सिंहासन बत्तीसी नौ: Difference between revisions
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Revision as of 17:22, 24 February 2013
एक बार राजा विक्रमादित्य ने होम किया। ब्राह्मण आये, सेठ-साहूकार आये, देश-देश के राजा आये। यज्ञ होने लगा। तभी एक ब्राह्मण मन की बात जान लेता था।
उसने आशीर्वाद दिया: हे राजन्! तू चिरंजीव हो।
जब मन्त्र पूरे हुए तो राजा ने कहा: हे ब्राह्यण! तुमने बिना दण्डवत् के आशीर्वाद दिया, यह अच्छा नहीं किया-
जब लग पांव ने लागे कोई।
शाप समान वह आशिष होई॥
ब्राह्मण ने कहा: राजन् तुमने मन-ही-मन दण्डवत् की, तब मैंने आशीष दी।
यह सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और उसने बहुत-सा धन ब्राह्मण को दिया।
ब्राह्मण बोला: इतना तो दीजिये, जिससे मेरा काम चले।
इस पर राजा ने उसे और अधिक धन दिया। यज्ञ में और जो लोग आये थे। उन्हें भी खुले हाथ दान दिया।
इतना कहकर पुतली बोली: राजन्! तुम सिंहासन पर बैठने के योग्य नहीं। शेर की बराबरी सियार नहीं कर सकता, हंस के बराबर कौवा नहीं हो सकता, बंदर के गले में मोतियों की माला नहीं सोहाती। तुम सिंहासन पर बैठने का विचार छोड़ दो।
राजा भोज नहीं माना। अगले दिन फिर सिहांसन की ओर बढ़ा तो दसवीं पुतली प्रेमवती ने उसके रास्ते में बाधा डाल दी।
पुतली बोली: पहले मेरी बात सुनो।
राजा ने बिगड़कर कहा: अच्छा, सुनाओ।
पुतली बोली: लो सुनों।
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