भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-141: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
('<h4 style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">भागवत धर्म मिमांसा</h4> <h4 style="text-...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
m (1 अवतरण)
 
(No difference)

Latest revision as of 07:07, 13 August 2015

भागवत धर्म मिमांसा

10. पूजा

(27.3) मल्लिंग-मद्भक्तजन-दर्शनस्पर्शनार्चनम् ।
परिचर्या स्तुतिः प्रह्व-गुणकर्मानुकीर्तमनम् ।।[1]

अब सारा कार्यक्रम बता रहे हैं : ‘लिंग’ यानी मूर्ति। मल्लिंग यानी मेरी मूर्ति। मेरी मूर्ति का दर्शन करें स्पर्शन करें, और अर्चन यानी पूजा करें। और किसका दर्शन, स्पर्शन, अर्चन करें? भक्तजनों का। उनकी सेवा होनी चाहिए, स्तुति होनी चाहिए। अनेक गुणों और कर्मों का प्रह्व – नम्रतापूर्वक अनुकीर्तन होना चाहिए। इसका यह भी अर्थ हो सकता है कि मेरे लिंग यानी मेरे मूर्तिस्वरूप मेरे भक्तजनों का दर्शन, स्पर्शन, अर्चन होना चाहिए। यह अर्थ लेत हैं, तो मूर्ति खतम हो जाती है। नहीं तो द्वन्द्व-समास मानना होगा – (मल्लिंग च मद्भक्ताश्च) मेरी मूर्ति और मेरे भक्तजन। जो अर्थ लेना हो, ले सकते हैं। नहि वचनस्य अर्थभारो नाम कश्चित् – वचन को अर्थ का बोझ नहीं होता। अर्थ का कितना भी भार उस पर डालो, वह उठा लेता है। इसिलए इसका जो भी अर्थ करें, ठीक ही होगा। जहाँ मूर्तिपूजा का निषेध है, वहाँ मूर्ति अर्थ न लिया जाए और जहाँ उसका निषेध नहीं, वहाँ दोनों अर्थ ले सकते हैं। फिर सवाल आयेगा – दर्शन, स्पर्शन, अर्चन मूर्ति और भक्त, दोनों पर लागू करेंगे, तो भक्तों पर बहुत अधिक बोझ पड़ेगा? लोग उन्हें सतायेंगे। इसलिए भक्तों की परिचर्या करने के लिए कहा। यह सारा संतों की पूजा या सज्जनों के स्वागत का कार्यक्रम बता रहे हैं।

(27.4) मत्कथा-श्रवणे श्रद्धा मदनुध्यानमुद्धव !
सर्वलाभोपहरणं दास्येनात्म-निवेदनम् ।।[2]

सज्जनों का स्वागत-सेवा करके उन्हें बिदा कर दें तो काम ठीक न होगा। उनसे लाभ उठाना चाहिए, भगवत्कथा सुननी चाहिए – मत्कथाश्रवणे श्रद्धा। श्रवण किससे करें? अपने यहाँ जो सज्जन आते हैं, उनसे। फिर कह रहे हैं कि मेरा ध्यान करना है, तो उसके लिए क्या करें? सर्वलाभोपहरणम् – जितना लाभ हुआ हो, उतना सारा भगवान् को अर्पण करें। सज्जनों की चरण-सेवा करके उनसे अपना दुःख आनि निवेदन करना चाहिए। दिल खुला ही नहीं, तो यह कैसे होगा? इसलिए कहा : दास्येनात्म-निवेदनम् – दास्यपूर्वक यानी सेवा करके आत्म-निवेदन करें। मतलब यह कि अपनी राम-कहानी उन्हें सुनानी चाहिए।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 11.11.34
  2. 11.11.35

संबंधित लेख

-