ग्रेशम का सिद्धांत: Difference between revisions
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ग्रेशम का सिद्धांत ब्रिटिश रॉयल एक्सचेंज के आदि संस्थापक थोमस ग्रेशम द्वारा दिया गया था। इस सिद्धांत के अनुसार- "यदि किसी अर्थव्यवस्था में अच्छी और बुरी मुद्राएँ एक साथ प्रचलन में हैं, तो बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को प्रचलन से बाहर कर देती है।"
थॉमस ग्रेशम
ग्रेशम, जिनका पूरा नाम थॉमस ग्रेशम (1519-1579 ई.) था, विशिष्ट आर्थिक सिद्धांत (सन 1560 ई.) के उद्भावक माने जाते हैं। वे सुप्रसिद्ध व्यापारिक संस्थान 'भरसर' के संचालक मंडल के तत्कालीन सदस्य, हेनरी अष्टम कालीन ब्रिटिश सरकार के आर्थिक सलाहकार, महारानी एलिजाबेथ के प्रथम मुद्रानिर्यंता तथा ब्रिटिश रॉयल एक्सचेंज के आदि संस्थापक थे।[1]
सिद्धांत
थोमस ग्रेशम के शब्दों में इस सिद्धांत का हिंदी रूपांतर इस प्रकार है-
"यदि एक ही धातु के सिक्के एक ही अंकित मूल्य के, किंतु विभिन्न तौल एवं धात्विक गुणधर्म के एक साथ ही प्रचलन में रहते हैं, तो बुरा सिक्का अच्छे सिक्के को प्रचलन से निकाल बाहर करता है, पर अच्छा कभी भी बुरे को प्रचलन से निकाल बाहर नहीं कर सकता।"
इस सिद्धांत का वर्तमान संशोधित स्वरूप निम्नलिखित है-
"यदि सभी परिस्थितियाँ यथावत् रहें तो बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को प्रचलन से निकाल बाहर करती है।"
यद्यपि यह सिद्धांत थोमस ग्रेशम से बहुत प्राचीन है, फिर भी तत्कालीन मौद्रिक स्थिति के आधिकारिक गंभीर अध्ययन एवं सूक्ष्म विश्लेषण के द्वारा इन्होंने अपने इस मत की सर्वप्रथम स्थापना की, इसलिये उनके नाम पर यह सिद्धांत प्रचलित हुआ।[1]
अच्छी मुद्रा संग्रह के लिये उपयुक्त होने, धातु के रूप में विक्रय द्वारा विशेष लाभार्जन के निमित्त देश-विदेश में चोरबाज़ारी के लिये अधिक उपयुक्त होने तथा बुरी मुद्रा की बुराइयों के कारण अपने पास न रखने की मनोवैज्ञानिक प्रवृक्ति के कारण अपने मूल कार्य क्रय-विक्रय के साधन में प्रयुक्त होने की अपेक्षा उपर्युक्त कार्यों के लिये प्रचलन से बाहर कर दी जाती है। सामान्यत: एक धातुमान में कम घिसे सिक्के, द्विधातु एवं बहु धातुमान में धात्विक दृष्टि से अपेक्षाकृत मूल्यवान, काग़ज़ी मान से परिवर्त्य मुद्रा और धात्विक एवं काग़ज़ी सहमान में बाज़ार की दृष्टि से आंतरिक या धात्विक दृष्टि से मूल्यवान तथा सममूल्य की होते हुए भी नवीन तथा कलात्मक मुद्रा अच्छी समझी जाती है।
सिद्धांत का प्रयोग
इस सिद्धांत के प्रयोग की सीमा का निर्धारण मुद्रा की माँग, मुद्रा के प्रति विश्वास, मौद्रिक विधान तथा साख व्यवस्था द्वारा होती है। इन दृष्टियों से यदि मुद्रा की पूर्ति माँग से अधिक न हो, बुरी मुद्रा इतनी बुरी न हो गई हो कि उससे जनता का विश्वास ही उठ गया हो तथा उसका प्रचलन विधान सम्मत होते हुए भी अग्राह्य हो गया हो, और जब प्रचलन में कोई भी मुद्रा प्रामाणिक नहीं रहती या एक असीमित और अन्य मुदाएँ सीमित विधिग्राह्य होती हैं तथा साख व्यवस्था यदि ऐसी रहती है कि किसी मुद्रा के प्रचलन से बाहर जाने पर मूल्य स्तर प्रभावित नही होता तथा मुद्रा बाज़ार का सुव्यवस्थित नियंत्रण रहता है तो यह सिद्धांत लागू नहीं हो पाता।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 थोमस ग्रेशम का सिद्धांत (हिन्दी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 09 जून, 2015।