भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-145: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
नवनीत कुमार (talk | contribs) No edit summary |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (1 अवतरण) |
(No difference)
|
Revision as of 07:07, 13 August 2015
भागवत धर्म मिमांसा
11. ब्रह्म-स्थिति
(28.1) यावद् देहेंद्रियप्राणैर् आत्मनः सन्निकर्षणम् ।
संसारः फलवान् तावत् अपार्थोऽप्यविवेकिनः ।।[1]
यावद् यानी जब तक। तावत् यानी तब तक। जब तक देह इन्द्रियाँ और प्राण का आत्मा के साथ सन्निकर्षण – सान्निध्य बना रहेगा, यानी उन्हें आत्मा की आसक्ति या स्नेह रहेगा, तब तक संसार फलता ही रहेगा, यद्यपि संसार में कोई अर्थ नहीं है। सन्निकर्षण का अक्षरशः अर्थ तो ‘सान्निध्य’ ही है, लेकिन ‘आसक्ति’ या ‘स्नेह’ अर्थ भी उससे निकल सकता है। संसार किसे फलेगा? जो अविवेकी हो, उसे। जिसे इसका भान नहीं कि आत्मा देह, इन्द्रिय, मन आदि से भिन्न है, वह अविवेकी है। जिसने आत्मा-अनात्मा का अन्तर जाना, वह विवेकी है। अविवेकी का संसार फलता ही रहता है। शादी होती है, बच्चे होते हैं, फिर नाती होते हैं – इस तरह फूलता-रहता है। संसार तब तक फूलता-फलता रहेगा, जब तक आत्मा का देह-इन्द्रियों से स्नेह, अनुराग या आसक्ति बनी रहेगी। फिर यह संसार है भी कैसा? तो कहते हैं : अपार्थ यानी निरर्थक। यह संसार निरर्थक है, इसमें कोई सार नहीं, फिर भी अविवेकियों को लगता है कि इसमें सार है।
(28.2) अर्थे ह्यविद्यमानेऽपि संसृतिर् न निवर्तते ।
ध्यायतो विषयान् अस्य स्वप्नेऽनर्थागमो यथा ।।[2]
बाबा जैसे दार्शनिक समझाते रहें कि इस संसार में कुछ अर्थ नहीं, फिर भी लोगों का संसार मिटानेवाला नहीं – संसृतिः न निवर्तते। लोग संसार से निवृत्त होनेवाले हैं नहीं। ध्यायतः विषयान् अस्य – जो विषयों का ध्यान करता रहेगा, उसके लिए ये विषय कभी हटनेवाले नहीं, भले ही वे मिथ्या हों। उदाहरण द्वारा यही बात समझाते हैं : स्वप्ने अनर्थागमः यथा – जैसे स्वप्न में अनर्थ हुआ, तो वह हटता नहीं, वैसे ही जो विषयों का ध्यान करते हैं, उनके सामने से विषय नहीं हटते। सभी का अनुभव है, स्वप्न में देखा हुआ स्वप्न रहने तक सत्य ही लगता है। मैंने ऐसे लोग भी देखे हैं, जो स्वप्न में रोते हैं, आँखों से आँसू बहाते हैं। जाग जाने पर उनके पूछा जाए कि क्यों रोते थे? तो जवाब नहीं दे पाते; क्योंकि उन्हें कुछ याद ही नहीं आता। इस तरह स्वप्न अनर्थ होता है, मिथ्या है; फिर भी सत्य लगता है और जाग जाने पर उसके मिथ्यात्व का भान होता है। जो जागा नहीं, उसके लिए वह ‘अनर्थ’ कैसे कहा जायेगा? वैसे ही दार्शनिकों द्वारा दर्शन सुना कि यह संसार मिथ्या है, उसमें सार नहीं, तो भी वह चीज जँचेगी नहीं। यह स्थिति तब तक रहेगी, जब तक विषयों पर से ध्यान हटा नहीं है। उल्टे घड़े पर कितना भी पानी डालो, वह कभी घड़े के अन्दर नहीं जा सकता। ऐसा क्यों होता है? इसलिए कि सभी अहंकार से चिपके हुए हैं :
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
-