सिंहासन बत्तीसी अट्ठाईस: Difference between revisions
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''बोला'': हे राजन्! यह लाल-मूंगा लो और अपने देश जाओ। इस मूंगे से जो मांगोगे, वही मिलेगा। | ''बोला'': हे राजन्! यह लाल-मूंगा लो और अपने देश जाओ। इस मूंगे से जो मांगोगे, वही मिलेगा। |
Revision as of 13:17, 6 July 2012
एक बार विक्रमादित्य से किसी ने कहा कि पाताल में बलि नाम का बहुत बड़ा राजा है। इतना सुनकर राजा ने अपने वीरों को बुलाया और पाताल पहुंचा। राजा बलि को खबर भिजवाई तो उसने मिलने से इंकार कर दिया। इस पर राजा विक्रमादित्य ने दुखी होकर अपना सिर काट डाला। बलि को मालूम हुआ तो उसने अमृत छिड़कवाकर राजा को जिंदा कराया और कहलाया कि शिवरात्रि को आना।
राजा ने कहा: नहीं, मैं अभी दर्शन करुंगा।
बलि के आदमियों ने मना किया तो उसने फिर अपना सिर काट डाला। बलि ने फिर ज़िन्दा कराया और उसके प्रेम को देखकर प्रसन्न हो, उससे मिला।
बोला: हे राजन्! यह लाल-मूंगा लो और अपने देश जाओ। इस मूंगे से जो मांगोगे, वही मिलेगा।
मूंगा लेकर राजा विक्रमादित्य अपने नगर को लौटा। रास्ते में उसे एक स्त्री मिली। उसका आदमी मर गया था और वह बिलख-बिलखकर रो रही थी। राजा ने उसे चुप किया और गुण बताकर मूंगा उसे दे दिया।
पुतली बोली: है राजन्! जो इतना दानी और प्रजा की भलाई करने वाला हो, वह सिंहासन पर बैठे।
इस तरह अट्ठाईस दिन निकल गये। अगले दिन वैदेही नाम की उनत्तीसवीं पुतली ने रोककर अपनी गाथा सुनायी:
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