User talk:दिनेश सिंह: Difference between revisions
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== प्रकति की सुन्दर-----------------दिनेश सिंह == | |||
प्रकृति की सुन्दरता को देखकर | |||
मन हो जाता है मुदित , | |||
बिपिन बिच नभचर का कलरव गूंजता | |||
विविध ध्वनि विहंगावली | |||
कल कल निनाद करती बहती सुरसरी | |||
प्रकति से खेलती हो जैसे अठखली | |||
विविध रंगों से सजी वसुंधरा | |||
बहु परिधान ओढे खड़ी हो जैसे नववधू | |||
कुछ लालोहित हो चले नभ लालिमा | |||
गूंजता है सुर कलापी कोकिला | |||
कुसुमासव सी मधुर आवाज | |||
श्रुतिपटल पर कोई मुरली बजी | |||
निशा का अवसान समीप हो | |||
नवऊयान हो रही हो यामनी | |||
शुन्य पर हो जब वातावरण | |||
पतंगों की गूंज से , जैसे घंटी बजी | |||
चाँद जब चादनी बिखेरे सुमेरु पर | |||
देखते ही बन रही है अनुपम छटा | |||
लग रहा है आज मानो अचल पर | |||
उतर आयी हो फिर से गिरी पर गिरिसुता | |||
=======दिनेश सिंह======= |
Revision as of 10:39, 26 October 2013
फिर लिखने लगा खीच खीचकर -
कल्पित जीवन की रेखा -
वही कल्पना खग_पुष्पों की -
वही व्यथा मन रोदन की
जब नहीं शब्द ज्ञान मुझे -
तो क्यों फैलाता शब्द जाल -
बिन उपमा बिन अलंकार -
फिर कौन कहेगा काव्यकार
कुछ रस तो लावो तुम -
अपनी ललित कलित कविताओं में -
कुछ काव्य सुगन्धित फैलावो -
इन बहती काव्य हवाओं में
कुछ काव्य लिखो सु-मधुर सु-राग -
छवि प्रतिबिम्बित हो उत्तम सन्देश -
ले बहे समीरण उस दिशि में -
हो जहाँ जहाँ वर्जित प्रदेश
जरा नजर काव्य की घुमाँ वहां -
जो विचरण करता अन्धकार में -
जो ढूंढ़ रहा है एक कण प्रकाश -
जो भटक रहा निर्जन बन में
नहीं जिनको सुख दुःख का विषाद -
दुःख ही बना गया हर्षोउल्लाश -
रोये अन्तःकरण भीगि पलक -
क्या ऋतू वर्षा क्या ऋतू तुषार
हर नई भोर बस एक सवाल -
क्या भूंख मीटेगी फिर एक बार -
फिर उड़ा परिंदा दाने को -
औ बच्चे करते इन्तजार
स्वाभिमान से जीना उनको -
कठिन हो गया अब जग में -
बंद मुट्ठियाँ साहूकार की -
चित्त हथेली याचक की
जिनके जीवन का सूनापन -
कभी एक पल कम न हुवा -
वही कार्य प्रणाली आदिकाल की -
दयनीय बनी हुई जीवन शैली
मन की व्यथा -दिनेश सिंह
कितना सुंदर होता की हम
एक सिर्फ इन्सां होते
न जाती पाती के लिए जगह
न धर्मो के बंधन होते
शोर मचा है धर्म धर्म का -
कौम कौम का लगता नारा -
इस चलती कौमी बयारी में -
उन्मय उन्मय जन मानस सारा
जो घूम रहा था शहर शहर -
पहुँच रहा अब गाँव गाँव में -
वो कौम बयारी जहर घोलते -
महकती स्वच्छ हवाओं में
क्या सुलझेंगी ये मानस की गांठे घनेरी -
क्या रोशन होंगी ये गलियाँ अंधेरी -
क्यों बुझ जाती है गूंज आखिरी -
इस उन्मन उन्मन पथ के ऊपर
प्रथम द्रश्य देखा जब तुमको -दिनेश सिंह
प्रथम द्रश्य देखा जब तुमको -
था ऋतू बसंत फूलों का उपवन -
छुई मुई के तरु सी लज्जित -
नयनो का वो मौन मिलन
कम्पित अधरों से वो कहना -
नख से धरा कुदॆर रही थी -
आँखों मे मादकता चितवन -
साँसों का मिलता स्पंदन
भटक रहा था एकाकी पथ पर -
पथ पाया-जब मिला साथ तुम्हारा -
ह्रदय शुन्य था उत्सर्ग मौन -
खिल उठा पाकर स्पर्श तुम्हारा .
ह्रदय के गहरे अन्धकार में -
मन डूबा था विरह व्यथा में -
छूकर अपने सौन्दर्य ज्योति से -
फैलाया उर में प्रकाश यौवन
कितने सुख दुःख जीवन में हो -
नहीं मृत्यु से किंचित भय -
आँखों के सम्मुख रहो सदा जो -
औ प्रीति रहे उर में चिरमय
एक सलोने से सपने में कोई -दिनेश सिंह
एक सलोने से सपने में कोई -
नीदों में दस्तक दे जाती है -
इन्द्रधनुष सा शतरंगी -
स्वप्न को रंगीत कर जाती है
अद्रशित सी कोई डोर -
खीच रही है अपनी ओर -
खीचा जाऊं हो आत्मविभोर -
रूपसी कौन कौन चित चोर -
अधरों में मुस्कान लिए -
मुख पर शशी की जोत्स्रना -
द्रगो में लाज-मुग्ध-यौवन विद्यमान -
तेज रवि सा मुख-छबि-में रुचिमान
आखों का फैलाये तिछर्ण जाल -
फंसाकर मेरा खग अनजान चली -
जैसे नभ में छायी बदली-
पवन के झोंके उड़ा चली
संध्या सुहावनी-------------------दिनेश सिंह
दिवस अवसान का समय - चला दिनकर जलधि की गोद - हो गया स्वर्ण सा अम्बर लोल - दिये खग-दल-कुल-मुख खोल - ध्वनिमय हो गयी हिंदोल
गो वेला का समय-गोधुल नभमंडल में उड़ा - गोशावक प्रेमाग्न से-अतिव्याकुल हो रहा - उड़ पखेरू गगन में कर रहे विहारणी - दश दिशा निमज्जित हुई - प्रफुल्लित हुई हरीतिमा
दुर्गम पहाड़ो की शिखा पर - जा चढ़ी छाया पादप विटप - तिमिरांचल में है शांतपन - वेदज्ञाता कर रहे शंध्या नमन
हुई अस्त रवि किरण शैने शैने - कमल में भांवरा बंद हो रहा - विपिन में गर्जना कर रहा वनराज - गिरी कन्दरा में म्रग छिप रहा
गगन से उतरी कर पदचाप निशियामिनी - हो गयी रवि किरण अंतर्यामिनी - पवन नव-पल्लवित हो गयी - बहने लगी मधुर-म्रदु वातसी
दिनेश सिंह
===02-09-13
===02-09-13
प्रकति की सुन्दर-----------------दिनेश सिंह
प्रकृति की सुन्दरता को देखकर मन हो जाता है मुदित , बिपिन बिच नभचर का कलरव गूंजता विविध ध्वनि विहंगावली
कल कल निनाद करती बहती सुरसरी प्रकति से खेलती हो जैसे अठखली विविध रंगों से सजी वसुंधरा बहु परिधान ओढे खड़ी हो जैसे नववधू
कुछ लालोहित हो चले नभ लालिमा गूंजता है सुर कलापी कोकिला कुसुमासव सी मधुर आवाज श्रुतिपटल पर कोई मुरली बजी
निशा का अवसान समीप हो नवऊयान हो रही हो यामनी शुन्य पर हो जब वातावरण पतंगों की गूंज से , जैसे घंटी बजी
चाँद जब चादनी बिखेरे सुमेरु पर देखते ही बन रही है अनुपम छटा लग रहा है आज मानो अचल पर उतर आयी हो फिर से गिरी पर गिरिसुता