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{{सरस्वती देवी विषय सूची}}
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'''जबीन जलिल''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Jabeen Jalil'', [[1 अप्रैल]], [[1937]], [[दिल्ली]]; मृत्यु: ) [[1950]] और [[1960]] के दशक के हिन्दी सिनेमा के प्रेमियों के लिए अभिनेत्री जबीन जलील का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। क़रीब 20 साल के अपने कॅरियर के दौरान भले ही जबीन ने महज़ 24 हिन्दी और 4 पंजाबी फ़िल्मों में काम किया हो, लेकिन अपनी ख़ूबसूरती और दिलकश अभिनय के दम पर उस जमाने में उन्होंने लाखों लोगों को अपना दीवाना बनाया था।  
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|चित्र=Saraswati-Devi-1.jpg
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|चित्र का नाम=सरस्वती देवी
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हिन्दी सिनेमा का स्वर्णकाल कहलाए जाने वाले उस दौर की चर्चित अभिनेत्री जबीन अब एक बार फिर से हिन्दी सिनेमा के क्षेत्र में प्रोडयूसर के रुप में सक्रिय हुर्इ हैं। जबीन का ताल्लुक बंगाल के एक बेहद ज़हीन और पढ़े-लिखे ख़ानदान से रहा है। उनके दादा सैयद मौलवी अहमद कोलकाता यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल करने वाले पहले बंगाली मुस्लिम थे तो पिता सैयद अबू अहमद जलील अंग्रेज़ों के ज़माने के आर्इ.सी.एस. अफ़सर। जबीन की अम्मी दिलारा जलील भी एक पढ़ी-लिखी और मुंशी फ़ाजिल की डिग्री हासिल कर चुकी महिला थीं जिनका ताल्लुक़ लाहौर के मशहूर फ़कीर ब्रदर्स के ख़ानदान से था। ये तीनों भार्इ सैयद फ़कीर नूरुद्दीन, सैयद फ़कीर सर्इदुद्दीन और सैयद फ़कीर अज़ीज़ुद्दीन महाराजा रणजीत सिंह के बेहद विश्वस्त मन्त्रियों में से थे। महाराजा रणजीत सिंह ने ही इन भार्इयों को फ़कीर टार्इटिल से नवाज़ा था और इनका नाम हिन्दुस्तान के इतिहास में भी दर्ज है। लाहौर का मशहूर फ़कीरखाना म्यूज़ियम भी इन्हीं तीन भार्इयों के नाम पर है। सैयद फ़कीर अज़ीज़ुद्दीन महाराजा रणजीत सिंह के दरबार में विदेश मंत्री थे। जबीन की अम्मी दिलारा बेगम इन्हीं सैयद फ़कीर अज़ीज़ुद्दीन की पड़पोती थीं।
|पूरा नाम=खुर्शीद मिनोखर होमजी
 
|प्रसिद्ध नाम=सरस्वती देवी
 
|अन्य नाम=
 
|जन्म=[[1912]]
 
|जन्म भूमि=[[मुम्बई]]
 
|मृत्यु=[[10 अगस्त]]
 
|मृत्यु स्थान=[[1980]]
 
|अभिभावक=
 
|पति/पत्नी=
 
|संतान=
 
|कर्म भूमि=मुम्बई
 
|कर्म-क्षेत्र=संगीतकार (हिंदी सिनेमा)
 
|मुख्य रचनाएँ=
 
|मुख्य फ़िल्में='जीवन नैया', 'अछूत कन्या', 'बंधन', 'नया संसार', 'प्रार्थना', 'भक्त रैदास', 'पृथ्वी वल्लभ', 'खानदानी', 'नकली हीरा', 'उषा हरण'
 
|विषय=
 
|शिक्षा=संगीत
 
|विद्यालय=मॉरिस कॉलेज, [[लखनऊ]]
 
|पुरस्कार-उपाधि=
 
|प्रसिद्धि=भारत की पहली महिला संगीतकार
 
|विशेष योगदान=
 
|नागरिकता=भारतीय
 
|संबंधित लेख=
 
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|अन्य जानकारी=सरस्वती देवी की [[1961]] में आखिरी फ़िल्म थी, राजस्थानी की ‘बसरा री लाडी’। इसके बाद उन्होंने फ़िल्मों को अलविदा कह दिया और [[संगीत]] सिखाने का काम हाथ में ले लिया।
 
|बाहरी कड़ियाँ=
 
|अद्यतन=
 
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'''सरस्वती देवी''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Saraswati Devi'', मूल नाम- खुर्शीद मिनोखर होमजी, जन्म: [[1912]], [[मुम्बई]]; मृत्यु: [[10 अगस्त]], [[1980]]) [[भारत]] की पहली महिला संगीतकार थीं। जिन्होंने [[1930]] और [[1940]] के दशक में [[हिंदी]] सिनेमा में काम किया था। वह बॉम्बे टॉकीज़ के साथ काम करने वाली कुछ महिला संगीतकारों में से एक थीं। सरस्वति देवी ने [[1936]] में पहली बार फ़िल्म 'जीवन नैया' संगीत दिया था। इसके अलावा 'अछूत कन्या', 'बंधन', 'नया संसार', 'प्रार्थना', 'भक्त रैदास', 'पृथ्वी वल्लभ', 'खानदानी', 'नकली हीरा', 'उषा हरण' जैसी फ़िल्मों में संगीत दिए।
 
 
==परिचय==
 
==परिचय==
सरस्वती देवी का जन्म मुम्बई के एक संपन्न और सम्मानित [[पारसी]] [[परिवार]] में हुआ था। उनका मूल नाम खुर्शीद मिनोखर होमजी था। [[संगीत]] के प्रति उनका प्रेम देखते हुए उनके पिता ने प्रख्यात संगीताचार्य [[विष्णु नारायण भातखंडे]] के मार्गदर्शन में उन्हें [[शास्त्रीय संगीत]] की शिक्षा दिलाई। बाद में [[लखनऊ]] के मॉरिस कॉलेज में उन्होंने संगीत की पढ़ाई की।
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जबीन जलिल का जन्म 1 अप्रैल, 1937 को दिल्ली में हुआ था, लेकिन वो सिर्फ़ दो महिने की थीं जब उनके पिता का ट्रांसफर हुआ और वो माता-पिता के साथ [[जापान]] चली गयीं। चार साल जापान में गुज़ारने के बाद उनके पिता कण्ट्रोलर आफ़ टेक्सटार्इल बनकर [[मुम्बर्इ]] चले आए। जहां नानाचौक-मुम्बर्इ स्थित मशहूर क्वीन मेरी स्कूल में जबीन को दाख़िला दिलाया गया। स्कूली पढ़ार्इ क्वीन मेरी से पूरी करने के दौरान जबीन अपने स्कूल की हेडगर्ल भी रहीं। आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने एल्फ़िन्स्टन कॉलेज में दाख़िला लिया।
==कॅरियर की शुरुआत==
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[[1920]] के दशक में जब [[मुम्बई]] में रेडियो स्टेशन खुला, तो वहां खुर्शीद अपनी बहन मानेक के साथ मिलकर होमजी सिस्टर्स के नाम से नियमित रूप से संगीत के कार्यक्रम पेश किया करती थीं। उनका कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय हो गया था। इसी कार्यक्रम की सफलता को देखते हुए हिमांशु राय ने जब बॉम्बे टॉकीज शुरू किया, तो उन्होंने खुर्शीद को अपने स्टूडियो के संगीत कक्ष में बुलाया और उसका कार्यभार उन्हें सौंप दिया। यह एक चुनौती भरा काम था और उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया। वहीं 'सरस्वती देवी' के रूप में उनका नया नामकरण भी हुआ। उनकी पहली फ़िल्म का नाम था ‘जवानी की हवा’ इसमें उनकी बहन मानेक ने भी चंद्रप्रभा के नाम से एक प्रमुख भूमिका निभाई थी। पहली फ़िल्म 'जवानी की हवा' के लिए संगीत तैयार करते हुए सरस्वती देवी को पता चल गया था कि यह आसान काम नहीं है, क्योंकि फ़िल्म के नायक नजमुल हुसैन और नायिका देविका रानी को गाने का कोई अभ्यास नहीं था। आसान धुनों को भी उनसे गवाने में खासी मेहनत करनी पड़ रही थी। इस फ़िल्म का सिर्फ़ एक ही गाना ग्रामोफोन रिकॉर्ड पर उपलब्ध है। गाने के बोल है- ‘सखी री मोहे प्रेम का सार बता दे’। संगीत वाद्यों के रूप में [[तबला]], [[सारंगी]], [[सितार]] और जलतरंग का इस्तेमाल किया गया था। इस गाने में नजमुल हुसैन और देविका रानी के अलावा चंद्रप्रभा की आवाजें भी हैं।
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पढ़ाई के साथ साथ वह पूरे जोशोख़रोश के साथ कॉलेज के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी हिस्सा लेती थी। कॉलेज के एक नाटक 'नेक-परवीन' में वह अहम रोल निभा रही थी, जिसमें उस ज़माने के जाने-माने निर्माता निर्देशक एस.एम.यूसुफ़ और उनकी पत्नी निगार सुल्ताना जज बनकर आए थे। उन्हें मेरा अभिनय इतना पसन्द आया कि यूसुफ़ साहब के हाथों मुझे सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार तो मिला ही, उन्होंने मुझे अपनी अगली फ़िल्म  में हिरोर्इन का रोल भी ऑफ़र किया। फ़िल्मों  से हमारे परिवार का सिर्फ़ इतना सा रिश्ता था कि प्रोडयूसर-डायरेक्टर और अभिनेता सोहराब मोदी मेरे पिता के अच्छे दोस्त थे। मेरे पिता साल 1949 में ही ग़ुज़र गए थे। बड़ी दोनों बहनें शादी के बाद पाकिस्तान चली गयी थीं। घर में सिर्फ़ अम्मी, मैं और मेरा छोटा भार्इ थे। यूसुफ़ साहब के इस ऑफ़र पर मेरे लिए ख़ुद कोर्इ फ़ैसला ले पाना मुमकिन नहीं था इसलिए अगले ही दिन वो मेरे घर चले आए। उनके समझाने पर अम्मी ने थोड़ी ना-नुकुर के बाद आखिरकार मुझे फ़िल्म  में काम करने की इजाज़त दे दी”।
;प्लेबैक सिंगिंग’ की शुरुआत
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लेकिन जिस फ़िल्म ने सरस्वती देवी को संगीतकार के रूप में अमर कर दिया, वह थी [[1936]] में बनी उनकी फ़िल्म 'अछूत कन्या'। इस फ़िल्म में नौ गाने थे। फ़िल्म के सभी गाने शास्त्रीय रागों पर आधारित थे। फ़िल्म का एक गाना ‘कित गए हो खेवनहार’ सरस्वती देवी ने खुद गाया था। दरअसल यह गाना उनकी बहन चंद्रप्रभा को गाना था, लेकिन ऐन वक्त पर उसका गला खराब हो गया। तब हिमांशु राय ने ही उन्हें सलाह दी कि वह खुद इस गाने को गाएं और परदे पर चंद्रप्रभा सिर्फ होंठ हिलाए। इसे एक तरह से ‘प्लेबैक सिंगिंग’ की शुरुआत माना जा सकता है। हालांकि इस समय तक [[कोलकाता]] के न्यू थिएटर्स में राय चंद्र बोराल भी अपनी फ़िल्म ‘धूप-छांव’ के लिए कुछ इसी तरह एक गाना गवा चुके थे। लेकिन फ़िल्म का सबसे लोकप्रिय गाना तो रहा, अशोक कुमार और देविका रानी का गाया ‘मैं बन की चिडिय़ा बनके बन बन बोलूं रे’।
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साल 1954 में रिलीज हुर्इ ‘ग़ुज़ारा’ जबीन की पहली फ़िल्म थी,  जिसमें उनके हीरो करण दीवान थे। संगीत ग़ुलाम मोहम्मद का था। फ़िल्म तो ज्यादा नहीं चली लेकिन जबीन अपनी तरफ़ लोगों का ध्यान आकृष्ट करने में ज़रूर कामयाब रहीं। साल 1955 में उनकी दूसरी फ़िल्म  ‘लुटेरा’ रिलीज़ हुर्इ जिसमें उनके हीरो नासिर ख़ान थे। लेकिन सही मायनों में उन्हें पहचान मिली अपनी तीसरी फ़िल्म ‘नर्इ दिल्ली’ से जिसमें उन्होंने हीरो किशोर कुमार की बहन निक्की का रोल किया था। 1956 में रिलीज़ हुर्इ इस फ़िल्म में जबीन के हीरो की भूमिका अभिनेत्री नलिनी जयवन्त के पति प्रभुदयाल ने की थी। शंकर-जयकिशन के संगीत से सजी, प्रोडयूसर-डायरेक्टर मोहन सहगल की ये फ़िल्म उस दौर की सफलतम फ़िल्मों में से थी।  
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फ़िल्म ‘नर्इ दिल्ली’ की सफलता का जबीन को भरपूर फायदा मिला। 1950 के दशक के आख़िर में उनकी ‘चारमीनार’, ‘फ़ैशन’, ‘जीवनसाथी’, ‘हथकड़ी’, ‘पंचायत’, ‘रागिनी’, ‘बेदर्द ज़माना क्या जाने’ और ‘रात के राही’ जैसी फ़िल्में रिलीज़ हुर्इं। ‘तुम और हम’ (फ़ैशन), ‘मदभरे ये प्यार की पलकें’ (फ़ैशन), ‘ता थैय्या करते आना’ (पंचायत), ‘इस दुनिया से निराला हूं’ (रागिनी), ‘पिया मैं हूं पतंग तू डोर’ (रागिनी), ‘क़ैद में है बुलबुल सय्याद मुस्कुराए’ (बेदर्द ज़माना क्या जाने), ‘दूर कहीं तू चल’ (बेदर्द ज़माना क्या जाने), ‘आ भी जा बेवफा’ (रात के राही), ‘तू क्या समझे तू क्या जाने’ (रात के राही) और ‘एक नज़र एक अदा’ (रात के राही) जैसे उन पर फ़िल्माए गए कर्इ गीत भी उस दौर में बेहद मशहूर हुए थे।
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1960 के दशक में जबीन ने ‘बंटवारा’, ‘खिलाड़ी’, ‘सच्चे मोती’, ‘ताजमहल’ और ‘राजू’ जैसी कुछ फ़िल्मों में काम किया। फ़िल्म ‘ताजमहल’ में लाडली बानो का उनका किरदार बेहद सराहा गया था। फ़िल्म ‘बंटवारा’ का जवाहर कौल और जबीन पर पिक्चरार्इज हुआ गीत ‘ये रात ये फिजाएं फिर आएं या न आएं’ तो आज भी संगीतप्रेमियों के बीच उतना ही लोकप्रिय है। उसी दौरान उन्हें साल 1962 में बनी पंजाबी फ़िल्म ‘चौधरी करनैल सिंह’ के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का नेशनल अवार्ड भी मिला जिसमें उनके हीरो प्रेम चोपड़ा थे। ‘चौधरी करनैल सिंह’ प्रेम चोपड़ा की पहली फ़िल्म थी। इसके बाद जबीन ने तीन और पंजाबी फ़िल्मों ‘कदी धूप कदी छांव’, ‘ऐ धरती पंजाब दी’ और ‘गीत बहारां दे’ में काम किया।
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साल 1968 में जबीन की शादी हुर्इ। जोधपुर के रहने वाले कश्मीरी मूल के उनके पति अशोक काक कोडक कम्पनी के प्रेसिडेण्ट थे और उस दौर में देश के सबसे कम उम्र के सी.र्इ.ओ. थे। पिलानी से एम.बी.ए. पास अशोक भी बेहद पढ़े-लिखे ख़ानदान से ताल्लुक रखते थे और वो जबीन के छोटे भार्इ असजद जलील के दोस्त थे। जबीन कहती हैं, ‘मैं सैयद मुस्लिम थी और अशोक कश्मीरी पण्डित। लेकिन हम दोनों ही के परिवारों का माहौल इतना खुला हुआ था कि धर्म कहीं भी हमारी शादी में आड़े नहीं आया। शादी के बाद मैंने अपना पूरा ध्यान गृहस्थी सम्भालने में लगा दिया। शादी के बाद मैंने सिर्फ़ एक फ़िल्म की और वो थी ‘वचन’ जो 1974 में रिलीज़ हुर्इ थी।
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फ़िल्मों से अलग होने के बाद जबीन सामाजिक कार्यों में भी व्यस्त हो गयी थीं। बेटा स्कूल जाने लगा तो उन्होंने उसके कैथेड्रल स्कूल की पी.टी.ए. के चेयरपर्सन की कुर्सी सम्भाल ली। उनकी दोनों बड़ी बहनें पाकिस्तान में और छोटा भार्इ अमेरिका में सेटल हो चुके थे। भारत में उनका कोर्इ भी रिश्तेदार नहीं था इसलिए बेटे की पढ़ाई और अच्छे भविष्य के लिए जबीन ने भी अमेरिका में सेटल हो जाना बेहतर समझा। पति और बेटे के साथ शुरु से ही उनका अमेरिका जाना-आना लगा रहता था इसलिए ग्रीन कार्ड मिलने में भी कोर्इ मुश्किल नहीं हुर्इ। आख़िरकार साल 1989 में वो परिवार सहित अमेरिका चली गयीं।
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जबीन और उनके परिवार ने क़रीब 10 साल अमेरिका में गुज़ारे। उनकी सास और मां दोनों ही अमेरिका में उनके साथ रहती थीं। जबीन की मां गुजरीं तो बेटा दिविज जो अपनी नानी के बेहद क़रीब था डिप्रेशन में चला गया। नतीजन डाक्टर्स की सलाह पर जबीन को साल 1998 में वापस मुम्बर्इ आना पड़ा क्योंकि डाक्टरों का कहना था कि जल्द रिकवरी के लिए दिविज का वापस उस माहौल में जाना ज़रुरी था जिसमें उसका बचपन गुज़रा था। दिविज को डाक्टरों की इस सलाह का फ़ायदा भी हुआ और मुम्बर्इ आकर उनकी तबीयत में पूरी तरह से ठीक हो गयी।
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अशोक काक साल 2002 में भारत लौटे। जाने माने उधोगपति के.के.बिडला उनकी प्रबन्धन क्षमता से पहले ही से परिचित थे इसलिए उन्होंने अशोक काक से अपनी सबसे पुरानी कम्पनियों में से एक, कोलकाता स्थित घाटे में चल रही इंडिया स्टीमशिप कम्पनी के हालात सुधारने का आग्रह किया। अशोक ने तीन साल के काण्ट्रेक्ट के दौरान न सिर्फ़ कम्पनी को घाटे से उबारा, बल्कि उसे लाभ की स्थिति में भी ला खड़ा किया। वो तीन साल जबीन ने कोलकाता में गुज़ारे और फिर पति और बेटे के साथ वापस मुम्बर्इ लौट आयीं। फ़िल्म ‘वचन’ के क़रीब 30 साल बाद 2004-05 में जबीन ने दूरदर्शन धारावाहिक ‘हवाएं’ में अभिनय किया।
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अब जबीन मुम्बर्इ के वर्ली इलाक़े में अपने पति और बेटे के साथ रहती हैं। उनकी बुज़ुर्ग सास भी उन्हीं के साथ रहती थीं जिनका 101 साल की उम्र में 24 जून 2013 को निधन हुआ।  जबीन के पति विक्रोली की एक कंपनी में सर्वोच्च पद पर हैं और बेटे दिविज काक ने अपनी मां के नक्शे कदम पर चलते हुए अभिनय को पेशे के तौर पर चुना है। ज़िंदगी के दस साल अमेरिका में गुज़ारने के बावजूद हिन्दी और उर्दू पर दिविज की पकड़ अचम्भित कर देने वाली है। साल 2005 में दिविज की बतौर हीरो पहली फ़िल्म ‘साथी’ रिलीज़ हुर्इ थी जिसके निर्देशक फ़ैज़ अनवर थे। दिविज की दूसरी फ़िल्म ‘पहली नज़र का प्यार’ रिलीज़ के लिए तैयार है। ‘जबीन इण्टरनेशनल’ के बैनर में बनी इस फ़िल्म से जबीन बतौर प्रोडयूसर एक बार फिर से हिन्दी सिनेमा के मैदान में उतरने जा रही हैं।
  
सरस्वती देवी ने अपने सहायकों को भी स्वतंत्र रूप से संगीत रचना के लिए प्रोत्साहित किया। फ़िल्म 'कंगन' के लिए उनके सहायक रह चुके रामचंद्र पाल ने संगीत तैयार किया। इस फ़िल्म के लिए गीत कवि प्रदीप ने लिखे। यह फ़िल्मों की दुनिया में उनकी शुरुआत थी। फ़िल्म के गीत संगीत खासे लोकप्रिय हुए। बाद की फ़िल्मों में सरस्वती देवी ने दूसरे संगीतकारों के साथ मिलकर संगीत देना शुरू कर दिया। दरअसल संगीत अब नए रंग में ढल रहा था और सरस्वती देवी उसके साथ चलने की भरसक कोशिश करते हुए भी पीछे छूट रही थी। बॉम्बे टॉकीज के लिए सरस्वती देवी ने करीब बीस फ़िल्में की थीं। उनके लिए सरस्वती देवी की अंतिम फ़िल्म [[1941]] की 'नया संसार' थी। अब तक की फ़िल्मों में एस.एन. त्रिपाठी उनके आर्केस्ट्रा का संचालन करते थे और बहुत अच्छी वॉयलिन बजाते थे। सरस्वती देवी के साथ ही उन्होंने भी बॉम्बे टॉकीज छोड़ दिया था और स्वतंत्र रूप से संगीतकार के रूप में काम करने लगे थे।
 
  
बॉम्बे टॉकीज छोडऩे के बाद सरस्वती देवी ने किसी अन्य स्टूडियो में नौकरी तो नहीं की लेकिन उनके लिए फ़िल्में जरूर कीं। मिनर्वा मूवीटोन के लिए उन्होंने छह फ़िल्में की थीं। कुछ फ़िल्मों में उन्होने अकेले ही संगीत दिया और कुछ में उनके साथ अन्य संगीतकार भी थे। [[1943]] में उन्होंने फ़िल्म ‘प्रार्थना’ में जानी मानी गायिका जहांआरा कज्जन के लिए संगीत तैयार किया, तो उसी साल मिनर्वा मूवीटोन की फ़िल्म ‘पृथ्वी वल्लभ’ में रफीक गजनवी के लिए गाने की धुन तैयार की। [[1945]] में उन्होंने फ़िल्म 'आम्रपाली' के लिए अकेले संगीत तैयार किया। इसमें अमीर बाई कर्नाटकी ने कुछ अच्छे गाने गाए। लेकिन अब साफ लगने लगा था कि वह समय से कहीं पिछड़ रही हैं। उनकी अंतिम लोकप्रिय फ़िल्म 'ऊषा हरण' (1949) थी, जिसमें 12 गाने थे। इसमें दो गाने [[लता मंगेशकर]] ने भी गाए थे। इसे दो पीढिय़ों के दो महानों का संगम भी मान सकते हैं। इसके बाद [[1950]] में उनकी फ़िल्म ‘बैचलर हस्बैंड’ आई थी। फिर पांच साल के बाद [[1955]] में फ़िल्म 'इनाम' के लिए उन्होंने एक गाने की धुन तैयार की थी। [[1961]] में उनकी आखिरी फ़िल्म थी, राजस्थानी की ‘बसरा री लाडी’। इसके बाद उन्होंने फ़िल्मों को अलविदा कहकर संगीत सिखाने का काम हाथ में ले लिया।
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जबीन कहती हैं, “कॅरियर के दौरान अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि, पालन-पोषण और संस्कारों की वजह से मैं हमेशा ख़ुद को इण्डस्ट्री के माहौल में अनुपयुक्त महसूस करती रही। लेकिन उस दौरान हुए अनुभवों का फ़ायदा मेरे बेटे को मिलेगा इसमें कोर्इ शक़ नहीं है। जहां तक सवाल है उस दौर की यादों का तो मेरे ज़हन में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे याद करके ख़ुशी मिले। और तकलीफ़देह बातों को भूल जाना ही बेहतर है”। लेकिन जबीन गुज़रे ज़माने की मशहूर अभिनेत्री शकीला के गुणगान करते नहीं थकतीं जिन्होंने जबीन को मुम्बर्इ में एक बार फिर से जड़ें जमाने में निस्वार्थ भाव से हर तरह से मदद की।
====प्रसिद्ध फ़िल्म====
 
सरस्वती देवी ने करीब 20 फ़िल्मों में संगीत दिया था। उन्होंने [[1936]] में पहली बार फ़िल्म 'जीवन नैया' संगीत दिया था। इसके अलावा 'अछूत कन्या', 'बंधन', 'नया संसार', 'प्रार्थना', 'भक्त रैदास', 'पृथ्वी वल्लभ', 'खानदानी', 'नकली हीरा', 'उषा हरण' जैसी फ़िल्मों में संगीत दिए। उन्होंने कुल तीस फ़िल्मों में काम किया और करीब डेढ़ सौ गीतों को अपने संगीत से संवारा।
 
==निधन==
 
सरस्वती देवी का निधन [[10 अगस्त]], [[1980]] को हो गया था।
 
{{सरस्वती देवी विषय सूची}}
 

Revision as of 13:36, 16 June 2017

jabin jalil (aangrezi: Jabeen Jalil, 1 aprail, 1937, dilli; mrityu: ) 1950 aur 1960 ke dashak ke hindi sinema ke premiyoan ke lie abhinetri jabin jalil ka nam kisi parichay ka mohataj nahian hai. qarib 20 sal ke apane kॅriyar ke dauran bhale hi jabin ne mahaz 24 hindi aur 4 panjabi filmoan mean kam kiya ho, lekin apani khoobasoorati aur dilakash abhinay ke dam par us jamane mean unhoanne lakhoan logoan ko apana divana banaya tha.


hindi sinema ka svarnakal kahalae jane vale us daur ki charchit abhinetri jabin ab ek bar phir se hindi sinema ke kshetr mean prodayoosar ke rup mean sakriy hurhi haian. jabin ka talluk bangal ke ek behad zahin aur padhe-likhe khanadan se raha hai. unake dada saiyad maulavi ahamad kolakata yoonivarsiti se grejueshan ki digri hasil karane vale pahale bangali muslim the to pita saiyad aboo ahamad jalil aangrezoan ke zamane ke arhi.si.es. afasar. jabin ki ammi dilara jalil bhi ek padhi-likhi aur muanshi fajil ki digri hasil kar chuki mahila thian jinaka talluq lahaur ke mashahoor fakir bradars ke khanadan se tha. ye tinoan bharhi saiyad fakir nooruddin, saiyad fakir sarhiduddin aur saiyad fakir azizuddin maharaja ranajit sianh ke behad vishvast mantriyoan mean se the. maharaja ranajit sianh ne hi in bharhiyoan ko fakir tarhitil se navaza tha aur inaka nam hindustan ke itihas mean bhi darj hai. lahaur ka mashahoor fakirakhana myooziyam bhi inhian tin bharhiyoan ke nam par hai. saiyad fakir azizuddin maharaja ranajit sianh ke darabar mean videsh mantri the. jabin ki ammi dilara begam inhian saiyad fakir azizuddin ki p dapoti thian.

parichay

jabin jalil ka janm 1 aprail, 1937 ko dilli mean hua tha, lekin vo sirf do mahine ki thian jab unake pita ka traansaphar hua aur vo mata-pita ke sath japan chali gayian. char sal japan mean guzarane ke bad unake pita kantrolar af teksatarhil banakar mumbarhi chale ae. jahaan nanachauk-mumbarhi sthit mashahoor kvin meri skool mean jabin ko dakhila dilaya gaya. skooli padharhi kvin meri se poori karane ke dauran jabin apane skool ki hedagarl bhi rahian. age ki padhaee ke lie unhoanne elfinstan k aaulej mean dakhila liya.

padhaee ke sath sath vah poore joshokharosh ke sath k aaulej ke saanskritik karyakramoan mean bhi hissa leti thi. k aaulej ke ek natak 'nek-paravin' mean vah aham rol nibha rahi thi, jisamean us zamane ke jane-mane nirmata nirdeshak es.em.yoosuf aur unaki patni nigar sultana jaj banakar ae the. unhean mera abhinay itana pasand aya ki yoosuf sahab ke hathoan mujhe sarvashreshth abhinetri ka puraskar to mila hi, unhoanne mujhe apani agali film mean hirorhin ka rol bhi aaufar kiya. filmoan se hamare parivar ka sirf itana sa rishta tha ki prodayoosar-dayarektar aur abhineta soharab modi mere pita ke achchhe dost the. mere pita sal 1949 mean hi guzar ge the. b di donoan bahanean shadi ke bad pakistan chali gayi thian. ghar mean sirf ammi, maian aur mera chhota bharhi the. yoosuf sahab ke is aaufar par mere lie khud korhi faisala le pana mumakin nahian tha isalie agale hi din vo mere ghar chale ae. unake samajhane par ammi ne tho di na-nukur ke bad akhirakar mujhe film mean kam karane ki ijazat de di”.

sal 1954 mean rilij hurhi ‘guzara’ jabin ki pahali film thi, jisamean unake hiro karan divan the. sangit gulam mohammad ka tha. film to jyada nahian chali lekin jabin apani taraf logoan ka dhyan akrisht karane mean zaroor kamayab rahian. sal 1955 mean unaki doosari film ‘lutera’ riliz hurhi jisamean unake hiro nasir khan the. lekin sahi mayanoan mean unhean pahachan mili apani tisari film ‘narhi dilli’ se jisamean unhoanne hiro kishor kumar ki bahan nikki ka rol kiya tha. 1956 mean riliz hurhi is film mean jabin ke hiro ki bhoomika abhinetri nalini jayavant ke pati prabhudayal ne ki thi. shankar-jayakishan ke sangit se saji, prodayoosar-dayarektar mohan sahagal ki ye film us daur ki saphalatam filmoan mean se thi.

film ‘narhi dilli’ ki saphalata ka jabin ko bharapoor phayada mila. 1950 ke dashak ke akhir mean unaki ‘charaminar’, ‘faishan’, ‘jivanasathi’, ‘hathak di’, ‘panchayat’, ‘ragini’, ‘bedard zamana kya jane’ aur ‘rat ke rahi’ jaisi filmean riliz hurhian. ‘tum aur ham’ (faishan), ‘madabhare ye pyar ki palakean’ (faishan), ‘ta thaiyya karate ana’ (panchayat), ‘is duniya se nirala hooan’ (ragini), ‘piya maian hooan patang too dor’ (ragini), ‘qaid mean hai bulabul sayyad muskurae’ (bedard zamana kya jane), ‘door kahian too chal’ (bedard zamana kya jane), ‘a bhi ja bevapha’ (rat ke rahi), ‘too kya samajhe too kya jane’ (rat ke rahi) aur ‘ek nazar ek ada’ (rat ke rahi) jaise un par filmae ge karhi git bhi us daur mean behad mashahoor hue the.

1960 ke dashak mean jabin ne ‘bantavara’, ‘khila di’, ‘sachche moti’, ‘tajamahal’ aur ‘rajoo’ jaisi kuchh filmoan mean kam kiya. film ‘tajamahal’ mean ladali bano ka unaka kiradar behad saraha gaya tha. film ‘bantavara’ ka javahar kaul aur jabin par pikchararhij hua git ‘ye rat ye phijaean phir aean ya n aean’ to aj bhi sangitapremiyoan ke bich utana hi lokapriy hai. usi dauran unhean sal 1962 mean bani panjabi film ‘chaudhari karanail sianh’ ke lie sarvashreshth abhinetri ka neshanal avard bhi mila jisamean unake hiro prem chop da the. ‘chaudhari karanail sianh’ prem chop da ki pahali film thi. isake bad jabin ne tin aur panjabi filmoan ‘kadi dhoop kadi chhaanv’, ‘ai dharati panjab di’ aur ‘git baharaan de’ mean kam kiya.

sal 1968 mean jabin ki shadi hurhi. jodhapur ke rahane vale kashmiri mool ke unake pati ashok kak kodak kampani ke president the aur us daur mean desh ke sabase kam umr ke si.rhi.o. the. pilani se em.bi.e. pas ashok bhi behad padhe-likhe khanadan se talluk rakhate the aur vo jabin ke chhote bharhi asajad jalil ke dost the. jabin kahati haian, ‘maian saiyad muslim thi aur ashok kashmiri pandit. lekin ham donoan hi ke parivaroan ka mahaul itana khula hua tha ki dharm kahian bhi hamari shadi mean a de nahian aya. shadi ke bad maianne apana poora dhyan grihasthi sambhalane mean laga diya. shadi ke bad maianne sirf ek film ki aur vo thi ‘vachan’ jo 1974 mean riliz hurhi thi.

filmoan se alag hone ke bad jabin samajik karyoan mean bhi vyast ho gayi thian. beta skool jane laga to unhoanne usake kaithedral skool ki pi.ti.e. ke cheyaraparsan ki kursi sambhal li. unaki donoan b di bahanean pakistan mean aur chhota bharhi amerika mean setal ho chuke the. bharat mean unaka korhi bhi rishtedar nahian tha isalie bete ki padhaee aur achchhe bhavishy ke lie jabin ne bhi amerika mean setal ho jana behatar samajha. pati aur bete ke sath shuru se hi unaka amerika jana-ana laga rahata tha isalie grin kard milane mean bhi korhi mushkil nahian hurhi. akhirakar sal 1989 mean vo parivar sahit amerika chali gayian.

jabin aur unake parivar ne qarib 10 sal amerika mean guzare. unaki sas aur maan donoan hi amerika mean unake sath rahati thian. jabin ki maan gujarian to beta divij jo apani nani ke behad qarib tha dipreshan mean chala gaya. natijan daktars ki salah par jabin ko sal 1998 mean vapas mumbarhi ana p da kyoanki daktaroan ka kahana tha ki jald rikavari ke lie divij ka vapas us mahaul mean jana zaruri tha jisamean usaka bachapan guzara tha. divij ko daktaroan ki is salah ka fayada bhi hua aur mumbarhi akar unaki tabiyat mean poori tarah se thik ho gayi.

ashok kak sal 2002 mean bharat laute. jane mane udhogapati ke.ke.bidala unaki prabandhan kshamata se pahale hi se parichit the isalie unhoanne ashok kak se apani sabase purani kampaniyoan mean se ek, kolakata sthit ghate mean chal rahi iandiya stimaship kampani ke halat sudharane ka agrah kiya. ashok ne tin sal ke kantrekt ke dauran n sirf kampani ko ghate se ubara, balki use labh ki sthiti mean bhi la kh da kiya. vo tin sal jabin ne kolakata mean guzare aur phir pati aur bete ke sath vapas mumbarhi laut ayian. film ‘vachan’ ke qarib 30 sal bad 2004-05 mean jabin ne dooradarshan dharavahik ‘havaean’ mean abhinay kiya.

ab jabin mumbarhi ke varli ilaqe mean apane pati aur bete ke sath rahati haian. unaki buzurg sas bhi unhian ke sath rahati thian jinaka 101 sal ki umr mean 24 joon 2013 ko nidhan hua. jabin ke pati vikroli ki ek kanpani mean sarvochch pad par haian aur bete divij kak ne apani maan ke nakshe kadam par chalate hue abhinay ko peshe ke taur par chuna hai. ziandagi ke das sal amerika mean guzarane ke bavajood hindi aur urdoo par divij ki pak d achambhit kar dene vali hai. sal 2005 mean divij ki bataur hiro pahali film ‘sathi’ riliz hurhi thi jisake nirdeshak faiz anavar the. divij ki doosari film ‘pahali nazar ka pyar’ riliz ke lie taiyar hai. ‘jabin intaraneshanal’ ke bainar mean bani is film se jabin bataur prodayoosar ek bar phir se hindi sinema ke maidan mean utarane ja rahi haian.


jabin kahati haian, “kॅriyar ke dauran apani parivarik prishthabhoomi, palan-poshan aur sanskaroan ki vajah se maian hamesha khud ko indastri ke mahaul mean anupayukt mahasoos karati rahi. lekin us dauran hue anubhavoan ka fayada mere bete ko milega isamean korhi shaq nahian hai. jahaan tak saval hai us daur ki yadoan ka to mere zahan mean aisa kuchh bhi nahian hai jise yad karake khushi mile. aur takalifadeh batoan ko bhool jana hi behatar hai”. lekin jabin guzare zamane ki mashahoor abhinetri shakila ke gunagan karate nahian thakatian jinhoanne jabin ko mumbarhi mean ek bar phir se j dean jamane mean nisvarth bhav se har tarah se madad ki.