सिंहासन बत्तीसी तीन: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replace - "उन्होनें " to "उन्होंने ") |
No edit summary |
||
Line 8: | Line 8: | ||
मुहूर्त टल गया। अगले दिन राजा सिंहासन पर बैठने के लिए आया तो चंद्रवाली नाम की चौथी पुतली ने उसे रोका और कहा कि पहले मेरी बात सुन लो। | मुहूर्त टल गया। अगले दिन राजा सिंहासन पर बैठने के लिए आया तो चंद्रवाली नाम की चौथी पुतली ने उसे रोका और कहा कि पहले मेरी बात सुन लो। | ||
{{सिंहासन बत्तीसी}} | |||
{{लेख प्रगति|आधार=आधार1|प्रारम्भिक= |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} | {{लेख प्रगति|आधार=आधार1|प्रारम्भिक= |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} |
Revision as of 17:14, 24 February 2013
एक दिन राजा विक्रमादित्य नदी के किनारे अपने महल में बैठे गाना सुन रहे थे। उनका मन संगीत के रस में डूबा हुआ था। इतने में एक आदमी गुस्सा होकर अपनी स्त्री और बच्चे के साथ घर से निकला और वे सब-के-सब नदी में कुद पड़े। जब वे डूबने लगे तो उन्होंने पुकारा कि है कोई धर्मात्मा है, जो हमें निकाले! आदमी बहुत 'हाय-हाय' कर रहा था और अपनी करनी पर पछता रहा था। तभी राजा के आदमियों ने राजा को खबर दी। वे दौड़े आये। आदमी हैरान होकर कह रहा था कि है कोई ईश्वर का, बंदा जो हमें पार लगाये! राजा वहां आया और उन लोगों को डूबते देख स्वयं नदी में कूद पड़ा। पानी में आगे बढ़कर उसने स्त्री और बच्चे का, हाथ पकड़ लिया। तभी वह आदमी भी राजा से लिपट गया। राजा घबराया। उनके साथ वह भी डूबने लगा। उसी समय उसे अपने दोनों वीरों की याद आयी। याद आते ही वे दोनों वहां आ गये और चारों को बाहर निकाल लाये।
वह आदमी राजा के पैरो पर गिर पड़ा और बोला, "महाराज! आपने हमारी जान बचाई है, आप हमारे भगवान हो।"
राजा ने कहा: बचाने वाला तो ईश्वर है। और बहुत-सा धन देकर उन्हें विदा किया।
पुतली बोली: हे राजन्! इतने हिम्मत वाले हो तो सिंहासन पर बैठो।
मुहूर्त टल गया। अगले दिन राजा सिंहासन पर बैठने के लिए आया तो चंद्रवाली नाम की चौथी पुतली ने उसे रोका और कहा कि पहले मेरी बात सुन लो।
|
|
|
|
|