भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-72: Difference between revisions
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31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण
1. बिभ्रद् वपुः सकल-सुंदर-सन्निवेशं
कर्माचरन् भुवि सुमंगलमाप्तकामः।
आस्थाय धाम रममाण उदारकीर्तिः
संहर्तुमैच्छत कुलं स्थितकृत्यशेषः।।
अर्थः
भगवान् श्रीकृष्ण ने संपूर्ण सुंदर पदार्थों से भरा शरीर धारण कर पृथ्वी पर मंगलमय कल्याणकारी कर्म किए। ये पूर्णकाम प्रभु द्वारका धाम में रहकर लीला करते रहे और उन्होंने अपनी उदार कीर्ति स्थापित की। अंत में श्रीहरि ने अपने कुल का संहार करना चाहा, क्योंकि अब पृथ्वी का भार उतारने का ही काम शेष रह गया था।
2. वैरेण यं नृपतयः शिशुपाल-पौण्ड्
शाल्वादयो गति-विलास-विलोकनाद्यैः
ध्यायन्त आकृत-धियः शयनासनादौ
तत्साम्यमापुरनुरक्तधियां पुनः किम्।।
अर्थः
शिशुपाल, पौण्ड्र और शाल्व आदि राजाओं ने तो वैर-भाव से श्रीकृष्ण की बोलचाल, चितवन आदि लीला-विलास का सोते-जागते सतत चिंतन किया। इससे उनकी चित्त-वृत्ति श्रीकृष्णाकार हो गयी और वे तत्स्वरूप बन गये। फिर जो लोग प्रेम-भाव और अनुराग से श्रीकृष्ण का चिंतन करते हैं, उन्हें श्रीकृष्ण की प्राप्ति में क्या संदेह है?
3. मा भैर् जरे! त्वमुत्तिष्ठ काम ऐष कृतो हि मे।
याहि त्वं मदनुज्ञातः स्वर्गं सुकृतिनां पदम्।।
अर्थः
हे जराव्याध! (तुम्हारा तीर मुझे लग गया इसलिए) तुम मत डरो, उठो! तुमने तो मेरे मन का ही काम किया है। मेरी अनुज्ञा से अत्यंत पुण्वानों को प्राप्त होने वाले स्वर्ग तुम्हें प्राप्त होगा।
4. लोकाभिरामां स्वतनुं धारणाध्यानमंगलाम्।
योगधारणयाऽऽग्नेय्याऽदग्ध्वा धामाविशत् स्वकम्।।
अर्थः
भगवान् श्रीकृष्ण सबके नेत्रों को आनंद देने वाले और उपासकों की ध्यान-धारणा के लिए मंगलमय अपने शरीर को आग्नेयो योगधारणा द्वारा दग्ध न करते हुए निज-धाम को चले गए।
5. स्वमूर्त्या लोकलावण्यनिर्मुक्त्या लोचनं नृणाम्।
गीर्भिस् ताः स्मरतां चित्तं पदैस् तान् ईक्षतां क्रियाः।।
अर्थः
भगवान् की वह मूर्ति त्रैलोक्य के सौंदर्य को तुच्छ करने वाली थी। उसने सबके नेत्र आकृष्ट कर लिए थे। उनकी वाणी, उनके उपदेश मधुर और दिव्य थे। उनका जो स्मरण करते थे, उनके चित्त उन्होंने छीन लिए थे। उनके चरण-चिह्नों का दर्शन होते ही लोगों की अन्य सभी क्रियाएं रुक जाती थीं और वे तटस्थ हो जाते थे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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