सांख्य दर्शन और भागवत: Difference between revisions
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*भागवत के एकादश स्कन्ध में प्राचीन सांख्य में तत्वों की अलग-अलग संख्या में गणना का सुन्दर समन्वय करते हुए यह बतलाया गया है कि मूलत: ये सभी भेद एक ही दर्शन के हैं। यह समन्वय उचित और सरल हो या न हो, इतना तो स्पष्ट है कि सांख्य के विभिन्न रूप प्रचलित हो चले थे और भागवतकार इन्हें विषमता न मानकर कपिल के दर्शन के ही रूप मानते थे। | *भागवत के एकादश स्कन्ध में प्राचीन सांख्य में तत्वों की अलग-अलग संख्या में गणना का सुन्दर समन्वय करते हुए यह बतलाया गया है कि मूलत: ये सभी भेद एक ही दर्शन के हैं। यह समन्वय उचित और सरल हो या न हो, इतना तो स्पष्ट है कि सांख्य के विभिन्न रूप प्रचलित हो चले थे और भागवतकार इन्हें विषमता न मानकर कपिल के दर्शन के ही रूप मानते थे। | ||
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Revision as of 15:28, 15 June 2010
भागवत में सांख्य दर्शन
अनादिरात्मा पुरुषो निर्गुण: प्रकृते: पर:।
प्रत्याग्धामास्वयंज्योतिर्विश्वं येन समन्वितम्॥
कार्यकारणकर्तृत्वे कारणं प्रकृतिं विदु:।
भोक्तृत्वे सुखद:खानां पुरुषं प्रकृते: परम्।
यत्तत्त्रिगुणमव्यक्तं नित्यं सदसदात्मकम्।
प्रधानं प्रकृतिं प्राहुरविशेषं विशेषवत्।
पञ्चभि: पञ्चभिर्ब्रह्य चतुर्भिदशभिस्तथा॥
एतच्चतुर्विंशतिकं गणं: प्राधानिकं विदु:॥
प्रकृतेगुर्णसाम्यस्य निर्विशेषस्य मानवि।
चेष्टा यत: स भगवान् काल इत्युपलक्षित:॥
- इसके अनन्तर महदादि तत्त्वों की उत्पत्ति कही गई। सांख्यकारिकोक्त मत से भिन्न अहंकार से उत्पन्न होने वाले तत्त्वों का यहाँ उल्लेख है। यहाँ वैकारिक अहंकार से मन की उत्पत्ति कही गई है।
- कारिका में भी मन को सात्विक अहंकार से उत्पन्न माना गया है। फिर तेजस अहंकार से बुद्धि तत्त्व की उत्पत्ति कही गई। इससे पूर्व परमात्मा की तेजोमयी माया से महत्तत्त्व की उत्पत्ति कही गई। ऐसा प्रतीत होता है कि भागवतकार महत तथा बुद्धि को भिन्न मानते हैं, जबकि सांख्य शास्त्र में महत और बुद्धि को पर्यायार्थक माना गया। तेजस अहंकार से इन्द्रियों की उत्पत्ति बताई गई है जबकि कारिकाकार ने मन सहित समस्त इन्द्रियों को सात्त्विक अहंकार से माना है। तामस अहंकार से तन्मात्रोत्पत्ति भागवत तथा सांख्यशास्त्रीय मत में समान है। भिन्नता यह है कि भागवत में तामसाहंकार से शब्द तन्मात्र से आकाश तथा आकाश से श्रोत्रेन्द्रिय की उत्पत्ति कही गई। इसी तरह क्रमश: तन्मात्रोत्पत्ति को समझाया गया है।[2]
सांख्य दर्शन में पुरुष को अकर्ता, निर्गुण, अविकारी माना गया है। और तदनुरूप उसे प्रकृति के विकारों से निर्लिप्त माना गया है। तथापि अज्ञानतावश वह गुण कर्तृत्व को स्वयं के कर्तृत्व के रूप में देखने लगता है। और देह संसर्ग से किए हुए पुण्य पापादि कर्मों के दोष से विभिन्न योनियों में जन्म लेता हुआ संसार में रहता हैं यही बात श्रीमदभागवत में कही गई है[3]।
प्रकृतिस्थोऽपि पुरुषो नाज्यते प्राकृतैर्गुणै:।
अविकारादकर्तृत्वान्निगुर्णत्वाज्जलार्कवत्॥
स एष यर्हि प्रकृतेर्गुष्णभिविषज्जते।
अहंक्रियाविमूढात्मा कर्ताऽस्मीत्यभिमन्यते॥
- भागवत के एकादश स्कन्ध में प्राचीन सांख्य में तत्वों की अलग-अलग संख्या में गणना का सुन्दर समन्वय करते हुए यह बतलाया गया है कि मूलत: ये सभी भेद एक ही दर्शन के हैं। यह समन्वय उचित और सरल हो या न हो, इतना तो स्पष्ट है कि सांख्य के विभिन्न रूप प्रचलित हो चले थे और भागवतकार इन्हें विषमता न मानकर कपिल के दर्शन के ही रूप मानते थे।