आनंद बख़्शी: Difference between revisions

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आनंद बख़्शी का जन्म पाकिस्तान के रावलपिंडी शहर में 21 जुलाई 1930 को हुआ था। आनंद बख़्शी को उनके रिश्तेदार प्यार से नंद या नंदू कहकर पुकारते थे। बख़्शी उनके परिवार का उपनाम था, जबकि उनके परिजनों ने उनका नाम आनंद प्रकाश रखा था, लेकिन फ़िल्मी दुनिया में आने के बाद आनंद बख़्शी के नाम से उनकी पहचान बनी।
आनंद बख़्शी का जन्म पाकिस्तान के रावलपिंडी शहर में 21 जुलाई 1930 को हुआ था। आनंद बख़्शी को उनके रिश्तेदार प्यार से नंद या नंदू कहकर पुकारते थे। बख़्शी उनके परिवार का उपनाम था, जबकि उनके परिजनों ने उनका नाम आनंद प्रकाश रखा था, लेकिन फ़िल्मी दुनिया में आने के बाद आनंद बख़्शी के नाम से उनकी पहचान बनी।
==गीतकार के रूप में==
==गीतकार के रूप में==
आनंद बख़्शी बचपन से ही फ़िल्मों में काम करके शोहरत की बुंलदियों तक पहुंचने का सपना देखा करते थे, लेकिन लोगों के मजाक उड़ाने के डर से उन्होंने अपनी यह मंशा कभी जाहिर नहीं की थी। वह फ़िल्मी दुनिया में गायक के रूप में अपनी पहचान बनाना चाहते थे। आनंद बख़्शीअपने सपने को पूरा करने के लिए 14 वर्ष की उम्र में ही घर से भागकर फ़िल्म नगरी [[मुंबई]] आ गए, जहाँ उन्होंने रॉयल इडियन नेवी मे कैडेट के तौर पर 2 वर्ष तक काम किया। किसी विवाद के कारण उन्हें वह नौकरी छोड़नी पड़ी। इसके बाद 1947 से 1956 तक उन्होंने भारतीय सेना में भी नौकरी की। बचपन से ही मजबूत इरादे वाले आनंद बख़्शीअपने सपनों को साकार करने के लिए नए जोश के साथ फिर मुंबई पहुंचे, जहाँ उनकी मुलाकात उस जमाने के मशहूर अभिनेता [[भगवान दादा]] से हुई। शायद नियति को यही मंजूर था कि आनंद बख़्शीगीतकार ही बने।  
आनंद बख़्शी बचपन से ही फ़िल्मों में काम करके शोहरत की बुंलदियों तक पहुंचने का सपना देखा करते थे, लेकिन लोगों के मजाक उड़ाने के डर से उन्होंने अपनी यह मंशा कभी जाहिर नहीं की थी। वह फ़िल्मी दुनिया में गायक के रूप में अपनी पहचान बनाना चाहते थे। आनंद बख़्शी अपने सपने को पूरा करने के लिए 14 वर्ष की उम्र में ही घर से भागकर फ़िल्म नगरी [[मुंबई]] आ गए, जहाँ उन्होंने रॉयल इडियन नेवी मे कैडेट के तौर पर 2 वर्ष तक काम किया। किसी विवाद के कारण उन्हें वह नौकरी छोड़नी पड़ी। इसके बाद 1947 से 1956 तक उन्होंने भारतीय सेना में भी नौकरी की। बचपन से ही मजबूत इरादे वाले आनंद बख़्शी अपने सपनों को साकार करने के लिए नए जोश के साथ फिर मुंबई पहुंचे, जहाँ उनकी मुलाकात उस जमाने के मशहूर अभिनेता [[भगवान दादा]] से हुई। शायद नियति को यही मंजूर था कि आनंद बख़्शी गीतकार ही बने।  
 
भगवान दादा ने उन्हें अपनी फ़िल्म बड़ा आदमी में गीतकार के रूप में काम करने का मौका दिया। इस फ़िल्म के जरिए वह पहचान बनाने में भले ही सफल नहीं हो पाए, लेकिन एक गीतकार के रूप में उनके सिने करियर का सफर शुरू हो गया। अपने वजूद को तलाशते आनंद बख़्शी को लगभग सात वर्ष तक फ़िल्म इंडस्ट्री में संघर्ष करना पड़ा। वर्ष 1965 में जब जब फूल खिले प्रदर्शित हुई तो उन्हें उनके गाने परदेसियों से न अंखियां मिलाना.., ये समां समां है ये प्यार का.., एक था गुल और एक थी बुलबुल.. सुपरहिट रहे और गीतकार के रुप में उनकी पहचान बन गई। इसी वर्ष फ़िल्म हिमालय की गोद में उनके गीत चांद सी महबूबा हो मेरी कब ऐसा मैंने सोंचा था.. को भी लोगों ने काफी पसंद किया। वर्ष 1967 में प्रदर्शित सुनील दत्त और नूतन अभिनीत फ़िल्म मिलन के गाने सावन का महीना पवन कर शोर..,युग युग तक हम गीत मिलन के गाते रहेंगे.., राम करे ऐसा हो जाए.. जैसे सदाबहार गानों के जरिए उन्होंने गीतकार के रूप में नई ऊंचाइयों को छू लिया। चार दशक तक फ़िल्मी गीतों के बेताज बादशाह रहे आनंद बख़्शीने 550 से भी ज्यादा फ़िल्मों में लगभग 4000 गीत लिखे।


भगवान दादा ने उन्हें अपनी फ़िल्म बड़ा आदमी में गीतकार के रूप में काम करने का मौका दिया। इस फ़िल्म के जरिए वह पहचान बनाने में भले ही सफल नहीं हो पाए, लेकिन एक गीतकार के रूप में उनके सिने करियर का सफर शुरू हो गया। अपने वजूद को तलाशते आनंद बख़्शीको लगभग सात वर्ष तक फ़िल्म इंडस्ट्री में संघर्ष करना पड़ा। वर्ष 1965 में जब जब फूल खिले प्रदर्शित हुई तो उन्हें उनके गाने परदेसियों से न अंखियां मिलाना.., ये समां समां है ये प्यार का.., एक था गुल और एक थी बुलबुल.. सुपरहिट रहे और गीतकार के रुप में उनकी पहचान बन गई। इसी वर्ष फ़िल्म हिमालय की गोद में उनके गीत चांद सी महबूबा हो मेरी कब ऐसा मैंने सोंचा था.. को भी लोगों ने काफी पसंद किया। वर्ष 1967 में प्रदर्शित सुनील दत्त और नूतन अभिनीत फ़िल्म मिलन के गाने सावन का महीना पवन कर शोर..,युग युग तक हम गीत मिलन के गाते रहेंगे.., राम करे ऐसा हो जाए.. जैसे सदाबहार गानों के जरिए उन्होंने गीतकार के रूप में नई ऊंचाइयों को छू लिया। चार दशक तक फ़िल्मी गीतों के बेताज बादशाह रहे आनंद बख़्शीने 550 से भी ज्यादा फ़िल्मों में लगभग 4000 गीत लिखे।
==गीतों के सफल रचनाकार==
==गीतों के सफल रचनाकार==
यह सुनहरा दौर था जब गीतकार आनन्द बख़्शी ने संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के साथ काम करते हुए 'फ़र्ज़ (1967)', 'दो रास्ते (1969)', 'बॉबी (1973'), 'अमर अकबर एन्थॉनी (1977)', 'इक दूजे के लिए (1981)' और राहुल देव बर्मन के साथ 'कटी पतंग (1970)', 'अमर प्रेम (1971)', हरे रामा हरे कृष्णा (1971)' और 'लव स्टोरी (1981)' फ़िल्मों में अमर गीत दिये। फ़िल्म अमर प्रेम (1971) के 'बड़ा नटखट है किशन कन्हैया', 'कुछ तो लोग कहेंगे', 'ये क्या हुआ', और 'रैना बीती जाये' जैसे उत्कृष्ट गीत हर दिल में धड़कते हैं और सुनने वाले के दिल की सदा में बसते हैं। अगर फ़िल्म निर्माताओं के साक्षेप चर्चा की जाये तो [[राज कपूर]] के लिए 'बॉबी (1973)', 'सत्यम् शिवम् सुन्दरम् (1978)'; सुभाष घई के लिए 'कर्ज़ (1980)', 'हीरो (1983)', 'कर्मा (1986)', 'राम-लखन (1989)', 'सौदागर (1991)', 'खलनायक (1993)', 'ताल (1999)' और 'यादें (2001)'; और यश चोपड़ा के लिए 'चाँदनी (1989)', 'लम्हें (1991)', 'डर (1993)', 'दिल तो पागल है (1997)'; आदित्य चोपड़ा के लिए 'दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे (1995)', 'मोहब्बतें (2000)' फ़िल्मों में सदाबहार गीत लिखे।<ref>{{cite web |url=http://podcast.hindyugm.com/2009/02/anand-bakshi-song-writer-of-common-man.html |title=आनंद बख़्शी |accessmonthday=[[10 जुलाई]] |accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल. |publisher=आवाज़ |language=[[हिन्दी]] }}</ref>   
यह सुनहरा दौर था जब गीतकार आनन्द बख़्शी ने संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के साथ काम करते हुए 'फ़र्ज़ (1967)', 'दो रास्ते (1969)', 'बॉबी (1973'), 'अमर अकबर एन्थॉनी (1977)', 'इक दूजे के लिए (1981)' और राहुल देव बर्मन के साथ 'कटी पतंग (1970)', 'अमर प्रेम (1971)', हरे रामा हरे कृष्णा (1971)' और 'लव स्टोरी (1981)' फ़िल्मों में अमर गीत दिये। फ़िल्म अमर प्रेम (1971) के 'बड़ा नटखट है किशन कन्हैया', 'कुछ तो लोग कहेंगे', 'ये क्या हुआ', और 'रैना बीती जाये' जैसे उत्कृष्ट गीत हर दिल में धड़कते हैं और सुनने वाले के दिल की सदा में बसते हैं। अगर फ़िल्म निर्माताओं के साक्षेप चर्चा की जाये तो [[राज कपूर]] के लिए 'बॉबी (1973)', 'सत्यम् शिवम् सुन्दरम् (1978)'; सुभाष घई के लिए 'कर्ज़ (1980)', 'हीरो (1983)', 'कर्मा (1986)', 'राम-लखन (1989)', 'सौदागर (1991)', 'खलनायक (1993)', 'ताल (1999)' और 'यादें (2001)'; और यश चोपड़ा के लिए 'चाँदनी (1989)', 'लम्हें (1991)', 'डर (1993)', 'दिल तो पागल है (1997)'; आदित्य चोपड़ा के लिए 'दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे (1995)', 'मोहब्बतें (2000)' फ़िल्मों में सदाबहार गीत लिखे।<ref>{{cite web |url=http://podcast.hindyugm.com/2009/02/anand-bakshi-song-writer-of-common-man.html |title=आनंद बख़्शी |accessmonthday=[[10 जुलाई]] |accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल. |publisher=आवाज़ |language=[[हिन्दी]] }}</ref>   

Revision as of 06:41, 11 July 2011

आनंद बख़्शी (अंग्रेज़ी: Anand Bakshi) (जन्म- 21 जुलाई 1930, रावलपिंडी पाकिस्तान; मृत्यु- 30 मार्च 2002, मुम्बई) एक लोकप्रिय भारतीय कवि और गीतकार थे।

जन्म

आनंद बख़्शी का जन्म पाकिस्तान के रावलपिंडी शहर में 21 जुलाई 1930 को हुआ था। आनंद बख़्शी को उनके रिश्तेदार प्यार से नंद या नंदू कहकर पुकारते थे। बख़्शी उनके परिवार का उपनाम था, जबकि उनके परिजनों ने उनका नाम आनंद प्रकाश रखा था, लेकिन फ़िल्मी दुनिया में आने के बाद आनंद बख़्शी के नाम से उनकी पहचान बनी।

गीतकार के रूप में

आनंद बख़्शी बचपन से ही फ़िल्मों में काम करके शोहरत की बुंलदियों तक पहुंचने का सपना देखा करते थे, लेकिन लोगों के मजाक उड़ाने के डर से उन्होंने अपनी यह मंशा कभी जाहिर नहीं की थी। वह फ़िल्मी दुनिया में गायक के रूप में अपनी पहचान बनाना चाहते थे। आनंद बख़्शी अपने सपने को पूरा करने के लिए 14 वर्ष की उम्र में ही घर से भागकर फ़िल्म नगरी मुंबई आ गए, जहाँ उन्होंने रॉयल इडियन नेवी मे कैडेट के तौर पर 2 वर्ष तक काम किया। किसी विवाद के कारण उन्हें वह नौकरी छोड़नी पड़ी। इसके बाद 1947 से 1956 तक उन्होंने भारतीय सेना में भी नौकरी की। बचपन से ही मजबूत इरादे वाले आनंद बख़्शी अपने सपनों को साकार करने के लिए नए जोश के साथ फिर मुंबई पहुंचे, जहाँ उनकी मुलाकात उस जमाने के मशहूर अभिनेता भगवान दादा से हुई। शायद नियति को यही मंजूर था कि आनंद बख़्शी गीतकार ही बने।

भगवान दादा ने उन्हें अपनी फ़िल्म बड़ा आदमी में गीतकार के रूप में काम करने का मौका दिया। इस फ़िल्म के जरिए वह पहचान बनाने में भले ही सफल नहीं हो पाए, लेकिन एक गीतकार के रूप में उनके सिने करियर का सफर शुरू हो गया। अपने वजूद को तलाशते आनंद बख़्शी को लगभग सात वर्ष तक फ़िल्म इंडस्ट्री में संघर्ष करना पड़ा। वर्ष 1965 में जब जब फूल खिले प्रदर्शित हुई तो उन्हें उनके गाने परदेसियों से न अंखियां मिलाना.., ये समां समां है ये प्यार का.., एक था गुल और एक थी बुलबुल.. सुपरहिट रहे और गीतकार के रुप में उनकी पहचान बन गई। इसी वर्ष फ़िल्म हिमालय की गोद में उनके गीत चांद सी महबूबा हो मेरी कब ऐसा मैंने सोंचा था.. को भी लोगों ने काफी पसंद किया। वर्ष 1967 में प्रदर्शित सुनील दत्त और नूतन अभिनीत फ़िल्म मिलन के गाने सावन का महीना पवन कर शोर..,युग युग तक हम गीत मिलन के गाते रहेंगे.., राम करे ऐसा हो जाए.. जैसे सदाबहार गानों के जरिए उन्होंने गीतकार के रूप में नई ऊंचाइयों को छू लिया। चार दशक तक फ़िल्मी गीतों के बेताज बादशाह रहे आनंद बख़्शीने 550 से भी ज्यादा फ़िल्मों में लगभग 4000 गीत लिखे।

गीतों के सफल रचनाकार

यह सुनहरा दौर था जब गीतकार आनन्द बख़्शी ने संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के साथ काम करते हुए 'फ़र्ज़ (1967)', 'दो रास्ते (1969)', 'बॉबी (1973'), 'अमर अकबर एन्थॉनी (1977)', 'इक दूजे के लिए (1981)' और राहुल देव बर्मन के साथ 'कटी पतंग (1970)', 'अमर प्रेम (1971)', हरे रामा हरे कृष्णा (1971)' और 'लव स्टोरी (1981)' फ़िल्मों में अमर गीत दिये। फ़िल्म अमर प्रेम (1971) के 'बड़ा नटखट है किशन कन्हैया', 'कुछ तो लोग कहेंगे', 'ये क्या हुआ', और 'रैना बीती जाये' जैसे उत्कृष्ट गीत हर दिल में धड़कते हैं और सुनने वाले के दिल की सदा में बसते हैं। अगर फ़िल्म निर्माताओं के साक्षेप चर्चा की जाये तो राज कपूर के लिए 'बॉबी (1973)', 'सत्यम् शिवम् सुन्दरम् (1978)'; सुभाष घई के लिए 'कर्ज़ (1980)', 'हीरो (1983)', 'कर्मा (1986)', 'राम-लखन (1989)', 'सौदागर (1991)', 'खलनायक (1993)', 'ताल (1999)' और 'यादें (2001)'; और यश चोपड़ा के लिए 'चाँदनी (1989)', 'लम्हें (1991)', 'डर (1993)', 'दिल तो पागल है (1997)'; आदित्य चोपड़ा के लिए 'दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे (1995)', 'मोहब्बतें (2000)' फ़िल्मों में सदाबहार गीत लिखे।[1]

कई गायकों को दिया जीवन

आनंद बख़्शी ने शैलेंद्र सिंह, उदित नारायण, कुमार सानू, कविता कृष्णमूर्ति और एस. पी. बालसुब्रय्मण्यम जैसे अनेक गायकों के पहले गीत का बोल भी लिखा है।

पुरस्कार

आनंद बख़्शी40 बार फ़िल्मफेयर अवार्ड के लिए नामित किये गये और चार बार यह पुरस्कार उनके खाते में आया। अंतिम बार 1999 में सुभाष घई की ताल के गीत इश्क बिना क्या जीना के लिए उन्हें फ़िल्मफ़ेयर से नवाजा गया था। इसके अलावा भी उन्होंने कई पुरस्कार प्राप्त किए थे।

निधन

सिगरेट के अत्यधिक सेवन की वजह से वह फेफड़े तथा दिल की बीमारी से ग्रस्त हो गए। आखिरकार 72 साल की उम्र में अंगों के काम करना बंद करने के कारण 30 मार्च, 2002 को उनका निधन हो गया।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आनंद बख़्शी (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल.) आवाज़। अभिगमन तिथि: 10 जुलाई, 2011।
  2. आनंद बख़्शी (हिन्दी) (पी.एच.पी.) आज तक। अभिगमन तिथि: 10 जुलाई, 2011।

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