सिंहासन बत्तीसी उनतीस: Difference between revisions
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Revision as of 18:01, 24 February 2013
एक दिन राजा विक्रमादित्य ने सपना देखा कि एक सोने का महल है, जिसमें तरह-तरह के रत्न जड़े हैं, कई तरह के पकवान और सुगंधियां हैं, फुलवाड़ी खिली हुई है, दीवारों पर चित्र बने हैं, अंदर नाच और गाना हो रहा है और एक तपस्वी बैठा हुआ है। अगले दिन राजा ने अपने वीरों को बुलाया और अपना सपना बताकर कहा कि मुझे वहां ले चलो, जहां ये सब चीज़ें हों। वीरों ने राजा को वहीं पहुंचा दिया।
राजा को देखकर नाच-गान बंद हो गया। तपस्वी बड़ा गुस्सा हुआ।
विक्रमादित्य ने कहा; महाराज! आपके क्रोध की आग की कौन सह सकता है? मुझे क्षमा करें।
तपस्वी प्रसन्न हो गया और बोला: जो जी में आये, सो मांगो।
राजा ने कहा: योगिराज! मेरे पास किसी चीज़ की कमी नहीं है। यह महल मुझे दे दीजिये। योगी वचन दे चुका था। उसने महल राजा को दे दिया।
महल दे तो दिया, पर वह स्वयं बड़ा दुखी होकर इधर-उधर भटकने लगा। अपना दुख उसने एक दूसरे योगी को बताया।
उसने कहा: राजा विक्रमादित्य बड़ा दानी है। तुम उसे पास जाओ और महल को मांग लो। वह दे देगा।
तपस्वी ने ऐसा ही किया। राजा विक्रमादित्य ने मांगते ही महल उसे दे दिया।
पुतली बोली: राजन्! हो तुम इतने दानी तो सिंहासन पर बैठो?
अगले दिन रुपवती नाम की तीसवीं पुतली की बारी थी। सो उसने राजा को रोककर यह कहानी सुनायी:
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