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<poem>दूर दूर तक फैली | |||
खेतो में हरियाली | |||
कितनी सुंदर वसुधा लगती | |||
रंग बिरंगी डाली डाली | |||
रँग रँग के फूल खिले है - | |||
मडरायें भवरें उन पर | |||
रस प्रेम सुधा वे पान करें | |||
इस वृंतों से उस वृंतों पर | |||
मधुरम मधुरम पवन बह रही | |||
भीनी भीनी गंध लिए | |||
बज रही घंटियाँ बैलो की | |||
गा रही कोकिला मतवाली | |||
वर्षा ऋतू बीती-ऋतू शरद गयी | |||
ऋतू बसन्त है मुसकायी | |||
चहक रहीं चिड़ियाँ तरु पर | |||
भ्रू-भंग अंग-चंचल कलियाँ हरषाई | |||
लहलाते खेतो को देख कृषक | |||
यु नाच उठे मन मोर द्रंग | |||
बादल को देख मोरनी ज्यो | |||
हर्षित उर कर-करती है म्रदंग | |||
आ गयी आम्र तरु पर बौरें | |||
आ रही है गेहूँ पर बाली | |||
सीना ताने-तरु चना खड़ा है | |||
इठलाती अरहर रानी | |||
फूली पीली सरसों के बिच | |||
यु झाँके धरती अम्बर को | |||
प्रथम द्रश्य ज्यो दुलहिन देखे | |||
अपने प्रियवर प्रियतम को | |||
मीठे मीठे बेर पक गये | |||
इस डाली के उन गुच्छे पर | |||
सुमनों से रस पी पी कर | |||
मधुमक्खी जाती छत्तो पर | |||
उर छील-छील,लील-लील,सुषमा अति | |||
स्वरमयी दिशा स्वर्गिक सौंदर्य सर्ग | |||
उदघोषित करता प्रणय-गान | |||
आ गया सुनहरा ऋतू बसंत</poem> |
Revision as of 06:39, 15 February 2014
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दूर दूर तक फैली |