भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-86: Difference between revisions
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भागवत धर्म मिमांसा
2. भक्त लक्षण
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(3.6) न-काम-कर्म-बीजनां यस्य चेतसि संभवः।
वासुदेवैकनिलयः स वै भागवतोत्तमः।।[1]
जिसने भगवान् को ही अपना घर बना लिया है, वह उत्तम भक्त है। वासुदेवैकनिलयः- एकमात्र वासुदेव ही जिसका घर है। यस्य चेतसि- जिसके चित्त में। काम-कर्म-बीजानाम्- काम-वासना, कर्म का अहंकार और कामना के बीज। न संभवः- हैं ही नहीं। स वै भागवतोत्तमः- निश्चय ही वह उत्तम भक्त है। वासुदेव ही हमारे लिए एकमात्र आश्रय है, ऐसा जो सोचता है, वह उत्तम भक्त है। जब तक मनुष्य अपने घर में रहता है, तब तक उसे विश्वास नहीं होता कि बहार निकलने पर खाना मिल सकता है। लेकिन बाबा का अनुभव है कि एक बार बाहर निकल पड़ेगे तो खाना तो मिलता ही है, दूसरी भी सारी व्यवस्थाएँ हो जाती है। यह बात किसी के ध्यान में नहीं आती। एक भाई बहुत सारे प्रदेश घूम आए। उन्हें लोगों ने पूछा कि ‘सबसे कठिन घाटी कौन सी है?’ तो बोले : ‘सबसे कठिन घाटी देहली- घाटी है। एक बार घर की देहली को लाँघ लिया, तो फिर सब आसमान है। उससे ऊँची कोई घाटी है ही नहीं।’ बात यह है कि हम दूसरों पर प्रेम करेंगे, तो दूसरे भी हम पर प्रेम करेंगे। उत्तम भक्त के लिए वासुदेव ही वसति-स्थान है और उसके चित्त में काम-कर्म के बीज नहीं है, जिसके कारण मनुष्य घर से चिपका रहता है। ज्ञानदेव महाराज ने लिखा है : हे विश्वचि माझ घर- भक्त मानता है कि यह विश्व ही मेरा घर है।
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(3.7) न यस्य जन्म-कर्मम्या न वर्णाश्रम जातिभिः।
सज्जतेऽस्मिन् अहंभावो देहे वै स हरेः प्रियः।।[2]
आज हिंदुस्तान में वर्णाश्रम करीब-करीब समाप्त की है। लेकिन- भागवत-काल में यहाँ वर्णाश्रम पद्धति अच्छी तरह चल रही थी। लोग अपने-अपने कर्तव्य करते थे। स्वे-स्वेऽधिकारे या निष्ठा- अपने-अपने अधिकार में निष्ठा रखते हुए लोग काम करते थे। व्यापारी ठीक व्यापार करता था। ग्राहकों को ठगता नहीं था। इसलिए व्यापारी भी परमेश्वर के पास पहुँच सकता है, यह मान्यता थी। यह उस रचना को विशेषता थी। आज वह नहीं रही। उसमें ऊँच-नीच भाव आ गया और उसके गुण नहीं रहे। इस श्लोक में कहा है कि अपने जन्म के कारण, कर्म के कारण या वर्ण जाति के कारण भक्त के मन में अहंभाव पैदा नहीं होता। जब वर्णाश्रम अच्छी तरह चल रहा था, उस समय भी भगवान् ने इसतरह चेतावनी दी। भिन्न-भिन्न काम करते हैं,कर्म का विभाजन होता है, यह बुरा नहीं। लेकिन उसका अभिमान नहीं होना चाहिए। उसके कारण ऊँच-नीचभाव नहीं आना चाहिए। अच्छे काम का लोग गौरव करें तो उससे ऐसा भास न हो कि हमने कुछ किया। उस गौरव का चित्त पर असर न होने देना चाहिए। अहंकार मुक्ति के लिए दो तीन ढंग से सोचा जा सकता है। एक है बचपन से आज तक माता-पिता और समाज का हम पर कितना उपकार हुआ और रआज हम क्या कर रहे हैं, इसका विचार। इसका लेखा-जोखा लेने पर ध्यान में आएगा कि हम पर दूसरों का जितना उपकार हुआ है, उस हिसाब से हम कुछ भी अदा नहीं कर सके हैं। अहंकार मुक्ति का यह बिलकुल सीधा-सादा उपाय है। लेकिन भगवान् ने दूसरा भी उपाय बताया है। उसमें ‘देहे’ ऐसा लिखा है। कहना यह चाहते हैं कि गुण-दोष जो हैं, वे देह के हैं। अपने को देह से अलग मान लें, निरहंकार बनें तो काम आसान हो जाता है। हम देह को अलग मानेंगे, तो अच्छे-बुरे कर्मों का हम पर भार नहीं होगा। भक्त ऐसा भार कभी नहीं उठाता। देहे वै स हरेः प्रियः के दो अर्थ हैं : एक, देह में इन चीजों का भार नहीं उठाता, उससे अलिप्त रहता है। दूसरा, वह मनुष्य देह में रहकर ही भगवान् को प्यारा है। हरि का आशीर्वाद जीते जी प्राप्त होना चाहिए। मरने के बाद वह भगवान् का प्रिय बनेग, ऐसा नहीं। उसे इसी जीवन में हरि-स्पर्श का साक्षात् अनुभव आए। समाज में जो विषमताएँ पड़ी हैं, उन्हें वह मान ही नहीं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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