तिरुवल्लुवर: Difference between revisions

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;संत तिरुवल्लुवर (Thiruvalluvar)
महान आत्माएं या जितने भी महान लोग धरती पर अवतरित हुए है, वे धर्म, जाति आदि, मानव द्वारा बनाये गए बंधनों से पूर्णतः मुक्त होते हैं। कोई ठोस प्रमाण तो नहीं हैं परन्तु भाषाई आधार पर एक महान कवि तिरुवल्लुवर, के काल का अनुमान ईसापूर्व 30 से 200 वर्षों के बीच माना जाता है। संयोग की बात है कि वाल्मीकि की तरह इनका जन्म भी एक दलित परिवार (जुलाहा) में ही हुआ था। मान्यता है कि वे चेन्नई के मयिलापुर से थे परन्तु उनका अधिकाँश जीवन मदुरै में बीता क्योंकि वहां पांड्य राजाओं के द्वारा तामिल साहित्य को पोषित किया जाता रहा है और उनके दरबार में सभी जाने माने विद्वानों को प्राश्रय दिया जाता था। वहीँ के दरबार में तिरुकुरल को एक महान ग्रन्थ के रूप में मान्यता मिली।
महान आत्माएं या जितने भी महान लोग धरती पर अवतरित हुए है, वे धर्म, जाति आदि, मानव द्वारा बनाये गए बंधनों से पूर्णतः मुक्त होते हैं। कोई ठोस प्रमाण तो नहीं हैं परन्तु भाषाई आधार पर एक महान कवि तिरुवल्लुवर, के काल का अनुमान ईसापूर्व 30 से 200 वर्षों के बीच माना जाता है। संयोग की बात है कि वाल्मीकि की तरह इनका जन्म भी एक दलित परिवार (जुलाहा) में ही हुआ था। मान्यता है कि वे चेन्नई के मयिलापुर से थे परन्तु उनका अधिकाँश जीवन मदुरै में बीता क्योंकि वहां पांड्य राजाओं के द्वारा तामिल साहित्य को पोषित किया जाता रहा है और उनके दरबार में सभी जाने माने विद्वानों को प्राश्रय दिया जाता था। वहीँ के दरबार में तिरुकुरल को एक महान ग्रन्थ के रूप में मान्यता मिली।



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thumb|250px|संत तिरुवल्लुवर
Thiruvalluvar

संत तिरुवल्लुवर (Thiruvalluvar)

महान आत्माएं या जितने भी महान लोग धरती पर अवतरित हुए है, वे धर्म, जाति आदि, मानव द्वारा बनाये गए बंधनों से पूर्णतः मुक्त होते हैं। कोई ठोस प्रमाण तो नहीं हैं परन्तु भाषाई आधार पर एक महान कवि तिरुवल्लुवर, के काल का अनुमान ईसापूर्व 30 से 200 वर्षों के बीच माना जाता है। संयोग की बात है कि वाल्मीकि की तरह इनका जन्म भी एक दलित परिवार (जुलाहा) में ही हुआ था। मान्यता है कि वे चेन्नई के मयिलापुर से थे परन्तु उनका अधिकाँश जीवन मदुरै में बीता क्योंकि वहां पांड्य राजाओं के द्वारा तामिल साहित्य को पोषित किया जाता रहा है और उनके दरबार में सभी जाने माने विद्वानों को प्राश्रय दिया जाता था। वहीँ के दरबार में तिरुकुरल को एक महान ग्रन्थ के रूप में मान्यता मिली।

दक्षिण भारत के महानतम संत तिरुवल्लुवर अपनी मानवधर्म (Religion of Humanity) के प्रति आस्था के लिए पूरे विश्व में जाने जाते हैं। जिन जीवन मूल्यों को उन्होंने महत्व दिया वे कबीर में भी विद्यमान हैं। इस दृष्टि से कबीर को उत्तर भारत का तिरुवल्लुवर कहें या तिरुवल्लुवर को दक्षिण का कबीर कहें एक ही बात है। शैव, वैष्णव, बौद्ध तथा जैन सभी तिरुवल्लुवर को अपना मतावलंबी मानते हैं, जबकि उनकी रचनाओं से ऐसा कोई आभास नहीं मिलता। यह अवश्य है कि वे उस परम पिता में विश्वास रखते थे। उनका विचार था कि मनुष्य गृहस्थ रहते हुए भी परमेश्वर में आस्था के साथ एक पवित्र जीवन व्यतीत कर सकता है। सन्यास उन्हें निरर्थक लगा था।

तिरुक्कुलर ग्रंथ

संत तिरुवल्लुवर ने व्यक्ति को जीने की राह दिखाते हुए छोटी-छोटी ढेरों कविताएं लिखी थीं, इनका संकलन तिरुक्कुलर ग्रंथ में किया गया है। यह एक ऐसा ग्रन्थ है जो नैतिकता का पाठ पढाता है। किसी धर्म विशेष से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। तिरुक्कुलर न केवल तमिल भाषियों के लिए वरन पूरे देश में श्रध्दा से पढ़ा जाता है। इसमें गागर में सागर की तरह जीवन दर्शन को समेटा गया है। गीता के बाद विश्व के सभी प्रमुख भाषाओँ में सबसे अधिक अनूदित ग्रन्थ है। तिरुकुरल तीन खण्डों में बंटा है। 'अरम' (आचरण/सदाचार), 'परुल' (संसारिकता/संवृद्धि) तथा 'इन्बम' (प्रेम/आनंद)। कुल 133 अध्याय हैं और हर अध्याय में 10 दोहे हैं।

तिरुक्कुलर ग्रंथ के दो छंद

जैसे पानी जिस मिटटी में वो बहता है उसके अनुसार बदलता है, इसी प्रकार व्यक्ति अपने मिलने वालों के चरित्र को आत्मसात करता है। यहाँ तक कि उत्तम पुरुष जो मन की पूरी अच्छाई रखता है वह भी पवित्र संग से और मजबूत होता है।

तिरुवल्लुवर की प्रतिमा

तिरुकुरल के 133 अध्यायों को ध्यान में रखते हुए कन्याकुमारी के विवेकानंद स्मारक के पास के एक छोटे चट्टानी द्वीप पर इस महान कवि तिरुवल्लुवर की 133 फीट ऊंची प्रतिमा स्थापित की गयी है। यह आजकल वहां का प्रमुख आकर्षण बन गया है। प्रतिमा की वास्तविक ऊँचाई तो केवल 95 फीट है परन्तु वह एक 38 फीट ऊंचे मंच पर खड़ा है। यह आधार उनके कृति तिरुकुरल के प्रथम खंड सदाचार का बोधक है। यही आधार मनुष्य के लिए संवृद्धि तथा आनंद प्राप्त करने के लिए आवश्यक है। 1979 में इस स्मारक के लिए तत्कालीन प्रधान मंत्री मोरारजी देसाई द्वारा आधारशिला रखी गयी थी परन्तु कार्य प्रारंभ न हो सका। सन 2000 में जाकर यह स्मारक जनता के लिए खोला गया था। कहा जाता है कि इस प्रतिमा के कमर में जो झुकाव (नटराज जैसा) दर्शाया गया है, उसके लिए मूर्तिकार को बड़ी मशक्कत करनी पड़ी थी। प्रतिमा की भव्यता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि केवल चेहरा ही 19 फीट ऊंचा है।

संत तिरुवल्लुवर की धीरता

संत तिरुवल्लुवर जाति से जुलाहा थे। एक दिन वह अतीव परिश्रम से तैयार की हुई साड़ी को लेकर बिक्री के लिए बाजार में बैठे ही थे कि एक युवक उनके पास आया। उसे तिरुवल्लुवर की साधुता पर शंका होती थी। उसने उनकी परीक्षा लेने के विचार से उस साड़ी का मूल्य पूछा। संत ने विनीत वाणी में दो रुपए बताया। युवक ने उसे उठाकर दो टुकड़े किए और फिर उनका मूल्य पूछा। संत ने उसी निश्छल स्वर से एक-एक रुपया बताया। युवक ने फिर प्रत्येक के दो टुकड़े कर मूल्य पूछा और संत ने शांत स्वर में आठ-आठ आने बताया। युवक ने पुनः प्रत्येक के दो-दो टुकड़े कर मूल्य पूछा और संत ने धीरे किंतु गंभीर स्वर में ही उत्तर दिया, 'चार-चार आने।' आखिर फाड़ते-फाड़ते जब वह साड़ी तार-तार हो गई, तो युवक उसका गोला बनाकर फेंकते हुए बोला, 'अब इसमें रहा ही क्या है कि इसके पैसे दिए जाएँ।' संत चुप ही रहे। तब युवक ने धन का अभिमान प्रदर्शित करते हुए उन्हें दो रुपए देते हुए कहा, 'यह लो साड़ी का मूल्य!' किंतु तिरुवल्लुवर बोले, 'बेटा! जब तुमने साड़ी खरीदी ही नहीं, तो मैं दाम भी कैसे लूँ?' अब तो युवक का उद्दंड हृदय पश्चाताप से दग्ध होने लगा। विनीत हो वह उनसे क्षमा माँगने लगा। तिरुवल्लुवर की आँखें डबडबा आयीं। वे बोले, 'तुम्हारे दो रुपए देने से तो इस क्षति की भरपाई नहीं होगी? उसको धुनने और सूत बुनने में कितने लोगों का समय और श्रम लगा होगा?' जब साड़ी बुनी गई, तब मेरे कुटुंबियों ने कितनी कठिनाई उठाई होगी?' युवक की आँखों से पश्चाताप के आँसू निकल पड़े। वह बोला, 'मगर आपने मुझे साड़ी फाड़ने से रोका क्यों नहीं?' संत ने जवाब दिया, 'रोक सकता था, मगर तब क्या तुम्हें शिक्षा देने का ऐसा अवसर मिल सकता था?'



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