User talk:रवीन्द्रकीर्ति स्वामी: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
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                           द्वीप सागर प्रज्ञप्ति में असंख्यात द्वीप- समुद्रों का स्वरूप , वहाँ पर होने वाले अकृत्रिम चैत्यालयों का वर्णन है । व्ख्याप्रज्ञप्ति में भव्य- अभव्य भेद-प्रमाण, लक्षण, रूपी- अरूपी , जीव-अजीव द्रव्यों का और अवांतर सिद्धों का तथा दूसरी वस्तुओं का वर्णन है ।
                           द्वीप सागर प्रज्ञप्ति में असंख्यात द्वीप- समुद्रों का स्वरूप , वहाँ पर होने वाले अकृत्रिम चैत्यालयों का वर्णन है । व्ख्याप्रज्ञप्ति में भव्य- अभव्य भेद-प्रमाण, लक्षण, रूपी- अरूपी , जीव-अजीव द्रव्यों का और अवांतर सिद्धों का तथा दूसरी वस्तुओं का वर्णन है ।
                         इन्हीं के आधार पर आचार्य यतिवृषभ ने तिलोयपण्णत्ति नामक ग्रन्थ की प्राकृत भाषा में अनुपम रचना की । सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य ने जहाँ धवला आदि ग्रन्थों का अध्ययन करके गोम्मटसार जीवकांड, कर्मकांड, लब्धिसार, क्षपणासार आदि अद्वितीय जिनवाणी का सारभूत अमृतमयी वांग्मय प्रस्तुत किया उसी प्रकार लोक, उसकी रचना के संबंध में त्रिलोकसार नामक विलक्षण ग्रन्थ की रचना की, जिसमें तीनों का का बहुत सुंदर वर्णन संकलित किया है । इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक और श्लोकवार्तिक के तीसरे और चौथे अध्याय में इस विषय का सुंदर ढंग से प्रतिपादन किया है ।वहाँ से इसका अध्ययन करना चाहिए ।
                         इन्हीं के आधार पर आचार्य यतिवृषभ ने तिलोयपण्णत्ति नामक ग्रन्थ की प्राकृत भाषा में अनुपम रचना की । सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य ने जहाँ धवला आदि ग्रन्थों का अध्ययन करके गोम्मटसार जीवकांड, कर्मकांड, लब्धिसार, क्षपणासार आदि अद्वितीय जिनवाणी का सारभूत अमृतमयी वांग्मय प्रस्तुत किया उसी प्रकार लोक, उसकी रचना के संबंध में त्रिलोकसार नामक विलक्षण ग्रन्थ की रचना की, जिसमें तीनों का का बहुत सुंदर वर्णन संकलित किया है । इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक और श्लोकवार्तिक के तीसरे और चौथे अध्याय में इस विषय का सुंदर ढंग से प्रतिपादन किया है ।वहाँ से इसका अध्ययन करना चाहिए ।
जीवंधर कुमार नामके एक राजकुमार ने एक बार मरते हए कुत्ते को महामंत्र णमोकार मंत्र सुनाया़ जिससे उसकी आत्मा को बहुत शान्ति मिली और वह मरकर सुंदर देवता - यक्षेन्द्र हो गया । वहाँ जन्म लेते ही उसे याद आ गया कि मुझे एक राजकुमार ने महा मंत्र सुनाकर इस देवयोनि को दिलाया है, तब वह तुरंंत अपने उपकारी राजकुमार के पास आया और उन्हें नमस्कार किया ।
              राजकुमार तब तक उस कुत्ते को लिये बैठे हुए थे , देव ने उनसे कहे- राजन् ! मैं आपका बहुत अहसान मानता हूँ कि आपने मुझे इस योनि में पहुँचा दिया । जीवंधर कुमार यह दृश्य देखकर बड़े प्रसन्न हुए और उसे सदैव उस महामंत्र को पढ़ने की प्रेरणा दी । देव ने उनसे कहा -  स्वामिन् ! जब भी आपको कभी मेरी ज़रूरत लगे तो मुझे अवश्य याद करना और मुझे कुछ सेवा का अवसर अवश्य प्रदान करना । मैं आपका उपकार हमेशा स्मरण करूँगा ।
                  प्यारे साथियों ! वह महामंत्र इस प्रकार है -
                                    णमोकार अरिहंताणं ।
                                    णमो सिद्धाणं ।
                                    णमो आइरियाणं ।
                                    णमो उवज्झायाणं ।
                                    णमो लोए सव्व साहूणं ।
        आप सब भी इस मंत्र को प्रतिदिन नौ बार, सत्ताइस बार अथवा एक सौ आठ बार यदि पढ़कर अपना कार्य शुरू करेंगे तो आपको बहुत सफलता मिलेगी ।

Revision as of 08:17, 3 February 2013

      जैनदर्शन में अहिंसा - अनेकान्त - कर्मसिद्धान्त- अपरिग्रह-स्याद्वाद जैसे अनेक लोकोपकारी सर्वोदयी सिद्धान्तों का निरूपण किया गया है । उसी के साथ लोक और उसकी रचना के संबंध में विशाल साहित्य का निर्माण हुआ है । भगवान महावीर स्वामी ने अपनी दिव्यध्वनि में जिन विषयों का प्रतिपादन किया है । उनमें दृष्टिवाद नाम का एक अंग है उसके पाँच भेद हैं ।-
            चंद्र प्राप्ति, सूर्य प्रज्ञप्ति ,जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति ,द्वीप सागर प्रज्ञप्ति और व्याख्या प्रज्ञप्ति ।
                           चंद्रप्रज्ञप्ति में चंद्रमा संबंधी विमान, आयु, परिवार, रिद्धि, गमन, हानि, वृद्धि, ग्रहण, अर्धग्रहण, चतुर्थांश ग्रहण आदि का वर्णन है । इसी प्रकार सूर्यप्रज्ञप्ति में सूर्य संबंधी आयु , परिवार, गमन, आदि का वर्णन है । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में जम्बूद्वीप संबंधी मेरु,कुलाचल, महाहृद, ( तालाब-क्षेत्र-कुंडवन व्यन्तरों के आवास महानदी आदि ) का वर्णन है ।
                          द्वीप सागर प्रज्ञप्ति में असंख्यात द्वीप- समुद्रों का स्वरूप , वहाँ पर होने वाले अकृत्रिम चैत्यालयों का वर्णन है । व्ख्याप्रज्ञप्ति में भव्य- अभव्य भेद-प्रमाण, लक्षण, रूपी- अरूपी , जीव-अजीव द्रव्यों का और अवांतर सिद्धों का तथा दूसरी वस्तुओं का वर्णन है ।
                       इन्हीं के आधार पर आचार्य यतिवृषभ ने तिलोयपण्णत्ति नामक ग्रन्थ की प्राकृत भाषा में अनुपम रचना की । सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य ने जहाँ धवला आदि ग्रन्थों का अध्ययन करके गोम्मटसार जीवकांड, कर्मकांड, लब्धिसार, क्षपणासार आदि अद्वितीय जिनवाणी का सारभूत अमृतमयी वांग्मय प्रस्तुत किया उसी प्रकार लोक, उसकी रचना के संबंध में त्रिलोकसार नामक विलक्षण ग्रन्थ की रचना की, जिसमें तीनों का का बहुत सुंदर वर्णन संकलित किया है । इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक और श्लोकवार्तिक के तीसरे और चौथे अध्याय में इस विषय का सुंदर ढंग से प्रतिपादन किया है ।वहाँ से इसका अध्ययन करना चाहिए ।

जीवंधर कुमार नामके एक राजकुमार ने एक बार मरते हए कुत्ते को महामंत्र णमोकार मंत्र सुनाया़ जिससे उसकी आत्मा को बहुत शान्ति मिली और वह मरकर सुंदर देवता - यक्षेन्द्र हो गया । वहाँ जन्म लेते ही उसे याद आ गया कि मुझे एक राजकुमार ने महा मंत्र सुनाकर इस देवयोनि को दिलाया है, तब वह तुरंंत अपने उपकारी राजकुमार के पास आया और उन्हें नमस्कार किया ।

              राजकुमार तब तक उस कुत्ते को लिये बैठे हुए थे , देव ने उनसे कहे- राजन् ! मैं आपका बहुत अहसान मानता हूँ कि आपने मुझे इस योनि में पहुँचा दिया । जीवंधर कुमार यह दृश्य देखकर बड़े प्रसन्न हुए और उसे सदैव उस महामंत्र को पढ़ने की प्रेरणा दी । देव ने उनसे कहा -  स्वामिन् ! जब भी आपको कभी मेरी ज़रूरत लगे तो मुझे अवश्य याद करना और मुझे कुछ सेवा का अवसर अवश्य प्रदान करना । मैं आपका उपकार हमेशा स्मरण करूँगा ।
                 प्यारे साथियों ! वह महामंत्र इस प्रकार है -
                                   णमोकार अरिहंताणं ।
                                   णमो सिद्धाणं ।
                                   णमो आइरियाणं ।
                                   णमो उवज्झायाणं ।
                                   णमो लोए सव्व साहूणं ।
       आप सब भी इस मंत्र को प्रतिदिन नौ बार, सत्ताइस बार अथवा एक सौ आठ बार यदि पढ़कर अपना कार्य शुरू करेंगे तो आपको बहुत सफलता मिलेगी ।