इच्छा -वैशेषिक दर्शन: Difference between revisions

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महर्षि कणाद ने वैशेषिकसूत्र में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय नामक छ: पदार्थों का निर्देश किया और प्रशस्तपाद प्रभृति भाष्यकारों ने प्राय: कणाद के मन्तव्य का अनुसरण करते हुए पदार्थों का विश्लेषण किया।

इच्छा का स्वरूप

केशव मिश्र ने राग को और अन्नंभट्ट ने काम को इच्छा कहा है। इच्छा का विस्तृत निरूपण प्रशस्तपादभाष्य में उपलब्ध होता है। सामान्यत: अप्राप्त को प्राप्त करने की अभिलाषा इच्छा कहलाती है, प्राप्ति की अभिलाषा अपने लिये हो चाहे दूसरे के लिए। यह आत्मा का गुण है। इसकी उत्पत्ति स्मृतिसापेक्ष या सुखादिसापेक्ष आत्ममन:संयोगरूपी असमवायिकरण से आत्मारूप समवायिकाकरण में होती हैं इसके दो प्रकार होते हैं: सोपाधिक तथा निरुपाधिक। सुख के प्रति जो इच्छा होती है, वह निरुपाधिक होती है और सुख के साधनों के प्रति जो इच्छा होती है, वह सोपाधिक होती है। इच्छा प्रयत्न, स्मरण, धर्म, अधर्म आदि का कारण होती है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

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