भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-128: Difference between revisions

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भागवत धर्म मिमांसा

7. वेद-तात्पर्य

इस तरह ध्यान एक आध्यात्मिक कार्य माना जाता है। लेकिन ऐसा नहीं है; जैसे कर्म एक शक्ति है, वैसे ही ध्यान भी एक शक्ति है। उसे परमार्थ के साथ जोड़ा जाए, तो वह पारमार्थिक होगा। अन्यथा, केवल ध्यान पारमार्थिक कार्य नहीं। यही बात कर्म को भी लागू होती है। व्यावहारिक कार्य पारमार्थिक भी हो सकता है। गीता ने जो कर्मयोग कहा है, उसमें यही है। वहाँ कर्म को ईश्वर के साथ जोड़ने की बात कही गयी है। पर व्यावहारिक या पारमार्थिक कार्य पहचानना बहुत कठिन है। वह सूक्ष्म दृष्टि से ही पहचाना जायेगा। केवल स्थूल कार्य पर से उसे पहचान नहीं सकते। गांधीजी अनासक्ति की बात कहते थे। उन्होंने गीता को ‘अनासक्ति-योग’ नाम दिया है। वे कहते थे कि ‘हमें हर काम ईश्वर की सेवा समझकर करना चाहिए।’ उन्होंने चमड़ा छीलने का काम ब्राह्मणों से भी करवाया। बहुत बदबू आती थी, तो भी करने के लिए कहा। यह सब इसीलिए हो सका कि उस काम का सम्बन्ध ईश्वर की सेवा के साथ था। लेकिन यदि हम वह भूल जाते हैं, तो आखिर सिर्फ काम ही रह जायेगा। पारमार्थिक भावना चली गयी, सेवा की भावना न रही, तो केवल काम ही बचेगा। इस प्रकार अनेक कामों को उठाने में खतरा रहता है, क्योंकि मनुष्य उसमें फँसता जाता है और पारमार्थिक बात उसके चित्त से हटती जाती है। ठीक यही बात ध्यान को लागू होती है। इसलिए बाहरी कर्म या बाहरी ध्यान से किसी की सच्ची पहचान नहीं हो सकती। यही बात यहाँ कही गयी है। फलश्रुति केवल रुचि पैदा करने के लिए कही गयी है। यदि मनुष्य फलश्रुति में ही फँस गया, तो समझ लीजिये कि वह कर्म में ही डूब गया। उसे उसी का चस्का लगेगा। चस्का बहुत खतरनाक चीज होती है। वह लगता है, तो उससे बचानेवाला कोई नहीं। उससे अहंकार बढ़ेगा। वह बिलकुल गिरने की बात है। इसलिए भगवान् ने कहा है कि पारमार्थिक कार्य पहचानने के ले सूक्ष्म दृष्टि चाहिए। वह अन्तर से पहचाना जाता है, बाहरी कार्य से नहीं। भगवान् उद्धव को वेद-तात्पर्य के विषय में समझा रहे हैं। वेद में जो अनेक कर्म करने का विधान है, वह कर्म से मुक्ति पाने के लिए ही है। जो फलश्रुति कही गयी है, वह केवल रुचि बढ़ाने के लिए है। भगवद्-दर्शन की लालसा बढ़े, भगवत्-साक्षात्कार की इच्छा हो, केवल इसीलिए वह कही गयी है। अतः यह नहीं मानना चाहिए कि वेद कर्मकाण्डी हैं। अब शब्द-ब्रह्म का वर्णन कर रहे हैं :


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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