरी देवी ने अपनी कला के माध्यम से भरपूर मान और सम्मान अर्जित किया। उन्हें निर्विवाद रूप से ठुमरी गायन की साम्राज्ञी मान लिया गया।[1]

परिचय

सिद्धेश्वरी देवी का जन्म 8 अगस्त, 1908 को वाराणसी (उत्तर प्रदेश]) में हुआ था। अपने जीवन काल में निर्विवाद रूप से उन्हें ठुमरी गायन की साम्राज्ञी मान लिया गया । इनके पिता श्री श्याम तथा माता श्रीमती चंदा उर्फ श्यामा थीं। जब ये डेढ़ वर्ष की ही थीं, तब इनकी माता का निधन हो गया। अतः इनका पालन इनकी नानी मैनाबाई ने किया, जो एक लोकप्रिय गायिका व नर्तकी थीं। सिद्धेश्वरी देवी का बचपन का नाम गोनो था। उन्हें सिद्धेश्वरी देवी नाम प्रख्यात विद्वान व ज्योतिषी पंडित महादेव प्रसाद मिश्र (बच्चा पंडित) ने दिया।

संगीत की शिक्षा

सिद्धेश्वरी देवी ने संगीत की शिक्षा पंडित सिया जी मिश्र, पंडित बड़े रामदास जी, उस्ताद रज्जब अली खां और इनायत खां आदि से ली। ईश्वर प्रदत्त जन्मजात प्रतिभा के बाद ऐसे श्रेष्ठ गुरुओं का सान्निध्य पाकर सिद्धेश्वरी देवी गीत-संगीत के क्षेत्र में एक प्रसिद्ध हस्ती बन गयीं।

कॅरियर की शुरुआत

सिद्धेश्वरी देवी को पहली बार 17 साल की अवस्था में सरगुजा के युवराज के विवाहोत्सव में गाने का अवसर मिला। उनके पास अच्छे वस्त्र नहीं थे। ऐसे में विद्याधरी देवी ने इन्हें वस्त्र दिये। वहां से सिद्धेश्वरी देवी का नाम सब ओर फैल गया। एक बार तो मुंबई के एक समारोह में वरिष्ठ गायिका केसरबाई इनके साथ ही उपस्थित थीं। जब उनसे ठुमरी गाने को कहा गया, तो उन्होंने कहा कि जहां ठुमरी साम्राज्ञी सिद्धेश्वरी देवी हों वहां मैं कैसे गा सकती हूं। अधिकांश बड़े संगीतकारों का भी यही मत था कि मलका और गौहर के बाद ठुमरी के सिंहासन पर बैठने की अधिकार सिद्धेश्वरी देवी ही हैं। उन्होंने पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, नेपाल तथा अनेक यूरोपीय देशों में जाकर भारतीय ठुमरी की धाक जमाई। उन्होंने राजाओं और जमीदारों के दरबारों से अपने प्रदर्शन प्रारम्भ किये और बढ़ते हुए आकाशवाणी और दूरदर्शन तक पहुंचीं। जैसे-जैसे समय और श्रोता बदले, उन्होंने अपने संगीत में परिवर्तन किया, यही उनका सफलता का रहस्य था। सिद्धेश्वरी देवी ने श्रीराम भारतीय कला केन्द्र, दिल्ली और कथक केन्द्र में नये कलाकारों को ठुमरी सिखाई।

सिद्धेश्वरी देवी ने उषा मूवीटोन की कुछ फ़िल्मों में अभिनय भी किया पर शीघ्र ही वे समझ गयीं कि उनका क्षेत्र केवल गायन है। उन्होंने स्वतंत्रता के आंदोलन में खुलकर तो भाग नहीं लिया पर उसके लिए वे आर्थिक सहायता करती रहती थीं। उन दिनों वे अपने कार्यक्रमों में यह भजन अवश्य गाती थीं।

मथुरा न सही गोकुल न सही, रहो वंशी बजाते कहीं न कहीं।
दीन भारत का दुख अब दूर करो, रहो झलक दिखाते कहीं न कहीं।।

सम्मान एवं पुरस्कार

सिद्धेश्वरी देवी को अपने जीवन काल बहुत-से पुरस्कार एवं सम्मान मिले हैं, जो इस प्रकार है-

निधन

सिद्धेश्वरी देवी पर 26 जून, 1976 को उन पर पक्षाघात का आक्रमण हुआ और 17 मार्च, 1977 की प्रातः वे ब्रह्मलीन हो गयीं। उनकी पुत्री सविता देवी भी प्रख्यात गायिका हैं। उन्होंने अपनी मां की स्मृति में 'सिद्धेश्वरी देवी एकेडेमी ऑफ़ म्यूजिक' की स्थापना की है। इसके माध्यम से वे प्रतिवर्ष संगीत समारोह आयोजित कर वरिष्ठ संगीत साधकों को सम्मानित करती हैं।

  1. सुरों की सिद्धेश्वरी (हिंदी) www.facebook.com। अभिगमन तिथि: 18 जून, 2017।