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भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
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आश्रित राज्यों, उपनिवेशों, संरक्षित राज्यों और अन्य प्रदेशों की एक विश्वव्यापी व्यवस्था, जो तीन शताब्दी तक ग्रेट ब्रिटेन की प्रभुसत्ता और ब्रिटिश सरकार के प्रशासन के अधीन रही। साम्राज्य के बहुत विस्तृत होने के कारण अधीनस्थ राज्यों को पर्याप्त मात्रा में स्वशासन का अधिकार या मान्यता देने की नीति से 20वीं सदी में ‘ब्रिटिश राष्ट्रमंडल’ (कॉमनवेल्थ) की अवधारणा विकसित हुई, जिसमें मुख्यत: स्वशासित अधीनस्थ राज्य आते थे, जिन्होंने प्रतीकात्मक तौर पर निरंतर बढ़ती ब्रिटिश प्रभुसत्ता को स्वीकार किया। इस संज्ञा को 1931 के अध्यादेश में स्थान मिला। आज राष्ट्रमंडल ब्रिटिश साम्राज्य के भूतपूर्व भूक्षेत्रों का प्रभुसत्तात्मक राज्यों के रूप में स्वतंत्र संघ है। ग्रेट ब्रिटेन ने सबसे पहले 16वीं शताब्दी में सागर पार देशों में अपनी बस्तियाँ बनाने की आज़माइश की। व्यावसायिक महत्त्वकाक्षांओं और फ़्रांस से प्रतिद्वंद्विता के चलते, 17वीं शताब्दी में समुद्रवर्ती विस्तार में तेज़ी आई और परिणामस्वरूप उत्तरी अमेरिका और वेस्ट इंडीज़ में बस्तियों की स्थापना हुई। 1670 तक न्यू इंग्लैंड, वर्जीनिया और मैरीलैंड में उपनिवेशों की और बरमूडा, होंडूरास, एंटिगुआ, बारबाडोस और नोवा स्कोटिया में ब्रिटिश अमेरिकी बस्तियों की स्थापना हो चुकी थी। 1655 में जमैका को युद्ध द्वारा जीता गया और 1670 के बाद से हडसन बे कंपनी ने ख़ुद को पूर्वोत्तर कनाडा कहे जाने वाले क्षेत्र में स्थापित कर लिया। 1600 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में व्यापारिक चौकियाँ क़ायम करनी शुरू कर दी थी और इस कंपनी की गतिविधियों के प्रसार के फ़लस्वरूप जलडमरूमध्य बस्तियों (स्ट्रेट्स सेंटलमेंट्स (पनांग, सिंगापुर, मलक्का और लाबुआन) पर ब्रिटेन का क़ब्ज़ा हो गया। अफ़्रीकी उपमहाद्वीप में पहली स्थायी ब्रिटिश बस्ती गांबिया नदी के जेम्स द्वीप पर स्थापित हुई। गुलामों का व्यापार सियरा लिओन में पहले ही शुरु हो चुका था, लेकिन यह श्रेत्र 1787 में ही ब्रिटिश अधिकार में आया। ब्रिटेन ने केप आफ गुड होप (अब दक्षिण अफ्रीका में) 1806 में हासिल किया और ब्रिटिश नियंत्रण में बोअर और ब्रिटिश अग्रगामियों ने दक्षिण अफ्रीका के आंतरिक प्रदेश खोल दिए। लगभग सभी शुरुआती बस्तियां ब्रिटिश ताज के बजाय किन्हीं खास कंपनियों और बड़े व्यवसायियों के प्रयास के फलस्वरूप बनीं। ब्रिटिश ताज ने नियुक्ति और निरीक्षण के कुछ अधिकारों का प्रयोग जरूर किया लेकिन ये उपनिवेश मूलत: स्व-प्रबंधित उद्यम ही थे। अत: साम्राज्य का गठन टुकड़ों- टुकड़ों में हासिल एक अव्यवस्थित प्रक्रिया थी। कभी-कभी तो ब्रिटिश सरकार इस प्रक्रिया में सबसे कम उत्साही भागीदार होती थी।
==भौगोलिक स्थिति==
17वीं और 18वीं सदी में ब्रिटिश ताज उपनिवेशों पर अपना नियंत्रण मुख्यत: व्यापार और जहाजरानी के क्षेत्रों में रखता था। उस समय की वाणिज्यिक सोच के अनुरूप उपनिवेशों को इंग्लैंड के लिए आवश्यक कच्चे माल के स्रोत के रूप में रेखा जाता था और ब्रिटिश बाजारों में तंबाकू और चीनी जैसे उनके निजी उत्पादों पर उन्हें एकाधिकार दे दिया गया था। बदले में उनसे आशा की जाती थी कि वे अपना समस्त व्यापार ब्रिटिश जहाजों के द्वारा ही करेंगे और ब्रिटेन निर्मित उत्पादों के लिए बाजार बनेंगे। 1651 के जहाजरानी अधिनियम और इसके बाद के अधिनियमों ने ब्रिटेन और उसके उपनिवेशों के मध्य एक बंद अर्थव्यवस्था स्थापित की, सभी औपनिवेशिक निर्यात अंग्रेजी बाजारों से ब्रिटिश बाजारों में जाते थे और सभी औपनिवेशिक आयात इंग्लैंड के रास्ते आते थे। यह व्यवस्था तब तक चली, जब तक स्कॉटी अर्थशास्त्री ऐडम स्मिथ की वेल्थ आफ नेशन्स के प्रकाशन (1776) और अमेरिकी उपनिवेशों को खो बैठने व ब्रिटेन में मुक्त व्यापार आंदोलन बढ़ने के सम्मिलित प्रभावों से 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में यह धीरे-धीरे समाप्त हो गई। अमेरिका में ब्रिटेन की औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था के लिए गुलामों का व्यापार महत्त्वपूर्ण हो उठा था और कैरेबियाई उपनिवेशों व भावी संयुक्त राज्य (अमेरिका) के दक्षिणी भागों के लिए एक आर्थिक आवश्यकता बन गया। ब्रिटेन के उपनिवेशों में दास-प्रथा में मुक्ति के लिए चलने वाला आंदोलन, अमेरिकी आंदोलन से बहुत पहले सफल हो चुका था। वहाँ पर 1807 में गुलामों का व्यापार समाप्त कर दिया गया था और 1833 में ब्रिटेन अधिकृत क्षेत्रों में भी गुलाम-प्रथा का अंत हो गया था।  
====<u>भू-स्थापना</u>====
रॉबर्ट क्लाइव, जेम्स वुल्फ और आयर कूट जैसे व्यक्तियों के नेतृत्व में ब्रिटेन की थल व नौ-सैन्य शक्ति ने ब्रिटिश साम्राज्य के लिए कनाडा और भारत जैसे दो महत्त्वपूर्ण हिस्से हासिल किए। 18वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में अमेरिका में ब्रिटिश और फ्रांसीसी उपनिवेशों के बीच चलने वाला युद्ध स्थानीय ही था। लेकिन 1763 की पेरिस की संधि, जिससे सातवर्षीय युद्ध ने (उत्तरी अमेरिका में फ्रेंच और इंडियन वॉर के नाम से प्रसिद्ध) समाप्त हुआ, कनाडा में ब्रिटेन का वर्चस्व स्थापित कर दिया। भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी को फ्रांस की कोंपेनी द इंद से मुकाबला करना पड़ा, लेकिन 1750 में फ्रांसीसियों और बंगाल के शासकों पर क्लाइव की सैनिक विजय ने ब्रिटेन द्वारा बड़े पैमाने पर भारतीय क्षेत्रों के अधिग्रहण और भारत में उनके भावी वर्चस्व का रास्ता साफ कर दिया।
वाराणसी की स्थापना का आधार सुदूर प्राचीन काल में धार्मिक होकर आर्थिक या व्यापारिक था। वाराणसी की भू-स्थापना का कारण यहाँ की भौगोलिक स्थिति है। यह शहर अर्धचन्द्राकार में गंगा की रचना किनारे पर अवस्थित है। वाराणसी की रचना एक ऊँचे कंकरीले करारे पर है, जो गंगा के पश्चिमी किनारे पर अवस्थित है, जहाँ बाढ़ का खतरा नहीं रहता है। यह आधुनिक राजघाट का चोरस मैदान है जहाँ नदी-नालों का कटाव नहीं मिलता, यह शहर बसने के लिए उपयुक्त था। एक ओर "बरना" नदी तो दूसरी ओर गंगा नगर की प्राकृति खाई का काम करती है। यहाँ के जंगल भी वाराणसी के बचाव के लिए अपनी भूमिका अदा करते रहे होगें। वाराणसी के बचाव में आधुनिक मिर्जापुर ज़िले की विंध्याचल की पहाड़ियाँ भी महत्वपूर्ण थीं।
1776-83 में ब्रिटेन के हाथ से 13 अमेरिकी उपनिवेशों के निकल जाने की क्षतिपूर्ति, 1788 से आस्ट्रेलिया में नई बस्तियों और अब के अमेरिका से ब्रिटिश सत्ता के वफादार लोगों के उत्प्रवास के बाद ऊपरी कनाडा (अब ओंटारियो) के अभूतपूर्व विकास से हुई। नेपोलियन से हुए युद्धों ने साम्राज्य को अतिरिक्त लाभ प्रदान किया। ऐमिएं की संधि (1802) ने त्रिनिदाद और सीलोन (वर्तमान श्रीलंका) को आधिकारिक रूप से ब्रिटिश सत्ता के अधीन कर दिया और पेरिस की संधि (1814) से फ्रांस ने टोबैगो, मॉरिशस, सेंट लूशिया और माल्टा सौंप दिए। 1795 में मलक्का साम्राज्य में शामिल हुआ और सर स्टैमफोर्ड रैफल्स ने 1819 में सिंगापुर हासिल किया। अलबर्टा, मैनिटोबा और ब्रिटिश कोलंबिया की कनाडाई बस्तियों ने ब्रिटिश प्रभाव को प्रशांत महासागर तक पहुंचा दिया, जबकि भारत में ब्रिटिश विजय द्वारा आगरा और अवध के संयुक्त राज्यों, मध्य प्रांतों, पूर्वी बंगाल और असम को भी मिला लिया गया।
19वीं शताब्दी को ब्रिटिश साम्राज्य के पूर्ण पल्लवन का काल माना जाता है। प्रशासन और नीति में बदलाव इसी शताब्दी के दौरान हुए और 17वीं व 18वीं शताब्दी की जस-तस व्यवस्था की जगह, औपनिवेशिक कार्यालय में जोसेफ चैंबरलेन के कार्यकाल (1895-1900) की विशिष्ट विवेकपूर्ण व्यवस्था आ गई। 1801 में शुरु हुआ यह कार्यालय, पहले गृह कार्यालय और व्यापार बोर्ड के साथ संलग्न था, लेकिन 1850 में यह एक अलग विभाग बन गया, जिसके कार्मिकों की संख्या बढ़ रही थी और जिसकी अपनी एक सतत नीति थी। इसके माध्यम से जरूरत पड़ने पर औपनिवेशिक सरकारों पर दबाव डाला जाता था और उन्हें अनुशासित किया जाता था।
1840 में न्यूजीलैंड आधिकारिक तौर पर ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा बन गया। इसके बाद यहाँ का औपनिवेशीकरण तेजी से हुआ। ब्रिटिश मिशनरियों की ओर से पड़ने वाले थोड़े-बहुत दबाव के कारण ब्रिटिश अधिपत्य फिजी, टोंगा, पापुआ और प्रशांत महासागर के दूसरे द्वीपों तक फैल गया। और 1877 में पश्चिमी प्रशांत महासागर के द्वीपों के लिए ब्रिटिश उच्चायोग की स्थापना की गई। भारतीय विद्रोह (1857) के बाद ब्रिटिश ताज ने भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकारी सत्ता संभाल ली। 1886 में ब्रिटेन द्वारा बर्मा (वर्तमान म्यंमार) का अधिग्रहण पूरा हो गया, जबकि पंजाब (1849) और बलूचिस्तान (1854-76) की विजय से स्वयं भारतीय उपमहाद्वीप में उसे महत्त्वपूर्ण नए प्रदेश उपलब्ध हो गए। फ्रांसीसियों द्वारा स्वेज नहर का काम पूरा (1869) कर लिए जाने के बाद ब्रिटेन को भारत के लिए पहले से कहीं छोटा मार्ग सुलभ हो गया। ब्रिटेन ने इसका लाभ अदन में अपने बंदरगाह के विस्तार, सोमालीलैंड (वर्तमान सोमालिया) में एक सरंक्षित सराज्य और दक्षिणी अरब की रियासतों में अपने प्रभाव-क्षेत्र में वृद्धि के रूप मं उठाया। साइप्रस, जो जिब्राल्टर और माल्टा ही की तरह भूमध्य सागर से होता हुआ भारत के साथ संपर्क-श्रृंखला की एक कड़ी था, पर 1878 में कब्जा कर लिया गया। अन्यत्र, जलडमरूमध्य बस्तियों और मलय राज्य परिसंघ के विकास के साथ ब्रिटिश प्रभाव सुदूर पूर्व तक फैला और 1880 के दशक में ब्रूनई और सारावाक संरक्षित राज्य बना लिए गए। 1841 में हांगकांग द्वीप ब्रिटिश अधिकार में आ गया। चीन में ब्रिटिश-संधि-बंदरगाहों और व्यापार के केंद्र, शंघाई, के माध्यम से एक ‘अनौपचारिक साम्राज्य’ चल रहा था।
ब्रिटिश सत्ता का सबसे बड़ा विस्तार अफ्रीका में हुआ। ब्रिटेन को 1882 से मिस्र में और 1899 से सूडान में सत्ताधारी शक्ति के रूप में जाना जाता था। इस शताब्दी के उत्तरार्द्ध में, रॉयल नाइजर कंपनी ने ब्रिटिश प्रभाव को नाईजीरिया और गोल्ड कोस्ट (वर्तमान घाना) में बढ़ाना शुरु कर दिया था और जांबिया भी ब्रिटिश अधिकार में आ गया। केन्या और युगांडा कहे जाने वाले क्षेत्रों में इंपीरियल ब्रिटिश ईस्ट अफ्रीका कंपनी काम करती थी और ब्रिटिश साउथ अफ्रीका कंपनी जिंबाब्वे (भूतपूर्व दक्षिणी रोडेशिया), जांबिया (भूतपूर्व उत्तरी रोडेशिया) और मलावी में सक्रिय थी। दक्षिण अफ्रीका से उत्तर में मिस्र तक फैली ब्रिटिश प्रदेशों की श्रृंखला ने अंग्रेज जनता के ‘केप से काहिरा’ तक विस्तृत अफ्रीकी साम्राज्य के सपने को पूरा कर दिया। 19वीं सदी के अंत तक संसार की एक-चौथाई भूमि और उसकी चौथाई से भी अधिक जनसंख्या ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा थी।


वाराणसी के व्यापारी पश्चिम की ओर गंगा और यमुना के रास्ते मथुरा पहुँचते थे तथा पूरब की ओर चंपा होते हुए ताम्रलिप्ति के बन्दरगाह तक जाते थे। वाराणसी उसी महाजनपद पर अवस्थित थी जो तक्षशिला से राजगृह के बाद पाटलिपुत्र को जाता था। यहाँ से अन्य सड़कें देश के भिन्न-भिन्न भागों को जाती थीं, जिनमें होकर काशिक चंदन और वस्र के द्वारा वाराणसी की व्यापारिक महत्ता देश में चारों ओर फैलती थी।
ब्रिटेन के कुछ उपनिवेशों के लिए सीमित स्वशासन के विचार की सिफारिश सबसे पहले कनाडा के लिए 1839 में लॉर्ड डरहम ने की थी। इस रिपोर्ट में ‘उत्तरदायी स्वशासन’ का प्रस्ताव रखा गया था, ताकि ब्रिटिश सरकार द्वारा चुने गए अधिकारियों के बजाय कनाडा के नागरिकों द्वारा चुनी गई मंत्रिपरिषद कार्यकारी अधिकारों का प्रयोग कर सके। अपने कार्यकाल के लिए मंत्रिपरिषद प्राथमिक तौर पर औपनिवेशिक विधान सभा के समर्थन पर निर्भर रहने वाली थी।
====<u>प्राकृतिक बनावट</u>====
जब आरंभिक युग में वाराणसी में मनुष्य बसे तो वाराणसी की प्राकृतिक बनावट का क्या रुप था पर कृत्यकल्पतरु, काशीखण्ड और 19वीं सदी के जान प्रिंसेप के नक्शे के आधार पर यह कहना सम्भव है कि गंगा-बरना संगम से लेकर गंगा अस्सी संगम के कुछ उत्तर तक एक कंकरीला करारा है, जो गोदौलिया नाले के पास कट जाती है। जमीन की सतह नदी की सतह से नीची पड़ जाने पर पानी बरना में चला जाता था। गोदौलिया नाले में मिसिर पोखरा, लक्षमीकुण्ड था, बेनिया तालाब का पानी गंगा में बह जाता था। मछोदरी रकबे का पानी बरना में गिरता था। मछोदरी के पूरब में कगार के नीचे एक चौरस मैदान पड़ जाता था जिसके उत्तर में नाले बहते थे।
====<u>नदी के रुप में उल्लेख</u>====
स्थलपुराणों में मत्स्योदरी का काशी में एक नदी के रुप में उल्लेख एक पहेली है। लक्ष्मीधर 1 ने तीर्थ विवेचन कांड में (पृ. 34, 58, 69) इस नदी का तीन बार उल्लेख किया है। एक स्थान पर (पृ. 34-35) शुष्क नदी यानि अस्सी को पिंगला नाड़ी, वरुणा को इला नाड़ी और इन दोनों के बीच मत्स्योदरी को सुषुम्ना नाड़ी माना है। अन्यत्र (पृ. 58) गंगा और मत्स्योदरी के संगम पर स्नान मोक्षदायक माना गया है। तीसरे स्थान पर (पृ.69) इस नदी के तीर पर देवलोक छोड़कर देवताओं के बसने की बात कही गयी है। मित्र मिश्र द्वारा उद्धृत काशीखण्ड (पृ. 240) में मत्स्योदरी को बहिरन्तश्चर कहा गया है और वह गंगा के प्रतिकूल धारा (संहार मार्ग) से मिलती थी। सोलहवीं सदी में नारायण भ की व्युत्पत्ति के अनुसार मत्स्याकार काशी के गर्भ में अवस्थित होने से इसका नाम मत्स्योदरी पड़ा।
====<u>मत्स्योदरी तीर्थ</u>====
उपर्युक्त सामग्री के अवलोकन से सभी बातें स्पष्ट हो जाती हैं। काशी खंड के अनुसार शिवगणों ने मत्स्योदरी तीर्थ के सन्निकट शैलों से घिरा हुआ दुर्ग बनाया और उसके पास मत्स्योदरी के जल से भरी परिखा (मोट) थी। अत: एक तो मत्स्योदरी झील थी जिसका जल भीतर ही भीतर प्रवाहित था या अंतश्चर था और दूसरी मत्स्योदरी परिखा थी जिसका जल बहकर वरुणा को पीछे ठेलता था। वर्षा काल में गंगा में बाढ़ आती तो गंगा का पानी वरुणा को पीछे ठेलता मत्स्योदरी परिखा में प्रविष्ट होता और अंतत: मत्स्योदरी तीर्थ में आ पहुँचता। इसी को पुनीत मत्स्योदरी योग कहा जाता है। इस बहते हुए गंगा जल से काशी क्षेत्र पूर्णत: घिर जाता और उसका स्वरुप मछली सा हो जाता।
====<u>काव्यमयी भाषा</u>====
इसी स्थिति को त्रिस्थली सेतु ने काव्यमयी भाषा में कहा है कि ऐसा प्रतीत होता है कि गंगा ने स्वयं मत्स्योदरी रुपर धारण कर लिया है। इस पुनीत संगम का महात्म्य बताते हुए लिखा है कि समस्त तीर्थ और शिवलिंग यहां प्राप्त हो जाते हैं। गंगा-वरुणा और मत्स्योदरी का यह संगम आंकारेश्वर के पास होता था और यहीं भैरवरुप भगवान् शंकर ने स्नान किया था और कपालमोचन तीर्थ की सृष्टि हुई थी। वाराणसी में तीन पुण्यदा नदियों की चर्चा कृत्य-कल्पतरु ने की है- ये हैं- पितामह-स्रोतिका (ब्रह्मनाल), मन्दाकिनी (मध्यमेश्वर के पास) और मत्स्योदरी (ओंकारेश्वर के पास) ये तीनों वर्षा के दिनों में नदी का रुप धारण करती थी। पितामहस्रोतिका नाले से अविमुक्तेश्वर क्षेत्र का जल गंगा में गिरता था। मन्दाकिनी में वर्तमान दारानगर, औसानगंज, काशीपुरा, विश्वेसरगंज का जल एकत्र होता था जो बुलानाला, सप्तसागर भुलेटन, बेनिया, मिसिरपोखरा, गोदावरी तीर्थ (गोदौलिया) होते हुए शीतलाघट के पास गंगा में गिरता था। मत्स्योदरी परिखा का जल ओंकारेश्वर के पास होते हुए वरुणा में गिरता था। बड़ी बाढ़ में मत्स्योदरी के भर जाने पर जल शिवतड़ाग (हालूगड़हा जिस पर विश्वेश्वर गंज का बाजार बसा है) को भरता हुआ मंदाकिनी में मिलता, वहां से दशाश्वमेघ के पास गंगा में मिलता। इस प्रकार राजघाट से दशाश्वमेघ तक का समूचा क्षेत्र पानी से घिर जाता था या वाराणसी क्षेत्र ही मत्स्याकार हो जाता था।
====<u>पौराणिक व्युत्पत्ति</u>====
वाराणसी की पौराणिक व्युत्पत्ति को स्वीकार करने में बहुत सी कठिनाइयां है। पहली कठिनाई तो यह है कि अस्सी नदी न होकर बहुत ही साधारण नाला है और इस बात का भी कोई प्रमाण नहीं है कि प्राचीन काल में इसका रुप नदी का था। प्राचीन वाराणसी की स्थिति भी इस मत का समर्थन नहीं करती। प्राय: विद्वान एक मत है कि प्राचीन वाराणसी आधुनिक राजघाट के ऊंचे मैदान पर बसी थी और इसका प्राचीन विस्तार जैसा कि भग्नावशेषों से भी पता चलता है - बरना के उस पार भी था, पर अस्सी की तरफ तो बहुत ही कम प्राचीन अवशेष मिले हैं और जो मिले भी हैं वे परवर्ती अर्थात् मध्यकाल के हैं।<ref>वाराणस्यां नदी पु सिद्धगन्धर्वसेविता। प्रविष्टा त्रिपथा गंगा तस्मिन् क्षेत्रे मम प्रिये।।</ref>
अर्थात्- हे प्रिये, सिद्ध गंधर्वों से सेवित वाराणसी में जहां पुण्य नदी त्रिपथगा गंगा आता है वह क्षेत्र मुझे प्रिय है। यहां अस्सी का उल्लेख नहीं है। वाराणसी क्षेत्र का विस्तार बताते हुए मत्स्यपुराण में एक और जगह कहा गया है-<ref>वरणा च नदी यावद्यावच्छुष्कनदी तथा। भीष्मयंडीकमारम्भ पर्वतेश्वरमन्ति के।।</ref>
====<u>वाराणसी के बसने की कल्पना</u>====
अस्सी और बरणा के बीच में वाराणसी के बसने की कल्पना उस समय से उदय हुई जब नगर की धार्मिक महिमा बढ़ी और उसके साथ-साथ नगर के दक्षिण में आबादी बढ़ने से दक्षिण का भाग भी उसकी सीमा में आ गया। लेकिन प्राचीन वाराणसी सदैव बरना पर ही स्थित नहीं थी, गंगा तक उसका प्रसार हुआ था। कम-से-कम पंतजलि के समय में अर्थात् ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में तो यह गंगा के किनारे-किनारे बसी थी, जैसी कि अष्टाध्यायी के सूत्र "यस्य आया:' (2/1/16) पर पंतजलि ने भाष्य "अनुगङ्ग' वाराणसी, अनुशोणं पाटलिपुत्रं (कीलहार्न 6,380) से विदित है। मौर्य और शुंगयुग में राजघाट पर गंगा की ओर वाराणसी के बसने का प्रमाण हमें पुरातत्व के साक्ष्य से भी लग चुका है।
==नदियाँ==
====<u>गंगा</u>====
गंगा का वाराणसी की प्राकृतिक रचना में मुख्य स्थान है। गंगा वाराणसी में गंगापुर के बेतवर गाँव से पहले घुसती है। यहाँ पर इससे सुबहा नाला आ मिला है। वाराणसी को वहाँ से प्राय: सात मील तक गंगा मिर्जापुर जिले से अलग करती है और इसके बाद वाराणसी जिले में वाराणसी और चन्दौली को विभाजित करती है। गंगा की धारा अर्ध-वृत्ताकार रुप में वर्ष भर बहती है। इसके बाहरी भाग के ऊपर करारे पड़ते हैं और भीतरी भाग में बालू अथवा बाढ़ की मिट्टी मिलती है। गंगा का रुख पहले उत्तर की तरफ होता हुआ रामनगर के कुछ आगे तक देहात अमानत को राल्हूपुर से अलग करता है। यहाँ पर करारा कंकरीला है और नदी उसके ठीक नीचे बहती है। यहां तूफान में नावों को काफी खतरा रहता है। देहात अमानत में गंगा का बांया किनारा मुंडादेव तक चला गया है। इसके नीचे की ओर वह रेत में परिणत हो जाता है और बाढ़ में पानी से भर जाता है। रामनगर छोड़ने के बाद गंगा की उत्तर-पूर्व की ओर झुकती दूसरी केहुनी शुरु होती है। धारा यहां बायें किनारे से लगकर बहती है। अस्सी संगम से लेकर करारे पर बनारस के मंदिर, घाट और मकान बने हैं और दाहिने किनारे पर बलुआ मैदान है। गंगा नदी मालवीय पुल से कैथ तक पूरब की और बहती है। यहाँ धारा बायें किनारे से लगकर बहती है। और यह करारा बरना संगम के कुछ आगे तक चला जाता है।  तांतेपुर पर यह धारा दूसरे किनारे की ओर जाने लगती है और किनारा नीचा और बलुआ होने लगता है। दाहिनी ओर मिट्टी के नीचे करारे का बाढ़ से ढूबने का भय रहता है।
 
गंगा कैथी के पास उत्तर की ओर झुकती है और उसका यह रुख बलुआ तक रहता है। कैथी से कांवर तक दक्षिणी किनारा पहले तो भरभरा रहता है पर बाद में कंकरीले करारे में बदल जाता है लेकिन कांवर से बलुआ तक मिट्टी की एक उपजाऊ पट्टी कुछ भीतर घुसती हुई पड़ती है। इस घुमाव के अंदर जाल्हूपुर परगना है। इस परगन के अन्दर से गंगा की एक उपधारा बलुआ के कुछ ऊपर गंगा से मिल जाती है। बलुआ से गंगा उत्तर-पश्चिम की ओर घूम जाती है। इसका बांयी ओर का किनारा जाल्हूपुर और कटेहर की सीमा तक नीचा और बलुआ है। यहां से नदी पहले उत्तर की ओर बाद में उत्तर-पूर्व की ओर बहती है। कटेहर के दक्षिण-पूरब कंकरीला किनारा शुरु हो जाता है और यहां-वहां खादर के टुकड़े दीख पड़ते हैं। दूसरा किनारा परगना बरह में पड़ता है। बरह के उत्तरी छोर से कुछ दूर गंगा गाजीपुर और वाराणसी की सीमा अलग करती है और वह गाजीपुर जिले में घुस जाती है।
====<u>बानगंगा</u>====
इस बात का भी कोई प्रमाण नहीं है कि प्राचीन काल में बरह शाखा के सिवा गंगा की कोई दूसरी धारा थी। लेकिन इस बात का प्रमाण है कि गंगा की धारा प्राचीन काल में दूसरी ही तरह से बहती थी। परगना कटेहर में कैथ के पास की चचरियों से ऐसा लगता है कि इन्हीं कंकरीले करारों की वजह से नदी एक समय दक्षिण की ओर घूम जाती थी। गंगा की इस प्राचीन धारा के बहाव का पता हमें बानगंगा से मिलता है जो बरसात में भर जाती है। बानगंगा टांड़ा से शुरु होकर दक्षिण की ओर छ: मील तक महुवारी की ओर जाती है, फिर पूर्व की ओर रसूलपुर तक, अन्त में उत्तर में रामगढ़ को पार करती हुई वह हसनपुर (सैयदपुर के सामने) तक जाती है। गंगा की धार का यह रुख जिस समय था गंगा की वर्तमान धारा में उस समय गोमती बहती थी जो गंगा में सैयदपुर के पास मिल जाती थी। कैथी और टांड़ा के बीच में कंकरीले करारे को गंगा ने कब तोड़ा इसका पता यहां की जमीन की बनावट से लगता है। इस स्थान पर नदी का पाट दूसरी जगहों की उपेक्षा जहां नदी ने अपना पाट नहीं बदला है, बहुत कम चौड़ा है। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि किसी समय यह किसी बड़ी नदी का पाट था। इस मत की पुष्टि वैरांट की लोक कथाओं से भी होती है। जनश्रुति यह है कि शान्तनु ने बानगंगा को काशिराज की कन्या के स्वयंवर के अवसर पर पृथ्वी फोड़कर निकाला। उस समय काशिराज की राजधानी रामगढ़ थी। अगर किसी समय राजप्रसाद रामगढ़ में था तो वह गंगा पर रहा होगा और इस तरह इस लोक कथा के आधार पर भी यह कहा जा सकता है कि एक समय गंगा रामगढ़ से होकर बहती थी।
 
रामगढ़ में बानगंगा के तट पर वैरांट के प्राचीन खंडहरों की स्थिति है, जो महत्वपूर्ण है। लोक कथाओं के अनुसार यहां एक समय प्राचीन वाराणसी बसी थी। सबसे पहले बैरांट के खंडहरों की जांच पड़ताल ए.सी.एल. कार्लाईल 2 ने की। वैरांट की स्थिति गंगा के दक्षिण में सैदपुर से दक्षिण-पूर्व में और वाराणसी के उत्तर-पूर्व में करीब 16 मील और गाजीपुर के दक्षिण-पश्चिम करीब 12 मील है। वैरांट के खंडहर बानगंगा के बर्तुलाकार दक्षिण-पूर्वी किनारे पर हैं।
====<u>बरना</u>====
सुबहा और अस्सी जैसे दो एक मामूली नाले-नालियों को छोड़कर इस जिले में गंगा की मुख्य सहायक नदियां बरना और गोमती है। वाराणसी के इतिहास के लिए तो बरना का काफी महत्व है क्योंकि जैसा हम पहले सिद्ध कर चुके हैं इस नदी के नाम पर ही वाराणसी नगर का नाम पड़ा। अथर्ववेद (5/7/1) में शायद बरना को ही बरणावती नाम से संबोधन किया गया है। उस युग में लोगों का विश्वास था कि इस नदी के पानी में सपं-विष दूर करने का अलौकिक गुण है। इस नदी का नामप्राचीन पौराणिक युग में "वरणासि' था। बरना इलाहाबाद और मिर्जापुर जिलों की सीमा पर फूलपुर के ताल से निकालकर वाराणसी जिले की सीमा में पश्चिमी ओर से घुसती है और यहां उसका संगम विसुही नदी से सरवन गांव में होता है। विसुही नाम का संबंध शायद विष्ध्नी से हो। संभवत: बरना नदी के जल में विष हरने की शक्ति के प्राचीन विश्वास का संकेत हमें उसकी एक सहायक नदी के नाम से मिलता है। बिसुही और उसके बाद वरना कुछ दूर तक जौनपुर और वाराणसी की सीमा बनाती है। बल खाती हुई बरना नदी पूरब की ओर जाती है और दक्षिण और कसवार ओर देहात अमानत की ओर उत्तर में पन्द्रहा अठगांवा और शिवपुर की सीमाएं निर्धारित करती है। बनारस छावनी के उत्तर से होती हुई नदी दक्षिण-पूर्व की ओर घूम जाती है और सराय मोहाना पर गंगा से इसका संगम हो जाता है। वाराणसी के ऊपर इस पर दो तीर्थ है, रामेश्वर ओर कालकाबाड़ा। नदी के दोनों किनारे शुरु से आखिर तक साधारणत: हैं और अनगिनत नालों से कटे हैं।
====<u>गोमती</u>====
गोमती नदी का भी पुराणों में बहुत उल्लेख है। पौराणिक युग में यह विश्वास था कि वाराणसी क्षेत्र की सीमा गोमती से बरना तक थी। इस जिले में पहुंचने के पहले गोमती का पाट सई के मिलने से बढ़ जाती है। नदी जिले के उत्तर में सुल्तानीपुर से घुसती है और वहां से 22 मील तक अर्थात कैथी में गंगा से संगम होने तक यह जिले की उत्तरी सरहद बनाती है। नदी का बहाव टेढ़ा-मेढ़ा है और इसके किनारे कहीं और कहीं ढालुएं हैं।
====<u>नंद</u>====
नंद ही गोमती की एकमात्र सहायक नदी है। यह नदी जौनपुर की सीमा पर कोल असला में फूलपुर के उत्तर-पूर्व से निकलती है और धौरहरा में गोमती से जा मिलती है। नंद में हाथी नाम की एक छोटी नदी हरिहरपुर के पास मिलती है।
====<u>करमनासा</u>====
मध्यकाल में हिन्दुओं का यह विश्वास था कि करमनासा के पानी के स्पर्श से पुण्य नष्ट हो जाता है। करमनासा और उसकी सहायक नदियां चंदौली जिले में है। नदी कैभूर पहाड़ियों से निकलकर मिर्जापुर जिले से होती हुई, पहले-पहल बनारस जिले में मझवार परगने से फतहपुर गांव से घूमती है। करमनासा, मझवार के दक्षिण-पूरबी हिस्से में करीब 10 मील चलकर गाजीपुर की सरहद बनाती हुई परगना नरवम को जिला शाहाबाद से अलग करती है। जिले को ककरैत में छोड़ती हुई फतेहपुर से 34 मील पर चौंसा में वह गंगा से मिल जाती है। नौबतपुर में इस नदी पर पुल है और यहीं से ग्रैंड ट्रंक रोड और गया को रेलवे लाइन जाती है।
====<u>गड़ई</u>====
गड़ई करमनासा की मुख्य सहायक नदी है जो मिर्जापुर की पहाड़ियों से निकलकर परगना धूस के दक्षिण में शिवनाथपुर के पास से इस जिले में घुसती है और कुछ दूर तक मझवार और धूस की सीमा बनाती हुई बाद में मझवार होती हुई पूरब की ओर करमनासा में मिल जाती है।
====<u>गड़ई</u>====
मझवार में गुरारी के पास मिर्जापुर के पहाड़ी इलाके से निकलकर चन्द्रप्रभा वाराणसी जिले को बबुरी पर छूती हुई थोड़ी दूर मिर्जापुर में बहकर उत्तर में करमनासा से मिल जाती है।
 
वाराणसी जिले की नदियों के उक्त वर्णन से यह ज्ञात होता है कि बनारस में तो प्रस्रावक नदियां है लेकिन चंदौली में नहीं है जिससे उस जिले में झीलें और दलदल हैं, अधिक बरसात होने पर गांव पानी से भर जाते हैं तथा फसल को काफी नुकसान पहुंचता है। नदियों के बहाव और जमीन की की वजह से जो हानि-लाभ होता है इसे प्राचीन आर्य भली-भांति समझते थे और इसलिए सबसे पहले आबादी वाराणसी में हुई।
 
==यातायात==
किसी नगर के विकास का एक मुख्य कारण यातायात के साधन हैं। बहुत प्राचीन काल से वाराणसी में यातायात की अच्छी सुविधा रही है। यात्रियों के आराम पर बनारसवासियों का काफी ध्यान था। बनारसवासी सड़कों पर जानवरों के लिए पानी का भी प्रबंध करते थे। जातकों में (जा. १७५) एक जगह कहा गया है कि काशी जनपद के राजमार्ग पर एक गहरा कुआं था जिसके पानी तक पहुंचने के लिए कोई साधन न था। उस रास्ते से जो लोग जाते थे वे पुण्य के लिए पानी खींचकर एक द्रोणी भर देते थे जिससे जानवर पानी पी सकें।
 
अलबरुनी के समय में (११वीं सदी का आरंभ) बारी (आगरा की एक तहसील) से एक सड़क गंगा के पूर्वी किनारे अयोध्या पहुंचती थी। बारी से अयोध्या २५ फरसंग तथा वहां से वाराणसी २० फरसंग था। यहां से गोरखपुर, पटना, मुंगेर होती हुई यह सड़क गंगासागर को चली जाती थी। १ यही वैशाली वाली प्राचीन सड़क है और इसका उपयोग सल्तनत युग में बहुत होता था।
====ग्रैण्ड ट्रंक रोड़====
सड़क-ए-आजम जिसे हम ग्रैण्ड ट्रंक रोड़ कहते हैं, बहुत प्राचीन सड़क है जो मौर्य काल में पुष्पकलावती से पाटलिपुत्र होती हुई ताम्रलिप्ति तक जाती थी। शेरशाह ने इस सड़क का पुन: उद्धार किया, इस पर सरायां बनवाई और डाक का प्रबंध किया। कहते हैं कि यह सड़क-ए-आजम बंगाल में सोनारगांव से सिंध तक जाती थी और इसकी लम्बाई १५०० कोस थी। यह सड़क वाराणसी से होकर जाती थी। २ इस सड़क की अकबर के समय में काफी उन्नति हुई और शायद उसी काल में मिर्जामुरात और सैयदराज में सराएं बनी। आगरा से पटना तक इस सड़क का वर्णन पीटर मंटी ने १६३२ ईं. में किया है। ३ चहार गुलशन ४ में भी वाराणसी से होकर जाने वाली सड़कों का वर्णन है। एक सड़क दिल्ली-मुरादाबाद बनारस होकर पटना जाती थी और दूसरी आगरा-इलाहाबाद होकर वाराणसी आती थी। इन बड़ी सड़कों के अतिरिक्त बहुत से छोटे-मोटे रास्ते वाराणसी को जौनपुर, गाजीपुर और मिर्जापुर से मिलाते थे।
====जलमार्ग====
वाराणसी के धार्मिक और व्यापारिक प्रभाव का मुख्य कारण इसकी गंगा पर स्थिति होना है। गंगा में बहुत प्राचीन काल से नावें चलती थीं जिनसे काफी व्यापार होता था। वाराणसी से कौशांबी तक जलमार्ग से दूरी ३० योजन दी हुई है। ५ वाराणसी से समुद्र यात्रा भी होती थी। एक जातक (३८४) में कहा गया है कि वाराणसी के कुछ व्यापारियों ने दिसाकाक लेकर समुद्र यात्रा की। यह दिशाकाक समुद्र यात्रा के समय किनारे का पता लगाने के लिए छोड़ा जाता था। कभी-कभी काशी के राजा भी नावों के बेड़ों में (बहुनावासंघाटे) सफर करते थे (जा. ३/३२६)।
====चौराहों पर सभाएं====
यात्रियों के विश्राम के लिये अक्सर चौराहों पर सभाएं बनवायी जाती थीं। इनमें सोने के लिए आसंदी और पानी के घड़े रखे होते थे। इनके चारों ओर दीवारें होती थी और एक ओर फाटक। भीतर जमीन पर बालू बिछी होती थी और ताड़ वृक्षों की कतारें लगी होती थी (जा. १/७९)।
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
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Revision as of 07:48, 1 November 2010

आश्रित राज्यों, उपनिवेशों, संरक्षित राज्यों और अन्य प्रदेशों की एक विश्वव्यापी व्यवस्था, जो तीन शताब्दी तक ग्रेट ब्रिटेन की प्रभुसत्ता और ब्रिटिश सरकार के प्रशासन के अधीन रही। साम्राज्य के बहुत विस्तृत होने के कारण अधीनस्थ राज्यों को पर्याप्त मात्रा में स्वशासन का अधिकार या मान्यता देने की नीति से 20वीं सदी में ‘ब्रिटिश राष्ट्रमंडल’ (कॉमनवेल्थ) की अवधारणा विकसित हुई, जिसमें मुख्यत: स्वशासित अधीनस्थ राज्य आते थे, जिन्होंने प्रतीकात्मक तौर पर निरंतर बढ़ती ब्रिटिश प्रभुसत्ता को स्वीकार किया। इस संज्ञा को 1931 के अध्यादेश में स्थान मिला। आज राष्ट्रमंडल ब्रिटिश साम्राज्य के भूतपूर्व भूक्षेत्रों का प्रभुसत्तात्मक राज्यों के रूप में स्वतंत्र संघ है। ग्रेट ब्रिटेन ने सबसे पहले 16वीं शताब्दी में सागर पार देशों में अपनी बस्तियाँ बनाने की आज़माइश की। व्यावसायिक महत्त्वकाक्षांओं और फ़्रांस से प्रतिद्वंद्विता के चलते, 17वीं शताब्दी में समुद्रवर्ती विस्तार में तेज़ी आई और परिणामस्वरूप उत्तरी अमेरिका और वेस्ट इंडीज़ में बस्तियों की स्थापना हुई। 1670 तक न्यू इंग्लैंड, वर्जीनिया और मैरीलैंड में उपनिवेशों की और बरमूडा, होंडूरास, एंटिगुआ, बारबाडोस और नोवा स्कोटिया में ब्रिटिश अमेरिकी बस्तियों की स्थापना हो चुकी थी। 1655 में जमैका को युद्ध द्वारा जीता गया और 1670 के बाद से हडसन बे कंपनी ने ख़ुद को पूर्वोत्तर कनाडा कहे जाने वाले क्षेत्र में स्थापित कर लिया। 1600 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में व्यापारिक चौकियाँ क़ायम करनी शुरू कर दी थी और इस कंपनी की गतिविधियों के प्रसार के फ़लस्वरूप जलडमरूमध्य बस्तियों (स्ट्रेट्स सेंटलमेंट्स (पनांग, सिंगापुर, मलक्का और लाबुआन) पर ब्रिटेन का क़ब्ज़ा हो गया। अफ़्रीकी उपमहाद्वीप में पहली स्थायी ब्रिटिश बस्ती गांबिया नदी के जेम्स द्वीप पर स्थापित हुई। गुलामों का व्यापार सियरा लिओन में पहले ही शुरु हो चुका था, लेकिन यह श्रेत्र 1787 में ही ब्रिटिश अधिकार में आया। ब्रिटेन ने केप आफ गुड होप (अब दक्षिण अफ्रीका में) 1806 में हासिल किया और ब्रिटिश नियंत्रण में बोअर और ब्रिटिश अग्रगामियों ने दक्षिण अफ्रीका के आंतरिक प्रदेश खोल दिए। लगभग सभी शुरुआती बस्तियां ब्रिटिश ताज के बजाय किन्हीं खास कंपनियों और बड़े व्यवसायियों के प्रयास के फलस्वरूप बनीं। ब्रिटिश ताज ने नियुक्ति और निरीक्षण के कुछ अधिकारों का प्रयोग जरूर किया लेकिन ये उपनिवेश मूलत: स्व-प्रबंधित उद्यम ही थे। अत: साम्राज्य का गठन टुकड़ों- टुकड़ों में हासिल एक अव्यवस्थित प्रक्रिया थी। कभी-कभी तो ब्रिटिश सरकार इस प्रक्रिया में सबसे कम उत्साही भागीदार होती थी। 17वीं और 18वीं सदी में ब्रिटिश ताज उपनिवेशों पर अपना नियंत्रण मुख्यत: व्यापार और जहाजरानी के क्षेत्रों में रखता था। उस समय की वाणिज्यिक सोच के अनुरूप उपनिवेशों को इंग्लैंड के लिए आवश्यक कच्चे माल के स्रोत के रूप में रेखा जाता था और ब्रिटिश बाजारों में तंबाकू और चीनी जैसे उनके निजी उत्पादों पर उन्हें एकाधिकार दे दिया गया था। बदले में उनसे आशा की जाती थी कि वे अपना समस्त व्यापार ब्रिटिश जहाजों के द्वारा ही करेंगे और ब्रिटेन निर्मित उत्पादों के लिए बाजार बनेंगे। 1651 के जहाजरानी अधिनियम और इसके बाद के अधिनियमों ने ब्रिटेन और उसके उपनिवेशों के मध्य एक बंद अर्थव्यवस्था स्थापित की, सभी औपनिवेशिक निर्यात अंग्रेजी बाजारों से ब्रिटिश बाजारों में जाते थे और सभी औपनिवेशिक आयात इंग्लैंड के रास्ते आते थे। यह व्यवस्था तब तक चली, जब तक स्कॉटी अर्थशास्त्री ऐडम स्मिथ की वेल्थ आफ नेशन्स के प्रकाशन (1776) और अमेरिकी उपनिवेशों को खो बैठने व ब्रिटेन में मुक्त व्यापार आंदोलन बढ़ने के सम्मिलित प्रभावों से 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में यह धीरे-धीरे समाप्त न हो गई। अमेरिका में ब्रिटेन की औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था के लिए गुलामों का व्यापार महत्त्वपूर्ण हो उठा था और कैरेबियाई उपनिवेशों व भावी संयुक्त राज्य (अमेरिका) के दक्षिणी भागों के लिए एक आर्थिक आवश्यकता बन गया। ब्रिटेन के उपनिवेशों में दास-प्रथा में मुक्ति के लिए चलने वाला आंदोलन, अमेरिकी आंदोलन से बहुत पहले सफल हो चुका था। वहाँ पर 1807 में गुलामों का व्यापार समाप्त कर दिया गया था और 1833 में ब्रिटेन अधिकृत क्षेत्रों में भी गुलाम-प्रथा का अंत हो गया था। रॉबर्ट क्लाइव, जेम्स वुल्फ और आयर कूट जैसे व्यक्तियों के नेतृत्व में ब्रिटेन की थल व नौ-सैन्य शक्ति ने ब्रिटिश साम्राज्य के लिए कनाडा और भारत जैसे दो महत्त्वपूर्ण हिस्से हासिल किए। 18वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में अमेरिका में ब्रिटिश और फ्रांसीसी उपनिवेशों के बीच चलने वाला युद्ध स्थानीय ही था। लेकिन 1763 की पेरिस की संधि, जिससे सातवर्षीय युद्ध ने (उत्तरी अमेरिका में फ्रेंच और इंडियन वॉर के नाम से प्रसिद्ध) समाप्त हुआ, कनाडा में ब्रिटेन का वर्चस्व स्थापित कर दिया। भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी को फ्रांस की कोंपेनी द इंद से मुकाबला करना पड़ा, लेकिन 1750 में फ्रांसीसियों और बंगाल के शासकों पर क्लाइव की सैनिक विजय ने ब्रिटेन द्वारा बड़े पैमाने पर भारतीय क्षेत्रों के अधिग्रहण और भारत में उनके भावी वर्चस्व का रास्ता साफ कर दिया। 1776-83 में ब्रिटेन के हाथ से 13 अमेरिकी उपनिवेशों के निकल जाने की क्षतिपूर्ति, 1788 से आस्ट्रेलिया में नई बस्तियों और अब के अमेरिका से ब्रिटिश सत्ता के वफादार लोगों के उत्प्रवास के बाद ऊपरी कनाडा (अब ओंटारियो) के अभूतपूर्व विकास से हुई। नेपोलियन से हुए युद्धों ने साम्राज्य को अतिरिक्त लाभ प्रदान किया। ऐमिएं की संधि (1802) ने त्रिनिदाद और सीलोन (वर्तमान श्रीलंका) को आधिकारिक रूप से ब्रिटिश सत्ता के अधीन कर दिया और पेरिस की संधि (1814) से फ्रांस ने टोबैगो, मॉरिशस, सेंट लूशिया और माल्टा सौंप दिए। 1795 में मलक्का साम्राज्य में शामिल हुआ और सर स्टैमफोर्ड रैफल्स ने 1819 में सिंगापुर हासिल किया। अलबर्टा, मैनिटोबा और ब्रिटिश कोलंबिया की कनाडाई बस्तियों ने ब्रिटिश प्रभाव को प्रशांत महासागर तक पहुंचा दिया, जबकि भारत में ब्रिटिश विजय द्वारा आगरा और अवध के संयुक्त राज्यों, मध्य प्रांतों, पूर्वी बंगाल और असम को भी मिला लिया गया। 19वीं शताब्दी को ब्रिटिश साम्राज्य के पूर्ण पल्लवन का काल माना जाता है। प्रशासन और नीति में बदलाव इसी शताब्दी के दौरान हुए और 17वीं व 18वीं शताब्दी की जस-तस व्यवस्था की जगह, औपनिवेशिक कार्यालय में जोसेफ चैंबरलेन के कार्यकाल (1895-1900) की विशिष्ट विवेकपूर्ण व्यवस्था आ गई। 1801 में शुरु हुआ यह कार्यालय, पहले गृह कार्यालय और व्यापार बोर्ड के साथ संलग्न था, लेकिन 1850 में यह एक अलग विभाग बन गया, जिसके कार्मिकों की संख्या बढ़ रही थी और जिसकी अपनी एक सतत नीति थी। इसके माध्यम से जरूरत पड़ने पर औपनिवेशिक सरकारों पर दबाव डाला जाता था और उन्हें अनुशासित किया जाता था। 1840 में न्यूजीलैंड आधिकारिक तौर पर ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा बन गया। इसके बाद यहाँ का औपनिवेशीकरण तेजी से हुआ। ब्रिटिश मिशनरियों की ओर से पड़ने वाले थोड़े-बहुत दबाव के कारण ब्रिटिश अधिपत्य फिजी, टोंगा, पापुआ और प्रशांत महासागर के दूसरे द्वीपों तक फैल गया। और 1877 में पश्चिमी प्रशांत महासागर के द्वीपों के लिए ब्रिटिश उच्चायोग की स्थापना की गई। भारतीय विद्रोह (1857) के बाद ब्रिटिश ताज ने भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकारी सत्ता संभाल ली। 1886 में ब्रिटेन द्वारा बर्मा (वर्तमान म्यंमार) का अधिग्रहण पूरा हो गया, जबकि पंजाब (1849) और बलूचिस्तान (1854-76) की विजय से स्वयं भारतीय उपमहाद्वीप में उसे महत्त्वपूर्ण नए प्रदेश उपलब्ध हो गए। फ्रांसीसियों द्वारा स्वेज नहर का काम पूरा (1869) कर लिए जाने के बाद ब्रिटेन को भारत के लिए पहले से कहीं छोटा मार्ग सुलभ हो गया। ब्रिटेन ने इसका लाभ अदन में अपने बंदरगाह के विस्तार, सोमालीलैंड (वर्तमान सोमालिया) में एक सरंक्षित सराज्य और दक्षिणी अरब की रियासतों में अपने प्रभाव-क्षेत्र में वृद्धि के रूप मं उठाया। साइप्रस, जो जिब्राल्टर और माल्टा ही की तरह भूमध्य सागर से होता हुआ भारत के साथ संपर्क-श्रृंखला की एक कड़ी था, पर 1878 में कब्जा कर लिया गया। अन्यत्र, जलडमरूमध्य बस्तियों और मलय राज्य परिसंघ के विकास के साथ ब्रिटिश प्रभाव सुदूर पूर्व तक फैला और 1880 के दशक में ब्रूनई और सारावाक संरक्षित राज्य बना लिए गए। 1841 में हांगकांग द्वीप ब्रिटिश अधिकार में आ गया। चीन में ब्रिटिश-संधि-बंदरगाहों और व्यापार के केंद्र, शंघाई, के माध्यम से एक ‘अनौपचारिक साम्राज्य’ चल रहा था। ब्रिटिश सत्ता का सबसे बड़ा विस्तार अफ्रीका में हुआ। ब्रिटेन को 1882 से मिस्र में और 1899 से सूडान में सत्ताधारी शक्ति के रूप में जाना जाता था। इस शताब्दी के उत्तरार्द्ध में, रॉयल नाइजर कंपनी ने ब्रिटिश प्रभाव को नाईजीरिया और गोल्ड कोस्ट (वर्तमान घाना) में बढ़ाना शुरु कर दिया था और जांबिया भी ब्रिटिश अधिकार में आ गया। केन्या और युगांडा कहे जाने वाले क्षेत्रों में इंपीरियल ब्रिटिश ईस्ट अफ्रीका कंपनी काम करती थी और ब्रिटिश साउथ अफ्रीका कंपनी जिंबाब्वे (भूतपूर्व दक्षिणी रोडेशिया), जांबिया (भूतपूर्व उत्तरी रोडेशिया) और मलावी में सक्रिय थी। दक्षिण अफ्रीका से उत्तर में मिस्र तक फैली ब्रिटिश प्रदेशों की श्रृंखला ने अंग्रेज जनता के ‘केप से काहिरा’ तक विस्तृत अफ्रीकी साम्राज्य के सपने को पूरा कर दिया। 19वीं सदी के अंत तक संसार की एक-चौथाई भूमि और उसकी चौथाई से भी अधिक जनसंख्या ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा थी।

ब्रिटेन के कुछ उपनिवेशों के लिए सीमित स्वशासन के विचार की सिफारिश सबसे पहले कनाडा के लिए 1839 में लॉर्ड डरहम ने की थी। इस रिपोर्ट में ‘उत्तरदायी स्वशासन’ का प्रस्ताव रखा गया था, ताकि ब्रिटिश सरकार द्वारा चुने गए अधिकारियों के बजाय कनाडा के नागरिकों द्वारा चुनी गई मंत्रिपरिषद कार्यकारी अधिकारों का प्रयोग कर सके। अपने कार्यकाल के लिए मंत्रिपरिषद प्राथमिक तौर पर औपनिवेशिक विधान सभा के समर्थन पर निर्भर रहने वाली थी।