ज्ञानाश्रयी शाखा: Difference between revisions
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Revision as of 12:50, 4 June 2011
ज्ञानाश्रयी शाखा के भक्त-कवि 'निर्गुणवादी' थे, और नाम की उपासना करते थे। गुरु का वे बहुत सम्मान करते थे, और जाति-पाति के भेदों को नहीं मानते थे। वैयक्तिक साधना को वह प्रमुखता देते थे। मिथ्या आडंबरों और रूढियों का विरोध करते थे। लगभग सभी संत अनपढ़ थे, लेकिन अनुभव की दृष्टि से बहुत ही समृध्द थे। प्रायः सभी सत्संगी थे और उनकी भाषा में बहुत सी बोलियों का घोलमेल था, इसीलिए इस भाषा को ‘सधुक्कड़ी’ कहा गया। साधारण जनता पर इन संतों की वाणी का ज़बरदस्त प्रभाव पड़ा। इन संतों में प्रमुख कबीरदास थे। अन्य मुख्य संतकवि नानक, रैदास, दादूदयाल, सुंदरदास तथा मलूकदास हैं।
ज्ञानाश्रयी शाखा को 'निर्गुण काव्यधारा' या 'निर्गुण सम्प्रदाय' नाम भी दिया गया है। इस शाखा की विशेषता यह थी कि इसने अधिकतर प्रेरणा भारतीय स्त्रोतों से ग्रहण की। इसमें ज्ञानमार्ग की प्रधानता थी। इसलिए पं. रामचंद्र शुक्ल ने इसे 'ज्ञानाश्रयी शाखा' कहा है।[1] इस शाखा के कवियों ने भक्ति-साधना के रूप में योग-साधना पर बहुत बल दिया है। इस शाखा के प्रतिनिधि कवि कबीरदास हुए हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ0 86