भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-144: Difference between revisions

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<poem style="text-align:center">(27.10)  मामेकमेव शरणं आत्मानं सर्व-देहिनाम् ।
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याहि सर्वात्म-भावेन मया स्या ह्यकुतोभयः ।।<ref>11.12.15</ref></poem>
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मामेकमेव शरणं आत्मानं याहि – सब प्राणियों के आत्मा मात्र मुझ भगवान् की शरण जा। पूरे भक्तिभाव से उनकी शरण में जा – सर्वात्मभावेन। तो, तू मेरे बल पर निर्भय हो जायेगा। तुझे किसी प्रकार का डर नहीं रहेगा। भगवान् की भक्ति निर्भय बनाती है – अकुतोभयः। ‘कुरान शरीफ’ में कहा है : ला खौफुन अलैहिम व ला हुम यह् जनून – जो परमात्मा के मित्र हैं, उनको न भय है, न शोक। यही गीता में कहा है : मामेकं शरणं व्रज। इसीलिए असम प्रदेश में ‘शरण’ शब्द चलता है - ‘एक शरण’ धर्म है। कन्नड़ में बसवेश्वर के वचनों में भी यह शब्द मिलता है। ‘इस्लाम’ का एक अर्थ ‘शरण जाना’ भी है। उनका दूसरा अर्थ है ‘शान्ति’। ‘एक शरण’ की बात इसलिए चली कि भगवान् बुद्ध ने ‘तीन शरण’ कहे थे : ‘धम्मं शरणं गच्छामि, बुद्धं शरणं गच्छाणि, संघं शरणं गच्छामि।’ पर यहाँ मामेकमेव शरणम् कहा है। महाराष्ट्र के एकनाथ महाराज ने पूरी भागवत पर नहीं, केवल एकादश स्कंध पर ही भाष्य लिखा है। आपने भाष्य में उन्होंने कहा है, सारा भागवत एक बाजू रख दें और केवल दो ही श्लोक ले लें, तो काफी हैं। एक तो यही श्लोक<ref>11.12.15</ref> और दूसरा चौदहवें अध्याय का चौथा <ref>निरपेक्षं मुनि, शान्तं निर्वैरं समदर्शनम् ।अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यंघ्रि-रेणुभिः ।।</ref> श्लोक, ये दो श्लोक उन्होंने महत्व के माने हैं। उस दूसरे श्लोक में विशेष बात यही कही है कि भगवान् भक्त के पीछे-पीछे चलते हैं कि भक्तों की पद-धूलि से पवित्र हो जाऊँ। इस खयाल से यह तो अतिशयोक्ति की हद है। लेकिन ये दो श्लोक एकनाथ महाराज ने महत्वपूर्ण माने हैं। ध्यान देने की बात है कि भगवान् ने गीता में सर्वधर्मान् परित्यज्य कहकर समाप्त कर दिया, पर भागवत के इस श्लोक में उन्होंने उद्धव को क्या-क्या छोड़ना, यह विस्तार से बताया है।
मामेकमेव शरणं आत्मानं याहि – सब प्राणियों के आत्मा मात्र मुझ भगवान् की शरण जा। पूरे भक्तिभाव से उनकी शरण में जा – सर्वात्मभावेन। तो, तू मेरे बल पर निर्भय हो जायेगा। तुझे किसी प्रकार का डर नहीं रहेगा। भगवान् की भक्ति निर्भय बनाती है – अकुतोभयः। ‘क़ुरआन शरीफ’ में कहा है : ला खौफुन अलैहिम व ला हुम यह् जनून – जो परमात्मा के मित्र हैं, उनको न भय है, न शोक। यही गीता में कहा है : मामेकं शरणं व्रज। इसीलिए असम प्रदेश में ‘शरण’ शब्द चलता है - ‘एक शरण’ धर्म है। कन्नड़ में बसवेश्वर के वचनों में भी यह शब्द मिलता है। ‘इस्लाम’ का एक अर्थ ‘शरण जाना’ भी है। उनका दूसरा अर्थ है ‘शान्ति’। ‘एक शरण’ की बात इसलिए चली कि भगवान् बुद्ध ने ‘तीन शरण’ कहे थे : ‘धम्मं शरणं गच्छामि, बुद्धं शरणं गच्छाणि, संघं शरणं गच्छामि।’ पर यहाँ मामेकमेव शरणम् कहा है। महाराष्ट्र के एकनाथ महाराज ने पूरी भागवत पर नहीं, केवल एकादश स्कंध पर ही भाष्य लिखा है। आपने भाष्य में उन्होंने कहा है, सारा भागवत एक बाजू रख दें और केवल दो ही श्लोक ले लें, तो काफी हैं। एक तो यही श्लोक<ref>11.12.15</ref> और दूसरा चौदहवें अध्याय का चौथा <ref>निरपेक्षं मुनि, शान्तं निर्वैरं समदर्शनम् ।अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यंघ्रि-रेणुभिः ।।</ref> श्लोक, ये दो श्लोक उन्होंने महत्व के माने हैं। उस दूसरे श्लोक में विशेष बात यही कही है कि भगवान् भक्त के पीछे-पीछे चलते हैं कि भक्तों की पद-धूलि से पवित्र हो जाऊँ। इस खयाल से यह तो अतिशयोक्ति की हद है। लेकिन ये दो श्लोक एकनाथ महाराज ने महत्वपूर्ण माने हैं। ध्यान देने की बात है कि भगवान् ने गीता में सर्वधर्मान् परित्यज्य कहकर समाप्त कर दिया, पर भागवत के इस श्लोक में उन्होंने उद्धव को क्या-क्या छोड़ना, यह विस्तार से बताया है।


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Revision as of 10:33, 5 July 2017

भागवत धर्म मिमांसा

10. पूजा

(27.9) तस्मात् त्वमुद्धवोत्सृज्य चोतनां प्रतिचोदनाम् ।
प्रवृतं च निवृतं च श्रोतव्यं श्रुतमेव च ।।[1]

यहाँ भगवान् साक्षात् आदेश दे रहे हैं। उपदेश और आदेश, दो प्रकार हैं। उपदेश सर्वसामान्य के लिए होता है, सबके लिए कहा जाता है। आदेश यानी आज्ञा, किसी खास व्यक्ति को दी जाती है। यहाँ उद्धव को आदेश दिया है। हे उद्धव! तू सब छोड़ दे। क्या छोड़ना है? चोदनाम् – आज्ञा या विधि। प्रतिचोदनाम् – निषेध। प्रवृत्ति भी छोड़ दे और निवृत्ति भी छोड़ दे। छोड़ने के लिए और क्या कहा? तू जो कुछ सुन चुका है, वह भी छोड़ दे और सुनने योग्य भी छोड़ दे – श्रोतव्यं श्रुतमेव च। मतलब, सुनने लायक छोड़ दे और सुना हुआ भी छोड़ दे। सब छोड़कर, -

(27.10) मामेकमेव शरणं आत्मानं सर्व-देहिनाम् ।
याहि सर्वात्म-भावेन मया स्या ह्यकुतोभयः ।।[2]

मामेकमेव शरणं आत्मानं याहि – सब प्राणियों के आत्मा मात्र मुझ भगवान् की शरण जा। पूरे भक्तिभाव से उनकी शरण में जा – सर्वात्मभावेन। तो, तू मेरे बल पर निर्भय हो जायेगा। तुझे किसी प्रकार का डर नहीं रहेगा। भगवान् की भक्ति निर्भय बनाती है – अकुतोभयः। ‘क़ुरआन शरीफ’ में कहा है : ला खौफुन अलैहिम व ला हुम यह् जनून – जो परमात्मा के मित्र हैं, उनको न भय है, न शोक। यही गीता में कहा है : मामेकं शरणं व्रज। इसीलिए असम प्रदेश में ‘शरण’ शब्द चलता है - ‘एक शरण’ धर्म है। कन्नड़ में बसवेश्वर के वचनों में भी यह शब्द मिलता है। ‘इस्लाम’ का एक अर्थ ‘शरण जाना’ भी है। उनका दूसरा अर्थ है ‘शान्ति’। ‘एक शरण’ की बात इसलिए चली कि भगवान् बुद्ध ने ‘तीन शरण’ कहे थे : ‘धम्मं शरणं गच्छामि, बुद्धं शरणं गच्छाणि, संघं शरणं गच्छामि।’ पर यहाँ मामेकमेव शरणम् कहा है। महाराष्ट्र के एकनाथ महाराज ने पूरी भागवत पर नहीं, केवल एकादश स्कंध पर ही भाष्य लिखा है। आपने भाष्य में उन्होंने कहा है, सारा भागवत एक बाजू रख दें और केवल दो ही श्लोक ले लें, तो काफी हैं। एक तो यही श्लोक[3] और दूसरा चौदहवें अध्याय का चौथा [4] श्लोक, ये दो श्लोक उन्होंने महत्व के माने हैं। उस दूसरे श्लोक में विशेष बात यही कही है कि भगवान् भक्त के पीछे-पीछे चलते हैं कि भक्तों की पद-धूलि से पवित्र हो जाऊँ। इस खयाल से यह तो अतिशयोक्ति की हद है। लेकिन ये दो श्लोक एकनाथ महाराज ने महत्वपूर्ण माने हैं। ध्यान देने की बात है कि भगवान् ने गीता में सर्वधर्मान् परित्यज्य कहकर समाप्त कर दिया, पर भागवत के इस श्लोक में उन्होंने उद्धव को क्या-क्या छोड़ना, यह विस्तार से बताया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 11.12.14
  2. 11.12.15
  3. 11.12.15
  4. निरपेक्षं मुनि, शान्तं निर्वैरं समदर्शनम् ।अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यंघ्रि-रेणुभिः ।।

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