श्री कालाहस्ती मन्दिर: Difference between revisions
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===प्राकृतिक सौन्दर्य=== | ===प्राकृतिक सौन्दर्य=== | ||
कालाहस्ती मन्दिर मे देश भर से आए श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। इस जगह का वातावरण प्रकृति के मनोहर रूप को अपने में समाए हुए है। काफ़ी विशाल घेरे मे फैला यह मन्दिर स्वर्णमुखी नदी के किनारे से पहाड़ की तलहटी तक पसरा हुआ है। मन्दिर से तिरूमलय पर्वत | कालाहस्ती मन्दिर मे देश भर से आए श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। इस जगह का वातावरण प्रकृति के मनोहर रूप को अपने में समाए हुए है। काफ़ी विशाल घेरे मे फैला यह मन्दिर स्वर्णमुखी नदी के किनारे से पहाड़ की तलहटी तक पसरा हुआ है। मन्दिर से तिरूमलय पर्वत श्रृंखला का बहुत ही सुंदर नज़ारा देखा जा सकता है। यहाँ के और भी अन्य ख़ूबसूरत नज़ारे इस जगह को आकर्षक बना देते हैं।<ref name="a"/> | ||
===स्थापत्य कला=== | ===स्थापत्य कला=== | ||
लगभग दो हज़ार वर्षों से श्री कालाहस्ती मन्दिर अपने महत्त्व से लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। मन्दिर की बनावट एवं सुंदरता उसके गौरव का बखान करती हुई दिखाई देती है। मन्दिर के चारों ओर बड़ा ही मनोरम वातावरण स्थापित है। [[कैलाश]] या [[काशी]] के रूप में माना जाने वाला यह मन्दिर अपनी वास्तुकला के लिए भी प्रसिद्ध है। मन्दिर का शिखर दक्षिण भारतीय शैली में बना हुआ है, जिस पर [[सफ़ेद रंग]] का आवरण है। मन्दिर में तीन भव्य गोपुरम हैं। इसके साथ ही मन्दिर में सौ स्तंभों वाला मंडप है, जो स्थापत्य की दृष्टि से अद्वितीय है। मन्दिर के अंदर कई शिवलिंग स्थापित हैं। मन्दिर में भगवान कालहस्तीश्वर व देवी ज्ञानप्रसूनअंबा भी विराजमान हैं। मन्दिर का भीतरी भाग पाँचवीं शताब्दी का बना माना जाता है तथा बाहरी भाग बाद में बारहवीं शताब्दी में निर्मित हुआ। | लगभग दो हज़ार वर्षों से श्री कालाहस्ती मन्दिर अपने महत्त्व से लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। मन्दिर की बनावट एवं सुंदरता उसके गौरव का बखान करती हुई दिखाई देती है। मन्दिर के चारों ओर बड़ा ही मनोरम वातावरण स्थापित है। [[कैलाश]] या [[काशी]] के रूप में माना जाने वाला यह मन्दिर अपनी वास्तुकला के लिए भी प्रसिद्ध है। मन्दिर का शिखर दक्षिण भारतीय शैली में बना हुआ है, जिस पर [[सफ़ेद रंग]] का आवरण है। मन्दिर में तीन भव्य गोपुरम हैं। इसके साथ ही मन्दिर में सौ स्तंभों वाला मंडप है, जो स्थापत्य की दृष्टि से अद्वितीय है। मन्दिर के अंदर कई शिवलिंग स्थापित हैं। मन्दिर में भगवान कालहस्तीश्वर व देवी ज्ञानप्रसूनअंबा भी विराजमान हैं। मन्दिर का भीतरी भाग पाँचवीं शताब्दी का बना माना जाता है तथा बाहरी भाग बाद में बारहवीं शताब्दी में निर्मित हुआ। |
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श्री कालाहस्ती मन्दिर आंध्र प्रदेश के चित्तूर ज़िले के पास स्थित श्रीकालाहस्ती नामक जगह पर स्थापित है। इसे 'दक्षिण का कैलाश व काशी' कहा जाता है। यह मन्दिर पेन्नार नदी की शाखा स्वर्णमुखी नदी के तट पर बसा है। इस मन्दिर को 'राहू-केतु मन्दिर' के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ पर लोग राहु की पूजा व उसकी शांति हेतु आते हैं। प्राय: लोग इस मन्दिर के लिए 'कालहस्ती' शब्द का भी प्रयोग करते हैं। यह मन्दिर भगवान शिव के प्रमुख मन्दिरों मे से एक है।
श्रीकालहस्तीश्वर मंदिर
कालहस्ती स्टेशन से एक मील पर स्वर्ण रेखा नदी है। उसमें जल थोड़ा ही रहता है। स्वर्ण रेखा नदी के पार तट पर ही श्रीकालहस्तीश्वर मंदिर है। दक्षिण के पंचतत्व लिंगों में यह वायु तत्त्वलिंग माना जाता है। यह मंदिर विशाल है। लिंगमूर्ति वायुतत्त्व मानी जाती है, अतः पुजारी भी उसका स्पर्श नहीं कर सकता। मूर्ति के पास स्वर्णपट्ट स्थापित है। उसी पर माला आदि चढ़ाई जाती है। इस मूर्ति में मकड़ी, सर्पफण तथा हाथी दांत के चिह्न स्पष्ट दिखते हैं। सर्वप्रथम इन्हीं ने इस लिंग की आराधना की है।
मंदिर के भीतर ही पार्वती का पृथक् मंदिर है। परिक्रमा में गणेश, कई शिवलिंग, कार्तिकेय, चित्रगुप्त, यमराज, धर्मराज, चण्डिकेश्वर, नटराज, सूयं बाल सुब्रह्मण्य, लक्ष्मी-गणपति, बाल गणपति, कालभैरवादि की मूर्तियाँ हैं। मंदिर में ही भगवान पशुपति तथा धनुर्धर अर्जुन की मूर्तियाँ हैं। अर्जुन मूर्ति को यहाँ पंडे के कणप्प कह देते हैं। मंदिर के समीप पहाड़ी है। कहा जाता है कि उसी पर तप करके अर्जुन ने शंकरजी से पाशुपतास्त्र प्राप्त किया था। ऊपर जो शिवलिंग है, वह अर्जुन द्वारा स्थापित है। पीछे कणप्प भील ने उसकी आराधना की। पहाड़ी पर जाने के लिए सीढ़ियाँ नहीं है। मार्ग अटपटा है। पत्थरों पर उतरते-चढ़ते जाना पड़ता है। लगभग आधा मील चढ़ाई है[1]।
शक्तिपीठ- श्रीकालाहस्ती बस्ती के दूसरे छोर पर एक छोटी पहाड़ी पर सामान्य-सा एक देवी मंदिर है। यह 51 शक्तिपीठों में से एक है। यहाँ सती का दक्षिण स्कन्ध गिरा था।
पौराणिक कथा
श्री कालाहस्ती के नाम से पहचाना जाने वाला यह तीर्थ स्थल दक्षिण का प्रमुख धार्मिक क्षेत्र है। भारत में स्थित भगवान शिव के तीर्थ स्थानों में इस स्थान का विशेष महत्त्व है। श्री कालहस्ती के बारे मे धार्मिक ग्रंथों में भी वर्णन मिलता है। स्कंदपुराण, शिवपुराण जैसे प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में इसके विषय में प्रमुख रूप से उल्लेख किया गया है। स्कंदपुराण में दर्शाया गया है कि इस स्थान पर अर्जुन ने प्रभु श्री कालाहस्ती के दर्शन किए, उसके पश्चात् अर्जुन को भारद्वाज मुनी के भी दर्शन हुए थे।[2]
एक अन्य कथानुसार इसी जगह पर तीन पशुओं द्वारा भगवान शिव की अराधना का उल्लेख मिलता है। कहा जाता है की एक बार एक मकड़ी, सर्प तथा हाथी ने यहाँ शिवलिंग को पुजा, जिसमें मकडी़ ने शिवलिंग की पूजा करते समय उसके उपर जाल का निर्माण किया तथा सर्प ने शिवलिंग से लिपटकर पुजा की और हाथी ने जल द्वारा शिवलिंग का अभिषेक किया था। इनकी भक्ति देखकर भगवान शिव ने इन्हें मुक्ति का वरदान दिया व इस जगह का नाम भी इन पशुओं के नाम, जो 'श्री' यानी मकड़ी, 'काला' यानी सर्प तथा 'हस्ती' यानी हाथी के नाम पर रखा गया। यहाँ पर इन तीनों पशुओं की मूर्तियाँ भी स्थापित हैं। इसके अतिरिक्त यह भी माना जाता है कि कणप्पा नामक एक आदिवासी ने यहाँ पर शिव आराधना की थी।
प्राकृतिक सौन्दर्य
कालाहस्ती मन्दिर मे देश भर से आए श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। इस जगह का वातावरण प्रकृति के मनोहर रूप को अपने में समाए हुए है। काफ़ी विशाल घेरे मे फैला यह मन्दिर स्वर्णमुखी नदी के किनारे से पहाड़ की तलहटी तक पसरा हुआ है। मन्दिर से तिरूमलय पर्वत श्रृंखला का बहुत ही सुंदर नज़ारा देखा जा सकता है। यहाँ के और भी अन्य ख़ूबसूरत नज़ारे इस जगह को आकर्षक बना देते हैं।[2]
स्थापत्य कला
लगभग दो हज़ार वर्षों से श्री कालाहस्ती मन्दिर अपने महत्त्व से लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। मन्दिर की बनावट एवं सुंदरता उसके गौरव का बखान करती हुई दिखाई देती है। मन्दिर के चारों ओर बड़ा ही मनोरम वातावरण स्थापित है। कैलाश या काशी के रूप में माना जाने वाला यह मन्दिर अपनी वास्तुकला के लिए भी प्रसिद्ध है। मन्दिर का शिखर दक्षिण भारतीय शैली में बना हुआ है, जिस पर सफ़ेद रंग का आवरण है। मन्दिर में तीन भव्य गोपुरम हैं। इसके साथ ही मन्दिर में सौ स्तंभों वाला मंडप है, जो स्थापत्य की दृष्टि से अद्वितीय है। मन्दिर के अंदर कई शिवलिंग स्थापित हैं। मन्दिर में भगवान कालहस्तीश्वर व देवी ज्ञानप्रसूनअंबा भी विराजमान हैं। मन्दिर का भीतरी भाग पाँचवीं शताब्दी का बना माना जाता है तथा बाहरी भाग बाद में बारहवीं शताब्दी में निर्मित हुआ।
अन्य दार्शनिक स्थल
मन्दिर के आस-पास कई अन्य मन्दिर भी स्थापित हैं, जिनमें से मणिकणिका मन्दिर, सूर्यनारायण मन्दिर, विश्वनाथ मन्दिर, कणप्पा मन्दिर, कृष्णदेवार्या मंडप, श्री सुकब्रह्माश्रमम, वैय्यालिंगाकोण, जिसे सहस्त्र लिंगों की घाटी कहा जाता है। इसके साथ ही पहाड़ों पर स्थित मन्दिर व दक्षिण काली मन्दिर प्रमुख हैं।[2]
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