भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-131: Difference between revisions

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‘जिसमें भगवान्-रूपी मिश्रण है, ऐसा जो भी अन्न हम लेते हैं, उसमें स्वाद आ जाता है।’ इसीलिए यहाँ भगवान् कहते हैं कि जो भी शब्द है, वे सारे मेरे ही नाम हैं। भगवान् कहते हैं कि वेद यदि विधान करता है, तो मेरा ही करता है : मां विधत्ते। यहाँ ‘विधान’ का विशेष अर्थ है। वेद में जो आज्ञाएँ आती हैं, जो करने की बात कही गयी है, उसे ‘विधान’ कहते हैं। भगवान् कहते हैं कि ‘वेद जो कर्म करने के लिए कहता है, वह मेरी ही उपासना के लिए कहता है।’ वैसे कर्म अनेक होते हैं। एक ही कर्म से भगवान् की उपासना होती है, ऐसा नहीं। भगवान् कहते हैं कि वे सारे भिन्न-भिन्न कर्म मेरे लिए ही करने हैं।
‘जिसमें भगवान्-रूपी मिश्रण है, ऐसा जो भी अन्न हम लेते हैं, उसमें स्वाद आ जाता है।’ इसीलिए यहाँ भगवान् कहते हैं कि जो भी शब्द है, वे सारे मेरे ही नाम हैं। भगवान् कहते हैं कि वेद यदि विधान करता है, तो मेरा ही करता है : मां विधत्ते। यहाँ ‘विधान’ का विशेष अर्थ है। वेद में जो आज्ञाएँ आती हैं, जो करने की बात कही गयी है, उसे ‘विधान’ कहते हैं। भगवान् कहते हैं कि ‘वेद जो कर्म करने के लिए कहता है, वह मेरी ही उपासना के लिए कहता है।’ वैसे कर्म अनेक होते हैं। एक ही कर्म से भगवान् की उपासना होती है, ऐसा नहीं। भगवान् कहते हैं कि वे सारे भिन्न-भिन्न कर्म मेरे लिए ही करने हैं।


अभिधत्ते – अभिधान यानी देवताओं के नाम। अग्नि, वायु, इन्द्र, सोम, आदित्य, सविता, इस तरह सौ-सवा सौ देवताओं के नाम वेद में आये हैं। लेकिन भगवान् कह रहे हैं कि वे सारे मेरे ही नाम हैं। ये सारे देवता गुणांश हैं। एक-एक गुण को लेकर एक-एक देवता बना है। वैराग्य का देवता अग्नि है। इन्द्र यानी दर्शन-शक्ति। वरुण यानी संयम की शक्ति। सविता यानी प्रेरक शक्ति। इस तरह एक-एक देवता में एक-एक गुण का दर्शन होता है। मनुष्यों के अनेक नाम रखे जाते हैं, लेकिन वे भी भगवान् के ही नाम हैं। ‘क़ुरआन’ में भी भगवान् के अनेक नाम आये हैं। लेकिन उससे गलतफहमी नहीं होती, क्योंकि वहाँ स्पष्ट कहा गया है कि ‘अल्लाह के सिवा और देवता नहीं है।’ उनके गुण अनेक हैं। ‘रहमान’ यानी दयालु। ‘करीम’ यानी उदार। ‘अकबर’ यानी बड़ा। एक ही अल्लाह के ये अनेक रमणीय नाम हैं। एक बार मुहम्मद पैगम्बर से पूछा गया : ‘आप कभी अल्लाह कहते हैं कभी रहमान कहते हैं, इसका मतलब क्या है?’ उन्होंने जवाब दिया : ‘जो अल्लाह है, वही रहमान है और जो रहमान है, वही अल्लाह है।’ वैसे ही, भगवान् यहाँ कहना चाहते हैं कि जो इन्द्र है वही चन्द्र है, जो चन्द्र है वही वायु है। इसलिए यद्यपि वेद में अनेक देवताओं के नाम आते हैं, फिर भी उनसे गलतफहमी नहीं होनी चाहिए, क्योंकि वे भगवान् के ही नाम हैं। कुल-के-कुल वेद का इतना ही अर्थ है कि वह खुद ही विकल्प खड़े करता और फिर उनका निरसन कर देता है। उपासना के लिए उन्हें खड़ा करता और फिर कहता है कि उनका निरसन करो। बचपन में हमें एक बात से बड़ा दुःख होता था। हमारे दादाजी गणेशजी की मूर्ति बनाते थे। वह मूर्ति चन्दन की होती थी। मैं छोटा बच्चा था, तो चन्दन घिसने के लिए मुझे ही कहा जाता था। काफी चन्दन घिसना पड़ता, तब उस चन्दन की मूर्ति बनती। फिर चौदह दिन उसकी पूजा ह ती और आखिर में उसका विसर्जन हो जाता था। हमें इससे बड़ा दुःख होता था। इतना चन्दन घिसकर मूर्ति बनायी, चौदह दिन उसकी पूजा-उपासना की और अन्त में उसे डुबो दिया। इसे ‘आवाहन-विसर्जन’ कहते हैं। पर समझने की बात है कि यदि ऐसा न करें, तो मूर्ति ही भगवान् बन जाए और भगवान् का मूल स्वरूप भुला जाए।  
अभिधत्ते – अभिधान यानी देवताओं के नाम। अग्नि, वायु, इन्द्र, सोम, आदित्य, सविता, इस तरह सौ-सवा सौ देवताओं के नाम वेद में आये हैं। लेकिन भगवान् कह रहे हैं कि वे सारे मेरे ही नाम हैं। ये सारे देवता गुणांश हैं। एक-एक गुण को लेकर एक-एक देवता बना है। वैराग्य का देवता अग्नि है। इन्द्र यानी दर्शन-शक्ति। वरुण यानी संयम की शक्ति। सविता यानी प्रेरक शक्ति। इस तरह एक-एक देवता में एक-एक गुण का दर्शन होता है। मनुष्यों के अनेक नाम रखे जाते हैं, लेकिन वे भी भगवान् के ही नाम हैं। ‘क़ुरआन’ में भी भगवान् के अनेक नाम आये हैं। लेकिन उससे गलतफहमी नहीं होती, क्योंकि वहाँ स्पष्ट कहा गया है कि ‘अल्लाह के सिवा और देवता नहीं है।’ उनके गुण अनेक हैं। ‘रहमान’ यानी दयालु। ‘करीम’ यानी उदार। ‘अकबर’ यानी बड़ा। एक ही अल्लाह के ये अनेक रमणीय नाम हैं। एक बार मुहम्मद पैगम्बर से पूछा गया : ‘आप कभी अल्लाह कहते हैं कभी रहमान कहते हैं, इसका मतलब क्या है?’ उन्होंने जवाब दिया : ‘जो अल्लाह है, वही रहमान है और जो रहमान है, वही अल्लाह है।’ वैसे ही, भगवान् यहाँ कहना चाहते हैं कि जो इन्द्र है वही चन्द्र है, जो चन्द्र है वही वायु है। इसलिए यद्यपि वेद में अनेक देवताओं के नाम आते हैं, फिर भी उनसे गलतफहमी नहीं होनी चाहिए, क्योंकि वे भगवान् के ही नाम हैं। कुल-के-कुल वेद का इतना ही अर्थ है कि वह खुद ही विकल्प खड़े करता और फिर उनका निरसन कर देता है। उपासना के लिए उन्हें खड़ा करता और फिर कहता है कि उनका निरसन करो। बचपन में हमें एक बात से बड़ा दुःख होता था। हमारे दादाजी गणेशजी की मूर्ति बनाते थे। वह मूर्ति चन्दन की होती थी। मैं छोटा बच्चा था, तो चन्दन घिसने के लिए मुझे ही कहा जाता था। काफ़ी चन्दन घिसना पड़ता, तब उस चन्दन की मूर्ति बनती। फिर चौदह दिन उसकी पूजा ह ती और आखिर में उसका विसर्जन हो जाता था। हमें इससे बड़ा दुःख होता था। इतना चन्दन घिसकर मूर्ति बनायी, चौदह दिन उसकी पूजा-उपासना की और अन्त में उसे डुबो दिया। इसे ‘आवाहन-विसर्जन’ कहते हैं। पर समझने की बात है कि यदि ऐसा न करें, तो मूर्ति ही भगवान् बन जाए और भगवान् का मूल स्वरूप भुला जाए।  


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Latest revision as of 11:01, 5 July 2017

भागवत धर्म मिमांसा

7. वेद-तात्पर्य

(21.5) मां विदत्तेऽभिधत्ते मां विकल्प्यापोह्यते त्वहम् ।
एतावान् सर्ववेदार्थः शब्द आस्थाय मां भिदाम् ।
मायामात्रं अनूधात्ते प्रतिषिद्ध्य प्रशाम्यति ।।[1]

जितने भी शब्द हैं, उनका अन्तिम अर्थ भगवान् ही है। लोक अलग-अलग तरह से भगवान् की प्रार्थना करते हैं। कोई कहता है, ‘तू घर है।’ वे में तो आया है कि ‘भगवान्, तू मेरी रजाई है। जीर्ण मनुष्य के लिए जैसे वस्त्र प्रिय होता है, वैसा ही तू मेरे लिए प्रिय है।’ कोई कहता है : ‘हे भगवन्! तू मेरा जीवन है। मैं प्यासा हूँ, तो मेरे लिए तू पानी बन गया!’ मतलब यह कि जितने भी शब्द हैं, अन्त में वे भगवान् के ही अर्थ में हैं। गरमी के दिनों में आप कह सकते हैं कि ‘भगवन्! तू मेरा पंखा है।’ ऐसा कौन-सा शब्द है, जो भगवान् को लागू नहीं होगा? इसीलिए वैदिक-पद्धति में कहा गया है कि कुल शब्द भगवद्-वाचक हैं। हरएक शब्द परमात्म-वाचक है। यानी वह परमात्मा की एक लंबी मालिका है। हरएक शब्द का अपना गौण अर्थ तो है ही। लेकिन वेदों को तो भगवान् के मनन के सिवा दूसरी कोई रुचि (इंटरेस्ट) ही नहीं – सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति। तुकाराम महाराज कहते हैं :

तुका म्हणे चवी आले। जें का मिश्रिले विट्ठले ।।

‘जिसमें भगवान्-रूपी मिश्रण है, ऐसा जो भी अन्न हम लेते हैं, उसमें स्वाद आ जाता है।’ इसीलिए यहाँ भगवान् कहते हैं कि जो भी शब्द है, वे सारे मेरे ही नाम हैं। भगवान् कहते हैं कि वेद यदि विधान करता है, तो मेरा ही करता है : मां विधत्ते। यहाँ ‘विधान’ का विशेष अर्थ है। वेद में जो आज्ञाएँ आती हैं, जो करने की बात कही गयी है, उसे ‘विधान’ कहते हैं। भगवान् कहते हैं कि ‘वेद जो कर्म करने के लिए कहता है, वह मेरी ही उपासना के लिए कहता है।’ वैसे कर्म अनेक होते हैं। एक ही कर्म से भगवान् की उपासना होती है, ऐसा नहीं। भगवान् कहते हैं कि वे सारे भिन्न-भिन्न कर्म मेरे लिए ही करने हैं।

अभिधत्ते – अभिधान यानी देवताओं के नाम। अग्नि, वायु, इन्द्र, सोम, आदित्य, सविता, इस तरह सौ-सवा सौ देवताओं के नाम वेद में आये हैं। लेकिन भगवान् कह रहे हैं कि वे सारे मेरे ही नाम हैं। ये सारे देवता गुणांश हैं। एक-एक गुण को लेकर एक-एक देवता बना है। वैराग्य का देवता अग्नि है। इन्द्र यानी दर्शन-शक्ति। वरुण यानी संयम की शक्ति। सविता यानी प्रेरक शक्ति। इस तरह एक-एक देवता में एक-एक गुण का दर्शन होता है। मनुष्यों के अनेक नाम रखे जाते हैं, लेकिन वे भी भगवान् के ही नाम हैं। ‘क़ुरआन’ में भी भगवान् के अनेक नाम आये हैं। लेकिन उससे गलतफहमी नहीं होती, क्योंकि वहाँ स्पष्ट कहा गया है कि ‘अल्लाह के सिवा और देवता नहीं है।’ उनके गुण अनेक हैं। ‘रहमान’ यानी दयालु। ‘करीम’ यानी उदार। ‘अकबर’ यानी बड़ा। एक ही अल्लाह के ये अनेक रमणीय नाम हैं। एक बार मुहम्मद पैगम्बर से पूछा गया : ‘आप कभी अल्लाह कहते हैं कभी रहमान कहते हैं, इसका मतलब क्या है?’ उन्होंने जवाब दिया : ‘जो अल्लाह है, वही रहमान है और जो रहमान है, वही अल्लाह है।’ वैसे ही, भगवान् यहाँ कहना चाहते हैं कि जो इन्द्र है वही चन्द्र है, जो चन्द्र है वही वायु है। इसलिए यद्यपि वेद में अनेक देवताओं के नाम आते हैं, फिर भी उनसे गलतफहमी नहीं होनी चाहिए, क्योंकि वे भगवान् के ही नाम हैं। कुल-के-कुल वेद का इतना ही अर्थ है कि वह खुद ही विकल्प खड़े करता और फिर उनका निरसन कर देता है। उपासना के लिए उन्हें खड़ा करता और फिर कहता है कि उनका निरसन करो। बचपन में हमें एक बात से बड़ा दुःख होता था। हमारे दादाजी गणेशजी की मूर्ति बनाते थे। वह मूर्ति चन्दन की होती थी। मैं छोटा बच्चा था, तो चन्दन घिसने के लिए मुझे ही कहा जाता था। काफ़ी चन्दन घिसना पड़ता, तब उस चन्दन की मूर्ति बनती। फिर चौदह दिन उसकी पूजा ह ती और आखिर में उसका विसर्जन हो जाता था। हमें इससे बड़ा दुःख होता था। इतना चन्दन घिसकर मूर्ति बनायी, चौदह दिन उसकी पूजा-उपासना की और अन्त में उसे डुबो दिया। इसे ‘आवाहन-विसर्जन’ कहते हैं। पर समझने की बात है कि यदि ऐसा न करें, तो मूर्ति ही भगवान् बन जाए और भगवान् का मूल स्वरूप भुला जाए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 11.21.43

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