सिंहासन बत्तीसी ग्यारह: Difference between revisions

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राजा जी मसोसकर रह गया। उसने तय किया कि अब वह किसी की नहीं सुनेगा। लेकिन अगले दिन फिर वही हुआ। राजा के सिंहासन की ओर पैर बढ़ाते ही बारहवीं पुतली कीर्तिमती ने उसे रोकर सुनाया।
राजा जी मसोसकर रह गया। उसने तय किया कि अब वह किसी की नहीं सुनेगा। लेकिन अगले दिन फिर वही हुआ। राजा के सिंहासन की ओर पैर बढ़ाते ही बारहवीं पुतली कीर्तिमती ने उसे रोकर सुनाया।
 
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Revision as of 17:48, 24 February 2013

एक दिन विक्रमादित्य अपने महल में सो रहा था। रात का समय था। अचानक उत्तर दिशा से किसी के रोने की आवाज़ आयी। राजा ढाल-तलवार लेकर अंधेरी रात में उसी तरफ बढ़ा। जंगल में जाकर देखता क्या है कि एक स्त्री धाड़े मार-मारकर रो रही है। एक देव उसे हैरान कर रहा था। राजा को क्रोध आ गया। दोनों में लड़ाई ठन गई। राजा ने ऐसे ज़ोर से तलवार मारी कि देव का सिर धड़ से अलग हो गया। देव के सिर और धड़ से दो वीर निकले। वे राजा से लिपट गये। उनमें से एक को तो राजा ने मार डाला, दूसरा बचकर भाग गया।

राजा ने उस स्त्री से साथ चलने को कहा।

स्त्री बोली: हे भूपाल! मैं कहीं भी जाऊं, उस राक्षस से बच नहीं पाऊँगी। उसके पास एक मोहनी है, जो उसके पेट में रहती है। उसमें ऐसी ताकत है कि एक देव के मरने पर चार देव बना सकती है।

यह सूनकर राजा वहीं छिप गया और देखने लगा कि आगे क्या होता है। शाम होते ही वह देव फिर आया। उस स्त्री को हैरान करने लगा। राजा से यह न देखा गया। वह निकलकर आया। और देव से लड़ने लगा। लड़ते–लड़ते उसने ऐसा खांड़ा मारा कि देव का सिर कट गया। धड़ से मोहनी निकली और अमृत लेने चली। राजा ने उसी समय अपने वीरों को बुलाया। उसने कहा कि देखो, यह स्त्री जाने न पाये। वीर उसे पकड़कर ले आये।

राजा ने पूछा: तुम कौन हो? हंसती हो तो फूल झड़ते हैं। देव के पेट में क्यों रहती हो?

वह बोली: मैं पहले शिव की गण थी। एक बार शिव की आज्ञा को मानने से चूक गई तो शाप देकर उन्होंने मुझे मोहनी बना दिया। और इस देव को दे दिया। तब से यह मुझे अपने पेट में डाले रहता है। हे राजन्! अब मैं तुम्हारे बस में हूं। तुम्हारे पास रहूंगी, जैसे महादेव के पास पार्वती रहती थीं।

राजा मोहनी और उस दूसरी स्त्री को लेकर अपने महल में आया। उसने मोहनी से विवाह कर लिया। दूसरी स्त्री से यह पूछने पर कि वह कौन है, उसने बताया, "मैं सिंहलद्वीप के एक ब्राह्मण की कन्या हूँ। एक दिन अपनी सखियों के साथ तालाब पर नहाने गई। नहा-धोकर पूजा-पाठ करके लौटने लगी तो यह राक्षस मेरे सामने आ गया। इसने मुझे बहुत सताया। हे राजन्! तुमने मेरे पर जो उपकार किया उसे मैं कभी नहीं भूलूंगी। तुम हज़ार बरस तक जीओगे। और नाम कमाओगे।

इसके बाद राजा ने अपने राज्य में से एक योग्य ब्राह्मण को ढुंढ़वाकर उसके साथ उस स्त्री का विवाह करा दिया और स्वयं उसका कन्यादान किया। लाखों रुपये उन्हें दान में दिये।

कहानी सुनाकर पुतली बोली: हे राजा भोज! तुम ऐसे हो तो सिंहासन पर बैठो।

राजा जी मसोसकर रह गया। उसने तय किया कि अब वह किसी की नहीं सुनेगा। लेकिन अगले दिन फिर वही हुआ। राजा के सिंहासन की ओर पैर बढ़ाते ही बारहवीं पुतली कीर्तिमती ने उसे रोकर सुनाया।


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