भगवद्गीता -राधाकृष्णन भाग-2: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
नवनीत कुमार (talk | contribs) ('<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">1.इस ग्रन्थ का महत्त्व</div> आत...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (1 अवतरण) |
(No difference)
|
Revision as of 13:17, 2 September 2015
आत्मा के सत्यों को केवल वे लोग ही पूरी तरह समझ सकते हैं, जो कठोर अनुशासन द्वारा उन्हें ग्रहण करने के लिए अपने-आप को तैयार करते हैं। आत्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमें अपने मन को सब प्रकार के विक्षेपों से रहित करना होगा और हृदय को सब प्रकार की भ्रष्टता से स्वच्छ करना होगा।[1] फिर, सत्य के ज्ञान का परिणाम जीवन का पुनर्नवीकरण होता है। आत्मजगत् जीवन के जगत् से बिलकुल अलग-थलग नहीं है। मनुष्य को ब्राह्म लालसाओं और आन्तरिक गुणों में विभक्त कर देना मानवीय जीवन की अखंडता को खंडित कर देना है। ज्ञानवान् आत्मा ईश्वर के राज्य के एक सदस्य के रूप में कार्य करती है। वह जिस संसार को स्पर्श करती है, उस पर प्रभाव डालती है। और दूसरों के लिए उद्धारक बन जाती है।[2]वास्तविकता (ब्राह्म) के दो प्रकार, एक अनुभवातीत (लोकोत्तर) और दूसरा अनुभवगम्य (लौकिक), एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध हैं। गीता के प्रारम्भिक भाग में मानवीय कर्म की समस्या का प्रश्न उठाया गया है। “परमात्मा की ज्योति आत्मा में रहती है, अन्यत्र कहीं नहीं। यह सब प्राणियों में समान रूप से चमकती है और इसे अपने मन को समाधि में शान्त करके स्वयं देखा जा सकता है।”
हम किस प्रकार उच्चतम आत्मा में निवास कर सकते हैं और फिर भी संसार में काम करते रह सकते हैं? इसका जो उत्तर दिया गया है, वह हिन्दू धर्म का परम्परागत उत्तर है। यद्यपि यहां इसे एक नये सन्दर्भ के साथ प्रस्तुत किया गया है।
अधिकृत पदसंज्ञा[3] की दृष्टि से गीता को उपनिषद् कहा जाता है, क्योंकि इसकी मुख्य प्रेरणा धर्म ग्रन्थों के उस महत्वपूर्ण समूह से ली गई है, जिसे उपनिषद् कहा जाता है। यद्यपि गीता हमें प्रभावपूर्ण और गम्भीर सत्य का दर्शन कराती है, यद्यपि यह मनुष्य के मन के लिए नये मार्ग खोल देती है, फिर भी यह उन मान्यताओं को स्वीकार करती है, जो अतीत की पीढि़यों की परम्परा का एक अंग हैं और जो उस भाषा में जमी हुई हैं, जो गीता में प्रयुक्त की गई है। यह उन विचारों और अनुभूतियों को मूर्तिमान और केन्द्रित कर देती है, जो उस काल के विचारशील लोगों में विकसित हो रही थी। इस भ्रातृघाती संघर्ष की उपनिषदों के प्राचीन ज्ञान, प्रज्ञा पुराणी पर आधारित एक आध्यात्मिक सन्देश के विकास के लिए अवसर बना लिया गया है।[4] उन अनेक तत्त्वों को, जो गीता की रचना के काल में हिन्दू धर्म के अन्दर एक-दूसरे से होड़ करने में हुटे हुए थे, इसमे एक जगह ले जाया गया है और उन्हें एक उन्मुक्त और विशाल, सूक्ष्म और गम्भीर सर्वाग-सम्पूर्ण समन्वय में मिलाकर एक कर दिया गया है। इसमें गुरू ने विभिन्न विचारधाराओं को, वैदिक बलिदान की पूजा-पद्धति को, उपनिषदों की लोकातीत ब्रह्म की शिक्षा को, भागवत के ईश्वरवाद और करूणा को, सांख्य के अद्वैतवाद को और योग की ध्यान-पद्धति को परिष्कृत किया है और उनमें आपस में मेल बिठाया है। उसने हिन्दू-जीवन और विचार के इन सब जीवित तत्वों को एक सुगठित एकता में गूंथ दिया है।
सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः।
पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्।।
उसने निषेध की नहीं अपितु अर्थावबोध की पद्धति को अपनाया है और यह दिखा दिया है कि किस प्रकार वे विभिन्न विचारधाराएं एक ही उद्देश्य तक जा पहुँचती हैं।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तुलना कीजिएः ज्योतिरात्मनि नान्यत्र समं तत्सर्वजन्तुषु। स्वयं च शक्यते द्रष्टुं सुसमाहितचेतसा।।
- ↑ 4, 35
- ↑ पुष्पिका से तुलना कीजिएः भगवद्गीतासु उपनिषत्सु।
- ↑ ‘वैष्णवीय तन्त्रसार’ के एक लोकप्रिय श्लोक में यह बात कही गई है कि गीता उपनिषदों की मूल शिक्षाओं को ही नये रूप में प्रस्तुत करती है। उपनिषदें गौएं हैं। ग्वाले का पुत्र कृष्ण दूध दुहने वाला है। अर्जुन बछड़ा है। बुद्धिमान् मनुष्य पीने वाला है और अमृतरूपी गीता बढि़या दूध है।
संबंधित लेख
-